मगध महाजनपद

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मगध साम्राज्य

ल. 1100 – ल. 345 ईसा पूर्व (प्राचीन मगध महाजनपद)
ल. 345 ईसा पूर्व – 1200 इस्वी (मगध सम्राज्य)
500 ईसा पूर्व की अवधि में मगध और अन्य महाजनपद
500 ईसा पूर्व की अवधि में मगध और अन्य महाजनपद
मगध राजवंशों का प्रादेशिक विस्तार
मगध राजवंशों का प्रादेशिक विस्तार
राजधानीराजगीर (गिरिव्रज),
बाद में पाटलिपुत्र (वर्तमान मे पटना)
प्रचलित भाषाएँसंस्कृत (मुख्य)
मागधी
धर्म
हिंदू धर्म
बौद्ध धर्म
जैन धर्म
सरकारराजतन्त्र, जैसा कि अर्थशास्त्र में वर्णित है
सम्राट (मुख्य) 
• ल. 544–492 ईसा पूर्व
बिम्बिसार
• ल. 492–460 ईसा पूर्व
अजातशत्रु
• ल. 460–444 ईसा पूर्व
उदायिभद्र
• ल. 437–413 ईसा पूर्व
नागदसक
• ल. 413–395 ईसा पूर्व
शिशुनाग
• ल. 395–367 ईसा पूर्व
कालाशोक
• ल. 349–345 ईसा पूर्व
महानन्द
ऐतिहासिक युगलौह युग
पूर्ववर्ती
परवर्ती
वैदिक सभ्यता
नंद वंश
अब जिस देश का हिस्सा हैभारत

मगध प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। आधुनिक पटना तथा गया जिला इसमें शामिल थे। इसकी राजधानी "गिरिव्रज" (वर्तमान राजगीर) बाद में "पाटलिपुत्र" थी। मगध का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्व वेद में मिलता है। अभियान चिन्तामणि के अनुसार मगध को कीकट कहा गया है। गौतम बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ वंश के बृहद्रथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित राजा थे।[1] अभी मगध नाम से बिहार में एक प्रंमडल है - मगध प्रमंडल है।

भौगोलिक स्थिति और विस्तार[संपादित करें]

मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्‍चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं। यह दक्षिणी बिहार में स्थित था जो कालान्तर में उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्‍तिशाली महाजनपद बन गया।

मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी। यह पाँच पहाड़ियों से घिरा नगर था। कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई। मगध राज्य में तत्कालीन शक्‍तिशाली राज्य कौशल, वत्सअवन्ति को अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया।

मगध प्राचीनकाल से ही राजनीतिक उत्थान, पतन एवं सामाजिक-धार्मिक जागृति का केन्द्र बिन्दु रहा है। मगध बुद्ध के समकालीन एक शक्‍तिकाली व संगठित 'राजतन्त्र' था। कालान्तर में मगध का उत्तरोत्तर विकास होता गया और मगध का इतिहास (भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास के प्रमुख स्तम्भ के रूप में) सम्पूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया।

वैदिक कालीन मगध राज्य[संपादित करें]

मगध राज्य, वैदिक काल मे, पूर्वी भारत मे स्थित

प्रथम मगध राजवंश[संपादित करें]

यह मगध का सबसे प्राचीनतम राजवंश था। इसका उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथो मैं मिलता है।

शासकों की सूची –
मगध के प्राचीन शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि टिप्पणी
1 महाराजा मगध राजा मगध ने मगध साम्राज्य की स्थापना की।
2 महाराजा सुधन्वा कुरु द्वितीय का पुत्र सुधन्वा अपने मामा महाराजा मगध के बाद मगध का राजा बना। सुधन्वा राजा मगध का भतीजा था।
3 महाराजा सुधनु
4 महाराजा प्रारब्ध
5 महाराजा सुहोत्र
6 महाराजा च्यवन
7 महाराजा चवाना
8 महाराजा कृत्री
9 महाराजा कृति
10 महाराजा क्रत
11 महाराजा कृतग्य
12 महाराजा कृतवीर्य
13 महाराजा कृतसेन
14 महाराजा कृतक
15 महाराजा प्रतिपदा महाराजा उपरिचर वसु के पिता।
16 महाराजा उपरिचर वसु बृहद्रथ के पिता और राजवंश के अंतिम राजा थे।

बृहद्रथ राजवंश[संपादित करें]

यह मगध का एक प्राचीनतम राजवंश था। महाभारत तथा पुराणों के अनुसार जरासंध के पिता तथा चेदिराज महाराजा उपरिचर वसु के पुत्र बृहद्रथ ने बृहद्रथ वंश की स्थापना की। इस वंश में दस राजा हुए जिसमें बृहद्रथ पुत्र जरासंध एवं प्रतापी सम्राट था। जरासंध ने काशी, कौशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार राजाओं को पराजित किया।

मथुरा शासक कंस ने जरासंध की दो पुत्रियों अस्ति और प्रप्ति से शादी की थी तथा ब्रहद्रथ वंश की राजधानी वशुमति या गिरिव्रज या राजगृह को बनाई। भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डव पुत्र भीम ने जरासंध को द्वन्द युद्ध में मार दिया। उसके बाद उसके पुत्र सहदेव को शासक बनाया गया। इस वंश का अन्तिम राजा रिपुन्जय था। रिपुन्जय को उसके दरबारी मंत्री 'पुलिक' ने मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया। ईसा पूर्व 682 में ब्रहद्रथ वंश को समाप्त कर एक नये राजवंश प्रद्योत वंश की स्थापना हुई।

