परमर्दिदेव

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परमर्दिदेव
चक्रवर्ती सम्राट
बालोपीनेता, परमभट्टरक, परमेश्वर, परमभागवत, महाराजाधिराज, महोबानरेश, माहिष्मतीनरेश, दहालाधिपति, श्रीकलंजराधिपति'
18वें चन्देल सम्राट
शासनावधिc. 1165-1203 CE
पूर्ववर्तीयशोवर्मन द्वितीय
उत्तरवर्तीत्रैलोक्यवर्मन
जन्म19 जनवरी, 1160 ई0
महोबा, उत्तर प्रदेश
निधन14 अप्रैल, 1203 ई0
कालिंजर दुर्ग, उत्तर प्रदेश
जीवनसंगीमल्हाना-देवी (परिहार राजकुमारी)
संतानब्रम्हजीत, रणजीत, इंद्रजीत, नायकी देवी, त्रैलोक्यवर्मन (समरजीत)
पूरा नाम
श्रीमन्मत परमर्दीदेव-वर्मन चन्देल (प्रथम)
शासनावधि नाम
परमाल
घरानाहैहय, चन्द्रवंश
राजवंशचन्देल
पितायशोवर्मन द्वितीय
धर्मवैष्णव धर्म, हिंदू धर्म

परमर्दिदेव (संस्कृत: परमर्दिदेववर्मन चन्देल:) (शासनकाल 1165-1203 ई0), परमाल के नाम से विख्यात पुरबिया चन्देल राजवंश से भारत के अंतिम चक्रवर्ती राजपूत सम्राट थे, जिन्होंने वर्तमान उत्तर प्रदेश के महोबा, जेजाकभुक्ति में अपनी राजधानी के साथ भारत के कई भूभागों पर शासन किया था। उन्होंने 1165 ई0 में 5 वर्ष की अवस्था में अपना राज्य संभाला था। 1182 ई0 में पृथ्वीराज ने महोबा के गढ़ सिरसा पर छापा मारा लेकिन महोबा में सेनापति आल्हा चन्देल से पराजित हुए और जीवनदान पा मदनपुर भाग गए। 1187 ई0 में परमर्दिदेववर्मन ने कीर्तिसागर के युद्ध में पृथ्वीराज के आक्रमण का प्रतिकार किया। 1203 ई0 में कलंजर की घेराबंदी के युद्ध में परमर्दिदेव बहुत बहादुरी से लड़े और मारे गए।[3]

निजी जीवन[संपादित करें]

महोबे के सम्राट परमर्दिदेव या परमाल का नाम समस्त उत्तर भारत में विख्यात है। सन् 1165 के लगभग सिंहासन पर बैठने के समय इसकी उम्र 5 साल थी किंतु इसने राज्य को अच्छी तरह संभाला। वो बहुत ही उदार सम्राट थे। महोबा ताम्रपत्र शिलालेख अनुसार इनका जन्म 19 जनवरी, 1160 ई0 में चन्द्रवंशी यादव क्षत्रियों के हैहयवंशी वृष्णीकुल यानी चन्देलकुल में हुआ था। परमर्दिदेव का नियम था की वो गऊ दान तथा ब्राम्हणों को भोजन कराकर ही भोजन करते थे। परमर्दिदेव ने उरई की लड़ाई जितने के बाद उरई के परिहार सामंत राजा वासुदेव की पुत्री मल्हना देवी से विवाह किया था तथा उनकी बहन देवला और तिलका का विवाह अपने दूर के छोटे चचेरे भाई और सेनापति दसराज और वत्सराज से कराया था।

सेमरा ताम्रपत्र शिलालेख में उसे ऐसे व्यक्ति के रूप में स्तुति करता है जो सुंदरता में मकरध्वज (प्रेम के देवता) से आगे निकल गया, गहराई में समुद्र, महिमा में स्वर्ग का स्वामी, बृहस्पति ज्ञान में, और सच्चाई में युधिष्ठिर थे। [4]

