त्रैलोक्यवर्मन
त्रैलोक्यवर्मन | |||||
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अश्वपति, कान्यकुब्जाधिपति, त्रिकलिंगाधिपति, गजपति, राजत्रेयधिपति, परम-भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर, श्री-कलंजराधिपति[1] | |||||
19वें चन्देल महाराजा | |||||
शासनावधि | 1204–1245 ईस्वी | ||||
पूर्ववर्ती | परमर्दिदेव | ||||
उत्तरवर्ती | वीरवर्मन (प्रथम) | ||||
जन्म | 1198 ई. (समरजीत) महोबा, उत्तर प्रदेश | ||||
निधन | 1245 ई. | ||||
संतान | वीरवर्मन (प्रथम) | ||||
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घराना | हैहय, चन्द्रवंश | ||||
राजवंश | चन्देल | ||||
पिता | परमर्दिदेव | ||||
माता | मल्हना देवी (परिहार) | ||||
धर्म | वैष्णव संप्रदाय, हिंदू धर्म |
त्रैलोक्यवर्मन (ENG: Trailokyvarman Chandel); (शा. 1205–1245 ई.) भारत के चन्देल राजवंश के एक महाराजा थे। 1205 ई. की काकड़दाहा के युद्ध में उन्होंने दिल्ली के तुर्कों को हराया और अपने पूर्ववर्तियों के व्यक्तिगत कबीले प्रभुत्व पर फिर से कब्जा कर लिया। उन्होंने विंध्य, त्रिपुरी, कान्यकुब्ज और त्रिकलिंग आदि क्षेत्रों के शासकों को हरा उन्हें पुनः चन्देल साम्राज्य में मिला लिया। इन्होंने देवगिरी के यादवों को भी हरा उनके उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त की थी। 1236 ई. में दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश के अधीन कालिंजर पर तुर्क सेना के आक्रमण को विफल किया।[2]
प्रारंभिक जीवन[संपादित करें]
पृथ्वीराज चौहान 1192 ई. में घुरीदों के विरुद्ध तराइन की दूसरी लड़ाई में भागते हुए मारा गया था। चाहमानों (चौहानों) और कान्यकुब्ज के गहड़वालों को हराने के बाद, दिल्ली के घुरिद गवर्नर ने शक्तिशाली चन्देल साम्राज्य पर आक्रमण की योजना बनाई। कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में और इल्तुतमिश जैसे मजबूत जनरलों के साथ एक सेना ने 1203 ई. में कलंजरा के चन्देल किले को बिना युद्ध की चेतावनी दिए घेर लिया। इस कारण चन्देलो की सैन्य राजधानी महोबा से सैन्य शक्ति आ नही पाई और कालिंजर में मौजूद सैन्यबल बहुत कम था। युद्ध में परमर्दिदेववर्मन बहुत बहादुरी से लड़े और मारे गए।[3] उनके सेनापति अजेय देव के नेतृत्व में चन्देलो ने साहस और वीरता के साथ अंत तक युद्ध किया परंतु सैन्यबल के चलते मारे गए।[4][5] मुस्लिम स्त्रोत बताते है की केवल 300 घायल चन्देल जीवित बचने की हालत में थे। कालिंजर पर कब्जा होते ही चन्देलो द्वारा बनवाए गए 130 स्वर्ण मंदिरो को जी भर के लूटा और तोड़ा, मुस्लिम स्त्रोतों के अनुसार करीब 30 हजार हिंदुओ को गुलाम बना लिया गया।
फखरुद्दीन मुबारकशाह का कहना है कि कलंजर का पतन हिजरी वर्ष 599 (1202-1203 ई.) में हुआ था। ताज-उल-मासिर के अनुसार, कलंजर रजब की 20 तारीख को, हिजरी वर्ष 599 में, सोमवार को गिरा। हालाँकि, यह तारीख 12 अप्रैल 1203 ई. से मेल खाती है, जो शुक्रवार था। ऐतिहासिक स्रोतों की अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर, विभिन्न विद्वान चन्देल साम्राज्य के पतन का समय 1202 ई. - 1203 सी. ई. बताते हैं।
युद्ध में सम्राट परमर्दिदेव वर्मन की मृत्यु के बाद यह देखा गया कि सेना की कमी के कारण सभी मारे जायेंगे, तो उसी बीच युद्ध के दौरान राजकुमार त्रैलोक्यवर्मन को बचा लिया गया और खजुराहो लाया गया।
राज्याभिषेक और पुनर्ग्रहण[संपादित करें]
राज्याभिषेक[संपादित करें]
