"जेजाकभुक्ति के चन्देल": अवतरणों में अंतर

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14:33, 26 मई 2023 का अवतरण

चन्देल साम्राज्य
(जेजाकभुक्ति के चन्देल)

 

832 ईस्वी–1545 ईस्वी
 

 

चित्र:Chandelas Empire Imperial Emblem.jpg

राज चिन्ह

राष्ट्रिय ध्येय
॥ जयति सहस्र बाहु: शत्रुघ्नॊ रक्तवास धनुर्धर:॥

॥ जय महिष्मति ࿗ जयति पितामह श्रीमन्न नारायण ॥

राजधानी खजुराहो (वास्तु राजधानी)
महोबा (राजस्व राजधानी)
कालिंजर (सैन्य राजधानी)
भाषाएँ संस्कृत
धार्मिक समूह हिन्दू धर्म
जैन धर्म
शासन साम्राज्य
राजाधिराज एवं चक्रवर्तीं सम्राट
 -  832 - 852 ई. चन्द्रवर्मन (प्रथम)
 -  1165 - 1203 ई परमर्दिदेव I (अंतिम सम्राट)
 -  1487 - 1545 ई. कीर्तिवर्मन II (अंतिम राजा)
ऐतिहासिक युग मध्यकालीन भारत
 -  स्थापित 832 ईस्वी
 -  अंत 1545 ईस्वी
मुद्रा भगवती लक्ष्मी स्वर्ण सिक्का


हनुमान स्वर्ण सिक्का (मदनवर्मन के समय)

आज इन देशों का हिस्सा है: भारत

चन्देल साम्राज्य (संस्कृत:चन्देल:), जेजाकभूक्ति के चन्देल के नाम से विख्यात एक हिन्दू चन्देल राजपूत साम्राज्य था, जिन्होंने 09वीं से 15वीं शताब्दी तक भारत के पूर्वी, मध्य इत्यादि भागो पर शासन किया।[1] उनके द्वारा शासित क्षेत्र को जेजाकभुक्ति के नाम से जाना जाता था। वे राजपूतों के हैहय-चन्देल कबीले के सबसे प्रमुख शासक परिवार थे। इस राजवंश की स्थापना हैहयवंशी चन्देल राजा चन्द्रवर्मन चन्देल ने की थी। चन्देल राजवंश की राजधानी महोबा तथा कालिंजर (जेजाकभूक्ति, उत्तर प्रदेश में) थी [2][3][4][5]

610 ईस्वी के अंत तक चेदी-चन्देल राजवंश पुष्यभूति राजवंश और कलचुरि राजवंश के सामंत राजा थे। 810 ईस्वी में चेदी-चन्देलो के राजा चन्द्रवर्मन ने प्रतिहार राजवंश को परास्त कर स्वतंत्र हुआ तथा नए राजवंश की नीव रखी। चन्देल साम्राज्य जहां भी फैलता वो जेजाकभुक्ति के नाम से जाना जाता था। जेजाभुक्ति चन्देल राज्य के प्रथम राजा जेजा या जयशक्ति के नाम पे पढ़ा इसी कारण इन्हें जेजाकभुक्ति के चन्देल कहा जाता है। चन्देल सम्राट ना ही सफल विजेता और कुशल शासक थे अपितु वास्तुकला तथा धर्म की और भी उनका रुझाव ज्यादा था। चन्देलो ने गजनवी, चौहानों, गोरी, दिल्ली सल्तनत, सुरी साम्राज्य इत्यादि अक्रमणकारियो का सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया तथा 1545 ईस्वी तक राज्य किया। इन अक्रमणो से चन्देल राज्य कमजोर हो गया। 1545 के अंत में जो बचा हुआ चन्देल राज्य यानी जेजाकभुक्ति बुंदेलो के पास गया वो बुंदेलखंड हो गया। चन्देल वंश के शासकों की राजधानी बुंदेलखंड में थी जिसके कारण बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। 1203 में चन्देल साम्राज्य के पतन के बाद चन्देलों ने लगभग चार शताब्दियों 1205-1545 तक कालिंजर से चंबल से विंध्य के छोर तक शासन किया।

