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त्रिविम रसायन

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विभिन्न प्रकार के समावयव (isomer). त्रिविम रसायन, त्रिविम समावयवता पर केन्द्रित रसायन है।

विन्यासरसायन, या त्रिविम रसायन (Stereochemisty), रसायन की वह शाखा है जो अणुओं के अन्दर परमाणुओं के सापेक्षिक स्थिति (relative spatial arrangement) एवं उनके प्रभावों का अध्ययन करती है।

'स्टीरिओ' शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द स्टिरिऑस (sterios) से, जिसका अर्थ 'ठोस' होता है, हुई है और यह रासायनिक यौगिकों के उन गुणों से संबंधित है जो उनके अणु के परमाणुओं की त्रिविम व्यवस्था पर निर्भर हैं। परमाणुओं की त्रिविम व्यवस्था का सबसे प्रमुख फल त्रिविम समावयवता (stereo-isomerism) है। समावयवी वे यौगिक हैं जिनका अणुसूत्र एक समान होता है, पर कुछ भौतिक तथा रासायनिक गुणों में वे भिन्न होते हैं। यह विभिन्नता इनके अणुओं के भीतर परमाणुओं की व्यवस्था की भिन्नता के कारण होती है। एथिल ऐलकोहॉल और डाइमेथिल ईथर दोनों का अणुसूत्र एक ही C2H6O है, पर अणुओं में परमाणुओं का विन्यास भिन्न भिन्न है।

विन्यास समावयवता दो प्रकार की होती है : एक प्रकाशीय समावयवता और दूसरी ज्यामितीय समावयवता। प्रकाशीय समावयवता असममित होने के कारण प्रकाशत: सक्रिय होते हैं तथा बहुत से रासायनिक और भौतिक गुणों में समान होते हैं। इनका सबसे प्रमुख अंतर ध्रुवित प्रकाश के साथ की क्रिया है, क्योंकि इन समावयवियों का घूर्णन बराबर और विपरीत दिशा में हो सकता है। ज्यामितीय समावयवियों के रासायनिक तथा भौतिक गुणों में भिन्नता होती है।

विन्यासरसायन के प्रारंभिक इतिहास का वास्तविक अध्ययन प्रकाश की कुछ घटनाओं की खोज से आरंभ होता है। 1908 ई. में मालुस (Malus) ने घूर्णन द्वारा प्रकाश के ध्रुवण की खोज की और तीन वर्ष बाद आरागो (Arago) ने स्फटिक के प्रकाश-सक्रिय होने का पता लगाया। 1815 ई. में विओ (Biot) ने पता लगाया कि ठोसों के साथ-साथ द्रव और गैसें भी विलयन में प्रकाशसक्रिय होती हैं।

विशिष्ट घूर्णन - किसी प्रकाशत: सक्रिय पदार्थ का विशिष्ट घूर्णन समीकरण के द्वारा दर्शाया जाता है, जिसे विशिष्ट घूर्णन, प्रकाश की तरंग लंबाई l तथा t डिग्री ताप के लिए है और a प्रकाश के घूर्णन का अंश (degree) है, जो 1 सेंटी मीटर लंबी नली से होकर प्रकाश के जाने से प्राप्त हुआ तथा d नली में भरी हुई प्रकाशसक्रिय वस्तु की प्रति घन सेंमी. सांद्रता है। दाहिनी ओर के घूर्णन को धनात्मक (+) तथा बाईं ओर के घूर्णन को ऋणात्मक (-) कहते हैं। विशिष्ट घूर्णन प्रकाश तरंग, लंबाई, ताप, विलायक तथा सांद्रण पर निर्भर है। कभी-कभी इनके परिवर्तन के कारण घूर्णन की दिशा ही विपरीत हो जाती है।

