जैसलमेर में धर्म

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भारतवर्ष की भूमि सदैव से धर्म प्रधान रही है, यहाँ पर धर्म के बिना जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती है। जैसलमेर राज्य का विस्तार भू-भाग भी इस भावना से मुक्त नहीं रहा।

प्रथम मंदिर[संपादित करें]

इस क्षेत्र के सर्वप्रथम राव तणू द्वारा तणोट नामक स्थान बसाने तथा वहाँ देवी का मंदिर का मंदिर बनाने का उल्लेख प्राप्त होता है। यह देवी का मंदिर आज भी विद्यमान है, हालांकि इस मंदिर में कोई स्मारक व लेख प्राप्त नहीं होता है किन्तु जन-जन के इतिहास के माध्यम से यह मंदिर राव तणू के पिता राव केहर के समय का माना जाता है व इस क्षेत्र में इसकी बहुत ही मान्यता है। भारत पाक युद्ध १९६५ के बाद तो भारतीय सेना व सीमा सुरक्षा बल की भी यह आराध्य देवी हो गई व उनके द्वारा नवीन मंदिर बनाकर मंदिर का संचालन भी सीमा सुरक्षा बल के आधीन है।

देवी मंदिर[संपादित करें]

इसी समय के अन्य देवी के मंदिर भादरा राय, काले डूंगर की राय, तेमंै राय व चेलकरी तणूटिया देवी के मंदिर आठवीं सदी से यहाँ जन-जन के आराधन स्थल बने हुए हैं। देवी को शक्ति रूप में इस क्षेत्र में प्राचीन समय से पूजते आये हैं। रावल देवराज (८५३ से ९७४ ई.) के राज्यच्युत होने पर नाथपंथ के एक योगी की सहायता से पुनः राजसत्ता पाने व देरावर नामक स्थान पर अपनी राजधानी स्थापित करने के कारण भाटी वंश तथा राज्य में नाथपंश को राज्याश्रय प्राप्त हुआ तथा जैसलमेर में नाथपंथ की गद्दी की स्थापना हुई, जो कि राजवंश के साथ-साथ राज्य के स्वत्रंत भारत में विलीनीकरण के समय तक मौजूद रहा।

नाथ संप्रदाय[संपादित करें]

नाथ सम्प्रदाय के प्रति अपने कृतज्ञता के भाव के कारण यहाँ के शासक राजतिलक के समय योगी द्वारा प्रदत्त भगवा वस्र पहनकर उनके मठाधीश के हाथ से मुकुट धारण करते रहे हैं। देवराज के पौत्र विरजराज लांझा (११ वीं सदी) के समय के कुछ शिलालेख प्राप्त होते हैं, जो किन्ही मंदिर के स्थापना से संबंधित है, शिलालेख संस्कृत में हैं तथा श्री शिव, श्री मतछण देव्य आदि शब्द से युक्त होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि ये शिव, विष्णु मंदिर प्रचुरता में मिलते हैं, ये शक्ति देवी दुर्गा के विभिन्न रुपों में हैं, जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग प्रत्येक अवसर पर जैसे विवाह व पुत्त जन्म आदि के अवसर पर सर्वप्रथम पूजते हैं।

जैसलमेर में सनातन धर्म का प्राचीन मंदिर दुर्ग पर स्थित आदि नारायण का है, जो टीकमराय के मंदिर के नाम से विख्यात है, यहाँ विष्णु की अष्ठ धातु की प्रतिमा स्थापित है। रावल लक्ष्मण के समय (१३९६ से १४३७ ई.) यहाँ सन् १४३७ ई. में एक विशाल मंदिर स्थापित किया गया तथा इसमें विष्णु की प्रतिमा, लक्ष्मीनाथ के रूप में स्थापित की गई। वस्तुतः यह लक्ष्मी विष्णु दोनों की युगल प्रतिमा है। मंदिर के गर्भ गृह के गोपुर पर दशावपार के सभी देवी देवताओं का बहुत ही सुंदर शिलालेखन हुआ है। इस मंदिर के निर्माण में रावल लक्ष्मण के अतिरिक्त जैन पंचायत पुष्करणा ब्राहम्मण समाज, महेश्वरी समाज, भाटिया समाजश् खन्नी, सुनार, दरजी, हजूरी, राजपूत आदि सातों जातों द्वारा निर्माण में सहयोग दिये जाने से यह जन-जन का मंदिर कहलाता है व सभी लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ प्रतिदिन दर्शन के लिए जाते हैं। रावल लक्ष्मण ने जैसलमेर राज्य की संपूर्ण सत्ता भगवान लक्ष्मीनाथ के नाम पर स्वयं उसके दीवन के रूप में कार्य करने की घोषणा की थी।

