अष्टावक्र (महाकाव्य)

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अष्टावक्र महाकाव्य  
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अष्टावक्र महाकाव्य (प्रथम संस्करण) का आवरण पृष्ठ
लेखक जगद्गुरु रामभद्राचार्य
मूल शीर्षक अष्टावक्र महाकाव्य
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार महाकाव्य
प्रकाशक जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय
प्रकाशन तिथि जनवरी १४, २०१०
मीडिया प्रकार मुद्रित (सजिल्द)
पृष्ठ २२३ पृष्ठ (प्रथम संस्करण)

अष्टावक्र (२०१०) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) द्वारा २००९ में रचित एक हिन्दी महाकाव्य है। इस महाकाव्य में १०८-१०८ पदों के आठ सर्ग हैं और इस प्रकार कुल ८६४ पद हैं। महाकाव्य ऋषि अष्टावक्र की कथा प्रस्तुत करता है, जो कि रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रंथों में उपलब्ध है। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। पुस्तक का विमोचन जनवरी १४, २०१० को कवि के षष्टिपूर्ति महोत्सव के दिन किया गया।[1]

इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठों अंगों से विकलांग हैं। महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि की संपूर्ण जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है जोकि संकट से प्रारम्भ होकर सफलता से होते हुए उनके उद्धार तक जाती है। महाकवि, जो स्वयं दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु हैं, के अनुसार इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौम समस्याओं के समाधानात्मक सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। उनके अनुसार महाकाव्य के आठ सर्ग विकलांगों की आठ मनोवृत्तियों के विश्लेषण मात्र हैं।[2]

कथावस्तु[संपादित करें]

महाकाव्य में अष्टावक्र के जीवन की कथा वर्णित है, जिसका आधार वाल्मीकि रामायण का युद्धकाण्ड, महाभारत का वन पर्व, अष्टावक्र गीता एवं भवभूति द्वारा रचित उत्तररामचरितम् नाटक है। छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित ऋषि उद्दालक के कहोल नामक एक शिष्य हैं। उद्दालक कहोल को अपनी पुत्री सुजाता विवाह में अर्पित करते हैं और नवविवाहित दम्पती एक जंगल के आश्रम में जीवन-यापन प्रारम्भ करते हैं। कुछ वर्षों के उपरान्त सुजाता गर्भवती हो जाती है। गर्भस्थ बालक एक बार रात्रि में अपने पिता ऋषि कहोल से कहता है कि उच्चारण करते समय प्रत्येक वैदिक मन्त्र में आठ अशुद्धियाँ कर रहे हैं। क्रुद्ध कहोल बालक को आठ अंगों (दोनों पैर, घुटने, हाथ और छाती एवं सिर) से विकलांग होने का घोर शाप दे देते हैं।

इसी मध्य जंगल में अकाल पड़ जाता है और सुजाता अपने पति कहोल को कुछ धनार्जन करने के लिए मिथिला में राजा जनक के समीप भेजती हैं। जनक का बन्दी नामक एक दरबारी कहोल को शास्त्रार्थ में पराजित कर देता है और वरुणपाश के द्वारा ऋषि को जल में डुबो देता है। उद्दालक सुजाता को उसके पति की दुर्दशा से अवगत कराते हुए इस घटना को बालक से गुप्त रखने को कहते हैं।

उद्दालक सुजाता द्वारा प्रसूत शिशु का नाम अष्टावक्र रखते हैं। उसी समय, उद्दालक के भी एक पुत्र का जन्म होता है, जिसका नाम श्वेतकेतु रखा जाता है। अष्टावक्र और श्वेतकेतु भाइयों की तरह बड़े होते हैं और उद्दालक से धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। अष्टावक्र उद्दालक को अपना पिता एवं श्वेतकेतु को अपना भाई समझता है। किन्तु दस वर्ष की आयु में अपने पिता के बन्दी के बन्धन में होने का ज्ञान होने पर, वे अपने पिता को मुक्त कराने के लिए मिथिला जाने का निश्चय करते हैं। अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के सहित मिथिला की यात्रा करते हैं और क्रमशः द्वारपाल, राजा जनक और बन्दी को शास्त्रार्थ में हराकर अपने पिता कहोल को वरुणपाश से मुक्त कराते हैं।

घर लौटते समय मार्ग में महर्षि कहोल अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान कराते हैं और अपने तपोबल से उन्हें उनके शरीर की आठों विकलांगताओं से मुक्त करा देते हैं। अन्त में, वशिष्ठ मुनि की प्रेरणा पर अष्टावक्र सीता एवं राम जी के राजदरबार में पधारते हैं और अयोध्या की राजसभा में सम्मानित किए जाने पर आनन्द का अनुभव करते हैं।

आठ सर्ग[संपादित करें]

पटना में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में चित्रित अष्टावक्र का चित्र