शेले (Scheele) ने 1768 ई. में टार्टरिक अम्ल अंगूरों के टार्टर से प्राप्त किया तथा 1819 ई. में केस्टनर (Kastner) ने उसी संघटन का एक अम्ल उपजात के रूप में पाया और इसका नाम रेसिमिक (Racemic) अम्ल रखा। 1838 ई. में बिओ ने पता लगाया कि टार्टरिक अम्ल प्रकाशत: सक्रिय है और रेसिमिक अम्ल प्रकाशत: निष्क्रिय है। ध्रुवित प्रकाश तथा प्रकाशत: सक्रियता की खोज के उपरांत विन्यासरसायन के सिद्धांतों में उल्लेखनीय प्रगति पैस्टर (Pasteur) के द्वारा हुई। पैस्टर ने पता लगाया कि टार्टरिक और रेसिमिक अम्लों का संघटन तथा उनका संरचनासूत्र HOOC-CHOH-CHOH-COOH एक है, पर उनके भौतिक गुणों में भिन्नता है। रेसिमिक अम्ल, टार्टरिक अम्ल की अपेक्षा पानी में कम विलेय है तथा टार्टरिक अम्ल और उसके लवण प्रकाशत: सक्रिय हैं, पर रेसिमिक अम्ल और उसके लवण प्रकाशत: निष्क्रिय हैं। पैस्टर की सबसे विख्यात खोज रेसिमिक अम्ल के सोडियम और अमोनियम लवण पर हुई। यह लवण जब जल से 22 डिग्री पर क्रिस्टलीकृत होता है, तो इसके क्रिस्टन दूसरे रेसीमेट से भिन्न होते हैं और इनकी अर्धफलकीय फलिकाएँ (hemihedral facets) होती हैं। दो प्रकार के क्रिस्टल प्राप्त होते हैं, एक तो दक्षिणवर्त सोडियम अमोनियम टार्टरेट की भाँति सर्वसम और दूसरी तरफ के क्रिस्टल, जिनकी अर्धफलकता (hemihedrism) इनके विपरीत होती है। इस दूसरे प्रकार के क्रिस्टल को दर्पण प्रतिबिंब (मिरर इमेज) की संज्ञा दी गई। इनको जब मिश्रण से पृथक् किया गया तो इसका जलीय विलयन वामावर्त (laevorotatory) था। इससे प्राप्त अम्ल का क्रिस्टल भी टार्टरिक अम्ल के क्रिस्टल के दर्पण प्रतिबिंब के रूप में था और विलयन भी वामावर्त था। इसलिए इस अम्ल को टार्टरिक अम्ल का दूसरा रूप समझा गया। इनके क्रिस्टल असममित होते हैं :

प्रकाशीय समावयवता (Optical Isomerism)

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यह पाया गया कि केवल वे ही क्रिस्टल तथा अणु, जिनके दर्पण प्रतिबिंब अध्यारोपित (superimpose) नहीं होते, प्रकाशत: सक्रिय होते हैं। ऐसी संरचना को असममित कहते हैं।

बहुत से पदार्थ ठोस अवस्था में ही प्रकाशत: सक्रिय होते हैं, जैसे स्फटिक, सोडियम क्लोरेट आदि। सर्वप्रथम ज्ञात, प्रकाशत: सक्रिय पदार्थ स्फटिक ही है, जिसके क्रिस्टल दो प्रकार के, एक दक्षिणवर्त और दूसरा वामावर्त, होते हैं। ये दोनों क्रिस्टल एक दूसरे के दर्पण प्रतिबिंब हैं और अध्यारोपित नहीं होते। क्रिस्टल के ऐसे जोड़ों को प्रतिबिंब रूप (enantiomorphs) कहते हैं। स्फटिक के गलाने पर इसकी सक्रियता लुप्त हो जाती है। इसलिए स्फटिक की प्रकाशत: सक्रियता उसके असममित क्रिस्टल संरचना के कारण होती है। इस वर्ग के पदार्थ प्रकाशत: सक्रिय तभी तक रहते हैं जब तक वे ठोस रूप में होते हैं और गलने पर, वाष्पीकरण से तथा विलयन में इनकी सक्रियता नष्ट हो जाती है।