उत्पत्ति

6वी ईसवी के कुमाऊं शिलालेख के अनुसार चन्देल चन्द्रवंश की मुख्य शाखा है तथा वृष्णी-चेदी (हैहयवंशी) का परिवर्तित नाम है।[6] 9वी ईसवी के खजुराहो शिलालेख के अनुसार चन्देल राजा धनंग का जन्म यदुवंश के राजपूतों की मुख्य शाखा वृष्णीकुल (हैहयकुल) में हुआ था, जो की चन्द्रवंश की मुख्य शाखा है।[7]

शशिवंश विनोद, बिलासपुर शिलालेख और चन्द्र भास्कर के अनुसार, राजा चन्द्रवर्मन जो की शिशुपाल से 98 पीढ़ी बाद चन्देरी के राजा बने, वे हैहयवंशी राजा हरिहरवर्मन चन्देल के 5वे वंशधर थे।[3][4][8] कुछ जनपद की बल्लाड़ के अनुसार चन्देल हैहयवंशी सम्राट माहिष्मान के वंशज थे। [9][5]

सीवी वैद्य और जीएस ओझा जैसे इतिहासकार चन्देल राजपूतों को शुद्ध और उच्चकुल का चन्द्रवंशी मानते हैं। [10] [11][12]

चन्देरी और बिलासपुर के शिलालेख के अनुसार चन्देल राजपूत आर्यावर्त के प्रमुख चन्द्रवंशी राजा यदु के वंशधर सम्राट हैहय के वंश से है । राजा हय के वंश में भगवान श्री कार्तवीर्य अर्जुन हुए कार्तवीर्य अर्जुन के वंश में महाराज वृष्णि हुए जिनके नाम से कुल का नाम वृष्णी हुआ जिसका उल्लेख राजा धनंग के शिलालेख से भी मिलता है, वृष्णी के वंश में भगवान विष्णु के द्वारपाल जय स्वयं शिशुपाल हुए, शिशुपाल के पुत्र दृष्टकेटु से चन्देल वंश चला। यह तक की कुछ इतिहासकारों ने शिशुपाल को ही चन्देल नगरी का राजा या चन्देल राजा लिखा है।[4][13]

खजुराहो का कंदरीया महादेव मंदिर

चन्देल राजवंश के पुरालेख अभिलेखों के साथ-साथ समकालीन ग्रंथों जैसे कि बलभद्र-विलास और प्रबोध-चन्द्रोदय से पता चलता है कि चन्देल पौराणिक चन्द्र राजवंश से थे।[14] 1188 ईस्वी में लिखी समकालीन ग्रंथ परमाल रासो चन्देलों को एक उच्च क्रम के क्षत्रिय (छौनी क्षत्रिय) के रूप में संदर्भित करता है।[15] प्रबोध-चन्द्रोदय और परमालरासो ने चन्देल राजपूतों को क्षत्रिय जाति के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में उल्लेख किया है। उसके अनुसार चन्देल उच्च कोटि के क्षत्रिय और यादवों की मुख्य शाखा हैं और स्वयं वृष्णि (हैहय) वंश हैं जो चन्द्रमा देवता के वंशज थे, और वे गोत्र में चन्द्रात्रेय' थे।[16]

हेमवती और चन्द्रदेव से उत्तपति का खंडन

पृथ्वीराज रासो और उसके एक भाग महोबा-खंडा के अनुसार हेमवती और चन्द्रमा का पुत्र राजवंश का संथापक था, परंतु ये असंभव है क्योंकि ये राजवंश चन्द्रवर्मन के पहले से उपस्थिति था और चन्देल राजवंश के अपने अभिलेखों में हेमवती, हेमराज या इंद्रजीत का उल्लेख नहीं है। इस तरह की किंवदंतियाँ बाद में बार्डिक आविष्कार हैं। सामान्य तौर पर, 'महोबा-खंड' एक ऐतिहासिक रूप से अविश्वसनीय पाठ है।[17] पृथ्वीराज रासो भी ऐतिहासिक दृष्टि से अविश्वसनीय ग्रन्थ है।[18][19]