शासकों की सूची –
मगध के बृहद्रथ राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू में) टिप्पणी
1 महाराजा बृहद्रथ राजा बृहद्रथ ने मगध साम्राज्य की स्थापना की।
2 महाराजा जरासंध राजा बृहद्रथ का पुत्र और राजवंश के सबसे शक्तिशाली शासक, भीम द्वारा वध कर दिया गया।
3 महाराजा सहदेव राजा जरासंध का पुत्र, पांडवों के अधीन शासन किया।
4 महाराजा सोमाधि राजा सहदेव का पुत्र
5 महाराजा श्रुतश्रव
6 महाराजा अयुतायु
7 महाराजा निरमित्र
8 महाराजा सुकृत्त
9 महाराजा बृहत्कर्मन्
10 महाराजा सेनाजित्
11 महाराजा श्रुतंजय
12 महाराजा विभु
13 महाराजा शुचि
14 महाराजा क्षेम
15 महाराजा सुव्रत
16 महाराजा सुनेत्र
17 महाराजा निवृति
18 महाराजा महासेन
19 महाराजा सुमति
20 महाराजा अचल
21 महाराजा सुनेत्र
22 महाराजा सत्यजित्
23 महाराजा विश्वजित राजा रिपुंजय के पिता
24 महाराजा रिपुंजय ल. 732–682 राजा रिपुंजय राजवंश के अंतिम राजा थे, उनकी हत्या उनके प्रधानमंत्री पुलिक द्वारा कर दी गई और अपने पुत्र प्रद्योत को मगध का नया राजा बना दिया और प्रद्योत वंश की नीव रखी।

प्राचीन गणराज्य[संपादित करें]

प्राचीन बिहार में गंगा घाटी में लगभग 10 गणराज्यों का उदय हुआ। ये गणराज्य हैं-

गंगा घाटी के प्राचीन गणराज्यों की सूची
क्रम-संख्या गणराज्य राजधानी शासन अवधि टिप्पणी
1 शाक्य कपिलवस्तु
2 भर्ग सुमसुमार पर्वत
3 कालाम केसपुत्र
4 कोलिय रामग्राम
5 मल्ल कुशीनगर
6 मल्ल पावा
7 मौर्य पिप्पलिवन
8 बुलि आयकल्प
9 लिच्छवि वैशाली
10 विदेह मिथिला

वैशाली के लिच्छवी[संपादित करें]

बिहार में स्थित प्राचीन गणराज्यों में बुद्धकालीन समय में सबसे बड़ा तथा शक्‍तिशाली राज्य था। इस गणराज्य की स्थापना सूर्यवंशीय राजा इक्ष्वाकु के पुत्र विशाल ने की थी, जो कालान्तर में ‘वैशाली’ के नाम से विख्यात हुई।

  • महावग्ग जातक के अनुसार लिच्छवि वज्जि का एक धनी समृद्धशाली नगर था। यहाँ अनेक सुन्दर भवन, चैत्य तथा विहार थे।
  • लिच्छवियों ने बुद्ध के निर्वाण हेतु महावन में प्रसिद्ध कतागारशाला का निर्माण करवाया था।
  • राजा चेतक की पुत्री चेलना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार से हुआ था।
  • ईसा पूर्व ७वीं शती में वैशाली के लिच्छवि राजतन्त्र से गणतन्त्र में परिवर्तित हो गया।
  • विशाल ने वैशाली शहर की स्थापना की। वैशालिका राजवंश का प्रथम शासक "नमनेदिष्ट" था, जबकि अन्तिम राजा "सुति" या "प्रमाति" था। इस राजवंश में २४ राजा हुए हैं।

अलकप्प के बुलि[संपादित करें]

यह प्राचीन गणराज्य बिहार के शाहाबाद, आरा और मुजफ्फरपुर जिलों के बीच स्थित था। बुलियों का बैठ द्वीप (बेतिया) के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। "बेतिया" बुलियों की राजधानी थी। बुलि लोग कालांतर में बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गए। बुद्ध की मृत्यु के पश्‍चात्‌ उनके अवशेष को प्राप्त कर एक स्तूप का निर्माण करवाया था। गुर्जर नरेश चुलिक ने सर्वप्रथम राज किया जो चुलिक वंश से था गुर्जर प्रतिहार वंश एवं चालुक्या गुर्जर,शक गुर्जर,कुषाण गुर्जर,मोरी गुर्जर, चेची गुर्जर,चौहान वंश भी गुर्जर के अधीन है| पृथ्वीराज चौहान गुर्जर सम्राट की उपाधि का त्याग कर दिया उनके पिता सोमेस्वर गुर्जर वंश के अंतिम चौहान गुर्जर वंशी थे | पृथ्वीराज चौहान को राजपूत वंश भी नहीं कह सकते क्योकि पृथ्वीराज चौहान के पिता गुर्जर थे | लेकिन पृथ्वीराज राज ने गुर्जर लगाना उचित नहीं समझा पृथ्वीराज चौहान के बाद उनके वंशज गुर्जर से राजपूत में परिवर्तन हो गए इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं पृथ्वीराज चौहान थे | क्योकि उन्होंने गुर्जर सम्राट लिखना बंद कर दिया था | जबकि उनके पिता सोमेश्वर गुर्जर सम्राट शब्द प्रयोग करते थे |पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर अपने आप को गुर्जर वंशज बता ते थे | जबकि पृथ्वीराज के बाद में चौहान वंश गुर्जर की बजाय राजपूत लगाने लगे |

