अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध

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राष्ट्र महल (Palace of Nations) : जेनेवा स्थित इस भवन में 2012 में ही दस हजार से अधिक अन्तरसरकारी बैठकें हुईं। जेनेवा में विश्व के सर्वाधिक अन्तरराष्ट्रीय संस्थान हैं।

अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विभिन्न देशों के बीच सम्बन्धों का अध्ययन है, साथ ही साथ सम्प्रभु राज्यों, अन्तर-सरकारी संगठनों, अन्तरराष्ट्रीय अ-सरकारी संगठनों, अ-सरकारी संगठनों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भूमिका का भी अध्ययन है। अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध को कभी-कभी 'अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन' (अंग्रेजी: International Studies ; देवनागरीकृत : इण्टरनेशनल स्टडीज़ ) के रूप में भी जाना जाता है, हालाँकि दोनों शब्द पूरी तरह से पर्याय नहीं हैं।

परिभाषा[संपादित करें]

साधारण शब्दों में 'अंतरराष्ट्रीय राजनीति' का अर्थ है 'राज्यों के मध्य राजनीति करना'। यदि 'राजनीति' के अर्थ का अध्ययन करें तो तीन प्रमुख तत्त्व सामने आते हैं - (क) समूहों का अस्तित्व; (ख) समूहों के बीच ; तथा (ग) समूहों द्वारा अपने हितों की पूर्ति। इस आशय को यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आकलन करें तो ये तीन तत्त्व मुख्य रूप से - (1) राज्यों का अस्तित्व; (2) राज्यों के बीच संघर्ष; तथा (3) अपने राष्ट्रहितों की पूर्ति हेतु शक्ति का प्रयोग आते हैं । अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति उन क्रियाओं का अध्ययन करना है जिसके अंतर्गत राज्य अपने राष्ट्र हितों की पूर्ति हेतु शक्ति के आधार पर संघर्षरत रहते हैं। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय हित अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख लक्ष्य होते हैं; संघर्ष इसका दिशा निर्देश तय करती है; तथा शक्ति इस उद्देश्य प्राप्ति का प्रमुख साधन माना जाता है।

परन्तु उपर्युक्त परिभाषा को हम परम्परागत मान सकते हैं, क्योंकि आज ‘अंतरराष्ट्रीय राजनीति’ का स्थान इससे व्यापक अवधारणा ‘अंतरराष्ट्रीय संबंधों’ ने ले लिया है। इसके अंतर्गत राज्यों के परस्पर संघर्ष के साथ-साथ सहयोगात्मक पहलुओं को भी अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त आज ‘राज्यों’ के अलावा अन्य कई कारक भी अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विषय क्षेत्र बन गए हैं। अतः इसके अंतर्गत आज व्यक्ति, संस्था, संगठन व कई अन्य गैर-राज्य इकाइयाँ भी सम्मिलित हो गई हैं। इसका वर्तमान आधार व विषय क्षेत्र आज काफी व्यापक स्वरूप ले चुका है। इन सभी विषयों पर चर्चा से पहले अलग-अलग विद्वानों द्वारा दी गई निम्न परिभाषाओं की समीक्षा करना अति अनिवार्य हो जाता है-

परम्परागत परिभाषाएँ[संपादित करें]

इन परिभाषाओं का दायरा अति सीमित है, क्योंकि इसके अंतर्गत मूलतः ‘राज्यों’ को ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कारक के रूप में माना गया है। यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप तक ही सीमित है। मुख्य रूप से हेंस जे. मारगेन्थाऊ, हेराल्ड स्प्राऊट, बोन डॉयक, थाम्पसन आदि इसके मुख्य समर्थक हैं जो इनकी निम्न परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है-

  • (1) हेंस जे. मारगेन्थाऊ - ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति के लिए संघर्ष है।“
  • (2) हेराल्ड स्प्राऊट - ”स्वतन्त्रा राज्यों के अपने-अपने उद्देश्यों एवं हितों के आपसी विरोध-प्रतिरोध या संघर्ष से उत्पन्न उनकी प्रतिक्रिया एवं संबंधों का अध्ययन अन्तरराष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।“
  • (3) वोन डॉयक- ”अंतरराष्ट्रीय राजनीति प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्यों की सरकारों के मध्य शक्ति संघर्ष है।“
  • (4) थाम्पसन- ”राष्ट्रों के मध्य प्रारम्भ प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ उनके आपसी संबंधों को सुधारने या खराब करने वाली परिस्थितियों एवं समस्याओं का अध्ययन अंतरराष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।“

समसामयिक परिभाषाएँ[संपादित करें]

नवीन परिभाषाओं में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के व्यापक स्वरूप अंतरराष्ट्रीय संबंधों की चर्चा की गई है। इसमें राज्य के अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय राजनीति के नवीन कारकों जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन, देशांतर समूह, गैर सरकारी संगठन, अंतरराष्ट्रीय संस्थायें, कुछ व्यक्तियों आदि को भी सम्मिलित किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें संघर्ष के साथ-साथ सहयोग तथा राजनीति के साथ-साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इसे प्रभावित करने वाले अर्थात्, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, विज्ञान एवं तकनीकि आदि पहलुओं का भी उल्लेख किया गया है। विभिन्न लेखकों की निम्नलिखित परिभाषाओं से यह आशय अति स्पष्ट रूप में उजागर हो जाता है-

  • (1) नार्मन डी. पामर व होवार्ड सी परकिंस - ”अंतरराष्ट्रीय संबंध में राष्ट्र राज्यों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों तथा समूहों के परस्पर संबंधों के अतिरिक्त और बहुत कुछ सम्मिलित है। यह विभिन्न स्तर पर पाये जाने वाले अन्य संबंधों का भी समावेश करता है जो राष्ट्र राज्य के ऊपरी व निचले स्तर पर मिलते हैं। परन्तु यह राष्ट्र राज्य को ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय का केन्द्र मानता है।“
  • (2) स्टेनले होफमैन- ”अंतरराष्ट्रीय संबंध उन तत्वों एवं गतिविधियों से सम्बन्धित है, जो उन मौलिक ईकाईयों जिनमें विश्व बंटा हुआ है, की बाह्य नीतियों एवं शक्ति को प्रभावित करता है।“
  • (3) क्विंसी राइट- ”अंतरराष्ट्रीय संबंध केवल राज्यों के संबंधों को ही नियमित नहीं करता अपितु इसमें विभिन्न प्रकार के समूहों जैसे राष्ट्र, राज्य, लोग, गठबंधन, क्षेत्र, परिसंघ, अंतरराष्ट्रीय संगठन, औद्योगिक संगठन, धार्मिक संगठन आदि के अध्ययनों को भी शामिल करना होगा।“

इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप प्रारम्भ से वर्तमान तक बहुत व्यापक हो जाता है। इसमें आज राष्ट्र राज्यों के साथ विभिन्न विश्व इकाइयों एवं संगठनों के अध्ययन का समावेश हो चुका है। परन्तु इन सभी परिवर्तनों के बाद भी इन अध्ययनों का केंद्र बिंदु (केन्द्र बिन्दु) आज भी राष्ट्र राज्य ही है।