मुख्य संप्रदाय[संपादित करें]

जैसलमेर में विभिन्न संप्रदायों के प्रति बहुत आस्था रही है, इनमें राम स्नेही, नाथपंथ तथा वल्लभ संप्रदाय प्रमुख हैं। महारावल अमरसिंह के समय रामानंदी पंथ के महंत हरिवंशगिरि ने अमरसिंह को अपने चमत्कारों प्रसन्न किया व रावल देवराज के समय से राज्स में किसी अन्य पंथ के प्रवेश पर लगी रोक को हटवाया तथा स्थान-स्थान पर रामद्वारों की स्थापना कराई। महारावल अमरसिंह द्वारा भूतेश्वर तथा अमरेश्वर नामक दो शिव मंदिर बनवाये थे। साथ ही फलसूंढ़ नाम स्थान से गणेश प्रतिमा मंगवा कर गणेश मंदिर, दुर्ग में स्थापित कराया गया। महारावल अमरसिंह के उपरांत उनके पुत्र महारावल जसवंत सिंह द्वारा दुर्ग स्थित टीकमराय के मंदिर का जीर्णोंधार कराया गया तथा एक देवी के मंदिर के निमार्ण का उल्लेख प्राप्त होता है। महारावल अखैसिंह (१७७२-१७६२ ई.) के समय उनके द्वारा दो मंदिर तथा वैशाखी नामक स्थल पर राजगुरु हरिवंश गिरि के स्मारक बनाने का उल्लेख प्राप्त होता है। अखैसिंह द्वारा प्रतिष्ठित मंदिर में रणछों जी (कृष्ण का रुप) का मंदिर प्रमुख है।

महारावल मूलराज (१७६१से १८१९ ई.) के समय में जो धार्मिक लहर प्रवाहित हुई, वह अपने आप में अनोखा उदाहरण है। मूलराज के समय जैसलमेर नगर में वल्लभ संप्रदाय के स्वामी ने यहाँ छः मास तक प्रवास किया। उनके उपदेशों से मूलराज इतने प्रभावित हुए कि उन्होने सपरिवार वल्लभ संप्रदाय ग्रहण कर लिया। तदुपरांत प्रजा के अधिकांश जनों ने भी इस संप्रदाय में दीक्षा ग्रहण कर ली, इसमें हमेश्वरी तथा भाटिया समाज प्रमुख था। यह संप्रदाय आज भी इस धर्म का पालन करता है। मूलराज द्वारा इसी तारतम्य में वल्लभ कुल के स्वरुपों के अर्थात गिरधारी जी का मंदिर, बांकेबिहारी जी का मंदिर, मदनमोहन जी का मंदिर, गोवर्धन नाथ जी का मंदिर मथुरानाथ जी का मंदिरों का निर्माण कराया। महारावल मूलराज द्वारा पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय स्वीकार करने के बावजूद अन्य संप्रदायों का समान आदर किया गया, अतः उन्होंने अपनी माता सोढ़ी जी की आज्ञा से सीताराम का मंदिर बनवाया। इसी क्रम में १७७० ई. में घंसीसर नामक तङाग के किनारे देव चंद्रशेखर महादेव मंदिर बनवाया। सन् १७९७ में गोरखनाथ का मंदिर तथा अम्बिका देवी के मंदिरों के निर्माण कार्य भी महारावल के धार्मिक सहिष्णुता के सजीव उदाहरण है।

