दिवारी

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दिवारी बुन्देलखण्ड का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। यह नृत्य योद्धाओं के युद्ध कौशल पर आधारित है। कहा जाये तो यह एक प्रकार का युद्ध कौशल ही है। पाई डण्डा एवं दीवारी नृत्य संसार के सभी मार्शल आर्ट्स का जन्मदाता है। इस कला का विकास भारत के बौद्ध मठों से बौद्ध भिक्षुओं द्वारा हुआ। यही से यह तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, लंका, इंडोनेशिया में फैला। ज्ञातव्य है कि जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म का विकास हुआ, उन्हीं देशों से मार्शल आर्ट्स के युद्ध कौशल का विकास हुआ।[1]

दीवारी नृत्य में ठोस बाँस की लाठी का प्रयोग होता है, यह बाँस की लाठी ही इस नृत्य का मुख्य आधार है। इस लाठी की लम्बाई लगभग 6 फुट होती है तथा वजन 500 ग्राम के आसपास रहता है। इसे प्रत्येक कलाकार अपने साथ लेकर नृत्य में इसका प्रयोग करता है। इसमें वीर रस की प्रधानता रहती है, हुंकार भरी जाती है। प्रतिद्वन्दी को ललकारा जाता है। इस नृत्य की भाव भंगिमा में आक्रोश, गुस्सा एवं साहस प्रदर्शित होता है। लय में गति की तीव्रता बढ़ जाती है। गति की तीव्रता में भी लयबद्धता कमाल का हुनर है। इस नृत्य की पूरी प्रक्रिया में एकाग्रता एवं संतुलन की आवश्यकता होती है। भुजायें फड़कती हैं। इसकी तुलना शिव के ताण्डव नृत्य से की जा सकती है।

दीवारी नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन करते हुये योद्धा अपने प्रतिद्वन्दियों पर लाठियों से प्रहार करता है। इस माध्यम से उन्हें युद्ध के लिए ललकारता है। अपने कई प्रतिद्वन्दियों द्वारा किये जाने वाले लाठी के प्रहार को रोक कर अपनी रक्षा करता है तथा स्वयं उन पर प्रहार करता है।

दीवारी नृत्य से प्राप्त युद्ध कौशल में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम को दक्षता हासिल थी। वह युद्ध के हथियार के रूप में 'हल' का प्रयोग करते थे। इसीलिये 'हलधर' कहलावे। हल में एक लम्बे, चपटे मजबूत लकड़ी के डण्डे का प्रयोग होता है, जिसे हरीश कहते हैं। हलधर ने विभिन्न युद्धों के साथ 'महाभारत युद्ध' में इसका प्रयोग किया। इसीलिये दीवारी नृत्य के साथ-साथ युद्ध कौशल भी है।

सन्दर्भ[संपादित करें]