आठों सर्गों की कथा संक्षेप में नीचे प्रस्तुत है-

  1. सम्भव: ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का आह्वान करने के पश्चात् कवि महाकाव्य के प्रतिपाद्य के रूप में अष्टावक्र का परिचय देते हैं, जो आगे चलकर विकलांग जनों के पुरोधा एवं ध्वजावाहक बने। ऋषि उद्दालक अपनी पत्नी एवं दस सहस्र शिष्यों के साथ एक गुरुकुल में निवास करते हैं। ऋषि दम्पती के यहाँ सुजाता नाम की एक कन्या हैं, जो शिष्यों के साथ वेदों का अध्ययन करती हुई बड़ी होती हैं। उद्दालक के कहोल नामक एक प्रसिद्ध शिष्य हैं। विद्या समाप्ति के उपरान्त, उद्दालक कहोल को अपने उपयुक्त किसी ब्राह्मण कन्या से विवाह कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का आदेश देते हैं। कहोल सुजाता को अपनी जीवनसंगिनी बनाने को इच्छुक हैं किन्तु सकुचाते हैं कि गुरुपुत्री से विवाह करना समीचीन होगा कि नहीं। उद्दालक कहोल की मनोभावना को समझ जाते हैं और प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री सुजाता कहोल को विवाह में प्रदान कर देते हैं। उद्दालक भविष्यवाणी करते हुए कहते हैं कि सुजाता एक ऐसे पुत्र को जन्म देगी, जो आगे चलकर विकलांगों के लिए प्रेरणास्रोत की भूमिका निभाएगा। विवाह के पश्चात्, नवदम्पती अपने आश्रम के लिए एक निर्जन जंगल का चयन करते हैं, जहाँ कहोल शिष्यों को विद्याध्ययन कराना प्रारम्भ कर देते हैं। सुजाता सूर्य भगवान की उपासना करती है और एक ऐसे पुत्र की अभिलाषा करती है, जिसका जीवन विकलांगजनों की समस्त समस्याओं हेतु समाधान प्रस्तुत करे। सूर्यदेव उसकी अभिलाषा स्वीकार करते हैं। सर्ग का समापन सुजाता द्वारा गर्भ धारण करने और दम्पती द्वारा आनन्दित होने की घटनाओं के साथ होता है।
  2. संक्रान्ति: सर्ग के प्रथम २७ पद्यों (एक चौथाई भाग) में महाकवि क्रान्ति की सम्यक् अवधारणा “संक्रान्ति” का शंखनाद करते हुए उसे व्याख्यायित करते हैं। उनके अनुसार सम्यक् क्रान्ति रक्त बहाने से नहीं, अपितु विचारों के परिवर्तन से संभव है। किन्तु लोगों के लिए इस प्रकार की क्रान्ति कठिन हैं क्योंकि उनका अहं उन्हें इसके लिए अनुमति प्रदान नहीं करता। इसके पश्चात् कथाक्रम अग्रसर होता है। सुजाता के पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन संस्कार सम्पन्न हो जाने के पश्चात, एक दिन कहोल आगामी दिन शिष्यों को पढ़ाने के लिए अपने ज्ञान की प्रवीणता हेतु देर रात्रि तक वेदों का उच्चारण करते हैं। श्रान्ति और चार दोषों – भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा एवं करणापाटव – के कारण कहोल वेद उच्चारण करते समय आठ प्रकार की – जटा, रेखा, माला, शिखा, रथ, ध्वजा, दण्ड एवं घन पाठ संबन्धी – अशुद्धियाँ करना प्रारम्भ करते हैं। सुजाता का गर्भस्थ शिशु कुछ समय तो इसके सम्बन्ध में विचार करता रहता है और फिर यह जानकर कि ऋषि प्रत्येक मन्त्र के उच्चारण में आठ प्रकार की अशुद्धियाँ कर रहे हैं, क्षुब्ध होकर अपने पिता से मन्त्रों का शुद्ध अभ्यास करने और अध्यापन न करने को कहता है। कहोल यह सुनकर चकित रह जाते हैं और यह कहते हुए कि वह परम्परा के अनुसार ही उच्चारण कर रहे हैं और विस्मृति जीव के लिए स्वाभाविक है, गर्भस्थ शिशु से शान्त रहने के लिए कहते हैं। किन्तु शिशु प्रत्युत्तर देते हुए पिता से रुढ़ियों का पुरातन शव फेंकने को कहता है और उनसे पुनः एक बार और उद्दालक से वेदों का अध्ययन करने की विनती करता है। कुपित कहोल शिशु को आठ वक्र (टेढ़े) अंगों के साथ उत्पन्न होने का शाप दे देते हैं। किन्तु तुरन्त इसके पश्चात् कहोल को पश्चाताप का अनुभव होता है। परन्तु शिशु अष्टावक्र शाप को सहर्ष स्वीकार करते हुए अपने पिता से इस सम्बन्ध में पश्चाताप न करने का अनुरोध करता है।
  3. समस्या: यह सर्ग अपनी माता के उदर में स्थित शिशु अष्टावक्र के स्वगतकथन के माध्यम से उनकी समस्या का वर्णन करता है। सर्ग करुण रस, वीर रस एवं आशावाद से परिपूर्ण है। प्रथम ३० पद्यों में सार्वभौमिक एवं अत्यधिक सशक्त समस्या के लिए विभिन्न रूपक चित्रित किए गए हैं। भगवान पर अगाध विश्वास एवं संकल्पयुक्त कार्य किसी समस्या से मुक्ति प्राप्त करने के सर्वोत्तम उपाय हैं और अष्टावक्र दृढ़निश्चयी हैं कि वे अपने संकट से मुक्ति पाकर ही रहेंगे। कवि के विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार आत्मा के आदि एवं अन्त और जन्म एवं मृत्यु से रहित और क्षणिक समस्याओं से परे सत्य स्वरुप का वर्णन ६१ से ८२ पद्यों में प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् अष्टावक्र कहोल से उनके पश्चाताप के सम्बन्ध में बताते हुए कहते हैं कि वे एक विकलांग का जीवन व्यतीत करने के लिए तत्पर एवं प्रतिबद्ध हैं। वे अपने पिता से भविष्य में किसी को भी शाप न देने का अनुरोध करते हैं। सर्ग का समापन अष्टावक्र की उन आशापूर्ण भविष्यवाणियों से होता है, जिनमें वे कहते हैं कि उनके पिता का शाप विश्व के विकलांगों के लिए एक मंगलमय वरदान है क्योंकि अष्टावक्र शीघ्र ही उनके आदर्श सिद्ध होंगे।
