खगोलजीव विज्ञान



खगोलजीव विज्ञान पूरे ब्रह्माण्ड में जीवन के शुरुआत, फैलाव, क्रम विकास और भविष्य के अध्ययन को कहते हैं। विज्ञान का यह क्षेत्र कई कठिन प्रश्नों का जवाब देने की कोशिश करता है, मसलन -
- पृथ्वी के आलावा जीवन कहीं पनप सकता है? यदि हाँ, तो उसे कहाँ खोजा जाए?
- क्या अन्य प्रकार के जीवन हमसे इतने भिन्न होंगे के हम यह पहचान ही न पाए के वह जीवित है?[1]
- पृथ्वी पर जीवन कैसे आरम्भ हुआ?
- रसायन के मिश्रणों से जीवों के शरीर बने होते हैं। रसायन कब और कैसे केवल रसायन न रहकर जीव बन जाते हैं?
- अलग-अलग वातावरणों में जीवन कैसे पनप सकता है? पृथ्वी को छोड़कर क्या पृथ्वी के जीव अन्य स्थानों पर फल-फूल सकते हैं?
अभी तक वैज्ञानिकों को केवल एक ही ग्रह ज्ञात है जिसपर जीवन है: पृथ्वी।[2][3] इस वजह से केवल इसी एक उदहारण से प्रेरित होकर वह ऐसे अन्य स्थानों की कल्पना करते आए हैं जहाँ जीवन संभव हो। हाल ही में खोजे गए ग़ैर-सौरीय ग्रहों से हमारे सूरज के अलावा अन्य तारों के वासयोग्य क्षेत्रों में भी ग्रहों के मिलने की उम्मीदें जागी हैं, जिस से यह लग रहा है के खगोलजीव विज्ञान संभवतः एक नए दौर की दहलीज़ पर हो सकता है।[4]
अन्य भाषाओँ में
[संपादित करें]"खगोलजीव विज्ञान" को अंग्रेज़ी में "ऐस्ट्रोबायॉलॉजी" (astrobiology) कहते हैं।
जीवन-सहायक परिस्थितियाँ
[संपादित करें]पृथ्वी पर जीवन का अध्ययन करके वैज्ञानिकों को एक परिस्थितियों की सूची तो मिल गयी है जो जीवन के अनुकूल है। इसमें कार्बन ज़रूरी माना जाता है क्योंकि इसके परमाणुओं में लम्बे-लम्बे अणु बनाने की क्षमता है। वैसे तो वैज्ञानिक अन्य तत्वों का भी जीवन का आधार बनाने की कल्पना करते हैं लेकिन कार्बन यह भूमिका बहुत सहजता से निभाता है। पानी की मौजूदगी भी ज़रूरी मानी जाती है क्योंकि इसमें तरह-तरह के रसायान मिश्रित हो सकते हैं। इसका अर्थ है के जीवन के लिए ग्रह न तो इतना गरम होना चाहिए के पानी सिर्फ भाप के रूप में ही हो और न ही इतना सर्द के सिर्फ़ बर्फ़ ही के रूप में मिले। इन बातों को नज़र में रखते हुए अभी तक वैज्ञानिक सूरज जैसे तारों को ही जीवन-योग्य ग्रहों का रक्षक मानते थे, लेकिन हाल में लाल बौने तारों के इर्द-गिर्द भी पृथ्वी जैसे ग्रहों के मिलने की संभावनाएं दिखने लगी हैं क्योंकि ऐसे तारे बहुत लम्बे कालो के लिए अपने इर्द-गिर्द के ग्रहीय मंडलों में स्थाई परिस्थितियाँ रख सकते हैं। यह एक बहुत ही अहम खोज है क्योंकि सूरज-जैसे तारे ब्रह्माण्ड में कम प्रतिशत में मिलते हैं, जबकि लाल बौने तारों की तादाद बहुत ही ज्यादा है।
अगर अन्य ग्रहों पर जीवन कार्बन और पानी पर आधारित भी हो, यह नहीं कहा जा सकता के उनके शरीरों में भी कोशिकाएँ (सेल) होंगी जिन्हें बनाने के नियम पृथ्वी के जीवों की तरह डी॰ऍन॰ए॰ पर आधारित होंगे। यह संभव है के उन जीवों में कोई और व्यवस्था आधार हो।
चरमपसंदी जीवों से प्रेरणा