गोंड-भार उत्पत्ति का खंडन

ब्रिटिश इंडोलॉजिस्ट वी.ए. स्मिथ ने सिद्धांत दिया कि चन्देल या तो भर या गोंड मूल के थे,इस सिद्धांत का समर्थन सी वी वैद्य सहित कुछ विद्वानों ने नहीं किया था क्योंकि यह भार और गोंड मूल सिद्धांत दुर्गावती के गोंड राज्य के राजा से विवाह पर आधारित था। दलपत शाह जो एक गोंड नहीं था बल्कि एक कच्छवाहा राजपूत था जिसे अकबरनामा के अनुसार राजा अमनदास गोंड ने गोद लिया था। [20] कलचुरी राजपुत के पतन के बाद शेष कलचुरी साम्राज्य ने आदिवासियों को अपनाया जिसके कारण गोंडो की संख्या ज्यादा हुई और छेत्र गोंडवाना कहलाया और साम्राज्य गढ़ मंडला जिससे गोंड साम्राज्य की शुरुआत हुई जिसमें दलपत शाह एक कछवाहा राजपूत को एक गोंड राजा अमन दास या संग्राम शाह द्वारा अपनाया गया था। [21][22]

इतिहास

प्रारंभिक शासक

चित्र:Chandelas war flag.jpg
चन्देलों का युद्ध ध्वज

सुक्तमति के चेदी-चन्देल राजवंश 7वी शताब्दी तक गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के सामंत राजा एवं सेनापति थे। [23] चन्द्रवर्मन (नन्नुकदेव) (831-845 CE), महोबा में चन्देल राजवंश का संस्थापक था जिसने चेदी-चन्देल राजवंश की राजधानी चन्देरी से महोबा में स्थापित की, वह विंध्याचल के आसपास केंद्रित राज्य का शासक था।[24]

महोबा के शिलालेख में उसे गोविंदवर्मन का पौत्र एवं भूभजाम का पुत्र लिखा गया है। चन्द्रवर्मन ने उत्तराधिकार में लगातार कई युद्ध जीते। उसने कालिंजर का विशाल किला बनवाया। अपनी माँ के कहने पर, चन्द्रवर्मन ने खजुराहो में तालाबों और उद्यानों से आच्छादित 85 अद्वितीय स्वर्ण मंदिरों का निर्माण किया और अपनी ब्रह्मक्षत्रिय स्थिति को जारी रखने के लिए ब्रह्म यज्ञ किया। चन्द्रवर्मन और उनके उत्तराधिकारियों ने खजुराहो में कई मंदिरों का निर्माण करवाया। [25][26] चन्द्रवर्मन ने अपने प्रभुत्व दूरी बेतवा से नर्मदा से यमुना के बीच (विंध्याचल) में 35 भव्य किले बनवाए।[27]

चन्देल शिलालेख के अनुसार, चन्द्रवर्मन के उत्तराधिकारी वक्पति ने कई दुश्मनों को हराया। [28] वक्पति के पुत्र जयशक्ति (जेजा) और विजयशक्ति (विज) ने चन्देल शक्ति को समेकित किया[29] एक महोबा शिलालेख के अनुसार, चन्देल क्षेत्र को जयशक्ति के बाद "जेजाकभुक्ति" नाम दिया गया था। विजयशक्ति के उत्तराधिकारी रहील को प्रशंसात्मक शिलालेखों में कई सैन्य जीत का श्रेय दिया जाता है। रहीला के पुत्र हर्ष ने संभवत: राष्ट्रकूट आक्रमण के बाद या अपने सौतेले भाई भोज द्वितीय के साथ महिपाल के संघर्ष के बाद प्रतिहार राजा महीपाल के शासन को बहाल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

उदय

हर्षवर्मन चन्देल के पुत्र यशोवर्मन प्रथम (925-950 CE) ने प्रतिहारो की राष्ट्रकुटो के खिलाफ सहायता की एवम राष्ट्रकुटो से उनके महत्वपूर्ण किले को जीत लिया। एक 953-954 सदी के खजुराहो के शिलालेख उसे कई अन्य सैन्य सफलताओं के साथ श्रेय देता है, जिसमें गौडा (पाला के साथ पहचाना गया), खासा, छेदी (त्रिपुरी का कलचुरि), कोसला (संभवतः सोमवंश), मिथिला (संभवतः छोटे उपनदी शासक), मालव (परमारों के साथ पहचाने गए), कौरव, कश्मीरी और गुर्जर थे। उत्तरी भारत में व्यापक विजय के समान दावे अन्य समकालीन राजाओं जैसे कलचुरि राजा युवा-राजा और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण III के रिकॉर्ड में भी पाए जाते हैं, लेकिन इतिहासकारों का मानना हैं की उन्होंने उनके बाद उन्हें हराया। यशोवर्मन प्रथम चन्देल के शासनकाल ने प्रसिद्ध चन्देल-युग कला और वास्तुकला की शुरुआत को चिह्नित किया। उन्होंने खजुराहो में लक्ष्मण मंदिर की स्थापना की।