परमर्दिदेववर्मन वैष्णव होने के साथ साथ शिव भक्त और अच्छे कवि भी थे। शिलालेखों के अनुसार संभवत: वह बड़े अच्छे सम्राट, दयालु तथा राजनीतिज्ञ रहे; किंतु यदि परंपरागत कथाओं और शिलालेखों पर विश्वास करें तो यह मानना पड़ेगा कि दुश्मनों पे भी उदारता ही उसका दोष था।

सैन्य वृत्ति[संपादित करें]

1165 ई. में 5 वर्ष की उम्र में परमर्दिदेववर्मन का महोबा के राजसिंहासन पर राज्याभिषेक हुआ था। लगभग 10 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के समय स्वतंत्र हुए कई राजाओं को दिग्विजय में हरा पुनः अपने अधीन कर लिया। दक्षिण और पूर्व भारत के भागों को जितने के बाद इसके केवल दो प्रतिद्वंदी थे, एक काशी के राजा जयचंद्र और दूसरा दिल्ली का राजा पृथ्वीराज चौहान। जिनमे परमर्दिदेव ने जयचंद से मित्रता थी।

1182 ई. में उसने पृथ्वीराज के आक्रमण का प्रतिरोध किया। 1183 ई. महोबा के एक शिलालेख में कहा गया है कि त्रिपुरी के स्वामी जब भी परमर्दिदेव की बहादुरी के गीत सुनते थे तो बेहोश हो जाते थे। इससे पता चलता है कि परमर्दिदेव ने त्रिपुरी के कलचुरी राजा, संभवतः जयसिम्हा को हराया था।[5]

1187 ई. में उन्होंने पृथ्वीराज के दूसरे आक्रमण का भी प्रतिरोध किया। 1195 ई. के बटेश्वर शिलालेख में उल्लेख है कि "सम्राट परमर्दिदेववर्मन का पैर-कुर्सी राजाओं यानी सामंतों के शिखा-रत्नों की चमक से हल्का लाल था, जो उसके सामने झुक रहे थे"। इसके अलावा, 1201 ई. के कलंजर अभिलेख में उनका उल्लेख 'दशर्नाधिनाथ' (दशार्ण देश के स्वामी) के रूप में किया गया है, जिसके अर्थ उसने दशार्ण पर भी सीधा नियंत्रण रखा था।[6]

इस महान योद्धा की प्रस्तुत जानकारी काव्य और शिलालेख के आधार पर प्रस्तुत की गई है। परमालरासो तथा उसके खंड आल्हाखंड के वर्णनों से यह निश्चित है कि चौहानों और चन्देलों का यह संघर्ष कुछ वर्षों तक चलता रहा और इसमें दोनों पक्षों की पर्याप्त हानि हुई। परमर्दिदेव के मुख्य सेनापति में से चन्देलवंशी बनाफर बंधु आल्हा, ऊदल, सुलखे, मलखे एवम युवराज ब्रम्हजित चन्देल थे। यह विनाशकारी युद्ध महोबा एवं कीर्तिसागर के युद्ध में चौहानों की हार और चन्देलो की विजय पर खत्म हुआ।

परमर्दिदेव के शासनकाल के पहले कुछ वर्षों के शिलालेख सेमरा (1165-1166 सीई), महोबा (1166-1167 सीई), इछावर (1171 सीई), महोबा (1173 सीई) में पाए गए हैं। पचर (1176 सीई) और चरखारी (1178 सीई)।[7] ये सभी शिलालेख उनके लिए शाही उपाधियों का उपयोग करते हैं: बालोपनाता-परमभट्टरक-महाराजाधिराज-परमेश्वर परम-महेश्वर श्री-कलंजराधिपति चक्रवर्ती सम्राट श्रीमनमत परमर्दी-देव-वर्मन। यह इंगित करता है कि अपने शासनकाल के प्रारंभिक भाग में, परमर्दी-देव ने अपने दादा मदनवर्मन से विरासत में प्राप्त साम्राज्य को बरकरार रखा था। [8][9]