मगध महाजनपद (ल. 700 – 350 ई.पू)[संपादित करें]

मगध के प्रद्योत वंश, हर्यक वंश और शिशुनाग वंश का विस्तार (ल. 700 से 350 ई.पू तक)

प्रद्योत राजवंश (ल. 682 – 544 ई.पू)[संपादित करें]

प्रद्योत राजवंश प्राचीन भारत का मगध एक राजवंश था, जिसका शासन अवन्ति पर भी था। इसके संस्थापक महाराजा प्रद्योत थे जो सुनीक (भविष्यपुराण, १.४ के अनुसार शुनक अथवा क्षेमक) के पुत्र (वायुपुराण) थे। प्रद्योत म्लेच्छों (हारहूण, बर्बर, यवन, खस, शक, कामस आदि) से अपने पिता का प्रतिशोध लेने के लिये म्लेच्छयज्ञ करने के कारण म्लेच्छहंता कहलाए।

शासकों की सूची –[2]
प्रद्योत राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू) शासन वर्ष टिप्पणी
1. महाराजा प्रद्योत 682–659 23 रिपुंजय की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
2. महाराजा पलक 659–635 24 महाराजा प्रद्योत का पुत्र
3. महाराजा विशाखयूप 635–585 5 महाराजा पलक का पुत्र
4. महाराजा अजक (राजक) 585–564 21 महाराजा विशाखयूप का पुत्र
5. महाराजा वर्तिवर्धन 564–544 20 महाराजा अजक का पुत्र, वह राजवंश के अंतिम शासक थे और जिसे बिंबिसार द्वारा मगध की गद्दी से 544 ई.पू मे हटा दिया गया और हर्यक वंश की स्थापना की।

हर्यक राजवंश (ल. 544 – 413 ई.पू)[संपादित करें]

बिम्बिसार ने हर्यक वंश की स्थापना 544 ई.पू. में की। इसके साथ ही राजनीतिक शक्‍ति के रूप में बिहार का सर्वप्रथम उदय हुआ। बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक/राजा माना जाता है। बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनायी।

बिम्बिसार (ल. 544–492 ई.पू.) बिम्बिसार एक कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी शासक था। उसने प्रमुख राजवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर राज्य को फैलाया। इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। सबसे पहले उसने लिच्छवि गणराज्य के शासक चेतक की पुत्री 'चेलना' के साथ विवाह किया। दूसरा प्रमुख वैवाहिक सम्बन्ध कौशल राजा प्रसेनजित की बहन 'महाकौशला' के साथ विवाह किया। इसके बाद भद्र देश की राजकुमारी 'क्षेमा' के साथ विवाह किया।

महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार की 500 रानियाँ थीं। उसने अवंति के शक्‍तिशाली राजा प्रद्योत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाया। सिन्ध के शासक रूद्रायन तथा गांधार के मुक्‍कु रगति से भी उसका दोस्ताना सम्बन्ध था। उसने अंग राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था वहाँ अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा नियुक्‍त किया था।

बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र और संरक्षक था। विनयपिटक के अनुसार बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया, लेकिन जैन धर्म और हिंदू धर्म के प्रति उसकी सहिष्णुता थी। बिम्बिसार ने करीब 52 वर्षों तक शासन किया। बौद्ध और जैन ग्रन्थानुसार उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया था जहाँ उसका 492 ई.पू. में निधन हो गया।

महत्वपूर्ण तथ्य–
  • बिम्बिसार ने अपने बड़े पुत्र “दर्शक" को उत्तराधिकारी घोषित किया था।
  • भारतीय इतिहास में बिम्बिसार प्रथम शासक था जिसने स्थायी सेना रखी।
  • बिम्बिसार ने राजवैद्य जीवक को बुद्ध की सेवा में नियुक्‍त किया था।
  • बौद्ध भिक्षुओं को निःशुल्क जल यात्रा की अनुमति दी थी।
  • बिम्बिसार की हत्या महात्मा बुद्ध के विरोधी देवव्रत के उकसाने पर अजातशत्रु ने की थी।
आम्रपाली–

यह वैशाली की नर्तकी एवं परम रूपवती काम कला प्रवीण वेश्या थी। आम्रपाली के सौन्दर्य पर मोहित होकर बिम्बिसार ने लिच्छवि से जीतकर राजगृह में ले आया। उसके संयोग से जीवक नामक पुत्ररत्‍न हुआ। बिम्बिसार ने जीवक को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा। यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना।

अजातशत्रु (ल. 492–460 ई.पू.) बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु मगध के सिंहासन पर बैठा। इसके बचपन का नाम "कुणिक" था। वह अपने पिता की हत्या कर गद्दी पर बैठा। अजातशत्रु ने अपने पिता के साम्राज्य विस्तार की नीति को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया। अजातशत्रु के सिंहासन मिलने के बाद वह अनेक राज्य संघर्ष एवं कठिनाइयों से घिर गया लेकिन अपने बाहुबल और बुद्धिमानी से सभी पर विजय प्राप्त की। महत्वाकांक्षी अजातशत्रु ने अपने पिता को कारागार में डालकर कठोर यातनाएँ दीं जिससे पिता की मृत्यु हो गई। इससे दुखित होकर कौशल रानी की मृत्यु हो गई।