पहले के चन्देल शिलालेखों के विपरीत, यशोवर्मन के उत्तराधिकारी धनंग (950-999 CE) के रिकॉर्ड में किसी भी प्रतिहार अधिपति का उल्लेख नहीं है। यह इंगित करता है कि धनंग ने औपचारिक रूप से चन्देल संप्रभुता की स्थापना की। खजुराहो के शिलालेख के अनुसार उसका जन्म चन्द्रवंशी यादवों के वृष्णी/चन्देल(हैहय) कुल में हुआ था।[7] खजुराहो के एक शिलालेख में दावा किया गया है कि कोशल, क्रथा (विदर्भ क्षेत्र का हिस्सा), कुंतला, और सिम्हाला के शासकों ने धनंगा के शासन को विनम्रता से स्वीकारा। यह भी दावा करता है कि आंध्र, अंग, कांची और राह के राजाओं की पत्नियाँ युद्धों में उनकी सफलता के परिणामस्वरूप उनकी जेलों में रहीं। ये एक दरबारी कवि द्वारा विलक्षण अतिशयोक्ति प्रतीत होता हैं, लेकिन बताता है कि धनंगा ने व्यापक सैन्य अभियान किए। अपने पूर्ववर्ती की तरह, धंगा ने भी खजुराहो में एक शानदार मंदिर की स्थापना की, जिसे विश्वनाथ मंदिर के रूप में पहचाना जाता है।

धनंग के उत्तराधिकारी गंधदेव को अपने द्वारा विरासत में मिले क्षेत्र को बनाए रखता है ऐसा प्रतीत होता है।

विद्याधर ( 1003- 1035 ई0) वह मध्यभारत का सबसे शक्तिशाली और महान हिंदू राजपुत सम्राट था, उन्होंने कलंजर, जेजाकभुक्ति से शासन किया। उन्होंने कन्नौज के राजा राजपाल, मालवा के राजा भोज और त्रिपुरा के राजा गंगेयदेव को हराया। [30][31] मुसलमान लेखक उसको 'चन्द्र' एवं 'विदा' नाम से पुकारते हैं। वह अपने दादा (धंग) के सामान वीर और कुसल शासक था। अली इब्न उल-अतहर के अनुसार चन्देल साम्राज्य की सीमा की सीमा भारत में सबसे बड़ी थी। [32] [33] [34] [35][36] उसके समय चन्देलो ने कलचुरी और परमारों पर विजय पाई और 1019 तथा 1022 में महमूद का मुकाबला किया। चन्देल साम्राज्य की सीमा विस्तृत हो गई थी। विद्याधर के बाद चन्देल साम्राज्य की कीर्ति और शक्ति घटने लगी परन्तु उसे उसके पौत्र किर्त्तिवर्मन ने पुन प्रतिष्ठित कर लिया।[37] 1019 में महमूद गजनी का विद्याधर से युद्ध होता है जिसमे महमूद गजनी को विद्याधर से संदि करनी पड़ी और अन्य नरेशो से जीते हुए 15 किले विद्याधर को दे दिया विद्याधर ही अकेला ऐसा भारती सम्राट था जिसने महमूद गजनी की महत्वाकांक्षी सफलता पूर्वक प्रतिरोध के प्रतिरोध किया

20 वीं शताब्दी के कलाकार द्वारा चक्रवर्ती सम्राट कीर्तिवर्मन चन्देल की खजुराहो मंदिर की यात्रा की कल्पना।ल

विद्याधर के शासनकाल के बाद उसके उत्तराधिकारी की लापरवाई के चलते त्रिपुरी के सामंत राजा कलचुरी गंगयदेव ने अपने साम्राज्य के पूर्वी हिस्सों पर विजय प्राप्त की और स्वतंत्र हो गया.[38] एक खंडित महोबा शिलालेख में लिखा है कि विजयपाल ने एक युद्ध में गंगेय का गौरव तोड़ा था.[39]