  4. संकट: कवि संकट की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जो मित्रता, कुशलता, बुद्धि एवं गुणों के लिए एक परीक्षाकेन्द्र के समान है। अष्टावक्र का गर्भस्थ शरीर एक कछुए के अंडे की भाँति हो जाता है। ऋषि कहोल शिशु को दिए अपने शाप पर पश्चाताप अनुभव करने लगते हैं। ऋषि का पाप जंगल में अकाल के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है और कहोल के समस्त शिष्य आश्रम छोड़कर चले जाते हैं। जंगल में पशु और पक्षी भूख-प्यास से मरने लगते हैं। सुजाता कहोल को राजा जनक के यज्ञ में जाने और शास्त्रार्थ में ज्ञानियों की सभा को पराजित कर कुछ धन लाने के लिए कहती है। इच्छा न होते हुए भी, कहोल मिथिला जाते हैं। किन्तु, वरुण का पुत्र बन्दी उन्हें शास्त्रार्थ में हरा देता है और उन्हें वरुणपाश में बाँधकर समुद्र के जल में डुबो देता है। उधर जंगल में सुजाता एक पुत्र को जन्म देती है। उद्दालक सुजाता की सहायता के लिए आते हैं और उसे कहोल के साथ घटित प्रसंग के बारे में बताते हैं। वे उससे इस प्रसंग को शिशु से गुप्त रखने को कहते हैं क्योंकि अपने पिता की पराजय का ज्ञान शिशु के व्यक्तित्व के विकास में बाधक बन सकता है। उद्दालक शिशु का जातकर्म संस्कार सम्पन्न करते हैं। शिशु को प्रत्येक व्यक्ति “अष्टवक्र” (आठ वक्र या टेढ़े अंगों से युक्त) कहकर बुलाता है, किन्तु उद्दालक उसका नामकरण “अष्टावक्र” करते हैं, जिसके अर्थ यहाँ प्रस्तुत हैं। अष्टावक्र द्वारा अपने नाना के आश्रम में बड़े होने के साथ सर्ग का समापन होता है।
  5. संकल्प: सर्ग का प्रारम्भ संकल्प की अवधारणा से होता है। कवि कहते हैं कि सात्त्विक संकल्प ही सत्य एवं पवित्र संकल्प होता है। अष्टावक्र विकलांग उत्पन्न हुए हैं और उसी समय उद्दालक के यहाँ श्वेतकेतु नामक पुत्र का जन्म होता है। दोनों मामा और भांजे एक साथ उद्दालक के आश्रम में बड़े होते हैं। किन्तु उद्दालक अपने सकलांग पुत्र श्वेतकेतु की अपेक्षा विकलांग दौहित्र अष्टावक्र से अधिक प्रेम करते हैं। अष्टावक्र उद्दालक से ज्ञान प्राप्ति में श्वेतकेतु समेत अन्य समस्त शिष्यों से भी आगे बढ़कर सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। अष्टावक्र के दसवें जन्मदिवस के अवसर पर, उद्दालक एक समारोह का आयोजन करते हैं। उद्दालक अष्टावक्र को अपनी गोद में बिठाकर उनका आलिंगन करने लगते हैं। यह देखकर श्वेतकेतु ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं और अष्टावक्र से उनके पिता की गोद से नीचे उतर जाने को कहते हैं। श्वेतकेतु अष्टावक्र के समक्ष रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं कि उद्दालक वस्तुतः उनके नाना हैं और वह उनके वास्तविक पिता के सम्बन्ध में नहीं जानते। तत्पश्चात श्वेतकेतु अष्टावक्र की विकलांगता का उपहास उड़ाते हुए उनका अपमान करता है। सुजाता से अपने वास्तविक पिता कहोल के सम्बन्ध में सुनकर अष्टावक्र श्वेतकेतु को उन्हें जागृत करने के लिए धन्यवाद देते हैं। अष्टावक्र अपने पिता के बिना उद्दालक के आश्रम में न लौटने का दृढ़ निश्चय करते हैं। अष्टावक्र का संकल्प विश्व के समक्ष प्रदर्शित करेगा कि विकलांग किसी भी वस्तु को, जिसका वे स्वप्न देखते हैं, प्राप्त करने में समर्थ हैं।
  6. साधना: कवि स्पष्ट करते हैं कि साधना संकल्प की शक्ति एवं सफलता का मन्त्र है। अष्टावक्र सतत चिन्तित रहते हैं कि वे किस प्रकार अपने पिता को बन्दी के बन्धन से मुक्त कराएं। वे प्रतीति करते हैं कि कहोल के गलत होने के पश्चात भी कहोल की अशुद्धियों को प्रकट कर उनका प्रतिरोध करने का उनका अधिकार नहीं था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनके प्रतिरोध की परिणति कहोल को क्रुद्ध करने में हुई, जिसके कारण उन्हें यह दुर्भाग्यपूर्ण शाप मिला, क्योंकि क्रोध मनुष्य का सबसे भयंकर शत्रु है। अष्टावक्र वेद, उपवेद, न्याय, मीमांसा, धर्म, आगम एवं अन्य ग्रन्थों में प्रवीणता प्राप्त करने का निश्चय करते हैं। वे उद्दालक से इन ग्रन्थों का अध्ययन कराने की प्रार्थना करते हैं। अत्यन्त ही अल्प समय में अष्टावक्र अपने एकश्रुत विलक्षण गुण की सहायता से उद्दालक द्वारा शिक्षित प्रत्येक ग्रन्थ में पाण्डित्य प्राप्त कर लेते हैं। समावर्तन संस्कार के अवसर पर उद्दालक अष्टावक्र को आत्मा के सम्बन्ध में अन्तिम उपदेश प्रदान करते हैं और तदुपरान्त उन्हें अपने पिता की मुक्ति के उद्देश्य से राजा जनक की सभा में जाने का आदेश देते हैं। उद्दालक पश्चाताप से ग्रस्त श्वेतकेतु को, जिन्होंने पूर्व में अष्टावक्र का अपमान किया था, अष्टावक्र के सहित भेजने का निश्चय करते हैं। अष्टावक्र यह निश्चय करते हुए कि पिता की मुक्ति ही उनकी सच्ची गुरुदक्षिणा होगी, उद्दालक को प्रणाम करते हैं। उद्दालक उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। माता सुजाता भी उन्हें अपना आशीष देती है। अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के सहित मिथिला की उद्देश्यपूर्ण यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं।
    जनक और अष्टावक्र शास्त्रार्थ करते हुए।