स्वरूप[संपादित करें]

2007 में भारत, जापान तथा यूएसए का संयुक्त सैन्य अभ्यास

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप के बारे में निम्न निष्कर्ष सामने आते हैं।

  • (1) इन परिभाषाओं से एक बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से प्रकट होती है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति अभी भी बदलाव के दौर से गुजर रही है। इसके बदलाव की प्रक्रिया अभी स्थाई रूप से स्थापित नहीं हुई है। अपितु यह अपने विषय क्षेत्र के बारे में आज भी नवीन प्रयोगों एवं विषयों के समावेश से जुड़ी हुई हैं।
  • (2) एक अन्य बात यह उभर कर आ रही है कि अंतरराष्ट्रीय स्थिति बहुत जटिल है। इसके अध्ययन हेतु बहुआयामी प्रयासों की आवश्यकता होती है।
  • (3) यह निश्चित है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु राज्य ही है, परन्तु यह भी काफी हद तक सही है कि इसके अंतर्गत राज्यों के अतिरिक्त विभिन्न संगठनों, समुदायों, संस्थाओं आदि का अध्ययन करना अति अनिवार्य हो गया है।
  • (4) अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु विभिन्न स्तरों एवं आयामों का अध्ययन आवश्यक है। अतः इस विषय का अध्ययन अन्ततः अनुशासकीय आधार पर अधिक कुशलतापूर्वक हो सकता है।
  • (5) इसके अध्ययन हेतु नवीन दृष्टिकोणों की उत्पत्ति हो रही है। जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बदलाव आता है उसके अध्ययन एवं सामान्यीकरण हेतु नये उपागमों की आवश्यकता होती है। उदाहरणस्वरूप, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहाँ यथार्थवाद, व्यवस्थावादी, क्रीड़ा, सौदेबाजी, तथा निर्णयपरक उपागमों की उत्त्पत्ति हुई, उसी प्रकार अब उत्तर शीतयुद्ध युग में उत्तर आधुनिकरण, विश्व व्यवस्था, क्रिटिकल सिद्धान्त आदि की उत्पत्ति हुई। भावी विश्व में भी वैश्वीकरण व इससे जुड़े मुद्दों पर नये उपागमों के कार्यरत होने की व्यापक सम्भावनाएँ हैं।

अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप परिवर्तनशील है। जब-जब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिवेश, कारकों व घटनाक्रम में परिवर्तन आयेगा, इसके अध्ययन करने के तरीकों व दृष्टिकोणों में भी परिवर्तन अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, यह परिवर्तन स्थाई न होकर निरन्तर है। इसके साथ-साथ विभिन्न कारकों, स्तरों, आयामों आदि के कारण यह बहुत जटिल है अतः इसके सुचारू अध्ययन हेतु बहुत स्पष्ट, तर्कसंगत, व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

विषय क्षेत्र[संपादित करें]

जैसा उपर्युक्त परिभाषाओं एवं स्वरूप से ज्ञात है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विषय क्षेत्र बढ़ता ही जा रहा है। आज इसका विषय क्षेत्र काफी व्यापक हो गया है जिसके अंतर्गत निम्नलिखित बातों का अध्ययन किया जाता है-