ग्वालियर के कच्छपघाट शायद विजयपाल के शासनकाल के दौरान संप्रभु बन गए। सास-बहू शिलालेख में कच्छपघाट शासक मूलदेव के लिए उच्च-ध्वनि वाली उपाधियों के उपयोग से यह संकेत मिलता है। लेकिन यह सत्य प्रतीत नहीं होता, इतिहासकारों का मानना है कि शायद उन्होंने विद्रोह कर उपाधि ले ली लेकिन बाद में उन्हें विजयपाल ने कुचल दिया जिसका उल्लेख खजुराहो के शिलालेख में है। शिलालेखों के अनुसार ग्वालियर के कच्छपाघाट 1155 तक चन्देलों के सामंत थे, बाद में चन्देलों ने ग्वालियर में कच्छपघाट के सामंती शासन को समाप्त कर दिया। संभवतः पारिवारिक युद्ध के दौरान (ग्वालियर के कच्छपघाट भी 950-1155 सीई से चन्देलों के सामंत और सेनापति थे।). [40][41] [42]


विजयपाल का बड़ा पुत्र देववर्मन गंगेय के पुत्र लक्ष्मी-कर्ण द्वारा पराजित हुआ एवम साम्राज्य पर से कमान को दी[34] उसके छोटे भाई कीर्तिवर्मन चन्देल ने लक्ष्मी-कर्ण एवं अन्य स्वतंत्र सामंती राजाओं को हरा चन्देल शक्ति का प्रभुत्व फिर से कायम किया। उसने इब्राहिम गजनी और उसके राज्यपाल महमूद को पराजित किया था[34] कीर्तिवर्मन के पुत्र सल्लक्ष्णवर्मन ने संभवतः कीर्तिवर्मन के समयकालीन विद्रोही राज्यो पर हमला कर परमार और कलचुरि के खिलाफ सैन्य सफलताएँ हासिल कीं, उनकी राजधानी जला दी एवं उन्हे सामंत राजा बनने पे विवश किया। एक मऊ शिलालेख से पता चलता है कि उन्होंने अंतरवेदी क्षेत्र (गंगा-यमुना दोआब) में भी सफल अभियान चलाया था। उनका पुत्र जयवर्मन धार्मिक स्वभाव का था और शासन से थक जाने के बाद उसने राजगद्दी छोड़ दी इसके चलते कई सामंत स्वतंत्र होने का प्रयास करने लगे।

जयवर्मन की मृत्यु उत्तराधिकारी-विहीन हुई प्रतीत होती है, क्योंकि उसका उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन का छोटा पुत्र, उसका चाचा पृथ्वीवर्मन हुआ था। [43]चंदेला शिलालेख उसके लिए किसी भी सैन्य उपलब्धियों का वर्णन नहीं करता है, ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक आक्रामक विस्तारवादी नीति को अपनाए बिना मौजूदा चन्देल क्षेत्रों को बनाए रखने पर केंद्रित था।[44]

पुनउर्थत्थान

जब तक पृथ्वीवर्मन के पुत्र मदनवर्मन (1128–1165 CE) सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ, तब तक दुश्मन के आक्रमणों से पड़ोसी कलचुरी और परमार राज्य कमजोर हो गए थे। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए, मदनवर्मन ने कलचुरी राजा गया-कर्ण को पराजित किया, एवं उन्हे दुबारा से सामंत बना लिया। हालांकि, चन्देलों ने इस क्षेत्र के पूर्वी भाग को गया-कर्ण के उत्तराधिकारी नरसिम्हा के हाथो हार गए। मदनवर्मन ने भीमसा (विदिशा) के आसपास, परमार राज्य की पर कब्जा कर लिया एवम उनकी राजधानी को कर देने की सम्मति पे छोड़ा। यह संभवत: परमार राजा यशोवर्मन या उनके पुत्र जयवर्मन के शासनकाल के दौरान हुआ था। एक बार फिर, चन्देलो ने भारतीय राज्यों के छेत्र नवगठित कर लिया। गुजरात के चालुक्य राजा जयसिम्हा सिद्धराज ने भी परमारा क्षेत्र पर आक्रमण किया, जो कि चन्देल और चालुक्य राज्यों के बीच स्थित था। इसने उन्हें मदनवर्मन के साथ संघर्ष हुआ। इस संघर्ष का परिणाम अनिर्णायक प्रतीत होता है, क्योंकि दोनों राज्यों के रिकॉर्ड जीत का दावा करते हैं। कलंजारा शिलालेख से पता चलता है कि मदनवर्मन ने जयसिम्हा को हराया था। दूसरी ओर, गुजरात के विभिन्न वर्णसंकरों का दावा है कि जयसिम्हा ने या तो मदनवर्मन को हराया या उससे उपहार प्राप्त किया। मदनवर्मन ने अपने उत्तरी पड़ोसियों, गढ़वलाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे।