  7. सम्भावना: सर्ग के प्रथम दस पद्यों में सम्भावना अथवा योग्यता का वर्णन अत्यन्त सजीवता से प्रस्तुत किया गया है। जब अष्टावक्र मिथिला पहुँचते हैं तो उस समय वे आत्मविश्वास से परिपूर्ण हैं। राजा जनक की मिथिला नगरी वेदों एवं आस्तिक दर्शन की छहों शाखाओं में निष्णात विद्वानों से भरी हुई है। बारहवर्षीय अष्टावक्र एवं श्वेतकेतु की अपने दरबार की ओर जा रहे राजा जनक से अनायास भेंट हो जाती है। जनक अपने सुरक्षाकर्मियों से विकलांग बालक को अपने पथ से हटाने के लिए कहते हैं। किन्तु, अष्टावक्र ऐसा करने के स्थान पर जनक को स्वयं उनके लिए पथ देने के लिए कहते हैं क्योंकि वे (अष्टावक्र) धर्मग्रंथों में पारंगत ब्राह्मण हैं। अष्टावक्र के तेज से प्रसन्न होकर, जनक उनसे कहते हैं कि वे मिथिला में किसी भी स्थान पर भ्रमण करने के लिए स्वतन्त्र हैं। किन्तु जनक का द्वारपाल अष्टावक्र को राजदरबार में प्रवेश नहीं करने देता है और उनसे कहता है कि मात्र ज्ञानी एवं बुद्धिमान वृद्धजन ही जनक के दरबार में प्रवेश करने के अधिकारी हैं। किन्तु अष्टावक्र द्वारपाल को अपनी वृद्ध की परिभाषा– कि मात्र ज्ञान में परिपक्व व्यक्ति ही वृद्धजन कहलाने योग्य हैं– के द्वारा अवाक् कर देते हैं। तब द्वारपाल उन्हें याज्ञवल्क्य, गार्गी एवं मैत्रेयी जैसे विद्वानों से अलंकृत सभा में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान कर देता है। अष्टावक्र बन्दी को शास्त्रार्थ करने के लिए खुली चुनौती देते हैं। किन्तु जनक अष्टावक्र से पहले उन्हें विवाद में सन्तुष्ट करने को कहते हैं और उनके समक्ष छह गूढ़ प्रश्न प्रस्तुत करते हैं, जिनका अष्टावक्र संतोषजनक रूप से समाधान करते हैं। तत्पश्चात् जनक उन्हें बन्दी से शास्त्रार्थ करने को कहते हैं। बन्दी मन ही मन समझ जाता है कि वह अष्टावक्र से हार जाएगा, परन्तु उनसे विवाद करने का निश्चय करता है। बन्दी अष्टावक्र की परीक्षा लेने हेतु उनकी विकलांगता का उपहास उड़ाने लगता है, जिस पर सभा हँसने लगती है। अष्टावक्र बन्दी और सभा दोनों को कड़ी फटकार लगाते हैं और सभा से जाने के लिए उद्यत हो उठते हैं।
  8. समाधान: कवि कहते हैं कि समाधान प्रत्येक काव्यात्मक रचना का चरम लक्ष्य है और रामायण को कालातीत रूपक के रूप में प्रयुक्त करते हुए वे इस अवधारणा को व्याख्यायित करते हैं। जनक अष्टावक्र से बन्दी द्वारा किए गए अपमान के लिए क्षमा माँगते हैं और अष्टावक्र शान्त हो जाते हैं। वे जनक से निष्पक्ष निर्णायक की भूमिका निभाने का अनुरोध करते हुए बन्दी को पुनः वाग्युद्ध के लिए ललकारते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि बन्दी विवाद प्रारम्भ करें और वे उनके प्रश्नों का प्रत्युत्तर देंगे। विवाद आशुकाव्य के रूप में प्रारम्भ होता है। बन्दी एवं अष्टावक्र एक-एक करके एक से बारह की संख्या पर पद्य रचना आरंभ करते हैं। बन्दी तेरह संख्या के लिए पद्य का मात्र प्रथमार्द्ध रच पाता है, किन्तु शेष आधा भाग रचने में असफल रहता है। तब अष्टावक्र पूरे पद्य की तुरन्त रचना कर देते हैं और इस प्रकार बन्दी को पराजित कर देते हैं। सभा उनकी जय-जयकार करने लगती है और जनक उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। बन्दी अपने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहता है कि वह वरुण का पुत्र है और उसने अपने पिता के बारह वर्ष से चल रहे वरुण यज्ञ में सहायता के लिए कहोल को अनेक अन्य ब्राह्मणों के सहित जल में डुबोकर वरुण लोक भेज दिया था। वह अपनी पराजय स्वीकार करता है और अष्टावक्र के समक्ष समर्पण कर देता है। वयोवृद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य भी बालक अष्टावक्र को प्रणाम करते हैं और उन्हें अपना गुरु स्वीकार करते हैं। बन्दी वापस समुद्र में चला जाता है, जहाँ से कहोल ऋषि लौट आते हैं। महर्षि कहोल अपने पुत्र से कहते हैं कि वे उन्हें मुक्त कराने के लिए सदैव उनके ऋणी रहेंगे। अष्टावक्र पिता से प्रतीक्षारत माता के समीप लौट चलने के लिए अनुरोध करते हैं। घर की ओर लौटते समय रास्ते में, कहोल अष्टावक्र को गंगा की पुत्री समंगा नदी में स्नान करने को कहते हैं। नदी में स्नान करते ही कहोल के तप के बल से अष्टावक्र की विकलांगता समाप्त हो जाती है। सुजाता अपने पति एवं सकलांग पुत्र को देखकर हर्ष से फूली नहीं समाती। अष्टावक्र आजीवन ब्रह्मचारी रहते हैं - इसके विपरीत कथन है - महाभारत / 13 अनुशासन पर्व / दानधर्म पर्व / 21वां अध्याय- अष्टावक्र और उत्तर दिशा का सँवाद के अन्तर्गत | वहाँ महती देवी अष्टावक्र को कहती है :- [1] विप्रवर ! अब आप कुशलपूर्वक अपने घर को जायंगे और मार्ग में आपको कोई श्रम अथवा कष्ट नहीं होगा | उस मनोनीत कन्या को आप प्राप्त कर लेंगे और आपके द्वारा वह पुत्रवती भी होगी ही [8] | [2] अष्टावक्र को ब्राह्मण वदान्य ने कहा  - 'आप उत्तर नक्षत्र में विधिपूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण कीजिये; क्योंकि आप अत्यन्त सुयोग्य पात्र हैं, [17] | ) एक महान ऋषि बनते हैं। महाकाव्य के अन्त में, रामायण के युद्ध के पश्चात, महर्षि अष्टावक्र अयोध्या में परब्रह्म भगवान् श्रीसीताराम जी के राजदरबार में पधारते हैं। अष्टावक्र रानी और राजा की सुन्दर जोड़ी को निहारकर आनन्दित हो उठते हैं। सीता अपने पिता के गुरु को प्रणाम करती हैं और अष्टावक्र उन्हें आशीर्वचन प्रदान करते हैं।