ग्रंथ[संपादित करें]

परमर्दिदेव शक्तिशाली चन्देल शासकों में से अंतिम थे, और कई पौराणिक ग्रंथों जैसे परमाल रासो और आल्हा-खंड (परमाल रासो का भाग), में उल्लेख किया गया है। उनकी अधिकांश सामग्री पृथ्वीराज चौहान और परमर्दिदेव को महिमामंडित करने के लिए लिखी गई है। इस प्रकार, ये ग्रंथ संदिग्ध ऐतिहासिकता के हैं, और इसलिए, परमर्दिदेव का अधिकांश शासनकाल अस्पष्टता में डूबा हुआ है।[4][9]

चौहान-चन्देल युद्ध[संपादित करें]

  • कारण

पृथ्वीराज पद्मसेन की बेटी से शादी करके दिल्ली लौट रहे थे। इस यात्रा के दौरान उस पर घुरीद टुकड़ी) द्वारा हमला किया गया था। चौहान सेना हमलों को खदेड़ने में कामयाब रही, लेकिन इस प्रक्रिया में गंभीर हताहत हुए। वे अपना रास्ता भटक गए, और चन्देल साम्राज्य की राजधानी महोबा में पहुंच गए। चौहान सेना, जिसमें कई घायल सैनिक थे, ने अनजाने में चन्देलो के शाही उद्यान में एक शिविर स्थापित कर दिया। उन्होंने बगीचे के रखवाले को उनकी उपस्थिति पर आपत्ति करने के लिए मार डाला। जब परमर्दिदेव को इस बात का पता चला तो उन्होंने चौहान सेना का मुकाबला करने के लिए 30 सैनिकों को भेजा। संघर्ष में उनका नुकसान हुआ। तब परमर्दिदेव ने पृथ्वीराज के खिलाफ अपने सेनापति उदल के नेतृत्व में एक और सेना भेजने का फैसला किया। उदल ने इस प्रस्ताव के खिलाफ सलाह देते हुए तर्क दिया कि घायल सैनिकों पर हमला करना या पृथ्वीराज का विरोध करना उचित नहीं होगा इतनी सी बात पर। हालाँकि, सम्राट परमर्दिदेव अपने बहनोई माहिल परिहार (प्रतिहार) के प्रभाव में थे, जिन्होंने चन्देलो के खिलाफ गुप्त रूप से दुर्भावना को बरकरार रखा था। माहिल ने परमर्दिदेव को हमले की योजना पर आगे बढ़ने के लिए उकसाया।

  • सेनाओं के मध्य युद्ध

उदल के नेतृत्व में चंद टुकड़ी चन्देल सेना ने फिर चौहान सेना के खिलाफ दूसरा हमला किया, लेकिन हार गई। स्थिति तब शांत हुई जब पृथ्वीराज दिल्ली के लिए रवाना हुए।[10]

माहिल परिहार की राजनीतिक साजिश को सहन करने में असमर्थ, उदल और उनके भाई आल्हा ने चन्देल दरबार छोड़ दिया। उन्होंने कन्नौज के गहदवाला शासक जयचंद के यहां शरण ली।[10] माहिल ने तब पृथ्वीराज चौहान को एक गुप्त संदेश भेजा, जिसमें उन्हें सूचित किया गया था कि परमर्दिदेव के सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों ने महोबा छोड़ दिया है। उसके द्वारा उकसाया गया।