  • (1) अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विषय में विभिन्न बदलाव के बाद भी आज भी इसका मुख्य केन्द्र बिन्दु राज्य ही है। मूलतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति राज्यों के मध्य अन्तःक्रियाओं पर ही आधारित होती है। प्रत्येक राज्यों को अपने राष्ट्र हितों की पूर्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सीमाओं में रह कर ही कार्य करने पड़ते हैं। परन्तु इन कार्यों के करने हेतु विभिन्न राज्यों में संघर्षात्मक व सहयोगात्मक दोनों ही प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती है। इन्हीं प्रतिक्रियाओं, इनसे जुड़े अन्य पहलुओं का अध्ययन ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की प्रमुख सामग्री होती है।
  • (2) अंतरराष्ट्रीय राजनीति का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारक शक्ति का अध्ययन है। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत कई दशकों तक विशेषकर शीतयुद्ध काल में, यह माना गया कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख उद्देश्य शक्ति संघर्षों का अध्ययन करना मात्रा ही है। यथार्थवादी लेखक, विशेषकर मारगेन्थाऊ, तो इस निष्कर्ष को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि ”अंतरराष्ट्रीय राजनीति केवल राज्यों के बीच शक्ति हेतु संघर्ष“ है। वे ‘शक्ति’ को ही एक मात्रा कारण मानते हैं जिस पर सम्पूर्ण अंतरराष्ट्रीय राजनीति अथवा परस्पर राज्यों के संबंधों की नींव टिकी है। परन्तु पूर्ण रूप से यह सत्य नहीं है। शायद इसीलिए हम देखते हैं कि शीतयुद्धोत्तर युग में शक्ति संघर्ष के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक आदि संबंध भी उतने ही महत्त्वपूर्ण बन गये हैं। हां इस तथ्य को भी पूर्ण रूप से नहीं नकार सकते कि शक्ति आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
  • (3) अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक अन्य कारक अंतरराष्ट्रीय संगठनों का अध्ययन भी है। आधुनिक युग राज्यों के बीच बहुपक्षीय संबंधों का युग है। राज्यों के इन बहुपक्षीय संबंधों के संचालन में अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ये अंतरराष्ट्रीय संगठन राज्यों के मध्य आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, सैन्य, सांस्कृतिक आदि क्षे़त्रों में सहयोग के मार्ग प्रस्तुत करते हैं। वर्तमान सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त विभिन्न अंतरराष्ट्रीय एवं क्षेत्रय संगठन जैसे विश्व बैंक, मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, नाटो, यूरोपीय संघ, नाटो, दक्षेस, आशियान, रेड क्रॉस, विश्व श्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को आदि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का प्रमुख हिस्सा बन गए हैं।
  • (4) युद्ध व शान्ति की गतिविधियों का अध्ययन भी आज अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है। यह सत्य है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति न तो पूर्ण रूप से सहयोग तथा न ही पूर्ण रूप से संघर्षों पर आधारित है। अतः मतभेद व सहमति अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सहचर हैं। इन दोनों की उपस्थिति का अर्थ है यहाँ युद्ध व शान्ति दोनों की प्रक्रियाएँ विद्यमान हैं। विभिन्न मुद्दों पर आज भी राष्ट्रों के मध्य युद्ध के विकल्प को नहीं त्यागा है। शीतयुद्ध के साथ-साथ राज्यों के बीच प्रत्यक्ष युद्ध आज भी हो रहे हैं। बल्कि वर्तमान विज्ञान के विकास व हथियारों के अति आधुनिकतम रूप के कारण आज युद्ध और भी भयानक हो गए हैं। युद्ध आज प्रारंभ (प्रारम्भ) होने पर दो राष्ट्रों के लिए भी घातक नहीं, अपितु, सम्पूर्ण मानवता का विनाश भी कर सकते हैं। इसीलिए युद्धों को रोकने हेतु शान्ति प्रयासों पर भी अत्यधिक बल दिया जाता है। इसीलिए इन युद्ध व शांति (शान्ति) के पहलुओं का अध्ययन करना ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख भाग बन गया है।
  • (5) अंतरराष्ट्रीय राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से राज्य अपने राष्ट्रीय हितों का संवर्धन एवं अभिव्यक्ति करते हैं। यह प्रक्रिया केवल एक समय की न होकर निरन्तर चलती रहती है। इस प्रक्रिया का प्रकटीकरण राज्यों की विदेश नीतियों के माध्यम से होता है। अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में विदेशी नीतियों का आकलन एक अभिन्न अंग बन गया है। इसके अतिरिक्त, राज्यों की इन विदेश नीतियों के स्वरूप से ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में भी बदलाव आता है। इन्हीं के कारण विश्व में शांति व सहयोग अथवा युद्ध की परिस्थितियों को जन्म मिलता है। न केवल वर्तमान बल्कि भावी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप भी इन्हीं राज्यों के आपसी संबंधों की प्रगाढ़ता एवं तनाव पर निर्भर करता है। अतः विभिन्न विदेश नीतियों अध्ययन व आंकलन भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का महत्त्वपूर्ण विषय क्षेत्र है।
  • (6) राष्ट्रों के मध्य सुचारू, सुसंगठित एवं सुस्पष्ट संबंधों के विकास हेतु कुछ नियमावली का होना अति आवश्यक होता है। अतः राज्यों के परस्पर व्यवहार को नियमित करने हेतु अंतरराष्ट्रीय कानूनों की आवश्यकता हेतु है। इसके अतिरिक्त, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सुचारू स्वरूप एवं भविष्य के दिशा निर्देश हेतु भी इनकी आवश्यकता होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्धों को रोकने, शान्ति स्थापित करने, हथियारों की होड़ रोकने, संसाधनों का अत्यधिक दोहन न करने, भूमि, समुद्र व आन्तरिक को सुव्यवस्थित रखने आदि विभिन्न विषयों पर राज्यों की गतिविधियों को सुचारू करने हेतु भी अंतरराष्ट्रीय विधि का होना आवश्यक है। अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु अंतरराष्ट्रीय कानूनों का समावेश भी आवश्यक हो गया है।
  • (7) राज्यों की गतिविधियों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक मुद्दों का अध्ययन भी काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। परन्तु शीतयुद्ध के संघर्षों के कारण 1945-91 तक राजनीतिक मुद्दे ज्यादा अग्रणीय रहे तथा आर्थिक मुद्दे अति महत्त्वपूर्ण हो गए है। तथा राजनीतिक मुद्दे गौण हो गए हैं। वर्तमान भूमण्डलीकरण के दौर में ज्यादातर राज्य आर्थिक सुधारों, उदारवाद, मुक्त व्यापार आदि के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसी स्थिति में आर्थिक गतिविधियों का अध्ययन अति महत्त्वपूर्ण हो गया है। आज संयुक्त राष्ट्र की राजनीतिक ईकाइयों की बजाय विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक आदि अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। अब राजनीतिक विचारधाराओं के स्थान पर नए अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यस्था, उत्तर दक्षिण संवाद, विकासशील देशों में कर्ज की समस्या, व्यापार में भुगतान संतुलन, बाह्य पूंजीनिवेश, संयुक्त उद्यम, आर्थिक सहायता आदि विषय अत्यधिक महत्त्व के हो गए हैं। अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इन आर्थिक संस्थाओं, संगठनों व कारकों का अध्ययन करना अनिवार्य हो गया हैं
  • (8) अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वर्तमान स्वरूप से यह स्पष्ट है कि अब इस विषय के अंतर्गत राज्यों के अतिरिक्त गैर सरकारी संगठनों की भूमिकाएं भी महत्त्वपूर्ण होती जा रही हैं। दूसरी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बढ़ते विषय क्षेत्र के साथ-साथ इसमें कार्यरत संस्थाओं एवं संगठनों का विकास भी हो रहा है। तीसरे, अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अंतर्गत कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे भी आ रहे हैं, जो मानवता हेतु ध्यानाकर्षण योग्य बन गए हैं। इन सभी कारणों से अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का दायरा भी विकसित होता जा रहा है। आज इसमें राजनीतिक ही नहीं बल्कि गैर-राजनीतिक विषय जैसे पर्यावरण, नारीवाद, मानवाधिकार, ओजोन परत क्षीण होना, मादक द्रवों की तस्करी, गैर कानूनी व्यापार, शरणार्थियों व विस्थापितों की समस्याएँ आदि भी महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनते जा रहे हैं। इसके साथ-साथ गैर-सरकारी संस्थानों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। विभिन्न स्तरों पर राज्यों के विभिन्न मुद्दों से जुड़े कई स्थानिय या क्षेत्रय संगठन भी आज अंतरराष्ट्रीय राजनीति को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दायरे में मात्रा परंपरागत विषय क्षेत्र तक सीमित न रहकर समसामयिक विषयों को भी सम्मिलित कर लिया है। इसीलिए इन सभी समस्याओं, संगठनों, पहलुओं आदि का अध्ययन भी आज अंतरराष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण हो गया है।

अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विषय क्षेत्र आज बहुत व्यापक व जटिल होने के साथ-साथ विकास की ओर अग्रसर है। इसके अंतर्गत विभिन्न परंपरागत (परम्परागत) कारकों के साथ-साथ गैर-परंपरागत (परम्परागत) कारकों का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।

अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध के विकास के चरण[संपादित करें]

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विकास का इतिहास ज्यादा प्राचीन नहीं है, बल्कि यह विषय बीसवीं शताब्दी की उपज है। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो वेल्ज विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय वुडरो विल्सन पीठ की 1919 में स्थापना से ही इसका इतिहास प्रारम्भ होता है। इस पीठ पर प्रथम आसीन होने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर ऐल्फर्ड जिमर्न थे तथा बाद में अन्य प्रमुख विद्धान जिन्होंने इस पीठ को सुशोभित किया उनमें से प्रमुख थे - सी.के. वेबस्टर, ई.एच.कार, पी.ए. रेनाल्ड, लारेंस डब्लू, माटिन, टी.ई. ईवानज आदि। इसी समय अन्य विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में भी इसी प्रकार की व्यवस्थाएं देखने को मिली। अतः पिछली एक शताब्दी के इस विषय के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो इस विषय में आये उतार-चढ़ाव के साथ-साथ इसके एक स्वायत्त विषय में स्थापित होने के बारे में जानकारी मिलती है। इस विषय में आये बहुआयामी परिवर्तनों ने जहां एक ओर विषयवस्तु का संवर्धन, समन्वय तथा विकास किया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके बहुत सी जटिल समस्याओं एवं पहलुओं को समझने में सहायता प्रदान की है।

केनेथ थाम्पसन ने सन् 1962 के 'रिव्यू ऑफ पॉलिटिक्स' में प्रकाशित अपने लेख में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास को चार भागों में बांटा है, जिसके आधार पर इस विषय का सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित अध्ययन सम्भव हो सकता है। विकास के इन चार चरणों में शीतयुद्धोत्तर युग के पांचवें चरण को भी सम्मिलित किया जा सकता है। इनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार से है-