कौशल संघर्ष–

बिम्बिसार की पत्‍नी (कौशल) की मृत्यु से प्रसेनजीत बहुत क्रोधित हुआ और अजातशत्रु के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। पराजित प्रसेनजीत श्रावस्ती भाग गया लेकिन दूसरे युद्ध-संघर्ष में अजातशत्रु पराजित हो गया लेकिन प्रसेनजीत ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह कर काशी को दहेज में दे दिया।

वज्जि संघ संघर्ष–

लिच्छवि राजकुमारी चेलना बिम्बिसार की पत्‍नी थी जिससे उत्पन्‍न दो पुत्री हल्ल और बेहल्ल को उसने अपना हाथी और रत्‍नों का एक हार दिया था, जिसे अजातशत्रु ने मनमुटाव के कारण वापस माँगा। इसे चेलना ने अस्वीकार कर दिया, फलतः अजातशत्रु ने लिच्छवियों के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया। वस्सकार से लिच्छवियों के बीच फूट डालकर उसे पराजित कर दिया और लिच्छवि अपने राज्य में मिला लिया।

मल्ल संघर्ष–

अजातशत्रु ने मल्ल संघ पर आक्रमण कर अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े भू-भाग मगध साम्राज्य का अंग बन गया।

महत्वपूर्ण तथ्य–
  • अजातशत्रु ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्दी अवन्ति राज्य पर आक्रमण किया।
  • अजातशत्रु धार्मिक उदार सम्राट था। विभिन्‍न ग्रन्थों के अनुसार वे बौद्ध और जैन दोनों मत के अनुयायी माने जाते हैं लेकिन भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर अजातशत्रु बुद्ध की वंदना करता हुआ दिखाया गया है।
  • उसने शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों पर राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया और 483 ई.पू. राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया। इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं के सम्बन्धित पिटकों को सुतपिटक और विनयपिटक में विभाजित किया।
  • सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उसने लगभग 32 वर्षों तक शासन किया और 460 ई.पू. में अपने पुत्र उदयन द्वारा मारा गया था।
  • अजातशत्रु के शासनकाल में ही महात्मा बुद्ध 482 ई.पू. महापरिनिर्वाण तथा महावीर का भी निधन 467 ई.पू. हुआ था।

उदयन (ल. 460–444 ई.पू.) अजातशत्रु के बाद 460 ई.पू. उदयन मगध का राजा बना। बौद्ध ग्रन्थानुसार इसे पितृहन्ता लेकिन जैन ग्रन्थानुसार पितृभक्‍त कहा गया है। इसकी माता का नाम पद्‍मावती था। उदयन शासक बनने से पहले चम्पा का उपराजा था। वह पिता की तरह ही वीर और विस्तारवादी नीति का पालक था।

इसने पाटलि पुत्र (गंगा और सोन के संगम) को बसाया तथा अपनी राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थापित की। मगध के प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति के गुप्तचर द्वारा उदयन की हत्या कर दी गई।

अन्य शासक और राजवंश का अंत

बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उदयन के तीन पुत्र थे- अनिरुद्ध, मंडक और नागदशक। उदयन के तीनों पुत्रों ने राज्य किया। अन्तिम राजा नागदशक था। जो अत्यन्त विलासी और निर्बल था। शासनतन्त्र में शिथिलता के कारण व्यापक असन्तोष जनता में फैला। राज्य विद्रोह कर उनका सेनापति शिशुनाग राजा बना। इस प्रकार हर्यक वंश का अन्त और शिशुनाग वंश की स्थापना 413 ई.पू. हुई।

शासकों की सूची–
हर्यक राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू) शासन वर्ष टिप्पणी
1. महाराजा बिम्बिसार 544–492 52 महाराजा वर्तिवर्धन की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
2. महाराजा अजातशत्रु 492–460 32 महाराजा बिम्बिसार का पुत्र
3. महाराजा उदयन 460–444 16 महाराजा अजातशत्रु का पुत्र
4. महाराजा अनिरुद्ध 444–440 4
5. महाराजा मुंडा 440–437 3
6. महाराजा दर्शक 437 कुछ महीने
7. महाराजा नागदशक 437–413 24 हर्यक वंश का अंतिम शासक, शिशुनाग द्वारा 412 ई.पू. मगध की गद्दी से हटा दिया गया।

शिशुनाग राजवंश (ल. 413 – 345 ई.पू)[संपादित करें]

शिशुनाग 412 ई.पू. मगध की गद्दी पर बैठा। महावंश के अनुसार वह लिच्छवि राजा के वेश्या पत्‍नी से उत्पन्‍न पुत्र था। पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय था।

शिशुनाग (ल. 413–395 ई.पू.) शिशुनाग ने मगध से बंगाल की सीमा से मालवा तक विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया। शिशुनाग ने सर्वप्रथम मगध के प्रबल प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति को मिलाया। मगध की सीमा पश्‍चिम मालवा तक फैल गई और वत्स को मगध में मिला दिया। वत्स और अवन्ति के मगध में विलय से, पाटलिपुत्र को पश्‍चिमी देशों से व्यापारिक मार्ग के लिए रास्ता खुल गया। शिशुनाग एक शक्‍तिशाली शासक था जिसने गिरिव्रज के अलावा वैशाली नगर को भी अपनी राजधानी बनाया। 395/394 ई.पू. में इसकी मृत्यु हो गई।

