स्वदेशी

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स्वदेशी का अर्थ है- 'अपने देश का' अथवा 'अपने देश में निर्मित'। वृहद अर्थ में किसी भौगोलिक क्षेत्र में जन्मी, निर्मित या कल्पित वस्तुओं, नीतियों, विचारों को स्वदेशी कहते हैं। वर्ष 1905 के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बहुत बल मिला, यह 1911 तक चला और गाँधी जी के भारत में पदार्पण के पूर्व सभी सफल अन्दोलनों में से एक था। अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विनायक दामोदर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे।[1] आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया। उन्होंने इसे "स्वराज की आत्मा" कहा।

स्वदेशी का आधार[संपादित करें]

हमें यह समझना होगा कि देश में जो भी विकास अभी तक हुआ है, वह वास्तव में स्वदेशी के आधार पर ही हुआ है। कुल पूंजी निवेश में विदेशी पूंजी का हिस्सा २ प्रतिशत से भी कम है और वह भी गैर जरूरी क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश जाता है। आज चिकित्सा के क्षेत्र में भारत दुनिया का सिरमौर देश बन चुका है इसके लिए जिम्मेदार विदेशी पूंजी नहीं, बल्कि भारतीय डाक्टरों की उत्कृष्टता है। आज अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र जो पूरी तरह से भारतीय प्रौद्योगिकी के आधार पर विकसित हुआ है, ने दुनिया में अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ दिये हैं। आज दुनिया के जाने-माने देश भी अपने अंतरिक्ष यानों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने के लिए भारतीय 'पी.एस.एल.वी.' का सहारा लेते हैं। सामरिक क्षेत्र में आणविक विस्फोट कर भारत पहले ही दुनिया को अचंभित कर चुका है। उधर अग्नि प्रक्षेपपास्त्र का निर्माण हमारे दुश्मनों को दहला रहा है। दुनियाभर में भारत के वैज्ञानिकों, डाक्टरों और इंजीनियरों ने अपनी धाक जमा रखी है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद आयातों पर निर्भरता बढ़ने के बावजूद हमारे निर्यातों में वृद्धि नहीं हो रही, लेकिन हमारे सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की अथक मेहनत के कारण हमारे सॉफ्टवेयर के बढ़ते निर्यात सरकार की गलत नीतियों के बावजूद देश को लाभान्वित कर रहे हैं।

इन सभी क्षेत्रों में हमारी प्रगति किसी भी दृष्टिकोण से विदेशी निवेश और भूमंडलीकरण के कारण नहीं, बल्कि हमारे संसाधनों, हमारे वैज्ञानिकों और उत्कृष्ट मानव संसाधनों के कारण हो रही है। अभी भी समय है कि सरकार विदेशी निवेश के मोह को त्याग कर, स्वदेशी यानी स्वेदशी संसाधन, स्वदेशी प्रौद्योगिकी और स्वदेशी मानव संसाधनों के आधार पर विकास करने की मानसिकता अपनाए। आज जब अमरीका और यूरोप सरीखे सभी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं, तब भारत में स्वदेशी के आधार पर आर्थिक विकास ही एक मात्र विकल्प है।

स्वदेशी आन्दोलन और हिन्दी[संपादित करें]

महात्मा गाँधी ने सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा था–

मैंने सन् 1915 में कांग्रेस के (एक के अलावा) सभी अधिवेशनों में भाग लिया है। इन अधिवेशनों का मैंने इस अभिप्राय से अध्ययन किया है कि कार्यवाही को अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दुस्तानी में चलाने से कितनी उपयोगिता बढ़ जायेगी। मैंने सैकड़ों प्रतिनिधियों और हजारों अन्य व्यक्तियों से बातचीत की है और मैंने अन्य सभी व्यक्तियों से अधिक विशाल क्षेत्र का दौरा किया है और अधिक शिक्षित तथा अशिक्षित लोगों से मिला हूँ– लोकमान्य तिलक और श्रीमती ऐनी बेसेन्ट से भी अधिक। मैं इस दृढ़ निश्चय पर पहुँचा हूँ कि हिन्दुस्तानी के अलावा संभवत: कोई ऐसी भाषा नहीं है, जो विचार विनिमय या राष्ट्रीय कार्यवाही के लिए राष्ट्रीय माध्यम बन सके।[2]