मदनवर्मन के पुत्र यशोवर्मन द्वितीय ने या तो शासन नहीं किया, या बहुत कम समय के लिए शासन किया। मदनवर्मन के पौत्र परमर्दि-देव वर्मन अंतिम पुरबिया चक्रवर्ती सम्राट थे।

पतन

1162 में सम्राट यशोवर्मन द्वीतीय और उनके भतीजे दस्सराज और वत्सराज की हत्या हो गई और यशोवर्मन के पुत्र परमर्दीदेव उस समय मात्र 5 साल के थे, जिसके चलते चन्देल साम्राज्य के कुछ सामंत राजा परिस्थिति का लाभ उठा स्वतंत्र हो गए।

परमर्दिदेव (शासनकाल 1165-1203 ईस्वी) छोटी उम्र में चन्देल राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। परमर्दिदेव ने सभी विद्रोही राजाओं को हराकर उन्हे पुन: चन्देल साम्राज्य का सामंत राजा बना दिया। अब परमर्दिदेव के सामने दो राजा थे, एक काशी के राजा जयचंद और दूसरा अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान, जिसमे जयचंद उनके परममित्र थे इसीलिए मित्र राज्य बन गए वही पृथ्वीराज चौहान से जयचंद के साथ की वजह से दुश्मनी हुए। परमर्दिदेव का पुत्र ब्रम्हजित एवम पृथ्वीराज की पुत्री बेला एक दूसरे से प्रेम करते थे परंतु काशी के गेहरवारो से चन्देलो की मित्रता होने के कारण पृथ्वीराज ने विवाह के लिए मना कर दिया। अब युवराज ब्रम्हजित और सेनापति आल्हा चन्देल जो की परमर्दिदेव का भतीजे था, उन्होंने दिल्ली पे चढ़ाई कर दी। दिल्ली के युद्ध (1180) में पृथ्वीराज को हरा ब्रम्हजित ने बेला से विवाह किया। गौने के वक्त पृथ्वीराज के पुत्रो ने ब्रम्हजित को घायल कर मारने का प्रयास किया जिसके बाद युद्ध की परिस्थिति अब बदले में बदल गई। अब परमर्दिदेव, आल्हा और ऊदल ने अजमेर पे हमला किया और पृथ्वीराज के पुत्रो को बंदी बना महोबा ले आए। पृथ्वीराज ने ११८२ में महोबा पे हमला किया, महोबा के युद्ध में जिसमे सेनापति ऊदल और युवराज ब्रम्हजित, राजकुमार इंद्रजीत और गहड़वाल के राजकुमार लक्ष्मणचंद्र धोखे मारे गए वहीं चौहान पक्ष के २ लाख सैनिकों को मार दिया गया। युद्ध में आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान की टुकड़ी पर हमला कर दिया। युद्ध में आल्हा ने पृथ्वीराज को बुरी तरह पराजित कर मूर्छित कर दिया, लेकिन पृथ्वीराज के निहथा होने के कारण उन्हें गुरु के आज्ञा वश जीवनदान देना पड़ा। इस प्रकार महोबा के युद्ध में विजय चन्देलो की हुई एवं पृथ्वीराज मदनपुर में छुपते हुए अपने ननिहाल के रास्ते दिल्ली चला गया।

आल्हा के सन्यास के बाद चन्देलों और चौहानों में युद्ध फिर से शुरू हुआ। ११८७ में युद्ध हुआ, इस बार युद्ध का नेतृत्व खुद परमर्दिदेव कर रहा था। कीर्तिसागर के युद्ध में परमर्दिदेव चन्देल ने पृथ्वीराज चौहान को बुरी तरह परास्त किया जाता उसे बेइज्जत कर रणभूमि से भागने पर विवश किया।