कालाशोक (ल. 395–377 ई.पू.) यह शिशुनाग का पुत्र था जो शिशुनाग के 394 ई.पू. मृत्यु के बाद मगध का शासक बना। महावंश में इसे कालाशोक तथा पुराणों में "काकवर्ण" कहा गया है। कालाशोक ने अपनी राजधानी को पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कर दिया था। इसने 28 वर्षों तक शासन किया। कालाशोक के शासनकाल में ही बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति का आयोजन हुआ।

बाणभट्ट रचित हर्षचरित के अनुसार काकवर्ण को राजधानी पाटलिपुत्र में घूमते समय महापद्यनन्द नामक व्यक्‍ति ने चाकू मारकर हत्या कर दी थी। 366 ई.पू. कालाशोक की मृत्यु हो गई।

अन्य शासक और राजवंश का अंत

महाबोधिवंश के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे, जिन्होंने मगध पर 22 वर्षों तक शासन किया। शिशुनाग वंश का अंतिम राजा महानन्दि था। 345/344 ई. पू. में शिशुनाग वंश का अन्त हो गया और नन्द वंश का उदय हुआ।

शासकों की सूची–
शिशुनाग राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू) शासन वर्ष टिप्पणी
1. महाराजा शिशुनाग 413–395 18 महाराजा नागदशक की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
2. महाराजा कालाशोक 395–377 18 महाराजा शिशुनाग का पुत्र
3. महाराजा क्षेमधर्मन 377–365 12 महाराजा कालाशोक का पुत्र
4. महाराजा क्षत्रौजस 365–355 10 महाराजा क्षेमधर्मन का पुत्र
5. महाराजा नंदिवर्धन 355–349 6 महाराजा क्षत्रौजस का पुत्र
6. महाराजा महानन्दि 349–345 4 वंश का अंतिम शासक, उसका साम्राज्य उसके नाजायज बेटे महापद्म नन्द को कब्जा लिया।

मगध साम्राज्य (ल. 350 – 28 ई.पू)[संपादित करें]

नंद साम्राज्य (ल. 345 – 322 ई.पू)[संपादित करें]

345/344 ई.पू. में महापद्म नन्द नामक व्यक्‍ति ने नन्द राजवंश की स्थापना की। पुराणों में इसे महापद्म तथा महाबोधिवंश में "उग्रसेन" कहा गया है। यह नाई जाति से था।

नंद साम्राज्य, अपने शिखर विस्तार पर, ल. 325 ई.पू. में

महापद्म नन्द (ल. 345/344 ई.पू.) मत्स्य पुराण महापद्म को 88 वर्षों का लंबा शासन प्रदान करता है, जबकि वायु पुराण में उसके शासनकाल की लंबाई केवल 28 वर्ष बताई गई है। पुराणों में आगे कहा गया है कि महापद्म के आठ पुत्रों ने उनके बाद कुल 12 वर्षों तक उत्तराधिकार में शासन किया था। महापद्म नन्द के प्रमुख राज्य उत्तराधिकारी हुए हैं– उग्रसेन, पंडूक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, योविषाणक, दशसिद्धक, कैवर्त और धनानन्द

महापद्म नन्द को महापद्म एकारट, सर्व क्षत्रान्तक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। महापद्मनन्द पहला शासक था जो गंगा घाटी की सीमाओं का अतिक्रमण कर विन्ध्य पर्वत के दक्षिण तक विजय पताका लहराई। नन्द वंश के समय मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्धशाली साम्राज्य बन गया।

धनानन्द (ल. 322 ई.पू. तक) धनानन्द के शासन काल में भारत पर आक्रमण सिकन्दर द्वारा किया गया। सिकन्दर के भारत से जाने के बाद मगध साम्राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था फैली। धनानन्द एक लालची और धन संग्रही शासक था, जिसे असीम शक्‍ति और सम्पत्ति के बावजूद वह जनता के विश्‍वास को नहीं जीत सका। महापद्म नन्द ने महान विद्वान ब्राह्मण चाणक्य को अपमानित किया था। चाणक्य ने अपनी कूटनीति से धनानन्द को पराजित कर सूर्यवंशी चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाया।

संस्कृत व्याकरण के आचार्य पाणिनी महापद्मनन्द के मित्र थे। वर्ष, उपवर्ष, वररुचि कात्यायन जैसे विद्वान नन्द शासन में हुए। शाकटाय तथा स्थूलभद्र धनानन्द के जैन मतावलम्बी अमात्य थे।

शासकों की सूची–
नंद राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू) टिप्पणी
1. महाराजा महापद्म नन्द ल. 345/344 ई.पू. से शासन किया 345 ई.पू मे राजवंश की स्थापना की।
2. महाराजा पंडुकनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
3. महाराजा पंडुगतिनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
4. महाराजा भूतपालनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
5. महाराजा राष्ट्रपालनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
6. महाराजा गोविषाणकनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
7. महाराजा दशसिद्धकनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
8. महाराजा कैवर्तनन्द एक वर्ष शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र
9. महाराजा धनानंद ल. 322 ई.पू. तक शासन किया महापद्म नन्द का पुत्र और नंद वंश का अंतिम शासक, चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा 322 ई.पू. मगध की गद्दी से हटा दिया गया।

मौर्य साम्राज्य (ल. 322 – 185 ई.पू.)[संपादित करें]

