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जैसलमेर के मंदिर

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जैसलमेर दुर्ग, नगर व आस-पास के क्षेत्र में स्थित ऊँचे शिखरों, भव्य गुम्बदों वाले जैन मंदिरों का स्थापत्य कला की दृष्टि से बड़ा महत्व है। जैसलमेर स्थित जैन मंदिर में जगती, गर्भगृह, मुख्यमंडप, गूढ़मंडप, रंगमंडन, स्तंभ व शिखर आदि में गुजरात के सोलंकी व बधेल कालीन मंदिरों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यहां के मुख्य मंदिरों का वर्णन इस प्रकार से है।

दुर्ग में स्थित पार्श्वनाथ तीर्थकर का मंदिर अपने स्थापत्य मूर्तिकला व विशालता हेतु प्रसिद्ध है। वृद्धिरत्नमाला के अनुसार इस मंदिर में मूर्तियों की कुल संख्या १२५३ है। इसके शिल्पकार का नाम ध्त्रा है। पार्श्वनाथ मंदिर के प्रथम मुख्य द्वार के रूप में पीले पत्थर से निर्मित शिल्पकला से अलंकृत तोरण बना हुआ है। इस तोरण के दोनों खंभों में देवी, देवताओं, वादक-वादिकाओं को नृत्य करते हुए, हाथी, सिंह, घोड़े, पक्षी आदि उकेरे हुए हैं, जो सुंदर बेल-बूटियों से युक्त हैं। तोरण के उच्चशिखर पर मध्य में ध्यानस्थ पार्श्वनाथ की मूर्ति उत्कीर्ण हुई है। द्वितीय प्रवेश द्वार पर मुखमंडप के तीन तोरण व इनमें बनी कलामय छत विभिन्न प्रकार की सुंदर आकृतियों से अलंकृत है। तोरण में तीर्थकरों की मूतियाँ वस्तुतः सजीव व दर्शनीय है।

गुजरात शैली के प्रतिरुप इस मंदिर में सभा मंडप, गर्भगृह, गूढ मंडप, छः चौकी, भभतिकी ५१ देव कुलिकाओं की व्यवस्था है। इन कुलिकाओं में बनी हुई मूर्तियाँ अत्यंत ही मनोहारी है। सभामंडल की गुंबदनुमा छत को वाद-वादनियों की मनोहारी मुद्राओं से सजाया गया है। सभामंडप के अग्रभाग के खंभे व उसके बीच के कलात्मक तोरणों पर विभित्र प्रकार की आकृतियों में तक्षण कला के अनुपम प्रकार के उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। इस मंडप में ९ तोरण है। इसी सभामंडप में पीले पाषाण की ५x ४-१/२ फीट ऊँचाई वाली चार शिलाएँ हैं। में स्थित देवी-देवताओं के उपस्थित होने के आधार पर है।

मंदिर के सभा मंडप के आठ सुंदर कलापूर्ण तोरण बने हैं। खंभों के निचले भागों में हिंदू देवी-देवताओं की सुंदर खड़ी आकृतियाँ बनी हैं। गुंबद की बनाबट आकर्षक है। दूसरी ओर तीसरी मंजिल पर भगवान चंद्रप्रभू विराजमान हैं, जो चौमुख रूप में हैं। नीचे के सभा मंडप में चारों तरफ जाली का काम हुआ है। मंदिर में गणेश को विभिण मुद्राओं में प्रदर्शित किया गया है। यहाँ तीसरे मंजिल पर एक कोठरी में रखी धातु की बनी चौबासी व पंच तीर्थी मूर्तियों का संग्रह है।

यह जुडवा मंदिर अपने खूबसूरत कलाकारी के लिए प्रसिद्ध है। खूबसूरत गढ़ी हुई मूर्तियाँ तथा पत्थर पर की गई नक्काशी, इस मंदिर को जैसलमेर की बहुमूल्य धरोहर बनाती है। निचलामंदिर कुंथुनाथ को समर्पित है, जो अष्टपद आधार पर बना है। शांतिनाथ की प्रतिमा मंदिर के ऊपरी भाग में स्थित है। इन मंदिरों का निर्माण जैसलमेर की चोपड़ा तथा शंखवाल परिवारों द्वारा काराया गया। मंदिर में लगे शिलालेख के अनुसार इन दोनों मंदिरों का निर्माण १४८० ई.में हुआ था। १५१६ ई. में मंदिरों के कुछ हिस्से में बदलाव व अन्य निर्माण कार्य किए गए।

