अन्तरराष्ट्रीय विधि
अन्तरराष्ट्रीय विधि (अंग्रेजी: International law ; देवनागरीकृत : इण्टरनेशनल लॉ ) से आशय उन नियमों से है। जो स्वतन्त्र देशों के बीच परस्पर सम्बन्धों (विवादों) के निपटारे के लिये लागू होते हैं। अन्तरराष्ट्रीय विधि किसी देश के अपने कानून से इस अर्थ में भिन्न है कि अन्तरराष्ट्रीय विधि दो देशों के सम्बन्धों के लिए लागू होता है न कि दो या अधिक नागरिकों के बीच।
अन्तरराष्ट्रीय विधि - निजी तथा सार्वजनिक
[संपादित करें]निजी अन्तरराष्ट्रीय विधि (अंग्रेजी: Private international law ; देवनागरीकृत : प्राइवेट इण्टरनेशनल लॉ ) का तात्पर्य उन नियमों से है, जो किसी राज्य द्वारा ऐसे वादों का निर्णय करने के लिये चुने जाते हैं। जिनमें कोई विदेशी तत्त्व होता है। इन नियमों का प्रयोग इस प्रकार के वाद विषयों के निर्णय में होता है जिनका प्रभाव किसी ऐसे तथ्य, घटना अथवा संव्यवहार पर पड़ता है जो किसी अन्य देशीय विधि प्रणाली से इस प्रकार संबद्ध है कि उस प्रणाली का अवलम्बन आवश्यक हो।
सार्वजनिक अन्तरराष्ट्रीय विधि
[संपादित करें]परिभाषा
[संपादित करें]अन्तरराष्ट्रीय विधि उन विधि नियमों का समूह है जो विभिन्न राज्यों प्रणाली है जिसका सम्बन्ध व्यक्तियों के समाज से न होकर राज्यों के समाज से है।
इतिहास
[संपादित करें]अन्तरराष्ट्रीय विधि के उद्भव तथा विकास का इतिहास निश्चित काल सीमाओं में नहीं बाँटा जा सकता। प्रोफेसर हॉलैण्ड के मतानुसार पुरातन काल में भी स्वतन्त्र राज्यों में मान्यता प्राप्त ऐसे नियम थे जो दूतों के विशेषाधिकार, सन्धि, युद्ध की घोषणा तथा युद्ध सञ्चालन से सम्बन्ध रखते थे। प्राचीन भारत में भी ऐसे नियमों का उल्लेख मिलता है (रामायण तथा महाभारत)। यहूदी, यूनानी तथा रोम के लोगों में भी ऐसे नियमों का होना पाया जाता है। 14वीं, 13वीं, सदी ई॰पू॰ में खत्ती रानी ने मिस्री फ़राऊन को दोनों राज्यों में परस्पर शान्ति और सौजन्य बनाए रखने के लिए जो पत्र लिखे थे वे अन्तरराष्ट्रीय दृष्टि से इतिहास के पहले आदर्श माने जाते हैं। वे पत्र खत्ती और फ़राऊनी दोनों अभिलेखागारों में सुरक्षित रखे गए जो आज तक सुरक्षित हैं। मध्य युग में शायद किसी प्रकार के अन्तरराष्ट्रीय विधि की आवश्यकता ही न थी क्योंकि समुद्री दस्यु समस्त सागरों पर छाये हुए थे, व्यापार प्रायः लुप्त हो चुका था और युद्ध में किसी प्रकार के नियम का पालन नहीं होता था। बाद में पुनर्जागरण एवं पन्थ सुधार का युग आया तब अन्तरराष्ट्रीय कानून के विकास में कुछ प्रगति हुई। कालान्तर में मानव सभ्यता के विकास के साथ आचार तथा रीति की परम्पराएँ बनीं जिनके आधार पर अन्तरराष्ट्रीय विधि आगे बढ़ा और पनपा। 19वीं शताब्दी में उसकी प्रगति विशेष रूप से विभिन्न राष्ट्रों के मध्य होने वाली सन्धियों तथा अभिसमयों द्वारा हुई। सन् 1899 तथा 1907 ई. में हेग में होने वाले शान्ति सम्मेलनों ने अन्तरराष्ट्रीय विधि के रूप को मुखरित किया और अन्तरराष्ट्रीय विवाचन न्यायालय की स्थापना हुई।
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ़ नेशन्स) ने जन्म लिया। उसके मुख्य उद्देश्य थे शान्ति तथा सुरक्षा बनाये रखना और अन्तरराष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि करना। परन्तु 1937 ई. में जापान तथा इटली ने राष्ट्रसंघ के अस्तित्व को भारी धक्का पहुँचाया और अन्त में 19 अप्रैल सन् 1946 ई॰ को संघ का अस्तित्व ही मिट गया।
