परब्रह्म

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"परब्रह्म" का शाब्दिक अर्थ है 'सर्वोच्च ब्रह्म' - वह ब्रह्म जो सभी वर्णनों और संकल्पनाओं से भी परे है। अद्वैत वेदान्त का निर्गुण ब्रह्म भी परब्रह्म है। वैष्णव, शाक्त और शैव सम्प्रदायों में भी क्रमशः विष्णु, आदिशक्ति तथा शिव को परब्रह्म माना गया है।

वास्तव में केवल इतनी परिभाषा ही सम्भव हो सकती हे क्योंकि समस्त जगत ब्रह्म के अंतर्गत माना गया हे मन विचार बुद्धि आदि ! उत्तम से अतिउत्तम विचार, भाव, वेद, शास्त्र मंत्र, तन्त्र, आधुनिक विज्ञान, ज्योतिष आदि किसी भी माध्यम से उसकी परिभाषा नहीं हो सकती! वह गुणातीत, भावातीत, माया, प्रक्रति और ब्रह्म से परे और परम है। वह एक ही है दो या अनेक नहीं है। मनीषियों ने कहा है कि ब्रह्म से भी परे एक सत्ता है जिसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। वेदों में उसे नेति -नेति (ऐसा भी नहीं -ऐसा भी नही) कहा है। वह सनातन है, सर्वव्यापक है, सत्य है, परम है। वह समस्त जीव निर्जीव समस्त अस्तित्व का एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है। वह वाणी और बुद्धि का विषय नहीं है उपनिषदों ने कहा है कि समस्त जगत ब्रह्म पर टिका हे और ब्रह्म परब्रह्म पर टिका है।

परब्रह्म का स्वरूप

वास्तव में समस्त जगत शब्दब्रह्म स्वरूप स्थान में स्थित होता है, वह स्थान का रचियता ही परब्रह्म होता है, उसिको परमेश्वर कहा जाता है। परब्रह्म ही अविच्छिन्नीय चेतना का रचियता होता है, एवं परब्रह्म ही समस्त ज्ञान-विज्ञान के आधार होते है। उपासना के माध्यम से ही अविच्छिन्नीय चेतना को अनुभूत करके परब्रह्म को अनुभूत किया जाता है। वास्तव में परब्रह्म का स्वरूप भी चेतना-स्वरूप ही होता है। ध्यान से वह अविच्छिन्नीय चेतना को अनुभूत किया जाता है, तभी वाचा की प्रत्यक्षता होती है। पवित्र अभिसार धर्मशास्त्र में परब्रह्म के स्वरूप को विस्तार से लिखा गया है।

ज्ञान, सत्य इत्यादी गुणोंयुक्त परब्रह्म विभिन्न ऐश्वर्यशक्तियों संपन्न होते है, उसमें शब्द, ऊर्जा, तथा धारणा मुख्य ऐश्वर्यशक्तियों होती है। परब्रह्म ही एक अद्वैत होते है, अन्य सभी तथ्य द्वैत या सापेक्ष होते है। जो जीवात्मा परब्रह्म को समर्पण करता है, वही जीवात्मा दैव कहलाता है, लोक-समुदाय अज्ञानतावश दैव को ही परब्रह्म कहकर उच्चारित करता है।

परब्रह्म का विषय बहुत ही बहुत गुह्य होता है, उसको केवल कोई उसकी कृपा से ही अनुभव कर सकता है।

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