322 ई.पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य की सहायता से धनानन्द की हत्या कर मौर्य वंश की नींव डाली थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों के अत्याचार व घृणित शासन से मुक्‍ति दिलाई और देश को एकता के सूत्र में बाँधा और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य गणतन्त्र व्यवस्था पर राजतन्त्र व्यवस्था की जीत थी। इस कार्य में अर्थशास्त्र नामक पुस्तक द्वारा चाणक्य ने सहयोग किया। विष्णुगुप्त व कौटिल्य उनके अन्य नाम हैं।

सम्राट अशोक का मौर्य साम्राज्य, अपने शिखर विस्तार पर, 260 ई.पू. में

चन्द्रगुप्त मौर्य (ल. 322–298 ई.पू.) चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म वंश के सम्बन्ध में विवाद है। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलता है। विविध प्रमाणों और आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह तर्क निर्धारित होता है कि चन्द्रगुप्त पिप्पलिवन के सूर्यवंशी मौर्य वंश का था। चन्द्रगुप्त के पिता पिप्पलिवन के नगर प्रमुख थे। जब वह गर्भ में ही था तब उसके पिता की मृत्यु युद्धभूमि में हो गयी थी। उसका पाटलिपुत्र में जन्म हुआ था तथा एक गोपालक द्वारा पोषित किया गया था। चरावाह तथा शिकारी रूप में ही राजा-गुण होने का पता आचार्य चाणक्य ने कर लिया था तथा उसे 'एक हजार में कषार्पण' में खरीद लिया। तत्पश्‍चात्‌ तक्षशिला लाकर सभी विद्या में निपुण बनाया। 323 ई.पू. में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी तथा उत्तरी सिन्धु घाटी में प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या हो गई।

जिस समय चन्द्रगुप्त राजा बना था भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत खराब थी। उसने सबसे पहले एक सेना तैयार की और सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ किया। 317 ई.पू. तक उसने सम्पूर्ण सिन्ध और पंजाब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकक्षत्र शासक हो गया। पंजाब और सिन्ध विजय के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने धनानन्द का नाश करने हेतु मगध पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में धनाननन्द मारा गया अब चन्द्रगुप्त भारत के एक विशाल साम्राज्य मगध का शासक बन गया।

सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस उसका उत्तराधिकारी बना। वह सिकन्दर द्वारा जीता हुआ भू-भाग प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। इस उद्देश्य से 305 ई.पू. उसने भारत पर पुनः चढ़ाई की। चन्द्रगुप्त ने पश्‍चिमोत्तर भारत के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित कर एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया पेरोपेनिसडाई (काबुल) के भू-भाग को अधिकृत कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। उसने मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में नियुक्‍त किया। मेगस्थनीज ने इण्डिका नामक पुस्तक कि रचना की।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्‍चिम भारत में सौराष्ट्र तक प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल किया। गिरनार अभिलेख (250 ई.पू.) के अनुसार इस प्रदेश में "पुण्यगुप्त वैश्य" चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था। इसने सुदर्शन झील का निर्माण किया। दक्षिण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की।

चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात था तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर-पश्‍चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था। अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया था। 298 ई.पू. में उपवास द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना शरीर त्याग दिया।

बिन्दुसार (ल. 298–273 ई.पू.) यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था, जिसे वायु पुराण में "मद्रसार" और जैन साहित्य में "सिंहसेन" कहा गया है। यूनानी लेखक ने इन्हें "अभिलोचेट्‍स" कहा है। यह 298 ई.पू. मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता 'दुर्धरा' थी। थेरवाद परम्परा के अनुसार बिन्दुसार हिंदू धर्म का अनुयायी था।

बिन्दुसार के समय में भारत का पश्‍चिम एशिया से व्यापारिक सम्बन्ध अच्छा था। बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एण्टियोकस ने 'डायमाइकस' नामक राजदूत भेजा था। मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।

दिव्यादान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार अशोक को, दूसरी बार सुसीम को भेजा

प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। प्रति में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्‍त किए। दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था। बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद्‍ थी, जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने 25 वर्षों तक राज्य किया, अन्ततः 273 ई.पू. उसकी मृत्यु हो गयी।

अशोक (ल. 273–236 ई.पू.) अशोक राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे। इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद 269 ई.पू. में हुआ था।

वह 273 ई.पू. में सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम 'अशोक' तथा पुराणों में उसे 'अशोकवर्धन' कहा गया है। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 99 भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था।

दिव्यादान में अशोक की माता का नाम 'सुभद्रांगी' है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री 'देवी' से विवाह किया, जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ। दिव्यादान में उसकी एक पत्‍नी का नाम 'तिष्यरक्षिता' मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्‍नी का नाम 'करूणावकि' है जो तीवर की माता थी। बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध हुआ। दिव्यादान में उसकी एक पत्‍नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्‍नी करूणावकि है। दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है।

कलिंग युद्ध

अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष 261 ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद 269 ई.पू. में उसका विधिवत्‌ अभिषेक हुआ। तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में 1 लाख 50 हजार व्यक्‍ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने आध्यात्मिक और धम्म विजय शुरू किया। उसने बौद्ध धर्म को भी स्वीकार किया।

सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में 'निगोथ' नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्‍चात्‌ मोग्गलिपुत्त तिस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था। दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय 'उपगुप्त' नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्‍त घोषित कर दिया था।

अशोक एवं बौद्ध मत

अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की। इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्‍न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया।

अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्‍वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। ऍच॰ जी॰ वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।"