जैन धर्म[संपादित करें]

यहाँ जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा ने इतनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की थी कि कालांतर में श्वेताम्बर पंथी जैन समाज के लिये जैसलंमेर एक तीर्थ स्थल बन गया। यहाँ पर जैन धर्म के प्रादुभाव भाटी शासकों के पूर्व के पुंवार शासक के समय से प्राप्त होता है। लोद्रवा पर भाटी देवराज (१० वीं सदी) का अधिपत्य होने पर भाटी राजाओं ने धर्म के मामले में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। खरतरगच्छगुर्वावली से ज्ञात होता है कि जैसलमेर राज्य का बीकमपुर (विक्रमपुर) जैन धर्माचार्यों का प्रसिद्ध गढ़ था। जैसलमेर राजधानी स्थापित होने के उपरांत यहाँ सर्वपथम जैन मंदिर के स्थापित होने के प्रमाण उनमें लगे शिलालेखों से ज्ञात होते हैं। रावल कर्ण (करण) (१२५१ से १२८३ ई.) के शासनकाल में जैन धर्म के आचार्य जिन प्रवोधसूरि का यहाँ अपने शिषयों सहित आगमन हुआ था। रावल करण ने अपने परिवार सभासदों एवं प्रजा सहित उनका स्वागत किया था। जैन मुनि द्वारा यहाँ पर चर्तुमास किया गया तथा कई प्रकार के उत्सवों, सभाओं व व्याख्यानों का आयोजन किया गया था। इस हेतु उन्हें राज्य की ओर से समस्त सुविधाएँ प्रदान की गई थी। इसके बाद यहाँ जैन आचार्यों का आगमन निरंतर बना रहा।

रावल करण के बाद उसके पुत्र जैतसिंह (१२८४ट्ठ३०० ई.) ने जैन मुनि चंद्रसूरि को यहाँ आने का निमंत्रण दिया था तथा जैन मुनि ने यहाँ दो वर्ष तक रहकर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।

रावल बैरसी के समय (१४३६ से १४४६ ई.) तक का समय जैन धर्म का काल रहा। रावल बैरसी के राज्याश्रय में यहाँ कई जैन मंदिरों का निर्माण हुआ व विभिन्न तीर्थकर की प्रतिमाएँ स्थापित की गई। जैन आचार्य जिन राजसूरि की प्ररेणा से चिंतामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति लोद्रवा से लाकर दुर्ग पर स्थापित की गई। १४३६ ई. में कातिपय श्रावकों द्वारा सुपार्श्वनाथ की स्थापना की गई। १४३७ में शाह हेमराज और पूरा द्वारा संभवनाथ का मंदिर बनवाया गया।

बैरसी (बैरसिंह) के उत्तराधिकारी रावल चाचगदेव के समय राज्य में जैन धर्म के विकास की जानकारी उस समय के प्राप्त जैन अभिलेखों से होती है। आचार्य जिन चंद्रसूरि के सानिध्य से इस काल में अनेक जैन सभाओं का आयोजन कराया गया था।

रावल देवीदास (देवकर्ण) के राज्यकाल में जैन धर्म ने अत्यधिक उन्नति प्राप्त की थी, उसके शासनकाल में यहाँ के जैन मतालंबी प्रजाजनों का एक विशाल संघ जैसलमेर से शत्रु जय गिरिनार तथा अन्य तीर्थ स्थलों की यात्रा करने कई बार गया था। इस समय जैन धर्मावलंबी सेठ सकलेचा गोत्रीय खेता व चोपं गोत्र के पंचा ने क्रमशः शांतिनाथ तथा अष्टापद के मंदिरों का निर्माण १४७९ में कराया था। ये मंदिर आज भी उस समय के स्थापत्य निर्माण शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैद्य रावल देवीदास के पश्चात् १५९३ ई. में महारावल भीम के शासनकाल में संघवी पासदत्त द्वारा जिन कुशल सूरि नामक जैन आचार्य की चरण पादुकाएँ यहाँ स्थापित कराई गई थी। रावल कल्याणदास के राज्य में सन १६१५ ई. में जिन चन्द्रसूरि की पादुकाएँ यहाँ स्थापित की गई थी।