विषयवस्तु[संपादित करें]

क्रान्तिवाद[संपादित करें]

कवि कहते हैं कि इस काव्य की विधा क्रान्तिवाद है।[2]द्वितीय सर्ग में, महाकवि सम्यक क्रान्ति को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ऐसी क्रान्ति मात्र विचारों में परिवर्तन से समुद्भूत हो सकती है। अष्टावक्र कहोल से वार्तालाप करते हुए कहते हैं कि “ॐ शान्ति” वृद्धों के लिए समुचित पुरातन उद्घोषणा है और अद्यतन युवावर्ग हेतु “ क्रान्ति” की नूतन उद्घोषणा होनी चाहिए। ॐ शान्ति मन्त्र की पंक्तियों के आधार पर, सर्वत्र क्रान्ति का शंखनाद करने हेतु महाकवि अष्टावक्र के माध्यम से नवीन मन्त्र प्रस्तुत करते है[3]

द्यौः क्रान्तिः नभः क्रान्तिः भाग्यभूमाभूमि क्रान्तिः।
परमपावन आपः क्रान्तिः ओषधिः संक्रान्तिमय हो ॥
नववनस्पतिवृन्द क्रान्तिः विश्वदेवस्पन्द क्रान्तिः।
महाकाव्यच्छन्द क्रान्तिः ब्रह्मभव संक्रान्तिमय हो ॥

स्वर्गलोक में क्रान्ति, आकाश में क्रान्ति, भाग्यसमृद्ध भूमि पर क्रान्ति, परमपावन जलराशियों में क्रान्ति एवं समस्त औषधियों में क्रान्ति हो! नवीन वनस्पतियों के समूहों में क्रान्ति, विश्व के समस्त देवों के कार्य-कलापों में क्रान्ति, महाकाव्य के छन्दों में क्रान्ति एवं ब्रह्म से प्रादुर्भूत समस्त विश्व में क्रान्ति हो! ॥२.८०.२–२.८०.३॥

हिन्दी के विद्वान श्री बी एन मिश्र के अनुसार शास्त्रीय परम्परा में महाकाव्यों के सर्गों के नाम , , और अक्षरों से प्रारम्भ नहीं किए जाते। उनका मत है कि यहाँ महाकवि ने सभी सर्गों के नाम से प्रारम्भ करके शास्त्रीय लीक से हटकर नवीन पथ का निर्माण किया है।[4]

अष्टावक्र शब्द के अर्थ[संपादित करें]

महाकाव्य में कवि अष्टावक्र नाम की व्युत्पत्ति – अष्ट अर्थात् आठ और अवक्र अर्थात् टेढ़ेपन से रहित अथवा सीधे– शब्दों की सन्धि से करते हैं। इस सन्धिविच्छेद के आधार पर अष्टावक्र शब्द की पाँच व्याख्याएँ १.९८ से १.१०० पद्यों में प्रस्तुत की गई हैं।[5]

  1. वह, जिनके लिए आठ प्रकृति – पंचतत्व (पृथ्वी, जल अग्नि, वायु एवं आकाश), मन, बुद्धि एवं अहंकार – सदैव अवक्र (अकुपित) रहेंगे और उनका दुःख हरते रहेंगे।
  2. वह, जिन्हें आठ कुभोग (ऐन्द्रिय आनन्दों के स्रोत) तथा आठ प्रकार के मैथुन वक्र (विकारग्रस्त एवं विचलित) नहीं कर सकेंगे।
  3. वह, जिन्हें आठों लोकपाल – इन्द्र, अग्नि, यम, सूर्य, वरुण, वायु, कुबेर एवं चन्द्र –भी वक्र (विकृत) करने में सक्षम नहीं हो सकेंगे।
  4. वह, जिनके लिए आठों वसु कदापि अवक्र (अप्रिय) नहीं होंगे।
  5. वह, जिनकी अवक्र (अनिन्दित) कीर्ति का गान आठों नागों द्वारा दिवस के आठों याम (तीन घंटे की समयावधि) किया जाता रहेगा।

दर्शन[संपादित करें]