यह मंदिर शिखर से युक्त है, इस शिखर के भीतरी गुंबदों में वाद्य यंत्रों को बजाती हुई व नृत्य करती हुई अप्सराओं को उत्कीर्ण किया गया है। इनके नीचे गंधर्वो की प्रतिमाएँ। मंदिर के सभा मंडप के चारों ओर स्तंभों के मध्य सुंदर तोरण बने हैं। गूढ़ मण्डप में एक सफेद आकार की दूसरी काले संगमरमर की कार्योत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियाँ प्रतिष्ठित बनी है, इसके दोनों पार्श्वो में ११-११ अन्य तीर्थकरों की प्रतिमाएँ बनी हैं। इस कारण चौबीसी की संज्ञा दी गई है। हिन्दुओं की दो प्रतिमाएँ दशावतार और लक्ष्मीनारायण भी मंदिर में स्थापित हैं।

मंदिर के अन्य भाग में शायद ही ऐसा कोई पत्थर मिले जिसपर शिल्पकार ने कुछ-न-कुछ न उकेरा हो। हाथी, घोड़ा, सिंह, बंदर, फूल, पत्तियों से पूरा मंदिर आच्छादित है। नालियाँ भी मगरमच्छ के मुख के आकार की बनाई गई हैं। जैसलमेर पंचतीर्थी इतिहास के लेखक ने यहाँ उत्कीर्ण की गई कामनी स्रियों के अंग प्रत्यंग के सजीव सौंदर्य का वर्णन निम्न प्रकार किया है। चांदी सी गोल गुखाकृति, बड़ी विशाल भुजाएँ, चौड़ा ललाट, नागिन सी गूंथी बालों की लटें, तिरछे नयन, तोते की चोंच सी नाक, पतले व सुंदर होंठ, भरे हुए स्तन, पतली सपाट पिंडली व आभूषण से सजा पूरा शरीर आदि की सुक्ष्मता और भाव-भंगिमा युक्त प्रतिमाएँ वस्तु प्रभावोत्पादक है। कला की दृष्टि से इनको खजुराहो, कोणार्क व दिलवाड़ा में प्राप्त प्रतिमाओं के समकक्ष रखा जा सकता है।

संभवनाथजी मंदिर से सटा हुआ शीतलनाथ जी मंदिर है। इस मंदिर का रंगमंडप तथा गर्भगृह बहुत ही सटे हुए बने होने के कारण एक ही रचना प्रतीत होता है। मंदिर में सुंदर पत्थर की पच्चीकारी की गई है। इस मंदिर में नौ खण्डा पार्श्वनाथ जी व एक ही प्रस्तर में २४ तीर्थकार की प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं।

ॠषभदेव मंदिर चंद्रप्रभु मंदिर के समीप स्थित है। यह मंदिर १५ वीं शताब्दी में निर्मित है। ॠषभदेव का मंदिर तथा इसका शिखर अत्यंत कलात्मक एवं दर्शनीय है। इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहाँ मुख्य सभी मण्डप के स्तंभों पर हिन्दु देवी-देवताओं का रुपांकन है। कहीं राधाकृष्ण और कहीं अकेले कृष्ण को वंशी वादन करते हुए दिखाया गया है। एक स्थान पर गणेश, शिव-पार्वती व सरस्वती की मूर्तियाँ अंकित है। कहीं इन्द्र व कहीं विष्णु की प्रतिमा भी उत्कीर्ण है। रंग मंडल में १२ खंभे हैं, जिनके निचले भाग में गणेश की आकृतियाँ बनी है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसलमेर में जैन समुदाय द्वारा हिन्दु देवी-देवताओं को भी पूजा जाता रहा होगा। मंदिर में पद्यावती, तीर्थकर, गणेश, अंबिका, यक्ष, शालमंजिका और अन्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण है।

यह मंदिर किले के चौगान में स्थित है। महावीर स्वामी का यह मंदिर १४९३ ई. के बाद का बना हुआ है। अन्य मंदिरों की तुलना में इसका स्थापत्य साधारण है।

जैसलमेर दुर्ग में स्थित यह महत्वपूर्ण हिन्दु मंदिर है, जिसका आधार मूल रूप में पंचयतन के रूप में था। इस मंदिर का निर्माण दुर्ग के समय ही राव जैसल द्वारा कराया गया। मंदिर का सभामंडप किले के अन्य इमारतों का समकालीन है। इसका निर्माण १२ वीं शताब्दी में हुआ था। अलाउद्धीन के आक्रमण के काल में इस मंदिर का बड़ा भाग ध्वस्त कर दिया गया। १५वीं शताब्दी में महारावल लक्ष्मण द्वारा इसका जीर्णोधार किया गया। मंदिर के सभा मंडप के खंभों पर घटपल्लव आकृतियाँ बनी है। इसका गर्भ गृह, गूढ़ मंडप तथा अन्य भागों का कई बार जीर्णोधार करवाया गया। मंदिर के दो किनारे दरवाजों पर जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएँ भी उत्कीर्ण है। गणेश मंदिर की छत में सुंदर विष्णु की सर्पो पर विराजमान मूर्ति है।