बहुत से यौगिक ठोस, गलन, गैसीय या विलयन अवस्था में भी प्रकाशत: सक्रिय होते हैं, जैसे ग्लूकोज़, टार्टरिक अम्ल आदि। इनकी सक्रियता यौगिक की अममित आणविक संरचना के कारण होती है। इस अणु और उसके दर्पण प्रतिबिंब को प्रतिबिंब रूप, प्रकाशीय प्रतिविन्यासी (optical antipodes) या प्रकाशीय समावयवी कहते हैं।

प्रतिबिंब रूपों के गुण

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केवल दो बातों को छोड़कर, ये रूप भौतिक गुणों में एक से होते हैं। एक ही ध्रुवित प्रकाश के साथ बराबर और विपरीत घूर्णन देते हैं और दूसरे दक्षिणावर्त तथा वामावर्त वृत्तीय ध्रुवित प्रकाश के साथ इनका अवशोषण गुणांक भिन्न होता है। प्रतिबिंब रूपों के रासायनिक गुण एक से होते हैं पर किसी दूसरे प्रकाशत: सक्रिय पदार्थ के साथ की अभिक्रिया में प्राय: अंतर होता है। शरीरक्रियात्मक सक्रियता (physiological activity) में भी अंतर हो सकता है, जैसे (+) हिस्टीडीन (histidine) मीठा होता है और (-) हिस्टीडीन स्वादहीन; (-) निकोटिन (+) निकोटिन से अधिक विषैला होता है।

चतुष्फलकीय कार्बन परमाणु (Tetrahedral Carbon Atom)

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सन् 1874 में वांट हॉफ और ले बल (Van't Hoff and Le Bel) ने कार्बनिक यौगिकों की प्रकाशत: समावयवता के अस्तित्व का समाधान किया। वांट हाफ ने विचार किया कि कार्बन की चारों संयोजकता किसी समचतुष्फलक (regular tetrahedron) के चारों सिरों की तरफ निर्देशित है और कार्बन परमाणु उस चतुष्फलक के मध्य में स्थित है। इस सिद्धांत के अनुसार मेथेन के चारों हाइड्रोजन परमाणु समान होंगे, जिसे भौतिक और रासायनिक क्रियाओं द्वारा सिद्ध भी किया गया। इसके पूर्व 1858 ई. में यह समझा जाता था कि कार्बन की चारों संयोजकताएँ एक समतल में हैं और कार्बन परमाणु इस वर्ग के केंद्र पर है।

चतुष्फलकीय कार्बन की पुष्टि

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CX4 अणु में कार्बन की चारों संयोजकताएँ समान हैं और यह कल्पना की जा सकती है कि त्रिविम (space) में इनका सममित (symmetrical) विन्यास है। इस प्रकार तीन व्यवस्था संभव हो सकती है - (1) तलीय, (2) पिरैमिडीय और (3) चतुष्फलकीय।

(1) यदि अणु एकतलीय हो, तो यौगिक C a b d e के तीन रूप संभव हो सकते हैं।

(2) यदि अणु पिरैमिडी है, तो इस यौगिक के छह रूप संभव हो सकते हैं।

(3) यदि अणु चतुष्फलकीय है, तो यौगिक C a b d e के दो रूप ही संभव होंगे और दोनों एक दूसरे के दर्पण प्रतिबिंब होंगे। वास्तव में यौगिक C a b d e एक जोड़े प्रतिबिंब रूप में ही प्राप्त होते हैं, जो चतुष्फलकीय अणुसंरचना की पुष्टि करते हैं।

जब कार्बन में संयोजित चारों समूह भिन्न-भिन्न होते हैं, तब ऐसे कार्बन को असममित कार्बन (asymmetric carbon) कहते हैं। प्रकाशत: सक्रिय कार्बनिक यौगिकों में एक, अथवा एक से अधिक, असममित कार्बन परमाणु अवश्य रहते हैं। असममित कार्बन यौगिक के C a b d e दोनों प्रतिबिंब रूप जब Ca2 bd में बदल जाते हैं, तो केवल एक ही प्रकाशत: निष्क्रिय पदार्थ प्राप्त होता है, जैसे दक्षिणावर्त और वामावर्त दोनों लैक्टिक अम्ल अवकृत होकर एक ही प्रोपिऑनिक अम्ल देते हैं। इससे चतुष्फलकीय कार्बन की पुष्टि होती है।

