गर्भगृह
गर्भगृह मन्दिरस्थापत्य का शब्द। गर्भगृह मन्दिर का वह भाग है जिसमें देवमूर्ति की स्थापना की जाती है।
परिचय
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वास्तुशास्त्र के अनुसार देवमन्दिर के ब्रह्मसूत्र या उत्सेध की दिशा में नीचे से ऊपर की ओर उठते हुए कई भाग होते हैं। पहला जगती, दूसरा अधिष्ठान, तीसरा गर्भगृह, चौथा शिखर और अन्त में शिखर के ऊपर आमलक और कलश। जगती मन्दिरनिर्माण लिए ऊँचा चबूतरा है जिससे प्राचीन काल में मण्ड भी कहा जाता था। इसे ही आजकल कुरसी कहते हैं। इसकी ऊँचाई और लम्बाई, चौड़ाई गर्भगृह के अनुसार नियत की जाती है। जगती के ऊपर कुछ सीढ़ियाँ बनाकर अधिष्ठान की ऊँचाई तक पहुँचा जाता था, इसके बाद का भाग (मूर्ति का कोठा) गर्भगृह होता है जिसमें देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है। गर्भगृह ही मन्दिर का मुख्य भाग है। यह जगती या मण्ड के ऊपर बना होने के कारण मण्डोवर (सं. मण्डोपरि) भी कहलाता है। गर्भगृह के एक ओर मंदिर का द्वार और तीन ओर भित्तियों का निर्माण होता है। प्राय: द्वार बहुत अलङ्कृत बनाया जाता था उसके स्तम्भ कई भागों में बँटे होते थे। प्रत्येक बाँट को शाखा कहते थे। द्विशाख, त्रिशाख, पञ्चशाख, सप्तशाख, नवशाख तक द्वार के पार्श्वस्तम्भों का वर्णन मिलता है। इनके ऊपर प्रतिहारी या द्वारपालों की मूर्तियाँ अङ्कित की जाती हैं। एवं प्रमथ, श्रीवक्ष, फुल्लावल्ली, मिथुन आदि अलङ्करण की शोभा के लिए बनाए जाते हैं। गर्भगृह के द्वार के उत्तराङ्ग या सिरदल पर एक छोटी पूर्ति बनाई जाती है, जिसे लालाटबिम्ब कहते हैं। प्रायः यह मन्दिर में स्थापित देवता के परिवार की होती है; जैसे विष्णु के मन्दिरों में या तो विष्णु के किसी अवतारविशेष की या गरुड़ की छोटी मूर्ति बनाई जाती है। गुप्तकाल में मन्दिर के पार्श्वस्तंभों पर मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना की मूर्तियाँ अंकित की जाने लगीं।
गर्भगृह के तीन ओर की भित्तियों में बाहर की ओर जो तीन प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं, उन्हें रथिकाबिम्ब कहते हैं। ये भी देवमूर्तियाँ होती हैं जिन्हें गर्भगृह की प्रदक्षिणा करते समय प्रणाम किया जाता है।
गर्भगृह की लम्बाई चौड़ाई प्रायः छोटी ओर बराबर होती है। प्रदक्षिण पथ से घिरे मन्दिरों में प्रायः अँधेरा रहती है, इस कारण उन्हें सान्धार कहते हैं। गर्भगृह मंदिर का हृदयस्थान है। यह पूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद अत्यन्त पवित्र माना जाता है। विष्णु आदि की मूर्तियाँ प्रायः पिछली दीवार के सहारेरखी जाती हैं और शिवलिंग की स्थापना गर्भगृह के बीचोबीच होती हैं। देवतत्त्व की दृष्टि से गर्भगृह अत्यन्त माङ्गलिक और महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यही मन्दिर का ब्रह्मस्थान है। देवगृह के भीतरी भाग में दीवारों पर प्राय: और कोई रचना नहीं करते किन्तु इसके अपवाद भी हैं। देवगृह की छत प्रायः सपाट होती हैं किन्तु शिखर सहित मन्दिरों में इसका भी अपवाद देखा जाता है। आरम्भकाल में देवगृह या मण्डोवर की रचना संयत और सादी होती थी। उस समय विशेष अलङ्करणों का प्रयोग न था, किन्तु समय पाकर देवगृह भित्तियों में नाना प्रकार के अलंकरण बनाए जाने लगे। देवगृह के द्वार सहित चारों ओर की भित्तियाँ चार भद्र कही जाती हैं। भद्र के तीन भाग करके यदि बीच का भाग कुछ निकाल दिया जाय तो वह तीन भागों में बँटा हुआ भद्र त्रिरथ कहलाता है। ऐसे ही पञ्चरथ, सप्तरथ नौरथ तक बनाए जा सकते हैं। बीच का निकला हुआ भाग या निर्गम रथ और दोनों कोनों के अन्तःप्रविष्ट भाग प्रतिरथ कहलाते हैं। यदि निर्गम और प्रवेशवाले भागों की संख्या पाँच हुई तो बीच का भाग रथ, उसके दोनों ओर के भाग प्रतिरथ ओर दोनों कोनों के कोणरथ कहलाते हैं। उत्सेध, उदय या ऊँचाई में भी गर्भगृह के बाहर की ओर बहुत से अलङ्करण बनाए जाते हैं; उनमें ऊपर नीचे दो जङ्घाएँ और उनके बीच की तीन पट्टियाँ कहलाती हैं। जंघाओं पर प्राय: स्त्रीमूर्तियों का अङ्कन रहता है, जिन्हें प्रेक्षणिका, सुरसुन्दरी, अलसकन्या, अप्सरा आदि कई नाम दिए गए हैं। वे प्राय: नृत्य, नाट्य, सङ्गीत और मिथुनशृङ्गार की मुद्राओं में अङ्कित की जाती हैं। देवगृह का उठान नीचे की खुरशिला से लेकर कलश तक, वास्तु और शिल्प के सुनिश्चित नियमों के अनुसार बनाया जाता है। उसमें एक एक घर के पत्थरों के नाम, रूप या अलङ्करण निश्चित हैं, किन्तु उनके भेद भी अनन्त हैं। गर्भगृह प्रायः चौकोर होता है, किन्तु चतुरस्र आकृति के अतिरिक्त आयताकार द्वयस्र अर्थात् एक ओर गोल तथा एक ओर चौकोर और परिमण्डल ये आकृतियों भी स्वीकृत हैं, किन्तु व्यवहार में बहुत कम देखी जाती हैं।