चन्देलों के शिलालेखों से पता चलता है कि त्रैलोक्यवर्मन सम्राट परमर्दीदेव के बाद चन्देल शासक बने। वह संभवतः परमर्दिदेव के पुत्र समरजीत थे जिसे खजुराहो में स्थानांतरित कर दिया गया था। वो 1203 ई. में घुरिद के खिलाफ सम्राट परमर्दिदेव की मृत्यु के दौरान संभवतः 8 वर्ष के थे।[6] उसका 1205 ई. में खजुराहो के चन्देल सिंहासन पर राज्याभिषेक हुआ था।[7]
त्रैलोक्यवर्मन के सात शिलालेख अजयगढ़, बाणपुर, छतरपुर के पास गर्रा और टेहरी (टीकमगढ़) में पाए गए हैं। इन शिलालेखों में बुंदेलखंड क्षेत्र के कई अन्य स्थानों का उल्लेख किया गया है।[8] शिलालेखों में उन्हें सामान्य शाही उपाधियाँ अश्वपति, कान्यकुब्जाधिपति, त्रिकलिंगाधिपति, गजपति, राजत्रेयधिपति परम-भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परम-महेश्वर श्री-कलंजराधिपति दी गई हैं।[9] उनके सिक्के बांदा जिला में पाए गए हैं। इससे पता चलता है कि उन्होंने पारंपरिक चन्देल प्रभुत्व के एक बड़े हिस्से को नियंत्रित किया था।[8]
त्रिलोक्यवर्मन के शासनकाल के दौरान काकरेडिका (आधुनिक काकरेरी) के महारणकों (सामंती प्रमुखों) ने अपनी निष्ठा त्रिपुरी के कलचुरी से चन्देलों में स्थानांतरित कर दी।[10] कुमारपाल का रीवा शिलालेख उन्हें त्रिकालिंगाधिपति जैसी कलचुरी उपाधियाँ देता है, शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने कलचुरी क्षेत्र पर सीधा कब्ज़ा कर लिया था और कलचुरियो को जागीरदार तक सीमित कर दिया।[11]
सैन्य अभियान[संपादित करें]
तुरुसकास (तुर्क) के विरुद्ध[संपादित करें]
त्रैलोक्यवर्मन ने कलंजराधिपति ("कलंजरा के भगवान") की उपाधि धारण की थी, जिससे पता चलता है कि उन्होंने दिल्ली सल्तनत के तुर्क शासकों से कलंजर किले पर पुनः कब्जा किया था। त्रैलोक्यवर्मन के गरहा दिल्ली सल्तनत के खिलाफ काकदादाह की लड़ाई में कुतुबुद्दीन ऐबक को परास्त कर जेजाकभुक्ति पर कब्जा किया था। लड़ाई में रौता पेप नाम का एक सेनापति और सामंत (सामंत) भी मारा गया, जो भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण था।[12] अजयगढ़ शिलालेख में कहा गया है कि जैसे त्रैलोक्यधिपति (तीनों लोकों के अधिपति विष्णु) ने समुंद्र में डूबी हुई पृथ्वी को उठाया वैसे ही त्रैलोक्यवर्मन ने तुरुष्कों (तुर्कों) के अत्याचार में डूबी हुई हिंदुओं को उबारा।[13] कालिंजर शीलालेख का कहना है कि, 1236 ई. में दिल्ली सल्तनत इल्तुतमिश के अधीन तुर्कों ने कालिंजर पर आक्रमण किया, लेकिन चन्देल शासक त्रैलोक्यवर्मन ने उन्हें हराकर खदेड़ दिया गया। इसे विद्वान मजूमदार ने भी स्वीकार किया है.[14]
अन्य अभियान[संपादित करें]
भोजवर्मन के शासनकाल के अजयगढ़ शिलालेख के अनुसार, त्रैलोक्यवर्मन के सेनापति आनंद ने कई जनजातियों को अपने अधीन कर लिया, जिनमें भिल्ला, शबारस और पुलिंद शामिल थे। यह भी कहा जाता है कि उसने भोजुका को हराया था, जिसकी पहचान अनिश्चित है। [15]
त्रिकालिंग, त्रिपुरा और कान्यकुब्ज अभियान[संपादित करें]
पहले के कुछ विद्वानों का मानना था कि त्रैलोक्यवर्मन ने कलचुरी साम्राज्य के उत्तरी हिस्से के साथ-साथ कान्यकुब्ज पर भी कब्जा कर लिया था। यह सिद्धांत 1212 ई.पू. धुरेटी शिलालेख में त्रैलोक्यवर्मन के साथ उल्लिखित "त्रैलोक्यमल्ला" की पहचान पर आधारित था। हालाँकि, 1197 ई. के झूलपुर शिलालेख की खोज इस धारणा को निरस्त कर देती है: त्रैलोक्यमल्ला वास्तव में कलचुरी राजा विजयसिम्हा का पुत्र था।[16] त्रिलोक्यवर्मन के शासनकाल के दौरान काकरेडिका (आधुनिक काकरेरी) के महारणकों (सामंती प्रमुखों) ने अपनी निष्ठा त्रिपुरी के कलचुरी से चंदेलों में स्थानांतरित कर दी।[10] कुमारपाल का रीवा शिलालेख उन्हें त्रिकालिंगाधिपति जैसी कलचुरी उपाधियाँ देता है, शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने कलचुरी क्षेत्रों पर सीधे तौर पर कब्ज़ा कर लिया था।[11]