रुंटगेन किरण के क्रिस्टलकीय विश्लेषण (crystallographic analysis), द्विध्रुव आधूर्ण (dipole moments), अवशोषण स्पेक्ट्रम (absorption spectra) तथा इलेक्ट्रॉन विवर्तन (electron diffraction) के अध्ययन भी कार्बन के चतुष्फलकीय प्रकृति की पुष्टि करते हैं।

गणितीय गणना के द्वारा कार्बन की किसी दो संयोजकता के बीच का कोण 109 डिग्री 28मिनट निकाला गया। पहले यह विचार था कि यह संयोजक कोण स्थायी रहता है, पर अब ज्ञात है कि संयोजकता का अपने स्थान से विचलन हो सकता है और इस कारण इस कोण में भी परिवर्तन हो सकता है। जब कार्बन परमाणु से संयोजित सभी चारों परमाणु या समूह एक से होते हैं, तो यह कोण निश्चय ही 109 डिग्री 28 मिनट होता है, जैसा मेथेन, CH4, या कार्बन टेट्राक्लोराइड, CCl4, में है। लेकिन मेथिलीन क्लोराइड CH2 Cl2, में कोण 112 डिग्री पाया जाता है, क्योंकि क्लोरीन के बड़े परमाणुओं के प्रतिकर्षी बल के कारण संयोजकता कोण में अधिक फैलाव संभव है।

एक असममित कार्बन परमाणुवाले यौगिक

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एक असममित कार्बन परमाणुवाले समावयवियों में मुख्य अंतर उनकी प्रकाशीय सक्रियता में है। दोनों प्रतिबिंब रूपों के घूर्णन के चिह्र में ही केवल अंतर होता है। इसलिए इन्हें प्रकाशत: प्रतिविन्यासी (antipedes) भी कहते हैं।

लेक्टिक अम्ल, CH3.CHOH.COOH, के अणु के केवल दो ही प्रकाशत: सक्रिय समावयवी हैं, जो आपस में एक दूसरे के दर्पण प्रतिबिंब होते हैं। इन्हें डेक्ट्रो - (d -) और लीवो - (1-) लैक्टिक अम्ल कहते हैं। बराबर अनुपातों में दोनों रूपों का मिश्रण प्रकाशत: निष्क्रिय होता है, क्योंकि दोनों प्रतिबिंब रूपों का घूर्णन समान तथा दिशा विपरीत होती है। ऐसे अणु अनुपाती मिश्रण, जो बाह्यत: प्रतिकारित (externally compensated) तथा प्रकाशत: निष्क्रिय होते हैं, रेसिमिक रूपांतर (racemic modification) कहलाते हैं। ऐसे रेसिमिक यौगिकों को r (±) अथवा dl- उपसर्गों द्वारा निदेशित किया जाता है। इस प्रकार एक असममित कार्बन परमाणु वाला यौगिक तीन रूपों में प्राप्त हो सकता है। इन समावयवियों की संभावना असममित कार्बन परमाणु पर ही निर्भर है। कार्बन की असममितति नष्ट होने पर प्रकाशीय सक्रियता तथा समावयवता दोनों लुप्त हो जाती हैं। सक्रिय मैलिक अम्ल (HOOC.CH2CHOH.COOH) के दोनों रूपों के अवकृत करने पर निष्क्रिय सक्सिनिक अम्ल, HOOC.CH2.CH2.COOH, प्राप्त होता है।

दो या अधिक असममित कार्बन परमाणुवाले यौगिक

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यौगिकों में ज्यों-ज्यों असममित कार्बन परमाणुओं की संख्या बढ़ती जाती है त्यों-त्यों अधिक समावयवी रूपों की संभावना बढ़ती जाती है। साधारण दशा में एक असममित यौगिक के, जिसमें संख्या द असममित कार्बन परमाणु हों, प्रकाशत: सक्रिय समावयवों की संख्या 2n हो सकती है और 2n-1 प्रतिबिंब रूपोंf के जोड़े, अर्थात् 2n रेसिमिक रूप होंगे।