महाकाव्य में दर्शन से सम्बन्धित पद्य अनेक स्थलों पर द्रष्टव्य हैं।[6] तृतीय सर्ग में अष्टावक्र के स्वगतकथन में वेदान्त की विशिष्टाद्वैत शाखा के अनुसार आत्मा के स्वभाव का निरूपण करने वाले पद्य (३.६१–३.८२) प्राप्त होते हैं। छठे सर्ग के अन्तर्गत उद्दालक द्वारा अष्टावक्र को प्रदत्त उपदेश का एक भाग इसी विषय का प्रतिपादन करता है। इन श्लोकों में प्रयुक्त शब्दावली वेद, उपनिषद एवं श्रीमद्भगवद्गीता में प्रयुक्त शब्दावली के समान ही है। साधना की व्याख्या में प्रस्तुत एक रूपक (६.४–६.५) हिन्दू दर्शन की सभी छहों आस्तिक शाखाओं–सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा एवं वेदान्त–का सम्मिश्रण प्रस्तुत करता है।

सप्तम सर्ग में जब अष्टावक्र मिथिला में प्रवेश करते हैं, वे समस्त षड्दर्शनों के विद्वानों को वहाँ पाते हैं (७.२७–७.२८)। वेदान्त दर्शन की अनेक प्रशाखाएँ भी सातवीं शाखा भक्ति सहित वर्णित हैं। पद्य ८.४ हिन्दू दर्शन में विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विचारधाराओं का वर्णन करता है- कुछ इसे शब्द से निर्मित मानते हैं तो कुछ कहते हैं कि यह या तो परिणाम है अथवा विवर्त है। कवि प्रथम अवधारणा (परिणाम) को स्वीकार करते हैं।

सामाजिक सन्देश[संपादित करें]

महाकाव्य के अनेक सन्दर्भों में, भारत एवं विश्व से सम्बन्धित विभिन्न समकालीन सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है। समस्याओं को महाकाव्य में पात्रों के स्वगतकथन अथवा उनके मध्य संवादों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इन समस्याओं में कन्याओं के विरुद्ध पक्षपात, आरक्षण एवं योग्यता, विकलांगों की दशा आदि अनेक मुद्दे शामिल हैं।

कन्याओं के प्रति भेदभाव[संपादित करें]

अनेक सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारणों से, भारतीय समाज में कन्याएँ ऐतिहासिक रूप से भेदभाव का शिकार रही हैं। पुत्रों के लिए प्राथमिकता और कन्या-शिशुओं के प्रति पक्षपात आज भी जारी है, जो कि बाल लिंग अनुपात (कन्या भ्रूणहत्या तथा लिंग आधारित गर्भपात द्वारा असंतुलित) और स्त्रियों में अल्प साक्षरता दर के आंकड़ों से प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है।[7][8][9][10]कवि लिंग असमानता की समस्या को महाकाव्य के प्रथम (१.१२, १.५७–१.५९) तथा पंचम (५.१७) सर्ग में उठाते हैं।[11] उद्दालक और कहोल के संवाद के सन्दर्भ में प्रथम सर्ग से निम्न पद्य (१.५८) उद्धृत है, जिसमें उद्दालक कहोल को सुजाता के जन्म की सूचना देते हुए कहते हैं–

कन्या नहीं भार है शिरका यही सृष्टि का है शृंगार
मानवता का यही मन्त्र है यही प्रकृति का है उपहार।
कोख पवित्र सुता से होती पुत्री से गृह होता शुद्ध
नहीं भ्रूणहत्या विधेय है श्रुतिविरुद्ध यह कृत्य अशुद्ध ॥

आरक्षण[संपादित करें]

शिक्षण संस्थानों एवं सामाजिक क्षेत्र में आरक्षण और इसका निजी क्षेत्र हेतु प्रस्ताव भारत में एक विवादास्पद तथा अत्यन्त चर्चित मुद्दा है। हाल ही में, विभिन्न जाति और धार्मिक समूहों ने शिक्षण संस्थानों एवं/अथवा सामाजिक क्षेत्र में आरक्षण की मांग की है, जिससे अधिकांशतः असंतोष, विरोध एवं न्यायपालिका और विधानसभा के मध्य विवाद ही उभर कर सम्मुख आए हैं।[12][13][14][15] महाकाव्य के पांचवें सर्ग में ५.४० पद्य में, उद्दालक विकलांग अष्टावक्र की सीखने की क्षमताओं का श्वेतकेतु एवं अन्य शिष्यों की क्षमताओं से तुलना करते हुए, स्वयं से ही वार्तालाप करते हुए कहते हैं[16]

प्रातिभ क्षेत्र में आरक्षण
न कदापि राष्ट्रहित में समुचित।
यह घोर निरादर प्रतिभा का
अवनति का पथ अतिशय अनुचित ॥

विकलांगों के प्रति भेदभाव[संपादित करें]

महाकाव्य चतुर्विध विकलांगों से सम्बन्धित अनेक सामाजिक समस्याओं को उठाता है और उनकी मनोदशाओं का भी विश्लेषण करता है।

विकलांगों के प्रति पक्षपात एवं भेदभाव के मुद्दे को महाकाव्य में अनेक सन्दर्भों में उठाया गया है। प्रथम सर्ग में, उद्दालक एवं कहोल के मध्य संवाद में, उद्दालक कहते हैं कि अष्टावक्र की सफलता के पश्चात, विकलांगों को समाज द्वारा उनके अधिकारों से अब वंचित नहीं किया जाएगा। उनसे अब और अधिक अनुचित लाभ नहीं उठाया जाएगा, वे शुभ संस्कारों पर अपशकुन नहीं समझे जाएंगे और उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा। चतुर्थ सर्ग में, सुजाता से वार्तालाप करते हुए उद्दालक कहते हैं कि–यह धारणा कि विकलांग परिवार पर भार हैं और उपेक्षणीय हैं –विश्व का सर्वनाश कर देगी।

वे विकलांगों के अपमान एवं तिरस्कार के विरुद्ध चेतावनी देते हुए उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करने का परामर्श देते हैं, अन्यथा विकलांगों के अश्रुबिन्दु उन्हें पीड़ित करने वालों को वज्र के समान बनकर दण्डित कर सकते हैं। सप्तम सर्ग में, अष्टावक्र के स्वगतकथन में, कवि कहते हैं कि विकलांगों को हास्य का पात्र बनाना कदापि समीचीन नहीं है, क्योंकि वे भी उसी शिल्पी की कृति हैं, जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है। एक पद्य (५.६३) उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है[17]