द्वितीय महायुद्ध के विजेता राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका तथा सोवियत रूस का अधिवेशन मास्को नगर में हुआ और एक छोटा-सा घोषणापत्र प्रकाशित किया गया। तदनन्तर अनेक स्थानों में अधिवेशन होते रहे और एक अन्तरराष्ट्रीय सङ्गठन के विषय में विचार-विनिमय होता रहा। सन् 1945 ई॰ में 25 अप्रैल से 26 जून तक, सैन फ़्रांसिस्को नगर में एक सम्मेलन हुआ जिसमें पचास राज्यों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। 26 जून 1945 ई॰ को संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का घोषणापत्र सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ जिसके द्वारा निम्नलिखित उद्देश्यों की घोषणा की गयी :
- (1) अंतरराष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखना;
- (2) राष्ट्रों में पारस्परिक मैत्री बढ़ाना;
- (3) सभी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं को हल करने में अन्तरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना;
- (4) सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न राष्ट्रों के कार्यकलापों में सामञ्जस्य स्थापित करना।
इस प्रकार संयुक्त राष्ट्रसंघ और विशेषतया अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना से अन्तरराष्ट्रीय कानून को यथार्थ रूप में विधि का पद प्राप्त हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अन्तरराष्ट्रीय-विधि-आयोग की स्थापना की जिसका प्रमुख कार्य अन्तरराष्ट्रीय विधि का विकास करना है।
अन्तरराष्ट्रीय विधि का संहिताकरण
[संपादित करें]कानून के संहिताकरण से तात्पर्य है समस्त नियमों को एकत्र करना, उनको एक सूत्र में क्रमानुसार बाँधना तथा उनमें सामंजस्य स्थापित करना। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में इस ओर प्रयास किया गया। इंस्टीट्यूट ऑफ़ इण्टरनेशनल लॉ ने भी इसमें समुचित योग दिया। हेग सम्मेलनों ने भी इस कार्य को अपने हाथ में लिया। सन् 1920 ई. में राष्ट्रसंघ ने इसके लिए समिति बनायी। इस प्रकार पिछली तीन शताब्दियों में इस कठिन कार्य को पूरा करने का निरन्तर प्रयास होता रहा। अन्त में 21 नवम्बर 1947 ई॰ को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इस कार्य के निमित्त संविधि द्वारा अन्तरराष्ट्रीय-विधि-आयोग स्थापित किया।
अन्तरराष्ट्रीय विधि के विषय
[संपादित करें]अन्तरराष्ट्रीय विधि का विस्तार असीम तथा इसके विषय निरन्तर प्रगतिशील हैं। मानव सभ्यता तथा विज्ञान के विकास के साथ इसका भी विकास उत्तरोत्तर हुआ और होता रहेगा। इसके विस्तार को सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। अन्तरराष्ट्रीय विधि के प्रमुख विषय इस प्रकार हैं:
- (1) राज्यों की मान्यता, उनके मूल अधिकार तथा कर्तव्य;
- (2) राज्य तथा शासन का उत्तराधिकार;
- (3) विदेशी राज्यों पर क्षेत्राधिकार तथा राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर किये गये अपराधों के सम्बन्ध में क्षेत्राधिकार;
- (4) महासागर एवं जल प्रांगण की सीमाएँ;
- (5) राष्ट्रीयता तथा विदेशियों के प्रति व्यवहार;
- (6) शरणागत अधिकार तथा सन्धि के नियम;
- (7) राजकीय एवं वाणिज्य दूतीय समागम तथा उन्मुक्ति के नियम;