परमर्दिदेव १२०३ में कुतुबद्दीन ऐबक के विरुद्ध लड़ा परंतु युद्ध में सेना के समय पे ना पोहोचने के कारण युद्ध करते हुए मारा गया। कुछ मुस्लिम स्त्रोत कहते है की सेनापति अजय देव ने परमर्दिदेव को मार दिया और चन्देल साम्राज्य पर कब्जा कर लिया, सम्राट परमर्दिदेव की मृत्यु होते हुई महोबा की सेना तुर्क सेना से हार गई।

बाद का राजवंश

चन्देल सत्ता दिल्ली की सेना के खिलाफ अपनी हार से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी। त्रिलोकीवर्मन, वीरवर्मन और भोजवर्मन परमर्दिदेव के उत्तराधिकारी थे। अगले शासक हम्मीरवर्मन (1288-1311 CE), बढ़ते मुस्लिम प्रभाव के साथ-साथ अन्य स्थानीय राजवंशों, जैसे बुंदेलों, बघेलों और खंगार राजाओ के उदय के कारण चन्देल शक्ति में गिरावट जारी रही।

हम्मीरवर्मन के वीरवर्मन द्वितीय सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, वीरवर्मन द्वितीय के बाद भोजवर्मन जिसने खिलजी अक्रांताओ का प्रतिरोध किया, भोजवर्मन के बाद भल्लालदेववर्मन राजा बना, भल्लालदेववर्मन के बाद परमर्दीदेववर्मन द्वितीय सिंहासन पर अरुण हुआ, परमर्दीदेव द्वितीय के बाद कीर्तिवर्मन कालिंजर का राजा बना। कीर्तिवर्मन चन्देल ने 1531 में हुमायूं को परास्त किया। उसने कालिंजर की घेराबंदी में 23मई 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी को मार दिया। लेकिन 26 1545 मई को शेर शाह के पुत्र इस्लाम शाह द्वारा युद्ध में छल मारा गया।

कीर्तिवर्मन द्वीतीय का पुत्र रामचंद्रवर्मन द्वितीय एवम पुत्री दुर्गावती थी। दुर्गावती ने गढ़ मंडला राजवंश में दलपत शाह कच्छवाहा से शादी की।[21][22]

संस्कृति एवं कला

चन्देल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। चन्देलों को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की। उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण खजुराहो में हिंदू और जैन मंदिर हैं। तीन अन्य महत्वपूर्ण चन्देल गढ़ जयपुर-दुर्ग (आधुनिक अजैगढ़), कलंजर (आधुनिक कालिंजर) और महोत्सव-नगर (आधुनिक महोबा) थे।

चित्रगुप्त मन्दिर
पार्श्वनाथ मंदिर, खजुराहो
कन्दरिया महादेव मन्दिर
विश्वनाथ मन्दिर
नंदी मंदिर
विश्वनाथ एवं नंदी मंदिर के मध्य का मंदिर
पार्वती मंदिर
देवी जगदंबी मंदिर
लक्ष्मण मंदिर
वामन मंदिर
चतुर्भुज मंदिर
जावरी मंदिर
पार्श्वनाथ जैन मंदिर
शांतिनाथ जैन मंदिर
जैन मंदिर
जैन मंदिर
जैन संग्रहालय

वंशावली

चन्देल चन्द राजवंश सेनापति)

बाहरी कड़ियाँ

खजुराहो के शिलालेख

सन्दर्भ

  • बी.ए. स्मिथ : अलीं हिस्ट्री ऑव इंडिया;
  • सी.वी.वैद्य : हिस्ट्री ऑव मेडिवल हिंदू इंडिया;
  • एन.एस. बोस: हिस्ट्री ऑव दि चंदेलाज;
  • डाइनैस्टिक हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग 2;
  • केशवचंद्र मिश्र : चन्देल और उनका राजत्वकाल;
  • हेमचंद्र रे, मजुमदार तथा पुसालकर : दि स्ट्रगिल फॉर दि एंपायर;
  • एस.के.मित्र : दि अर्ली रूलर्ज ऑव खजुराहो;
  • कृष्णदेव : दि टेंपुल ऑव खजुराहो; ऐंशेंट इंडिया, भाग 15
  • नेमाई साधन बोस : हिस्ट्री ऑव दि चंदेलाज;
  • शिशिरकुमार मित्र : अलीं रूलर्ज ऑव खजुराहो।
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