भार है विकलांग क्या परिवार का
क्या उपेक्ष्या पात्र वह सकलांग का।
जगत को जर्जरित कर देगी झटिति
यह विषम अवधारणा कुसमाज की ॥

काव्यगत विशेषताएँ[संपादित करें]

रस[संपादित करें]

महाकाव्य के प्रधान रस वीर एवं करुण रस हैं।[2]अपने पिता के शाप के पश्चात अष्टावक्र का स्वगतकथन (तृतीय सर्ग), कहोल का शाप देने के उपरान्त पश्चाताप (चतुर्थ सर्ग) तथा कहोल को जल में डुबो दिए जाने के पश्चात उद्दालक एवं सुजाता के मध्य वार्तालाप–दया एवं करुणा से ओत-प्रोत प्रसंग हैं। अष्टावक्र का अपने पिता को मुक्त कराने का दृढ़निश्चय और संकल्प (पांचवां सर्ग) और उनकी मिथिला यात्रा (छठा सर्ग) वीर रस से परिपूर्ण उल्लेखनीय प्रसंग हैं।

अलंकार[संपादित करें]

अनुप्रास एवं यमक[संपादित करें]

यमक संस्कृत में (हिन्दी तथा अन्य प्राकृत भाषाओँ में भी) एक ऐसा अलंकार है, जहाँ एक शब्द अनेक बार प्रयुक्त होता है और प्रत्येक बार उस शब्द का अर्थ भिन्न होता है। महाकाव्य में यमक मिश्रित अनुप्रास अलंकार का एक उदाहरण ७.३२ पद्य के द्वितीय अर्धांश में इस प्रकार है[18]

अंग अंग पर विलस रहे थे ललितललाम विभूषण
भवभूषण दूषणरिपुदूषणदूषण निमिकुलभूषण।

राजा जनक के प्रत्येक अंग पर सुन्दर आभूषण जगमगा रहे थे। वे संसार के आभूषण थे, दूषण (खर राक्षस का भाई) के शत्रु राम के विरुद्ध समस्त दूषणों (तर्कों) का दूषण (नाश) करने वाले थे और राजा निमि के वंश को विभूषित कर रहे थे। ॥ ७.३२॥

पद्य १.२१ के द्वितीय अर्धांश में, कवि “रौरव” एवं “गौरव” शब्दों का प्रयोग एक ही पंक्ति में क्रमशः चार और तीन बार करते हैं, जिनमें प्रत्येक बार उनका भिन्न-भिन्न अर्थ है।[19]

रौरवसहित रहित रौरव से रौरवकृत जितरौरव थे
गौरवमय अभिमान विवर्जित श्रितगौरव हितगौरव थे ॥

वे (महर्षि कहोल) रुरु मृग का चर्म (का वस्त्र) धारण किए हुए थे, अनीति (रौरव) से मुक्त थे, स्तुतियों (रौरव) के रचयिता थे और रौरव नामक नरक को जीतने वाले थे। वे स्वाभिमान से युक्त थे, अभिमान से रहित थे, गुरु के आश्रित थे और (दूसरों की) श्रद्धा को धारण करने वाले थे।॥ १.२१॥

भाषासमक[संपादित करें]

महाकाव्य में अनेक स्थलों पर (१.८५, ४.१००, ८.१०६ एवं ८.१०८),[20] कवि भाषासमक (मणिप्रवाल) अलंकार का प्रयोग करते हैं, जहाँ संस्कृत तथा हिन्दी एक साथ मिश्रित हो गई हैं। इस प्रकार के पद्य का एक उदाहरण, जिसमें निरुक्त के आधार पर सुजाता नाम की व्युत्पत्ति की गई है, यहाँ प्रस्तुत है–

सुभगो जातो यस्याः सैव सुजाता नाम निरुक्ति यही
अष्टावक्र सुभग जातक की बनी सुजाता मातु सही ॥

सुजाता शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या है कि जिसका पुत्र भाग्यवान है। वस्तुतः, सुजाता सौभाग्यशाली पुत्र अष्टावक्र की उपयुक्त माता बन गईं ॥ १.८५॥

मुद्रा[संपादित करें]

मुद्रा अलंकार के अन्तर्गत, पद्य रचना के लिए प्रयुक्त छन्द का- उसके नाम का पद्य में उल्लेख कर- संकेत किया जाता है। अष्टावक्र महाकाव्य के तृतीय सर्ग का अन्तिम पद्य (३.१०८) “शार्दूलविक्रीडित” छन्द (संस्कृत महाकाव्यों में बहुधा प्रयुक्त एक छन्द) में रचित है और इसमें “शार्दूलविक्रीडितम्” शब्द का प्रयोग किया गया है।[21]

अष्टावक्र महर्षि वाक्य कह रहे ज्यों हो रहे मौन थे
त्यों ही बिप्र कहोल के नयन भी नीरन्ध्रवर्षी बने।
सीमन्तोन्नयनीय वेदविधि भी सम्पन्न प्रायः हुई
गाएँ देव सभी कहोलसुत का शार्दूलविक्रीडितम् ॥

अपने संस्कृत महाकाव्य श्रीभार्गवराघवीयम् में, कवि रामभद्राचार्य ने इस अलंकार का आठ स्थानों पर प्रयोग किया है।

मिथिला में वाद-विवाद[संपादित करें]