- (8) राज्यों के उत्तरदायित्व सम्बन्धी नियम; तथा
- (9) विवाचन प्रक्रिया के नियम।
अन्तरराष्ट्रीय विधि के आधार
[संपादित करें]अन्तरराष्ट्रीय विधि के नियमों का सूत्रपात विचारकों की कल्पना तथा राष्ट्रों के व्यवहारों में हुआ। व्यवहार ने धीरे-धीरे प्रथा का रूप धारण किया और फिर वे प्रथाएँ परम्पराएँ बन गईं। अतः अन्तरराष्ट्रीय विधि का मुख्य आधार परम्पराएँ ही हैं। अन्य आधारों में प्रथम स्थान विभिन्न राष्ट्रों में होने वाली सन्धियों का है जो परम्पराओं से किसी भी अर्थ में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इनके अतिरिक्त राज्यपत्र, प्रदेशीय संसद द्वारा स्वीकृत संविधि तथा प्रदेशीय न्यायालय के निर्णय अन्तरराष्ट्रीय विधि की अन्य आधार शिलाएँ हैं। बाद में विभिन्न अभिसमयों ने तथा निर्वाचन न्यायालय, अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार न्यायालय एवं अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों ने अन्तरराष्ट्रीय विवि को उसका वर्तमान रूप दिया।
अन्तरराष्ट्रीय विधि के काल्पनिक तत्त्व
[संपादित करें]अन्तरराष्ट्रीय विधि कतिपय काल्पनिक तत्वों पर आधारित है जिनमें प्रमुख ये हैं :
- (क) प्रत्येक राज्य का निश्चित राज्यक्षेत्र है और निजी राज्यक्षेत्र में उसको निजी मामलों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है।
- (ख) प्रत्येक राज्य को विधिक समतुल्यता प्राप्त है।
- (ग) अन्तरराष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत सभी राज्यों का समान दृष्टिकोण है।
- (घ) अन्तरराष्ट्रीय विधि की मान्यता राज्यों की सम्मति पर निर्भर है और उसके समक्ष सभी राज्य एक समान हैं।
अन्तरराष्ट्रीय विधि का उल्लंघन
[संपादित करें]अन्तरराष्ट्रीय विधि की मान्यता सदैव राज्यों की स्वेच्छा पर निर्भर रही है। कोई ऐसी व्यवस्था या शक्ति नहीं थी जो राज्यों को अन्तरराष्ट्रीय नियमों का पालन करने के लिए बाध्य कर सके अथवा नियमभंजन के लिए दण्ड दे सके। राष्ट्रसंघ की असफलता का प्रमुख कारण यही था। संसार के राजनीतिज्ञ इसके प्रति पूर्णतया सजग थे। अतः संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र में इस प्रकार की व्यवस्था की गयी है कि कालान्तर में अन्तरराष्ट्रीय विधि को राज्यों की ओर से ठीक वैसा ही सम्मान प्राप्त हो जैसा किसी देश की विधि प्रणाली को अपने देश में शासन वर्ग अथवा न्यायालयों से प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्रसंघ अपने समस्त सहायक अंगों के साथ इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न करने में प्रयत्नशील है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा समिति को कार्यपालिका शक्ति भी दी गई है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- निजी अन्तर्राष्ट्रीय विधि (प्राइवेट इंटरनेशनल लॉ)
- अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध
- अन्तरराष्ट्रीय दण्ड विधि (International criminal law)
- अन्तरराष्ट्रीय विधि सिद्धान्त (International legal theory)
- युद्ध विधि (ला ऑफ वार)
- तुलनात्मक विधि (Comparative law)
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- अन्तरराष्ट्रीय विधि, अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं एवं मानवाधिकार (गूगल पुस्तक ; लेखक- अभिनव मिश्र)