वे यौगिक, जिनमें दो भिन्न असममित कार्बन परमाणु हों 2 x 2 अर्थात् चार रूपों की क्षमता रखते हैं। इनमें दो जोड़े होंगे और प्रति जोड़े में एक दूसरे के समान और विपरीत चिह्रवाले घूर्णन होंगे। दोनों जोड़ों से दो रेसिमिक रूप भी प्राप्त होंगे।

इस प्रकार के उदाहरण सिनेमिक ऐसिड डाइब्रोमाइड, C6H5. C H Br. CHBr. COOH, है, जो चार प्रकाशत: सक्रिय रूपों तथा दो रेसिमिक रूपों में प्राप्य है। यौगिक, जिनमें दोनों समान असममित कार्बन परमाणु हों, तीन विन्यासों में पाए जाते हैं, जिनमें दो प्रकाशत: सक्रिय प्रतिबिंब रूप होते हैं और तीसरा अंत:प्रतिकारित (internally compensated) निष्क्रिय होता है और इनका विभेदन प्रकाशत: सक्रिय रूपों में नहीं हो सकता। इनके अलावा दोनों सक्रिय रूपों से एक रेसिमिक रूप भी उत्पन्न होता है।

    (1)    (2)    (3)
     ++     -+      ++

     ++     -+      -+
          रेसिमिक रूप

संख्या 3. द्वारा निदेशित पदार्थ प्रकाशत: निष्क्रिय होता है। यद्यपि इसमें दो सक्रिय कार्बन हैं, तथापि वे एक-दूसरे को प्रभावहीन करते हैं, क्योंकि उनका घूर्णन समान और विपरीत है। इस अंत:प्रतिकारित अणु को i अथवा मेसो (meso) रूप कहते हैं। निष्क्रिय तथा अविभेदित रूप उन यौगिकों में संभव नहीं है जिनमें एक ही असममित कार्बन परमाणु हो। यह रेसिमिक रूपों से भिन्न होता है, जिनका विभेदन उनके प्रकाशत: सक्रिय रूपों में किया जा सकता है। इस प्रकार का सबसे उत्तम उदाहरण डाइहाइड्रोसक्सिनिक अम्ल है, जिसमें दो समान असममित कार्बन हैं और जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। सिद्धांत के अनुसार यह दक्षिणवर्त, वामावर्त और मेसो-टार्टिरिक अम्ल रूपों के समान मिश्रण से प्राप्त होता है। दक्षिणवर्त और वामावर्त प्रकाशत: प्रतिविन्यासी हैं तथा मेसो और रेसिमिक निष्क्रिय हैं। इनके संरचनासूत्र निम्न रूप से दर्शाए जा सकते हैं :

रेसिमिक रूपांतरण (Racemic Modification)

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एक जोड़े प्रतिरूपों (वामावर्त तथा दक्षिणावर्त) के बराबर मिश्रण को रेसिमिक रूप कहते हैं। यह रूप निम्न कारणों से प्राप्त हो सकता है :

(1) बराबर मात्रा में दोनों प्रतिरूपों को मिलाने से।

(2) असममित यौगिकों के संश्लेषण (सममित यौगिकों से) में रेसिमिक रूप प्राप्त होता है।

रेसिमीकरण (Racemisation)

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एक प्रकाशत: सक्रिय यौगिक को रेसिमिक रूप में परिवर्तन करने की क्रिया को रेसिमीकरण कहते हैं। प्राय: यौगिकों के + और - रूपों का रेसिमीकरण ताप, प्रकाश और रासायनिक अभिकर्मकों के प्रभाव से हो सकता है। परिवर्तन की क्रिया यौगिक और अभिकर्मकों के ऊपर निर्भर करती है। कुछ यौगिकों का रेसिमीकरण इतनी सरलता और शीघ्रता से होता है कि उनको प्रकाशत: सक्रिय रूप में नहीं प्राप्त किया जा सकता। कुछ थोड़े से ऐसे यौगिक हैं जो रेसिमीकृत नहीं होते।