धुलेटी शिलालेख में भी उनका वर्णन कान्यकुब्ज पति (कन्याकुब्ज का स्वामी) के रूप में किया गया है, जिसे किसी अन्य चंदेला शासक ने नहीं माना था। यह संभव है कि त्रैलोक्यवर्मन ने कान्यकुब्ज के गहाडावला के पतन के बाद यह उपाधि धारण की।[17]
सिक्के[संपादित करें]
अपने पूर्ववर्तियों की तरह, त्रैलोक्यवर्मन ने एक बैठी हुई देवी की छवि वाले सोने के सिक्के जारी किए,[18] और देवता हनुमान की विशेषता वाले तांबे के सिक्के।[19] उनका उत्तराधिकारी विरवर्मन हुआ।[20]
ग्रंथ सूची[संपादित करें]
- P. C. Roy (1980). The Coinage of Northern India. Abhinav. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170171225.
- R. K. Dikshit (1976). The Candellas of Jejākabhukti. Abhinav. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170170464.
- Sisirkumar Mitra (1977). The Early Rulers of Khajurāho. Motilal Banarsidass. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120819979.
- Sushil Kumar Sullerey (2004). Chandella Art. Aakar Books. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-87879-32-9.
- V. V. Mirashi (1957). "The Kalacuris". प्रकाशित R. S. Sharma (संपा॰). A Comprehensive history of India: A.D. 985-1206. 4 (Part 1). Indian History Congress / People's Publishing House. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7007-121-1.
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ Mitra, Sisir Kumar (1977). The Early Rulers of Khajur (Second Revised Edition) (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass Publ. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-1997-9.
- ↑ Majumdar, R. C. (2016-01-01). Ancient India (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0435-7.
- ↑ Jahan, Dr Ishrat. Socio-Cultural life in Medieval History (अंग्रेज़ी में). Lulu.com. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-359-22280-3.
- ↑ Mahajan, Vidya Dhar (1965). Muslim Rule in India (अंग्रेज़ी में). S. Chand.
- ↑ Mahajan, Vidya Dhar; Mahajan, Savitri (1963). The Sultanate of Delhi (अंग्रेज़ी में). S. Chand.
- ↑ R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 155.
- ↑ India), Asiatic Society (Kolkata (1896). Journal (अंग्रेज़ी में).
- ↑ अ आ R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 156-157.
- ↑ R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 164.
- ↑ अ आ Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰प॰ 130-131.
- ↑ अ आ R. K. Dikshit 1976, पृ॰प॰ 164-165.
- ↑ Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 129.
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- ↑ Majumdar, R. C. (2016-01-01). Ancient India (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0435-7.
- ↑ Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰प॰ 132-133.
- ↑ V. V. Mirashi 1957, पृ॰प॰ 497-498.
- ↑ R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 165.
- ↑ P. C. Roy 1980, पृ॰ 55.
- ↑ P. C. Roy 1980, पृ॰ 59.
- ↑ Sushil Kumar Sullerey 2004, पृ॰ 27.