  • (१) कूटनीतिक इतिहास का प्रभुत्व, (प्रारम्भ से 1919 तक)
  • (२) सामयिक घटनाओं/समस्याओं का अध्ययन, (1919 - 1939)
  • (३) राजनीतिक सुधारवाद का युग, (1939 - 1945)
  • (४) सैद्धान्तिकरण के प्रति आग्रह, (1945 - 1991)
  • (५) वैश्वीकरण व गैर-सैद्धान्तीकरण का युग, (1991 - 2003)

कूटनीतिक इतिहास का प्रभुत्व[संपादित करें]

प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व इतिहास, कानून, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि के विद्वान ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अलग-अलग पहलुओं पर विचार करते थे। मुख्य रूप से इतिहासकार ही इसका अध्ययन राजनयिक इतिहास तथा अन्य देशों के साथ संबंधों के इतिहास के रूप में करते थे। इसके अंतर्गत कूटनीतिज्ञों व विदेश मन्त्रियों द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा होता था। अतः इसे कूटनीतिक इतिहास की संज्ञा भी दी जाती है। ई.एच.कार के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व युद्ध का संबंध केवल सैनिकों तक समझा जाता था तथा इसके समकक्ष अंतरराष्ट्रीय राजनीति का संबंध राजनयिकों तक। इसके अतिरिक्त, प्रजातांत्रिक देशों में भी परम्परागत रूप से विदेश नीति को दलगत राजनीति से अलग रखा जाता था तथा चुने हुए अंग भी अपने आपको विदेशी मन्त्रालय पर अंकुश रखने में असमर्थ महसूस करते थे। 1919 से पूर्व इस विषय के प्रति उदासीनता के कई प्रमुख कारण थे - प्रथम, इस समय तक यही समझा जाता था कि युद्ध व राज्यों में गठबंधन उसी प्रकार स्वाभाविक है जैसे गरीबी व बेरोजगारी। अतः युद्ध, विदेश नीति एवं राज्यों के मध्य परस्पर संबंधों को रोक पाना मानवीय सामर्थ्य के वश से बाहर माना जाता था। द्वितीय, प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व युद्ध इतने भयंकर नहीं होते थे। तृतीय, संचार साधनों के अभाव में अंतरराष्ट्रीय राजनीति कुछ गिने चुने राज्यों तक ही सीमित थी।

इस प्रकार इस युग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की सबसे बड़ी कमी सामान्य हितों का विकास रहा। इस काल में केवल राजनयिक इतिहास का वर्णनात्मक अध्ययन मात्रा ही हुआ। परिणामस्वरूप, इससे न तो वर्तमान तथा न ही भावी अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने में कोई मदद मिली। इस युग की मात्रा उपलब्धि 1919 में वेल्स विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के पीठ की स्थापना रही।

सामयिक घटनाओं/समस्याओं का अध्ययन[संपादित करें]

दो विश्व युद्धों के बीच के काल में दो समानान्तर धाराओं का विकास हुआ। जिनमें से प्रथम के अंतर्गत पूर्व ऐतिहासिकता के प्रति प्रभुत्व को छोड़कर सामयिक घटनाओं/समस्याओें के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाने लगा। इसके साथ साथ अब ऐतिहासिक राजनीतिक अध्ययन को वर्तमान राजनीतिक सन्दर्भों के साथ जोड़ कर देखने का प्रयास भी किया गया। ऐतिहासिक प्रभाव के कम होने के बाद भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु एक समग्र दृष्टिकोण का अभाव अभी भी बना रहा। इस काल में वर्तमान के अध्ययन पर तो बहुत बल दिया गया, लेकिन वर्तमान एवं अतीत के पारस्परिक संबंध के महत्त्व को अभी भी पहचाना नहीं गया। इसके अतिरिक्त, न ही युद्धोत्तर राजनीतिक समस्याओं को अतीत की तुलनीय समस्याओं के साथ रखकर देखने का प्रयास ही किया गया।

शायद इसीलिए इस युग में भी दो मूलभूत कमियाँ स्पष्ट रूप से उजागर रहीं। प्रथम, पहले चरण की ही भांति इस काल में भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सार्वभौमिक सिद्धान्त का विकास नहीं हो सका। द्वितीय, आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन अधिक सुस्पष्ट एवं तर्कसंगत नहीं बन पाया। इस प्रकार इस चरण में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में बल देने की स्थिति में बदलाव के अतिरिक्त बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिला तथा न ही इस विषय के स्पष्ट रूप से स्वतन्त्रा अनुशासन बनने की पुष्टि हुई।

राजनैतिक सुधारवाद का युग[संपादित करें]

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विकास का तृतीय चरण भी द्वितीय चरण के समानान्तर दो विश्व युद्धों के बीच का काल रहा। इसे सुधारवाद का युग इसलिए कहा जाता है कि इसमें राज्यों द्वारा राष्ट्र संघ की स्थापना के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सुधार की कल्पना की गई। इस युग में मुख्य रूप से संस्थागत विकास किया गया। इस काल के विद्वानों, राजनयिकों, राजनेताओं व चिन्तकों का मानना था कि यदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का विकास हो जाता है तो विश्व समुदाय के सम्मुख उपस्थित युद्ध व शांति की समस्याओं का समाधान सम्भव हो सकेगा। इस उद्देश्य हेतु कुछ कानूनी व नैतिक उपागमों की संरचनाएं की गई जिनके निम्न मुख्य आधार थे।

  • (क) शान्ति स्थापित करना सभी राष्ट्रों का सांझा हित है, अतः राज्यों को हथियारों का प्रयोग त्याग देना चाहिए।
  • (ख) अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कानून व व्यवस्था के माध्यम से झगड़ों को निपटाया जा सकता है।
  • (ग) राष्ट्र की तरह, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी, कानून के माध्यम से अनुचित शक्ति प्रयोग को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
  • (घ) राज्यों की सीमा परिवर्तन का कार्य भी कानून या बातचीत द्वारा हल किया जा सकता है।

इन्हीं आदर्शिक एवं नैतिक मूल्यों पर बल देते हुए अंतरराष्ट्रीय संगठन (राष्ट्र संघ) की परिकल्पना की गई। इसकी स्थापना के उपरान्त यह माना गया कि अब अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राज्यों के मध्य शान्ति बनाने का संघर्ष समाप्त हो गया। नई व्यवस्था के अंतर्गत शक्ति संतुलन का कोई स्थान नहीं होगा। अब राज्य अपने विवादों का निपटारा संघ के माध्यम से करेंगे। अतः इस युग में न केवल युद्ध व शान्ति की समस्याओं का विवेचन किया, अपितु इसके दूरगामी सुधारों के बारे में भी सोचा गया। अतः अध्ययनकर्ताओं के मुख्य बिन्दु भी कानूनी समस्याओं व संगठनों के विकास के साथ-साथ इनके माध्यम से अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को बदलने वाला रहा। अन्ततः इस काल में भावात्मक, कल्पनाशील व नैतिक सुधारवाद पर अधिक बल दिया गया है।