महारावल बुधसिंह के समय गंगाराम द्वारा १७१२ ई. मुनि तत्व सुंदर मणि के उपदेशों से प्रेरित होकर कई जैन प्रतिमाओ की स्थापना कराई गई थी।

महारावल अखैसिंह के राज्यकाल में जिन उदयसूरि की पादुकाओं की स्थापना उनके कतिपय शिष्यों द्वारा १७४९ ई. व १७५५ ई. में की गई थी। महारावल अखैसिंह के समय यहाँ जैन धर्मावलंबी वैश्यों के ९०० घर थे। इनमें जिंदल, पारख मूथा, वर्धमान, बापना, भंसाली आदि प्रमुख थे। इन लोगों के नामों से आज भी यहाँ कई मुहल्ले विख्यात है।

महारावल मूलराज व उनके उत्तराधिकारी गजसिंह के राज्यकाल में भी जैसलमेर राज्य में जैन धर्म की निरंतर प्रगति होती रही। इनके काल में पादुका स्थापन, स्तम्भों का निर्माण, मंदिर की स्थापना व उत्सवों के आयोजन में प्रचुर धन खर्च किया गया, संघ यात्रा रथयात्रा आदि के भी कई आयोजन किये गये। १८४० ई. अमरसागर नामक स्थल पर आदिनाथ जी की मूर्किंत स्थापित कर भव्य मंदिर निर्किंमत कराया गया था। इस प्रकार जैन धर्म राज्य के प्रारंभिक काल से लेकर आद्यावदि तक यहाँ प्रभावशाली रहा। अपनी सुरक्षित भौगोलिक स्थिति के कारण यहाँ जैन मुनियों, धर्माचायों ने प्रश्रय लिया व अन्य स्थानों से दुर्लभ ग्रंथ लाकर तथा यहाँ रहकर उनकी रचना कर एक विशाल ग्रंथालयों में २६८३ ग्रंथ सुरक्षित किय। जैसलमेर राज्य के जैन धर्म के बारे में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यहाँ के शासकों द्वारा इस धर्म के पालन करने वालों को पूर्ण राज्याश्रय दिया, किन्तु स्वयं उस धर्म से दीक्षित नहीं हुए, साथ ही जैन धर्म से प्रभावित होने के पश्चात् भी उन्होंने अन्य किसी धर्म का तिरस्कार या अवनति में हिस्सा नहीं लिया।

इस्लाम मजहब[संपादित करें]

जैसलमेर राज्य में पाये जाने वाले इस्लाम धर्म के अनुयायी अधिकांशतः स्थानीय जातियों द्वारा बलात् इस्लाम धर्म स्वीकृत करने वालों में से है। जैसा के सर्व विदित है कि भारत में सर्वप्रथम इस्लाम का प्रार्दुभाव सिंध के विस्तृत भू-भाग पर ही हुआ था। यहाँ रहने वाले अधिकांश मुस्लिम स्थानीय जातियों से परिवर्तित है, अतः उनके रोटी-बेटी के संबंध भले ही अपने मूल परिवारों से समाप्त हो गये हैं, परंतु उनक कुल गोत्र रीति-रिवाज आदि वही हैं तथा यही कारण है कि यहाँ हिन्दू-मुस्लिम जैसे दो संप्रदायों में कभी वैमनस्य पैदा नहीं हुआ।

यहाँ पर मूलतः अरब व तुर्क से आये हुए गोत्रीय मुस्लिम भी है। जो कि यहाँ के मुस्लिम संप्रदाय के धर्म प्रमुख का कार्य करते हैं, इनमें मुल्ला, मौलवी फकीर आदि जैसे कार्यों में रहते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]