महाकाव्य के सातवें और आठवें सर्ग में चार वार्तालाप वर्णित हैं। इनमें प्रथम वार्तालाप अष्टावक्र एवं राजा जनक के मध्य होता है और अष्टावक्र के तेज एवं आत्मविश्वास को प्रस्तुत करता है। शेष तीन वार्तालापों में अष्टावक्र की विद्वता को प्रमाणित करने वाले वाद-विवाद सम्मिलित हैं, जिनमें प्रथम द्वारपाल को सन्तुष्ट कर सभा में प्रवेश करने की अनुमति प्राप्त करने हेतु, द्वितीय राजा जनक के गूढ़ प्रश्नों के उत्तर के रूप में और तृतीय बन्दी तथा अष्टावक्र के मध्य शास्त्रार्थ के रूप में होता है, जिसमें अत्यन्त साधारण प्रतीत होने वाली संख्या एक से तेरह तक की गणनाएँ स्वयं में अन्तर्निहित रहस्यों और गुप्त अर्थों को झुठलाती हैं।[22]महाकाव्य के ये वार्तालाप महाभारत के समान ही हैं। महाभारत के संस्कृत काव्य तथा अष्टावक्र के हिन्दी काव्य में वर्णित इन वार्तालापों की परस्पर तुलना उल्लेखनीय है।

साहित्यिक मूल्यांकन[संपादित करें]

विवेचन और मीमांसा[संपादित करें]

मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के पाठक समूह ने महाकाव्य की समालोचना हेतु सितम्बर २०१० में अशोकनगर में समीक्षकों के एक सम्मेलन का आयोजन किया।[23]प्रमुख समीक्षक, प्रोफेसर एस एन सक्सेना ने कहा कि महाकाव्य संघर्ष से उत्कर्ष की गाथा है और कवि के स्वयं के अनुभवों से उद्भूत होनेके कारण विकलांगों के लिए प्रेरणास्रोत है। सम्मेलन में उपस्थित अन्य समीक्षकों में लेखक रामसेवक सोनी, सुधीर गुप्ता, सुभाष जैन सरल एवं प्रदीप मनौरिया थे। समीक्षकों ने कहा कि महाकाव्य विकलांगों की भावनाओं एवं उनके उत्थान को प्रस्तुत करता है और आधुनिक विश्व में अत्यन्त प्रासंगिक है। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी ने समीक्षकों के अन्य सम्मेलन का आयोजन नवम्बर २०१० में दमोह में किया, जिसमें अनेक साहित्यकारों ने महाकाव्य पर चर्चा की।[24]

टिप्पणियाँ[संपादित करें]

  1. रामभद्राचार्य २०१०।
  2. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ क-ग।
  3. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ ४२।
  4. मिश्र, बी एन (२०१२). "महाकवि स्वामी रामभद्राचार्य जी की कालजयी कृति हिन्दी अष्टावक्र महाकाव्य - एक परिचय". श्रीतुलसीपीठ सौरभ. गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत: श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास. १६ (४): १६-१९.
  5. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ २५–२६।
  6. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ ६४–६९, १३५–१३६, १४८–१४९, १७१, १९५।
  7. दासगुप्ता, मोनिका; झेंग् हुआ, जिआंग्; ली बोहुआ, झी झेन्मिंग्; वूजिन् चुंग्, बाई ह्वा-ओक् (जनवरी ३, २००३), "Why is Son Preference so Persistent in East and South Asia? A Cross-Country Study of China, भारत, and the Republic of Korea", विश्व बैंक नीति शोध प्रारूप पत्र संख्या २९४२ (अंग्रेज़ी में)
  8. सिंह, हरमीत शाह (अप्रैल २, २०११). "India combats sex-selective abortion as gender ratio loses balance" (अंग्रेज़ी में). सीएनएन. मूल से 24 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि अप्रैल ४, २०११.
  9. संवाददाता, एन डी टी वी (मार्च ३१, २०११). "Census 2011: Girl child at risk as sex ratio declines" (अंग्रेज़ी में). एन डी टी वी. मूल से 4 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि अप्रैल ४, २०११.
  10. भट्ट, जगदीश (अप्रैल २, २०११). "Bias against educating girl child persists" (अंग्रेज़ी में). द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया. मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि अप्रैल ४, २०११.
  11. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ ३, १५, १०९।
  12. "Reservation for Upper Castes Demanded" (अंग्रेज़ी में). पटना डेली. नवम्बर २५, २०१०. मूल से 28 सितंबर 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मई १०, २०११.
  13. "Rajasthan HC stays 5% reservation for Gujjars" (अंग्रेज़ी में). इकनॉमिक टाइम्स. दिसम्बर २३, २०१०. मूल से 3 अप्रैल 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मई १०, २०११. नामालूम प्राचल |ast= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  14. "Jat reservation row to intensify after fasting protestor dies" (अंग्रेज़ी में). सिफ़ी समाचार. मार्च २४, २०११. मूल से 20 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मई १०, २०११.
  15. घिल्डियाल, सुबोध (मई ८, २०११). "Jamia's quota for only 'Muslim SCs' sparks row" (अंग्रेज़ी में). द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया. मूल से 31 मई 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मई १०, २०११.
  16. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ ११४।
  17. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ १७–१८, ९८, १७०।
  18. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ १७२।
  19. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ ६।
  20. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ २२, ९९, २२२–२२३।
  21. रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ ७६।
  22. गांगुली, किसरी मोहन (फ़रवरी २६, २००६). "The Mahabharata, Book 3: Vana Parva: Tirtha-yatra Parva:Section CXXXIV" (अंग्रेज़ी में). पपृ॰ २७७–२७९. मूल से 24 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मार्च ८, २०११.
  23. "अष्टावक्र पर सारगर्भित चर्चा". राजस्थान पत्रिका. सितम्बर २८, २०१०. मूल से 4 अक्तूबर 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि अप्रैल २२, २०११.
  24. "वक्ताओं ने कही अपनी बात". दैनिक भास्कर. नवम्बर २५, २०१०. मूल से 2 अप्रैल 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मई १०, २०११.

सन्दर्भ[संपादित करें]

रामभद्राचार्य, स्वामी (जनवरी १४, २०१०). अष्टावक्र महाकाव्य (PDF). चित्रकूट, उत्तर प्रदेश, भारत: जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि नवम्बर १५, २०१२.