  • सिरसागढ़ का प्रथम युद्ध

पृथ्वीराज 1182 ईस्वी में दिल्ली से निकला और ग्वालियर और बटेश्वर के रास्ते चन्देल साम्राज्य की ओर बढ़ा। सबसे पहले, उसने सिरसागढ़ को घेर लिया, जो कि आल्हा और उदल के चचेरे भाई मलखान के पास था। पृथ्वीराज ने मलखान को जीतने की कोशिश की, लेकिन मलखान परमर्दी के प्रति वफादार रहे और आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़े। मलखान द्वारा आक्रमणकारी सेना के आठ सेनापतियों के मारे जाने के बाद, पृथ्वीराज ने स्वयं युद्ध की कमान संभाली। चन्देल सिरसागढ़ का युद्ध युद्ध हार गए, और सेनापति मलखान (मलखे) चन्देल मारा गया।

पृथ्वीराज एवं परमर्दिदेव का युद्ध[संपादित करें]

  • दिल्ली का युद्ध

दिल्ली के युद्ध में परमर्दी-देव के पुत्र ब्रह्मजित और भतीजे आल्हा ने चौहानों को हराया और ब्रह्मजीत ने बेला चौहान (पृथ्वीराज III की पुत्री) से शादी की।[11][12][13]

  • महोबा का युद्ध

इसके बाद पृथ्वीराज ने चन्देलो की राजधानी महोबा पे हमला कर दिया, घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में चन्देल पक्ष से युवराज ब्रम्हजित, ऊदल, जयचंद्र के 2 पुत्र एक भतीजे मारे गए। महोबा के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान चन्देलो से बुरी तरह पराजित हुआ। युद्ध में उसकी पूरी सेना खत्म हो गई। आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया, लेकिन परमर्दिदेव ने बेला (ब्रम्हा की विधवा) के आग्रह पर पृथ्वीराज के 5 पुत्रो को बंदी बनाकर बेला के सामने रख दिया। जिसके बाद बेला ने उनका सर काट दिया और अपने पति ब्रम्हजित के साथ सती हो गई। ये सब देखने के बाद पृथ्वीराज डर के मारे महोबा से दूर जाकर मदनपुर में कही छुप गया। संभवत: वो वही से दिल्ली वापिस चला गया हो।[12][11][14]

  • कीर्तिसगार का युद्ध

आल्हा के संन्यास के बाद, 1187 में पृथ्वीराज ने पुन महोबा पे हमला किया। महोबा दुर्ग के निकर कीर्तिसागर के मैदान में घमासान युद्ध हुआ जिसमें परमर्दीदेव ने पृथ्वीराज को पराजित कर उसे भागने पर विवश कर दिया [15][16][17][13]

बाद के दिन और मृत्यु[संपादित करें]

एक कलंजर शिलालेख के अनुसार, जबकि परमर्दिदेव के पूर्ववर्तियों में से एक ने सांसारिक शासकों की पत्नियों को कैद कर लिया था, परमर्दिदेव वीर ने दैवीय शासकों को भी अपनी पत्नियों की सुरक्षा के लिए चिंतित कर दिया। नतीजतन, देवताओं ने उसके खिलाफ मलेच्छस (विदेशियों) की एक सेना को छोड़ दिया, और उसे हार का सामना करना पड़ा।[5]

पृथ्वीराज चौहान 1192 ई. में घुरीदों के विरुद्ध तराइन की दूसरी लड़ाई में भागते हुए मारा गया था। चाहमानों (चौहानों) और कान्यकुब्ज के गहड़वालों को हराने के बाद, दिल्ली के घुरिद गवर्नर ने शक्तिशाली चन्देल साम्राज्य पर आक्रमण की योजना बनाई। कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में और इल्तुतमिश जैसे मजबूत जनरलों के साथ एक सेना ने 1203 ई. में कलंजरा के चन्देल किले को बिना युद्ध की चेतावनी दिए घेर लिया। इस कारण चन्देलो की सैन्य राजधानी महोबा से सैन्य शक्ति आ नही पाई और कालिंजर में मौजूद सैन्यबल बहुत कम था। युद्ध में परमर्दिदेववर्मन बहुत बहादुरी से लड़े और मारे गए।[18] उनके सेनापति अजेय देव के नेतृत्व में चन्देलो ने साहस और वीरता के साथ अंत तक युद्ध किया परंतु सैन्यबल के चलते मारे गए।[19][20] मुस्लिम स्त्रोत बताते है की केवल 300 घायल चन्देल जीवित बचने की हालत में थे। कालिंजर पर कब्जा होते ही चन्देलो द्वारा बनवाए गए 130 स्वर्ण मंदिरो को जी भर के लूटा और तोड़ा, मुस्लिम स्त्रोतों के अनुसार करीब 30 हजार हिंदुओ को गुलाम बना लिया गया।