परन्तु विश्वयुद्धों के बीच इन उपागमों की सार्थकता पर हमेशा प्रश्न चिह्न लगा रहा। राष्ट्र संघ की प्रथम एक दशक (1919-1929) की गतिविधियों से जहां आशा की किरण दिखाई दी, वहीं दूसरे दशक (1929-1939) की यर्थाथवादी स्थिति ने इस धारणा को बिल्कुल समाप्त कर दिया। बड़ी शक्तियों के मध्य असहयोग व गुटबन्दियों ने शान्ति की स्थापना की बजाय शक्ति संघर्ष व्यवस्था को जन्म दिया। जापान ने मंचूरिया पर हमले करके जहां शांति को भंग कर दिया वहीं इटली, जर्मनी व रूस ने भी विवादास्पद स्थितियों में न केवल राष्ट्र संघ की सदस्यता ही छोड़ी, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने की प्रक्रिया को और तीव्र बना दिया। इस प्रकार शान्ति, नैतिकता, व कानून से विश्व व्यवस्था नहीं चल सकी, तो ई.एच.कार, शुंभा, क्विंसी राईट आदि लेखकों के कारण यथार्थवादी दृष्टिकोण को वैकल्पिक उपागम के रूप में बल मिला।

सैद्धान्तीकरण के प्रति आग्रह[संपादित करें]

इस चरण में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मूलभूत परिवर्तनों से न केवल इसकी विषयवस्तु व्यापक हुई बल्कि इसमें बहुत जटिलताएँ भी पैदा हो गई। शीतयुगीन काल में राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन तथा नये राज्यों के उदय ने सम्पूर्ण अंतरराष्ट्रीय परिवेश को ही बदल दिया। परिणामस्वरूप नये उपागमों, आयामों, संस्थाओं व प्रवृत्तियों का सर्जन हुआ जिनके माध्यम से अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन सुनिश्चित हो गया।

पूर्व चरणों की आदर्शिक, संस्थागत, नैतिक, कानूनी एवं सुधारवादी धाराओं की असफलताओं ने नये उपागमों के विकास की ओर अग्रसर किया। यह नया उपगम था-यथार्थवाद। वैसे तो ई.एच.कार, श्वार्जनबर्जर, क्विंसी राईट, शुभां आदि लेखकों ने इस दृष्टिकोण को विकसित किया, परन्तु हेंस जे. मारगेन्थाऊ ने इसे एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य हमेशा अपने हितों की पूर्ति हेतु संघर्षरत रहते हैं। अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने हेतु इस शक्ति संघर्ष के विभिन्न आयामों को समझना अति आवश्यक है।

यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सुनिश्चित व सुस्पष्ट विकास के रूप में अंतरराष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ) की भी उत्पत्ति हुई। अब इस संगठन का स्वरूप मात्रा आदर्शवादी व सुधारवादी न होकर, महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संगठन के रूप में उभर कर आया। इसके अंतर्गत मानवजाति को युद्ध की विभीषिका से बचाने के साथ-साथ राज्यों के मध्य संघर्ष के कौन-कौन से कारण हैं? विश्वशांति हेतु खतरे के कौन-कौन से कारक हैं? शांति की स्थापना कैसे हो सकती है? शस्त्रों की होड़ को कैसे रोका जा सकता है? आदि कई प्रकार के प्रश्नों का समाधान ढूंढने के प्रयास भी किए गए।

उपर्युक्त दो प्रवृत्तियों के साथ-साथ व्यवहारवाद की उत्पत्ति भी इस युग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही। व्यवहारवादी दृष्टिकोण के माध्यम से ”व्यवस्था सिद्धान्त“ की उत्पत्ति कर अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने का प्रयास किया गया। इस उपागम के अंतर्गत राज्यों के अध्ययन हेतु तीन प्रमुख कारकों का अध्ययन किया जाना ज़रूरी माना गया। ये कारक थे-

  • (क) विभिन्न देशों की विदेश नीतियों को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन;
  • (ख) विदेश नीति संचालन की पद्धतियों का अध्ययन;
  • (ग) अंतरराष्ट्रीय विवादों और समस्याओं के समाधान के उपायों का अध्ययन।

उपर्युक्त प्रवृतियों का मुख्य बल अंतरराष्ट्रीय राजनीति मैं सैद्धान्तिकरण को बढ़ावा देना रहा है। अतः इस युग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना अति महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है। सिद्धान्त निर्माण की इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अनेक आंशिक सिद्धान्तों जैसे - यथार्थवाद, संतुलन का सिद्धान्त, संचार सिद्धान्त, क्रीड़ा सिद्धान्त, सौदेबाजी का सिद्धान्त, शान्ति अनुसन्धान दृष्टिकोण, व्यवस्था सिद्धान्त, विश्व व्यवस्था प्रतिमान आदि का निर्माण हुआ। इन सिद्धान्तों के प्रतिपादन के बावजूद इस युग में किसी एक सार्वभौमिक व सामान्य सिद्धान्त का अभाव अभी भी बना रहा। 1990 के दशक में जयन्त बंधोपाध्याय ने अपनी पुस्तक - जनरल थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल रिलेसन्स (1993) - में मार्टिन कापलान के व्यवस्थापरक सिद्धान्त की कमियों को दूर कर एक सार्वभौमिक सिद्धान्त की स्थापना की कोशिश की है, परन्तु वह भी अभी वाद-प्रतिवाद के दौर में ही हैं। अतः सैद्धान्तिकरण के मुख्य दौर के बावजूद शीतयुद्ध कालीन युग अपनी वैचारिक संकीर्णता व अलगाव के कारण किसी एक सामान्य सिद्धान्त के प्रतिपादन से वंचित रहा।

वैश्वीकरण व गैर-सैद्धान्तीकरण का युग[संपादित करें]

शीतयुद्धोत्तर युग में सभी राष्ट्रों द्वारा एक आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत जुड़ना प्रारम्भ कर दिया। इसीलिए अब वैश्वीकरण, उदारीकरण, मुक्त बाजार व्यवस्था आदि का दौर प्रारम्भ हो गया। इस सन्दर्भ में न केवल आर्थिक मुद्दों का ही महत्त्व बढ़ा, अपितु अंतरराष्ट्रीय राजनीति का महत्त्व और भी बढ़ गया। आज राष्ट्रीयता एवं अंतरराष्ट्रीयता का विभेद समाप्त हो गया इसके अतिरिक्त, अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति की विषय सूची में काफी नवीन विषयों का समावेश हो गया जो राष्ट्रीय न रहकर अब मानवजाति की समस्याओं के रूप में उभर कर आये। वर्तमान विश्व की प्रमुख समस्याओं में आतंकवाद, पर्यावरण, ओजोन परत क्षीण होना, नशीले पदार्थों एवं मादक द्रव्यों की तस्करी, मानवाधिकारों का हनन आदि प्रमुख मुद्दे उभर कर सामने आये जिनका राष्ट्रीय स्तर या क्षेत्रय स्तर की बजाय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हल निकालना अनिवार्य बन गया है।