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

  1. धर्मयात्राओं का प्रारम्भ
  2. राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्‍ति
  3. धर्म महापात्रों की नियुक्‍ति
  4. दिव्य रूपों का प्रदर्शन
  5. धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था
  6. लोकाचारिता के कार्य
  7. धर्मलिपियों का खुदवाना
  8. विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।

अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया। वह अभिषेक के 10वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक 20वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्‍त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक, युक्‍त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया। अभिषेक के 13वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था। इसका कर्य विभिन्‍न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।

अशोक के शिलालेख

अशोक के 24 शिलालेख विभिन्‍न लेखों का समूह है जो आठ भिन्‍न-भिन्‍न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-

  1. धौली — यह उड़ीसा के पुरी जिला में है।
  2. शाहबाज गढ़ी — यह पाकिस्तान (पेशावर) में है।
  3. मान सेहरा — यह हजारा जिले में स्थित है।
  4. कालपी — यह वर्तमान में उत्तरांचल (देहरादून) में है।
  5. जौगढ़ — यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।
  6. सोपरा — यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है।
  7. एरागुडि — यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है।
  8. गिरनार — यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है।
अशोक के लघु शिलालेख

अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है, जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है। ये निम्नांकित पांच स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

  1. रूपनाथ — यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है।
  2. गुर्जरा — यह मध्य प्रदेश के दति‍या जिले में है।
  3. भबू — यह राजस्थान के जयपुर जिले में है।
  4. मास्की — यह रायचूर जिले में स्थित है।
  5. सहसराम — यह बिहार के शाहाबाद जिले में है।

धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की। अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्‍त निकाय में दिया गया है। अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा 13वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे।

दक्षिण सीमा पर स्थित स्‍वतंत्र राज्य चोल, पाण्ड्‍य, सतिययुक्‍त केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं।

अशोक के अभिलेख

अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं। तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं। इसके अतिरिक्‍त अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं। अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है।

अभी तक अशोक के 40 अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी।

  • रायपुरबा अभिलेख — यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है।
  • प्रयाग अभिलेख — यह पहले कौशाम्बी में स्थित था, जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा प्रयाग के किले में रखवाया गया था।
अशोक के लघु स्तम्भ लेख

सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है।

यह निम्न स्थानों पर स्थित हैं-

  1. सांची — मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है।
  2. सारनाथ — उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है।
  3. रूभ्मिनदेई — नेपाल के तराई में है।
  4. कौशाम्बी — प्रयागराज के निकट है।
  5. निग्लीवा — नेपाल के तराई में है।
  6. ब्रह्मगिरि — यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है।
  7. सिद्धपुर — यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है।
  8. जतिंग रामेश्‍वर — जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है।
  9. एरागुडि — यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
  10. गोविमठ — यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है।
  11. पालकिगुण्क — यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है।
  12. राजूल मंडागिरि — यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
  13. अहरौरा — यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है।
  14. सारो-मारो — यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है।
  15. नेतुर — यह मैसूर जिले में स्थित है।
अशोक के गुहा लेख
  • दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं। इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है।
  • केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है।
  • तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है।
अशोक के स्तम्भ लेख

अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्‍न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। स्तम्भ लेख प्राप्त स्थानों के नाम हैं-

  1. दिल्ली तोपरा — यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था। यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
  2. दिल्ली मेरठ — यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया।
  3. लौरिया तथा लौरिया नन्दगढ़ — यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है।
अशोक के परवर्ती मौर्य सम्राट–

मगध साम्राज्य के सम्राट अशोक की मृत्यु 237–236 ई.पू. में (लगभग) हुई थी। अशोक के उपरान्त अगले पाँच दशक तक उनके निर्बल उत्तराधिकारी शासन संचालित करते रहे। जैन, बौद्ध तथा हिंदू ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन के बारे में परस्पर विरोधी विचार पाये जाते हैं। पुराणों में अशोक के बाद 9 या 10 शासकों की चर्चा है, जबकि दिव्यादान के अनुसार 6 शासकों ने अशोक के बाद शासन किया।

अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्‍चिमी और पूर्वी भाग में बँट गया। पश्‍चिमी भाग पर कुणाल शासन करता था, जबकि पूर्वी भाग पर सम्प्रति का शासन था। लेकिन 190 से 180 ई. पू. तक पश्‍चिमी भाग पर बैक्ट्रिया यूनानी का पूर्ण अधिकार हो गया था। पूर्वी भाग पर दशरथ का राज्य था।

बृहद्रथ मौर्य (ल. 187–185 ई.पू) शतधन्वन का पुत्र बृहद्रथ मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक था। उसका शासन 187–185 ई.पू तक था। उनके शासन में हिंदू धर्म का पतन हो रहा था और बौद्ध धर्म भारत के कई हिस्सों में फैल गया था। हिंदुओं को जबरदस्ती बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया जा रहा था। बौद्ध भिक्षुओं ने ग्रीक आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण करने में मदद की लेकिन बृहद्रथ ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। भारत को यूनानी आक्रमणों से बचाने के लिए उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग उसने उसे 185 ई.पू मार डाला और एक नए राजवंश का उदय हुआ जिसे शुंग राजवंश कहते हैं

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या 185 ई.पू के उपरान्त करीबन दो सदियों (322 से 185 ई.पू.) से चले आ रहे शक्‍तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन हो गया। इसके पतन के कारण निम्न हैं-