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सन 1905 ई. तक कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेने वाले सदस्य अधिकतर अंग्रेजी वेशभूषा में रहते थे और अपने भाषण अंग्रेजी में ही दिया करते थे लेकिन सन 1906 ई. के बाद ‘स्वराज्य’, ‘स्वदेशी’ ने इतना जोर पकड़ा कि ‘स्वभाषा’ और हिन्दी भाषा के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया। लोकमान्य तिलक ने ‘हिन्द केसरी’ के माध्यम से हिन्दी को प्रचारित–प्रसारित करने का प्रयास किया। पंजाब में लाला लाजपत राय ने शिक्षण संस्थाओं में हिन्दी की पढ़ाई को अनिवार्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पण्डित मदनमोहन मालवीय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना करके एवं पाठ्यक्रम में हिन्दी एक विषय के रूप में सम्मिलित करके तथा ‘अभ्युदय’, ‘मर्यादा’, ‘हिन्दुस्तान’ आदि पत्रों को प्रारम्भ एवं सम्पादन करके हिन्दी का प्रचार–प्रसार किया। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, काका कालेलकर आदि ने हिन्दी को सार्वदेशिक बनाकर जन–जागृति लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जाहिर है स्वाधीनता आन्दोलन की सफलता के लिए यह आवश्यक था कि उसे सार्वदेशिक और अखिल भारतीय बनाया जाए क्योंकि सन् 1857 के प्रथम संघर्ष में हमें इसलिए असफल होना पड़ा क्योंकि वह अखिल देशीय नहीं हो सका था। उस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अखिल भारतीय नहीं बनाये जा सकने के अनेक कारणों में एक कारण राष्ट्रव्यापी भाषा का अभाव भी था। एक अखिल देशीय भाषा के अभाव में सम्पूर्ण देश को नहीं जोड़कर रखा जा सका और वह आन्दोलन मात्र हिन्दी प्रदेशों तक ही सीमित होकर रह गया था। अन्य प्रदेशों में छिटपुट घटनाएँ अवश्य घटित हुईं लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम असफल जरूर हुआ लेकिन यह सिखा गया कि अखिल भारतीय स्तर पर संगठित हुए बिना आजादी का स्वप्न देखना व्यर्थ है। इसलिए यह जरूरी समझा गया कि विभिन्न भाषा–भाषियों के बीच एक सम्पर्क भाषा ही राष्ट्रव्यापी भाषा हो ताकि योजनाओं का सही क्रियान्वयन हो सके और सम्पूर्ण देश को जोड़कर रखा जा सके। अब प्रश्न यह था कि राष्ट्रव्यापी भाषा कौन हो सकती है? यद्यपि उस समय अखिल भारतीय स्तर पर संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी जैसी भाषाएँ थीं लेकिन इनमें से कोई भी ऐसी नहीं थी जो जनता की भाषा बन सके। वैसे तो अंग्रेजी के माध्यम से उस समय सम्पर्क–कार्य चल रहा था लेकिन जब बात स्वदेशी, स्वाधीनता, स्वाभिमान और स्वभाषा की हो तब किसी विदेशी भाषा को सम्पर्क भाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाना उचित नहीं था। इसलिए देश की एक दर्जन से भी अधिक भाषाओं में से एक को राष्ट्रीय सन्देश की वाहिका या अन्तर प्रान्तीय व्यवहार के लिए चुनना था। सरलता, सहजता, स्वाभाविकता और बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिन्दी को राष्ट्र भाषा और सम्पर्क भाषा के रूप में अपनाने की जोरदार वकालत की गई।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. क्रान्त, मदनलाल वर्मा (2006). स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास. 1 (1 संस्करण). नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन. पृ॰ 84. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-119-4. मूल से 14 अक्तूबर 2013 को पुरालेखित.
  2. हिन्दी का वैश्विक परिदृश्य डॉ॰ पंडित बन्ने, पृष्ठ संख्या 26

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]