सैद्धान्तिक स्तर पर भी 1945 से 1991 तक के सार्वभौमिक सिद्धान्त की स्थापना के प्रयास को धक्का लगा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति की इस सन्दर्भ में अब प्राथमिकताएं बदल गई। उत्तर-आधुनिकतावाद में (पोस्ट मोडर्निज्म) अब सार्वभौमिक सिद्धान्तों की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। ऐतिहासिक सन्दर्भ एवं प्राचीन परिवेश के प्रभाव को भी नकारा जा रहा है। अब स्वतन्त्र मुद्दे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। वृहत् सिद्धान्त गौण हो गए हैं। नए सन्दर्भ में आंशिक शोध अधिक महत्त्वपूर्ण बन गई है। उदाहरणस्वरूप नारीवाद, मानवाधिकार, पर्यावरण आदि विषयों पर अधिक बल देने के साथ-साथ चिन्तन भी प्रारम्भ हो गया है। अतः शीतयुद्धोत्तर युग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप, विषय सूची एवं विषय क्षेत्र पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गए हैं। अब सामान्य सैद्धान्तिक स्थापना पर भी अधिक बल नहीं दिया जा रहा है। इसीलिए इस बदले हुए परिवेश में अंतरराष्ट्रीय राजनीति महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अपितु स्वायत्तता की ओर अग्रसर प्रतीत हो रही है। और विषय की स्वायत्तता हेतु आशावादी संकेत दिखाई देते हैं।

अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध : एक स्वायत्त विषय के रूप में[संपादित करें]

द्वितीय विश्वयुद्ध ने न केवल अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को मूलभूत रूप में प्रभावित किया अपितु कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों की अभिव्यक्ति भी की। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के कारकों में परिवर्तन, कारकों को व्यापक स्वरूप प्रदान करना, नवीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन आदि अनेक विषयों के अतिरिक्त अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का पूर्ण परिवेश ही बदल कर रख दिया है। जहाँ एक ओर सैद्धान्तिक स्तर पर यथार्थवाद व आदर्शवाद के वाद-विवाद तथा प्राचीन व वैज्ञानिकता पर वाद-विवाद हो रहा है, वहीं दूसरी ओर व्यावहारिक स्तर पर अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विषय के प्रारूप के बारे में विवादास्पद प्रश्न उठ रहे थे कि - क्या अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध एक स्वायत्त विषय है या नहीं? यद्यपि आज अधिकतर विश्वविद्यालयों में स्नातक व स्नातकोत्तर स्तरों पर तथा शोध हेतु यह एक स्वायत्त विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है, तथापि इसे सामाजिक विज्ञान के अन्य विषयों के समकक्ष मान्यता नहीं मिली है। इतना अवश्य हुआ है कि विकसित देशों में तो कई विश्वविद्यालयों में इसे पूर्ण रूप से स्वायत्त विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। भारत जैसे विकासशील देशों में भी सुधार हुआ है। यहां प्रारम्भ में ‘भारतीय अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विद्यालय, नई दिल्ली’ जो बाद में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विद्यालय के रूप में स्वायत्त रूप से कार्य कर रहा है। इसके अतिरिक्त कई अन्य विश्वविद्यालयों जैसे जादवपुर विश्वविद्यालय, कलकत्ता, गोवा विश्वविद्यालय आदि में भी अब इसे स्वायत्त विषय का दर्जा मिला है।

अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को एक स्वायत्त विषय के रूप में अध्ययन करने से पूर्व एक बात स्पष्ट करनी अति आवश्यक है कि जब हम इस विषय की स्वायत्तता के प्रश्न का अध्ययन करते हैं तो ‘अन्तरराष्ट्रीय राजनीति’ व अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को अलग-अलग विषय नहीं मानते हैं। यह इसलिए किया गया है कि दोनों ही विषयों को अभी स्वायत्त अनुशासन न मानकर राजनीतिशास्त्र विषय के एक उप-अनुशासन के रूप में ही मान्यता प्राप्त है। दूसरे इनका विभेद इतना सूक्ष्म है कि अनुशासन की स्वायत्तता की प्रमाणिकता के बाद इस विषय को सुलझाया जा सकता है।

अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को स्वायत्त विषय मानने के सन्दर्भ में तीन पृथक-पृथक विचार दिए गए हैं जो निम्न प्रकार से हैं -

  • (1) प्रथम समूह उन विद्वानों का है जो इस विषय को स्वायत्त विषय मानते हैं;
  • (2) द्वितीय समूह के विद्वानों का मानना है कि इस विषय में कोई ऐसी विलक्षण बात नहीं है कि इसे स्वायत्त माना जाए; तथा
  • (3) तीसरे समूह के विशेषज्ञ इस बहस में नहीं पड़ना चाहते, परन्तु इस विषय के गहन अध्ययन हेतु आवश्यक प्रथम दो विचारों के तार्किक आधार पर विश्लेषण अनिवार्य मानते हैं। क्योंकि इन विश्लेषणों एवं तर्कों के आधार पर इस विषय की वास्तविक स्थिति का कोई प्रामाणिक निष्कर्ष सम्भव हो सकेगा।

स्वायत्तता के पक्ष में तर्क[संपादित करें]

जो विद्वान इस विषय को स्वायत्त मानते हैं उनके अनुसार अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की विषय वस्तु व अनुशासन सम्बन्धी सामग्री को देखते हुए इसे एक स्वायत्त विषय माना जाना चाहिए। इस तर्क के प्रमुख समर्थक हैं- सी॰ए॰डब्ल्यू॰ मैनींग, क्विंसी राईट, राबर्ट लोटिंग ऐलन, हेंस जे. मारगेन्थाऊ, कार्ल एम. कॉपर जानसन, हॉफमैन; ए॰एल॰ बर्न आदि। इन विद्वानों ने निम्न आधारों पर इसे स्वायत्त विषय प्रमाणित किया है-