[संपादित करें]जैसे-जैसे पृथ्वी पर जीवों के फैलाव के बारे में जानकारी बढ़ी है, वैज्ञानिकों को ऐसी जगहों पर चरमपसंदी जीव फलते-फूलते हुए मिले हैं जहाँ कभी जीवन ना-मुमकिन समझा जाता था। कभी सोचा जाता था के गहरे समुद्र के तहों की खाइयों के भयंकर दबाव में जीव नहीं रह सकते। यह भी सोचा जाता था के बहुत अधिक तापमान (६० °सेंटीग्रेड से ज़्यादा) में भी जीव नहीं रह सकते। लेकिन पिछले कुछ दशकों में वैज्ञानिकों ने गहरे समुद्र में ज्वालामुखीय गर्मी से खौलते हुए पानी और गैस के फव्वारे पाए हैं जिनमें चरमपसंदी जीवाणु पनप रहे हैं। खगोलशास्त्रियों का विशवास है के सौर मंडल के पाँचवे ग्रह बृहस्पति के प्राकृतिक उपग्रह यूरोपा की बर्फीली सतह के नीचे एक पानी का समुद्र है जिसे बृहस्पति का भयंकर ज्वारभाटा बल गूंथता रहता है। संभव है वहाँ भी ऐसे गर्म पानी के क्षेत्र और उनमें पनपते सूक्ष्मजीव हों।
इसी तरह समझा जाता था के खुले अंतरिक्ष के व्योम में और विकिरण-ग्रस्त (यानी रेडियेशन से भरपूर) वातावरण में जीव नहीं रह सकते, क्योंकि इनमें उनकी कोशिकाएँ फट जाती हैं और उनका डी॰ऍन॰ए॰ ख़राब हो जाता है। लेकिन अब राइज़ोकार्पन ज्योग्रैफ़िकम (पर्वतों पर पत्थरों पर उगने वाली एक किस्म की लाइकेन काई) जैसे जीव पाए जा चुके हैं जो अंतरिक्ष यान द्वारा व्योम में ले जाए गए और १५ दिनों के बाद पृथ्वी पर वापस लाने पर ज़िन्दा पाए गए। इस से वैज्ञानिकों को अब यह भी शंका होने लगी है के संभव है के जीव उल्कापिंडों द्वारा एक ग्रह से दुसरे ग्रह तक फैल सकें। कुछ वैज्ञानिक तो यहाँ तक सोचते हैं के शायद पृथ्वी पर जीवन शुरू में इसी तरह किसी और ग्रह से आया हो। इस कल्पना में किसी अन्य ग्रह पर (संभवतः मंगल पर) कभी जीवाणु रहें हो सकते है जबकि पृथ्वी किसी भी जीवन से महरूम थी। फिर मंगल पर एक बड़ा उल्कापिंड पड़ा जिस से मंगल की कुछ बड़ी चट्टानें उड़कर अंतरिक्ष में चली गई और उनमें से कुछ पृथ्वी की ओर भी निकलीं। जब यह पृथ्वी के पास पहुँची तो पृथ्वी ने अपने गुरुत्वाकर्षण से उन्हें खींच लिया और वे स्वयं उल्कापिंड बनकर पृथ्वी पर गिरीं। इनमें कुछ जीवाणु जीवित बच गए जिन्हें पृथ्वी का वातावरण अनुकूल लगा और वे फैलने लगे। अन्य वैज्ञानिक इस कल्पना में बहुत से नुक्स निकलकर इसे असंभव कहते हैं। विवाद जारी है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "About Astrobiology". NASA Astrobiology Institute. NASA. 21 जनवरी 2008. Archived from the original on 11 अक्तूबर 2008. Retrieved 2008-10-20.
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(help) - ↑ "Extraterrestrial Life in the Universe" (PDF), NASA Technical Memorandum 102363, Lewis Research Center, Ohio: NASA, February 1990, retrieved 2011-03-08
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(help);|format=
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(help)CS1 maint: year (link) - ↑ Altermann, Wladyslaw (2008). "From Fossils to Astrobiology - A Roadmap to Fata Morgana?". From Fossils to Astrobiology: Records of Life on Earth and the Search for Extraterrestrial Biosignatures. Vol. 12. p. xvii. ISBN 1402088361.
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ignored (help) - ↑ Horneck, Gerda (2007). Complete Course in Astrobiology. Wiley-VCH. ISBN 3527406603.
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