अन्य मंदिर

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टीकम जी का मंदिर जिसे त्रिविकर्मा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, का निमार्ण १७०१ ई. में महारावल अरमसिंह के शासनकाल में महारानी जसरुपदे द्वारा किया गया। यह मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से साधारण है। मंदिर के सभामंडप में खूबसूरत आकृति बनी है, जो महारावल मूलराज के काल की हैं।

टीकम जी मंदिर के बगल में ही गौरी मंदिर स्थित है। इसमें देवी प्रतिमाएँ प्राप्त हुई है। ये प्रतिमाएँ १५ से १७ वीं शताब्दी की हैं। एक शिलालेख के अनुसार ये मूर्तियां कोटड़ा से महारावल जसवंत सिंह द्वारा १७०३ ई. लाई गई थी।

ऐसा माना जाता है कि लौद्रवा की स्थापना परमार राजपूतों द्वारा की गई थी। बाद में यह भाटियों के कब्जें में आ गया था।

लौद्रवा का जैन मंदिर कला का दृष्टि से बड़ा महत्व हैं । दूर से ऊँचा भव्य शिखर तथा इसमें स्थित कल्पवृक्ष दिखाई देने लगते हैं। इस मंदिर में गर्भगृह, सभा मंडप मुख मंडप आदि है। यह मंदिर काफी प्राचीन है तथा समय-समय पर इसका जीर्णोधार होता रहा है। मंदिर में प्रवेश करते ही चौंक में एक भव्य पच्चीस फीट ऊँचा कलात्मक तोरण स्थित है। इस पर सुंदर आकृतियों का रुपांतन पर खुदाई का काम किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में सहसफण पार्श्वनाथ की श्याम मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह मूर्ति कसौटी पत्थर की बनी हुई है। गर्भगृह के मुख्य द्वार के निचले हिस्से में गणेश तथा कुबेर की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके खंभे विशाल हैं, जिसपर घट पल्लव की आकृतियां बनी हुई हैं। इस मूर्ति के ऊपर जड़ा हुआ हीरा मूर्ति के अनेक रुपों का दर्शन करवाता है।

इस मंदिर के चारों कोनों में एक-एक मंदिर बना हुआ है। मंदिर के दक्षिण-पूर्वी कोने पर आदिनाथ, दक्षिण-पश्चिमी कोने पर अजीतनाथ, उत्तर-पश्चिमी कोने पर संभवनाथ तथा उत्तर-पूर्व में चिंतामणी पार्श्वनाथ का मंदिर है। मूल मंदिर के पास कल्पवृक्ष सुशोभित है। मूल प्रासाद पर बना हुआ शिखर बङा आकर्षक है। तोरण द्वार, रंगमंडप, मूलमंदिर व अन्य चार मंदिर तथा उन पर निर्मित शिखर और कल्पवृक्ष सभी की एक इकाई के रूप में देखने पर इन सब की संरचना बड़ी भव्य प्रतीत होती है। इस मंदिर में एक प्राचीन कलात्मक रथ रखा हुआ है, जिसमें चिंतामणि पाश्वनाथ स्वामी की मूर्ति गुजरात से यहां लायी गई थी।

लौद्रवा जो आज ध्वस्त स्थिति में है। प्राचीन काल में बङा समृद्ध था। यहाँ काल नदी के किनारे प्राचीन शिव मंदिर था। आज लगभग इसका तीन चौथाई भाग भूमिगत हो चुका है। यहाँ पंचमुखी शिवलिंग है। जिसकी तुलना ऐलिफेंटा गुहा व मध्य प्रदेश में मंदसौर से प्राप्त शिवलिंग से की जा सकती है। इसके अतिरिक्त विष्णु, लक्ष्मी, गणपति, शक्ति व कई पशु-पक्षियों की मूर्तियां भी रेत में डूबी पड़ी है। प्राचीन कला की दृष्टि से लौद्रवा का आज भी अत्यधिक महत्व है।