  • (क) अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की स्वायत्तता जानने से पूर्व ‘अनुशासन’ की जानना आवश्यक है विभिन्न स्रोतों ने अनुशासन अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं। वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार अनुशासन वह है जो ”शिष्यों को पढ़ाया जाता है।“ इस सन्दर्भ में यह विषय वास्तव में एक अनुशासन है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार अनुशासन ”शिक्षण देने की एक शाखा है।“ इस बारे में भी इस विषय को अनुशासन मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तीसरी परिभाषा के अन्तर्गत एक अनुशासन बनने हेतु विषय वस्तु की सीमा, अन्वेषण के अलग तरीकों तथा स्पष्ट सैद्धान्तिक पहलुओं का होना ज़रूरी है। इन बातों के अभाव के कारण ही राबर्ट लोटिंग ऐलेन अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को एक अनुशासन का दर्जा नहीं देते। परन्तु इसके विपरीत अन्य विद्वानों का मत है कि यदि इस मापदण्ड को अन्य सामाजिक विज्ञानों के सन्दर्भ में भी देखें तो यह बात उतनी ही तरह से लागू नहीं होती जिस प्रकार अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर लागू होती है। शायद इसीलिए क्विंसी राईट का मानना है कि चाहे अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर अनुशासन सम्बन्धी परिभाषा को अति निश्चित रूप से लागू नहीं किया जा सकता परन्तु फिर भी यह एक स्वायत्त अनुशासन है। यद्यपि इसके ‘मूल अनुशासन’ आठ विषयों - अन्तरराष्ट्रीय विधि, राजनयिक इतिहास, सैन्य विज्ञान, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध, अन्तरराष्ट्रीय संगठन, अन्तरराष्ट्रीय संगठन, अन्तरराष्ट्रीय व्यापार, औपनिवेशिक सरकारें तथा विदेशी सम्बन्ध - पर आधारित है, परन्तु इसका दृष्टिकोण भिन्न है अतः यह स्वतन्त्र अनुशासन है। हालाँकि यह अवश्य सत्य है कि अन्य अनुशासनों की तुलना में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का प्रारूप अभी नया है तथा विकास की ओर अग्रसर है।
  • (ख) 1954 में सी.ए.डब्ल्यू. मैंनींग ने युनेस्कों के तत्वाधान में एक पुस्तक - द यूनिवर्सिटी टीचिंग ऑन सोशल साईंसिजः इण्टरनेशनल रिलेसंस- सम्पादित की जिसमें उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को उच्च शिक्षा में पढ़ाये जाने सण्बन्धी विषय अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का अर्थ, स्वरूप, विषय क्षेत्र, विकास के चरण एवं स्वायत्तता पर विश्लेषण किया। इस पुस्तक में उन्होंने आठ देशों - मिश्र, फ़्रान्स, भारत, मैक्सिको, स्वीडन, इग्लैण्ड, अमेरिका तथा युगोस्लाविया - के उच्च शिक्षण संस्थाओं का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को एक अलग विषय का दर्जा दिया जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में उसने निम्न तर्क दिए - प्रथम, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का एक जटिल सामाजिक परिवेश होता है जो निरन्तर बढ़ता रहता है तथा परीक्षण हेतु उपलब्ध रहता है। इसी परिवेश में समसामयिक घटनाओं का जन्म होता है। अतः इस प्रकार के परिवेश का अलग व स्वायत्त अध्ययन अनिवार्य बन जाता है। द्वितीय, इस जटिल अन्तरराष्ट्रीय परिवेश के अध्ययन हेतु एक ”सार्वभौमिक दृष्टिकोण“ की आवश्यकता होती है तथा इस प्रकार के दृष्टिकोण का विकास इस विषय के स्वायत्त अध्ययन के बाद ही सम्भव है। तृतीय, इसी सार्वभौमिक दृष्टिकोण के माध्यम से विभिन्न विचारधाराओं का जन्म सम्भव है, जिसके माध्यम से हम एक विश्व/आधुनिक विश्व की कुछ समस्याओं का समाधान करने में दक्षता प्राप्त कर सकते हैं। अतः मैंनींग अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को एक मिश्रित अनुशासन मानते हैं तथा जो ज्ञान के एक विस्तृत भाग का हिस्सा है जिसे ”सामाजिक विश्वविद्या“ (सोशल कास्मोलोजी) की संज्ञा दी है। इसी सामाजिक विश्वविद्या की विषय वस्तु से अन्तरराष्ट्रीय समाज की संरचना होती है।
  • (ग) उपर्युक्त दो प्रमुख आधारों के अतिरिक्त, कार्लिन कॉपर जॉनसन का मानना है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध मानवीय सार्वभौमिक तथ्य के समक्ष एक मस्तिष्क की प्रतिक्रिया की भाँति है जिसका उदय बीसवीं शताब्दी में हुआ। अतः इसे इतिहास या राजनीति शास्त्र की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता है, बल्कि इसका दायरा इन दोनों से अधिक है। अतः इसके ज्ञान का भण्डार अन्य अनुशासन से भिन्न है तथा इसके मिलावट का तरीका इसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से विशिष्ट या स्वायत्त दर्जा प्रदान करता है।

स्वायत्तता के विपक्ष में तर्क[संपादित करें]

जो विद्वान अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को एक स्वायत्त विषय नहीं मानते उनका मानना यह है कि इस विषय में ऐसी कोई विलक्षण वस्तु नहीं है कि इसे अध्ययन हेतु स्वायत्त माना जाए। उन्होंने निम्न तर्को के आधार पर अपनी बात का समर्थन किया है-

  • (क) उनका मानना है कि किसी भी विषय के स्वायत्त अस्तित्व हेतु कतिपय अर्हताएँ आवश्यक मानी जाती हैं, जैसे - प्रथम, समुचित एवं निश्चित विषय सामग्री का होना। द्वितीय, विषय सामग्री के अध्ययन हेतु निश्चित सिद्धान्त का होना। तृतीय, अध्ययन के विशिष्ट तरीकों पद्धति का होना। परन्तु अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इन तीनों तत्वों का अभाव झलकता है। जहां एक विषय वस्तु की बात है इसका कोई निश्चित पाठ्य सामग्री नहीं है। यह एक विषय न होकर कई विषयों का समूह है। यह मुख्य रूप से कानून, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, भूगोल तथा इसी प्रकार के अन्य विषयों के समावेश से बना है। यदि सिद्धान्तों की बात की जाए तो यह स्पष्ट होता है कि 1945 से पूर्व इसमें सिद्धान्त प्रतिपादन का अभाव रहा है। 1945 के बाद भी आंशिक दृष्टिकोणों का ही उत्पादन हुआ है, किसी भी सार्वभौमिक व सामान्य सिद्धान्त का अभाव आज भी बना हुआ है। इस विषय की पद्धतियाँ भी राजनीति विज्ञान या अन्य सामाजिक विज्ञानों से किसी भी रूप में अधिक भिन्न नहीं है। बल्कि इन विषयों की पद्धतियों को ही संशोधित एवं परिवर्तित रूप में अपनाया गया है।
  • (ख) यह विषय मुख्य रूप से राज्यों के व्यवहार से संबंधित है अतः राज्यों के नीति निर्धारक तत्वों का अध्ययन करने हेतु राज्यों के नीति प्रक्रिया संबंधित सभी पहलुओं का अध्ययन अति आवश्यक होता है। इस प्रकार का अध्ययन केवल अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन से ही सम्भव नहीं हो सकता है। किसी भी नीति के समग्र अध्ययन हेतु उसके राजनीतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, भूगोलिय, ऐतिहासिक आदि पहलुओं के बारे में जानना अति आवश्यक है। अतः अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सुचारू अध्ययन हेतु इन विषयों का अध्ययन भी अनिवार्य है। अतः इन अध्ययनों को अन्तः अनुशासनीय होना आवश्यक है। इस दृष्टि से भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों को केवल राजनीति शास्त्र का ही एक भाग माना जा सकता है, इससे अधिक नहीं।

स्वायत्तता की ओर अग्रसर[संपादित करें]