रेसिमिक रूपों का विभेदन (Resemic Resolution)

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विभेदन यह क्रिया है जिससे रेसिमिक रूपांतरण से उसके दोनों प्रतिबिंब रूप अलग किए जाते हैं। वास्तव में इनका मात्रात्मक पृथक्करण बहुत ही कम होता है और कुछ में तो केवल एक ही प्रतिरूप की प्राप्ति होती है। विभेदन की कुछ विधियाँ इस प्रकार हैं :

(1) यांत्रिक पृथक्करण (Mechanical separation) - पैस्टर ने उस विधि का पता लगाया जिसके अनुसार दोनों प्रतिरूपों के क्रिस्टल अलग अलग होते हैं और वे हाथों से अलग किए जा सकते हैं। पैस्टर ने सोडियम अमोनियम टार्टरेट को 28 डिग्री सें. पर क्रिस्टलीकृत कर, दोनों प्रकार के क्रिस्टलों को चिमटे से अलग अलग किया था। इस विधि का उपयोग बड़ा सीमित है।

(2) निवेशन द्वारा वर्णात्मक क्रिस्टलन (Preferential crystallisation by inoculation) - रेसिमिक मिश्रण के अतिसंतृप्त विलयन में जब एक प्रतिबिंब रूप का एक क्रिस्टल डाला जाता है, तो पहले उसी प्रतिबिंब रूप का क्रिस्टल होता है और इस प्रकार उस रूप का पृथक्करण हो सकता है।

(3) जीवरासायनिक विभेदन (Biochemical resolution) - कुछ जीवाणु या फफूँद जब किसी रेसिमिक के तनु विलयन पर उगाए जाते हैं, तब ये एक प्रतिबिंब रूप को दूसरे की अपेक्षा शीघ्रता से नष्ट करते हैं। इस प्रकार किसी निर्दिष्ट समय के उपरांत एक प्रतिबिंब रूप की प्राप्ति हो सकती है। पेनिसीलियम ग्लौकम जब रेसिमिक अमोनियम टार्टरेट के विलयन पर उगाया जाता है, तो पहले डेक्ट्रो रूप नष्ट हो जाता है और लीवो बच जाता है।

(4) रासायनिक विभेदन - यह विधि सबसे उत्तम है। इसमें रेसिमिक यौगिक के प्रतिबिंब रूपों को किसी प्रकाशत: सक्रिय यौगिक से उपचारित करते हैं, ताकि वे परस्पर मिलकर ऐसे यौगिक बनें जिनका पृथक्करण सरलता से किया जा सके। रेसिमिक अम्लों को प्रकाशत: सक्रिय (+) क्षारक के साथ उपचारित करने से जो लवण बनेंगे, उनमें कुछ लवण +अम्ल तथा +क्षारक के होंगे और कुछ लवण - अम्ल तथा +क्षारक के होंगे। इनके गुणों में विभिन्नता रह सकती है, जिनसे वे क्रिस्टलन द्वारा पृथक् किए जा सकते हैं।

(5) वरणात्मक अवशोषण (Selective absorption) - प्रकाशत: सक्रिय पदार्थों का वरणात्मक अवशोषण किसी विशेष प्रकाशत: सक्रिय अवशोषक द्वारा हो सकता है। अनेक रसायनज्ञों ने इसके द्वारा विभेदन संपन्न किया है।

पहले दक्षिणावर्त और वामावर्त प्रतिबिंब रूपों को क्रमश: डैक्ट्रो (d) और लीवो (l) उपसर्गों से निर्देशित किया जाता था। इसी भाँति डेक्ट्री (d) टार्टरिक और लीवो (l) टार्टरिक अम्ल कहा जाता था। वांटहॉफ ने + और - चिन्हों का प्रयोग असममित कार्बन के विन्यास को दर्शाने के लिए किया है। बाद में फिशर ने प्रस्ताव किया कि d और l उपसर्गों का प्रयोग उनकी विन्यास स्थिति के लिए किया जाए और इनका प्रयोग घूर्णन की दिशा के लिए न किया जाए।