जैसलमेर और लौद्रवा के बीच अमरसागर एक रमणिक स्थान है। अमरसागर मंदिर, तालाब तथा उद्यान का निर्माण महारावल अमरसिंह द्वारा विक्रम संवत् १७२१ से १७५१ के बीच किया गया था। यहाँ आदिश्वर भगवान के तीन जैन मंदिर है। ये सभी १९ वीं शताब्दी की कृतियां हैं। इनसे यह तो स्पष्ट है कि जैसलमेर क्षेत्रा में जैन स्थापत्य परंपरा का अनुसरण १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक होता रहा। अमर सागर के किनारे भगवान आदिश्वर का दो मंजिला जैन मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण सेठ हिम्मत राम बाफना द्वारा १८७१ ई. में हुआ था। यहाँ इस मंदिर के स्थापत्य पर कुछ अंशों में हिन्दु-मुगल शैली का सामंजस्य है। मंदिर में बने गवाक्ष, झरोखें, तिबारियाँ तथा बरामदों पर उत्कीर्ण अलंकरण बड़े मनमोह है, यहाँ मुख चतुस्कि के स्थान पर जालीदार बरामदा स्थित है और रंगमंडप की जगह अलंकरणों से युक्त बरामदा का निर्माण हुआ है। दूसरी मंजिल पर चक्ररेखी शिखर के दोनो पाश्वों में मुख-चतुस्कि जोड़ दी गई है।

जैसलमेर से १५ किलामीटर दूरी पर स्थित वैसाखी में प्रसिद्द्ध हिंदु मंदिर है। यहाँ पर तालाब होने के कारण यह मंदिर लंबे समय तक पूजा स्थल था। यहाँ १० वीं शताब्दी के दो स्मारक मिलते हैं।

मंदिर का शिखर काफी प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण ८-१० वीं शताब्दी के मध्य हुआ होगा। महारावल हरराज के शासन काल में यह मंदिर १५७८ से १५९७ ई. के मध्य में धाय पार्वती द्वारा मरम्मत करवाया गया था।

रामकुंड में महारावल अमरसिंह द्वारा १६९९ ई. में निर्मित वैष्णव मंदिर है। यहाँ के शिलालेख के अनुसार अमरसिंह की रानी सोधी मानसुखदे ने यह मंदिर का निर्माण सीताराम के लिए करवाया था। इस शिलालेख को महारावल जसवंतसिंह द्वारा १७०३ ई. में स्थापित किया गया था। मुख्य मंदिर के बाहरी भाग में कुछ भित्ति-चित्र तथा पुरुष की रेखीय रचना है।

जैसलमेर के भाटी शासकों की जनहिताय की भावना, कला प्रियता एवं सौंदर्य प्रेम की अभिव्यक्ति स्वरुप जैसलमेर व उसके आसपास के क्षेत्र में अनेक सरोवर, बाग-बगीचे, महल व छत्रियों का निर्माण हुआ। वे स्थापत्य कला के अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जैसलमेर नगर के पूर्व में घंसीसर सरोवर का निर्माण महारावल, झंसी ने आरंभ करवाया था। यहाँ बड़े सुंदर घाट, मंदिर व बगीचियाँ बनी हुई हैं। जब घ्ड.सीसर पूरा भर जाता है तो यह एक सुंदर झील का रूप ले लेती है। इस तालाब के मध्य में बनी इमारतें व छत्रियाँ पानी में तैरती हुई दिखाई देती हैं। घ्ंसीसर तालाब का प्रवेश-द्वार, जो टीलों की पोल के नाम से विख्यात है, तालाब की शोभा को बढ़ाने के साथ-साथ जैसलमेर के स्थापत्य का एक अनुपम नमूना भी प्रस्तुत करता है। घंसीसर के आलावा यहाँ अमर सागर, मूल सागर, गजरुप सागर आदि अन्य सरोवर का निर्माण भी करवाया गया था। अमरसागर के तालाब का बांध व उस पर बने महल, हिम्मतराम पटुआ के बाग एवं बगीचे की बनावट तथा अनुबाब का दृश्य काफी सुंदर है तथा स्थापत्य व कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। मूलसागर व उसके मध्य में निर्मित महल और झालरा वास्तव में दर्शनीय हैं।

जैसलमेर से पॉचमील दूर बड़े बाग का सुदृढ़तम जैतबंध अपने स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध है। यह विशाल अनगड़ित बड़े -बड़े पत्थरों को जुड़वाँ कर निर्मित करवाया गया है। इस बांध के आगे बने सरोवर को जैतसर कहते हैं। इस बांध के ऊपर बने भारी राजाओं की समाधि स्थल भी उल्लेखनीय है। रावल बैरीशाल के मंडप की जाली एवं पीले पत्थर की पालिशदार चौकी कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। बांध की दूसरी तरु एक मनोहर बाग है, जो आम, अमरुद, अनार आदि के पेड़ , फूल-पौधों व लताओं से अच्छादित है। इसके अलावा गजरुप सागर का बांध व पहाड़ के बीच में से बनाई गई पानी की बांध व पहाड़ के बीच में से बनाई गई पानी की नहर और ऊँचे पर्वत पर बना देवी का मंदिर व आश्रम देदानसर आदि शहरी तालाब पर निर्मित व बांध एवं बगिचियाँ आदि मजबूत, कलात्मक एवं सुंदर हैं।