कुछ विद्वान उपर्युक्त दोनों प्रकार की बहस को निरर्थक मानते हैं। उनका मानना यह है कि उपर्युक्त दोनों तर्कों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हुए विकास के माध्यम से अधिक भली प्रकार से जाना जा सकता है। अतः 20वीं शताब्दी में, और विशेषकर 1945 के बाद, के विकास की समीक्षा अति अनिवार्य है। यदि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की स्वायत्तता के प्रश्न का गहन अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि इस सन्दर्भ में दो मूलभूत समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक तो अंतरराष्ट्रीय संबंध के स्वरूप, विषयवस्तु व अध्ययन के तरीकों में प्रभावी परिवर्तन आये हैं। दूसरा, इसी समय राजनीतिशास्त्र की परिधि की जटिलताओं एवं अपरिभाषित सीमाओं के विकास के कारण समस्या और बढ़ गई है। लेकिन 1919 से आज तक के अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विकास पर नज़र डालें तो स्पष्ट होता है कि इसकी उपलब्धियां इसे स्वायत्तता दिलाने में काफी सहायक सिद्ध होंगी।

1919 के बाद से ही, विशेषकर अमेरिका में, बहुत से विद्वानों ने इस विषय को अधिक से अधिक वैज्ञानिक बनाने हेतु प्रयास किए हैं। इसके विषय वस्तु, तरीकों एवं सिद्धान्त को सुस्पष्ट करने के प्रयास भी हुए हैं। इन लेखकों में मुख्य रूप से पॉल, राईन्स, बर्न, जेम्स ब्राइट, हबर्ट, गिवन्स, रेमण्ड वुल, पार्ककर, मून, शुभां, ऐलफर्ड जिमर्न, ई.एच. कार आदि का योगदान सराहनीय रहा है। इस सन्दर्भ में समीक्षा के पश्चात् रिचर्ड स्मीथबील इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि-

  • अंतरराष्ट्रीय राजनीति जैसा कोई स्वायत्त विषय 1945 तक उभर कर नहीं आया।
  • एक पृथक विषय के सन्दर्भ में इसका अस्तित्व अभी भी सन्देहास्पद है चूंकि इसका सार विशिष्ट, संक्षिप्त, तार्किक तथा वैज्ञानिक दृष्टि से करना कठिन है;
  • राजनीतिक चिन्तन, अंतरराष्ट्रीय विधि व संगठन, कूटनीतिज्ञ इतिहास आदि इसके निर्णायक विषय हैं; तथा
  • 1945 से पूर्व अंतरराष्ट्रीय राजनीति विषय के लेखकों में सिद्धान्त निर्माण के संबंध में अरूचि पाई गई है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं। इस क्षेत्र में हुए नये शोधों के आधार पर जहां एक ओर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विश्लेषणात्मक संबंधों को बल मिला है, वहीं दूसरी ओर नवीन सिद्धांतों का प्रतिपादन भी हुआ है। अमेरिका में अनेक विद्धानों मुख्य रूप से मारगेन्थाऊ, रिचर्ड स्नाइडर, मॉर्टिन कापलान, कार्ल डब्ल्यू डॉयस, चार्ल्स मेकलेलैंड आदि ने इस ओर विशिष्ट योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त विकसित व विकासशील दोनों देशों के अध्ययन पर बल दिया है। इसकी विषय सामग्री का संकलन, सिद्धान्त प्रतिपादन एवं पद्धतियों का भी काफी विकास हुआ है। परन्तु आज भी सबसे महत्त्वपूर्ण कमी एक सार्वभौमिक/सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादन का अभाव बना हुआ है। शीतयुद्धोत्तर विश्व में इसका महत्त्व और बढ़ गया है। इस भूमण्डलीकरण के दौर में सभी राज्य एक प्रकार की आर्थिक व्यवस्था से जुड़ते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मुद्दे जैसे पर्यावरण, आतंकवाद, नारीवाद, एड्ज, ओजोन परत क्षीण होना, मानवाधिकार आदि राष्ट्रीय की बजाय मानवीय/मानवजाति से संबद्ध हो गए हैं। अतः आज इन सबके समाधान हेतु अंतरराष्ट्रीय मंचों/संगठनों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। अब सार्वभौमिक सिद्धान्त को भी उत्तर आधुनिकवाद की दृष्टि से नकार कर व्यक्तिपरक एवं स्थानीय आधार पर अधिक बल दिया गया है। अत 1945 के बाद के विकास के आधार पर इसे स्वायत्तता की ओर अग्रसर कहा जा सकता है, जिसे 1991 के बाद शीत युद्ध के अंत की प्रक्रिया ने और सशक्त बनाने की कोशिश की है।

अन्तर्राज्यीय संगठन[संपादित करें]

आर्थिक संस्थान[संपादित करें]

अन्तरराष्ट्रीय विधि निकाय[संपादित करें]

मानव अधिकार[संपादित करें]

कानूनी[संपादित करें]

क्षेत्रीय सुरक्षा व्यवस्था[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

आगे पढ़ने के लिए[संपादित करें]

सिद्धांत[संपादित करें]

पाठ्यपुस्तकें[संपादित करें]

  • Baylis, John, Steve Smith, and Patricia Owens. The Globalization of World Politics: An Introduction to International Relations (2011)
  • Mingst, Karen A., and Ivan M. Arreguín-Toft. Essentials of International Relations (5th ed. 2010)
  • Nau, Henry R. Perspectives on International Relations: Power, Institutions, Ideas (2008)
  • Roskin, Michael G., and Nicholas O. Berry. IR: The New World of International Relations (8th ed. 2009)

अंतरराष्ट्रीय संबंधों का इतिहास[संपादित करें]

  • New Cambridge Modern History (13 vol 1957-79), thorough coverage from 1500 to 1900
  • Black, Jeremy. A History of Diplomacy (2010)
  • Calvocoressi, Peter. World Politics since 1945 (9th Edition, 2008) 956pp excerpt and text search
  • E. H. Carr Twenty Years Crisis (1940), 1919–39
  • Kennedy, Paul. The Rise and Fall of the Great Powers Economic Change and Military Conflict From 1500-2000 (1987), stress on economic and military factors
  • Kissinger, Henry. Diplomacy (1995), not a memoir but an interpretive history of international diplomacy since the late 18th century
  • Schroeder, Paul W. The Transformation of European Politics 1763-1848 (Oxford History of Modern Europe) (1994) 920pp; history and analysis of major diplomacy
  • Taylor, A.J.P. The Struggle for Mastery in Europe 1848–1918 (1954) (Oxford History of Modern Europe) 638pp; history and analysis of major diplomacy
  • Stéphane Beaulac: “The Westphalian Model in defining International Law: Challenging the Myth”, Australian Journal of Legal History Vol. 9 (2004), https://web.archive.org/web/20121213173805/http://www.austlii.edu.au/au/journals/AJLH/2004/9.html
  • Krasner, Stephen D.: “Westphalia and all that” in Judith Goldstein & Robert Keohane (eds): Ideas and Foreign Policy (Ithaca, NY: Cornell UP, 1993), pp. 235–264

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]