फखरुद्दीन मुबारकशाह का कहना है कि कलंजर का पतन हिजरी वर्ष 599 (1202-1203 ई.) में हुआ था। ताज-उल-मासिर के अनुसार, कलंजर रजब की 20 तारीख को, हिजरी वर्ष 599 में, सोमवार को गिरा। हालाँकि, यह तारीख 12 अप्रैल 1203 ई. से मेल खाती है, जो शुक्रवार था। ऐतिहासिक स्रोतों की अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर, विभिन्न विद्वान चन्देल साम्राज्य के पतन का समय 1202 ई. - 1203 सी. ई. बताते हैं।


परमर्दिदेव का एक ब्राह्मण सेनापति चित्रगंध था, जिसके पिता और सेनापति ढेवा की हत्या पृथ्वीराज ने की था। पिता की मृत्यु के बाद चित्रगंध को परमर्दिदेव ने अपने पुत्र समान ही पाला था। 1203 ई0 के कलिंजर की घेरबंदी के युद्ध में परमर्दिदेव की मृत्यु के बाद चित्रगंध को एहसास हो गया था की महोबा से सेना न आने की वजह से जीत असंभव है तो उसने परमर्दिदेव के आठ वर्षीय घायल पुत्र समरजीत (त्रैलोक्यवर्मन) को खजुराहों पहुंचा दिया था।

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • पृथ्वीराज रासो, महोबा खंड;
  • आल्हा खंड;
  • शिशिरकुमार मित्र, अर्ली रूलर्स ऑफ खजुराहो,
  • दशरथ शर्मा, प्राचीन चौहान राजवंश।
  1. Chandra, Satish (2007). History of Medieval India: 800-1700 (अंग्रेज़ी में). Orient BlackSwan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-250-3226-7.
  2. Chandra, Satish (2007). History of Medieval India: 800-1700 (अंग्रेज़ी में). Orient BlackSwan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-250-3226-7.
  3. Jahan, Dr Ishrat. Socio-Cultural life in Medieval History (अंग्रेज़ी में). Lulu.com. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-359-22280-3.
  4. R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 141.
  5. R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 143.
  6. Mitra, Sisir Kumar (1977). The Early Rulers of Khajur (Second Revised Edition) (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass Publ. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-1997-9.
  7. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 119.
  8. Parmaalraso 1187, पृ॰ 340.
  9. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 120.
  10. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 121.
  11. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 125.
  12. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 122.
  13. Parmaalraso 1189, पृ॰ Jagnikarao.
  14. Mohinder Singh Randhawa & Indian Council of Agricultural Research 1980, पृ॰प॰ 472.
  15. M.S. Randhawa & Indian Sculpture: The Scene, Themes, and Legends 1985, पृ॰प॰ 532.
  16. Parmal Raso, Shyam sunder Das, 1919, 467 pages
  17. Pandey(1993) pg197-332
  18. Jahan, Dr Ishrat. Socio-Cultural life in Medieval History (अंग्रेज़ी में). Lulu.com. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-359-22280-3.
  19. Mahajan, Vidya Dhar (1965). Muslim Rule in India (अंग्रेज़ी में). S. Chand.
  20. Mahajan, Vidya Dhar; Mahajan, Savitri (1963). The Sultanate of Delhi (अंग्रेज़ी में). S. Chand.