किसी प्रकाशत: सक्रिय पदार्थ के घूर्णन का चिन्ह प्राय: प्रायोगिक दशा में परिवर्तन से विपरीत हो सकता है और इसी भांति उनके संजातों का, जिनका विन्यास उसी प्रकार है, चिन्ह भी घूर्णन की दिशा से विपरीत हो सकता है, जैसे वामावर्त लैक्टिक अम्ल के लवण और एस्टर दक्षिणावर्त होते हैं और दक्षिणावर्त लैक्टिक अम्ल के वामावर्त। इन सब कारणों से विचार किया गया कि प्रकाशत: सक्रिय पदार्थ के लिए ऐसे चिह्न का उपयोग किया जाए जो सीधे विन्यास की स्थिति का बोध कराए और यह चिह्न उसके घूर्णन दिशा के चिह्न से स्वतंत्र हो।

ग्लिसरैल्डिहाइड, जिसमें एक असममित कार्बन परमाणु है, दो प्रतिबिंब रूपों में प्राप्य है और एक स्वैच्छ निश्चय के अनुसार दक्षिणावर्त रूप को ऐसे दर्शाते हैं कि हाइड्राक्सिल, -OH, समूह का कार्बन दाहिने और हाइड्रोजन परमाणु वाईं तरफ होता है। चतुष्फलकीय कार्बन की व्यवस्था के अनुसार हाइड्रोजन और हाइड्रॉक्सिल समूह पृष्ठ की सतह से ऊपर है तथा -CHO और -CH2OH समूह पृष्ठ की सतह से नीचे। ग्लिसरैल्डिहाइड के इस विन्यास को D कहते हैं। प्रचलित रीति के अनुसार पड़ी रेखा द्वारा संयोजित समूह पृष्ठ की सतह से ऊपर है। इस भाँति इसके प्रतिबिंब की दशा का संकेत हैं। इस D- ग्लिसरैल्डिहाइड के प्रामाणिक विन्यास से संबंधित विन्यास D-श्रेणी (D-series) के अंर्तगत आते हैं, अर्थात् वे यौगिक, जो D- ग्लिसरैल्डिहाइड से प्राप्त हो सकते हैं, या रासायनिक क्रिया से D- ग्लिसरैल्डिहाइड में परिवर्तित किए जा सकते हैं, D-श्रेणी में आते हैं।

इस तरह ग्लिसरैल्डिहाइड का पूरा नाम D (+) ग्लिसरैल्डिहाइड और L (-) ग्लिसरैल्डिहाइड होता है। (+) और (-) इसकी घूर्णन दिशा का संकेत करते हैं। इनके ऐल्डिहाइड समूह को अगले सजातीय - CHOH - CHO में बदला जा सकता है और जैसे कि इसमें एक असममित कार्बन है वैसे ही हर ग्लिसरैल्डीहाइड दो रूप देंगे।

वाल्डन प्रतिलोमन (Walden Inversion)

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कार्बन यौगिकों में जब एक समूह दूसरे समूह द्वारा प्रतिस्थापित होता है, तब यह समझा जाता है कि प्रतिस्थापक हटाए हुए समूह का स्थान लेता है। यदि एक प्रकाशत: सक्रिय यौगिक साधारण प्रतिस्थापन अभिक्रिया से यौगिक में परिवर्तित होता है, तो इनके विन्यास एक से होते हैं। यह सत्य है, पर कभी-कभी प्रतिस्थापन के साथ साथ विन्यास में परिवर्तन भी हो जाता है। इस विन्यास परिवर्तन को प्रकाशकीय प्रतिलोमन, या आविष्कारक वॉल्डन के नाम से वाल्डन प्रतिलोमन कहते हैं। इसका एक सरल उदाहरण क्लोरोसक्सिनिक अम्ल में क्लोरीन का प्रतिस्थापन हाइड्रॉक्सिल समूह से होने पर, मैलिक अम्ल प्राप्त होता है तथा पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड के प्रयोग से दक्षिणवर्ती अम्ल प्राप्त होता है

इन्हें भी देखें

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  • [[समावयवता] घची

बाहरी कड़ियाँ

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