  1. अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी
  2. प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीयकरण
  3. राष्ट्रीय चेतना का अभाव
  4. आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ
  5. प्रान्तीय शासकों के अत्याचार
  6. करों की अधिकता

विभिन्न इतिहासकारों ने मौर्य वंश का पतन के लिए भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है-

मौर्य शासन

भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुइ थी। मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था, परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था। मौर्य काल में गणतन्त्र का ह्रास हुआ और राजतन्त्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई। कौटिल्य ने राज्य सप्तांक सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, जिनके आधार पर मौर्य प्रशासन और उसकी गृह तथा विदेश नीति संचालित होती थी- राजा, अमात्य जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और, मित्र।

मौर्य सैन्य व्यवस्था

सैन्य व्यवस्था छः समितियों में विभक्‍त सैन्य विभाग द्वारा निर्दिष्ट थी। प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे।

  1. पैदल सेना
  2. अश्‍व सेना
  3. गज सेना
  4. रथ सेना
  5. नौ सेना

सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था। यह सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था। मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना छः लाख पैदल, पचास हजार अश्‍वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ सौ रथों से सुसज्जित अजेय सैनिक थे।

मौर्य प्रान्तीय प्रशासन

चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन संचालन को सुचारु रूप से चलाने के लिए "चार प्रान्तों" में विभाजित कर दिया था, जिन्हें चक्र कहा जाता था। इन प्रान्तों का शासन सम्राट के प्रतिनिधि द्वारा संचालित होता था। सम्राट अशोक के काल में प्रान्तों की संख्या "पाँच" हो गई थी। ये प्रान्त थे-

मौर्य सम्राज्य के प्रान्त व उनकी राजधानी
क्रम-संख्या प्रान्त राजधानी
1. मध्यदेश (प्राची) पाटलिपुत्र
2. उत्तरापथ तक्षशिला
3. दक्षिणापथ सुवर्णगिरि
4. अवन्ति उज्जयिनी
5. कलिंग तोशाली

प्रान्तों (चक्रों) का प्रशासन राजवंशीय कुमार (आर्य पुत्र) नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था। कुमाराभाष्य की सहायता के लिए प्रत्येक प्रान्त में महापात्र नामक अधिकारी होते थे। शीर्ष पर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रभाग तत्पश्‍चात्‌ प्रान्त आहार (विषय) में विभक्‍त था। ग्राम प्रशासन की निम्न इकाई था, 100 ग्राम के समूह को संग्रहण कहा जाता था। आहार विषयपति के अधीन होता था। जिले के प्रशासनिक अधिकारी स्थानिक था। गोप दस गाँव की व्यवस्था करता था।

नगर प्रशासन

मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासन की नगरीय प्रशासन छः समिति में विभक्‍त था।

  1. प्रथम समिति — उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करता था।
  2. द्वितीय समिति — विदेशियों की देखरेख करता है।
  3. तृतीय समिति — जनगणना।
  4. चतुर्थ समिति — व्यापार वाणिज्य की व्यवस्था।
  5. पंचम समिति — विक्रय की व्यवस्था, निरीक्षण।
  6. षष्ठ समिति — बिक्री कर व्यवस्था।

नगर में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा अपराधों पर नियन्त्रण रखने हेतु पुलिस व्यवस्था थी, जिसे रक्षित कहा जाता था।

यूनानी स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि नगर प्रशासन में तीन प्रकार के अधिकारी होते थे– एग्रोनोयोई (जिलाधिकारी), एण्टीनोमोई (नगर आयुक्‍त), सैन्य अधिकार।

शासकों की सूची –
शासक शासन (ईसा पूर्व)
सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य 322–297 ईसा पूर्व
सम्राट बिन्दुसार मौर्य 297–273 ईसा पूर्व
सम्राट अशोक महान 268–232 ईसा पूर्व
दशरथ मौर्य 232–224 ईसा पूर्व
सम्प्रति मौर्य 224–215 ईसा पूर्व
शालिसुक 215–202 ईसा पूर्व
देववर्मन मौर्य 202–195 ईसा पूर्व
शतधन्वन मौर्य 195–187 ईसा पूर्व
बृहद्रथ मौर्य 187–185 ईसा पूर्व

शुंग साम्राज्य (ल. 185 – 73 ई.पू)[संपादित करें]

शुंग साम्राज्य, अपने चरम विस्तार पर

पुष्यमित्र शुंग (ल. 185 – 149 ई.पू) सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पश्चात मौर्य साम्राज्य उदासीन और निष्क्रिय होता चला गया। अहिंसक नीतियों के कारण अखण्ड भारत नष्ट हो गया और सिकुड़ता चला गया। राजा शतधन्वन के काल मे मौर्य साम्राज्य पुरी तरह से सिकुड़ गया। मौर्य वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ निष्क्रिय था। भारत पर विदेशी आक्रमण बढते जा रहे थे। सम्राट बृहद्रथ ने उनका मुकाबला करने से मना कर दिया। तब प्रजा और सेना में विद्रोह होने लगा। पुष्यमित्र शुंग मगध का सेनापति था।

भरहुत स्तूप से प्राप्त पुष्यमित्र शुंग की मूर्ति

एक दिन राष्ट्र और सेना के बारे में अप्रिय वचन कहने के कारण क्रोधित होकर सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने राजा बृहद्रथ की हत्या कर दी। इस कार्य के पश्चात सेना और प्रजा ने पुष्यमित्र शुंग का साथ दिया। इसके बाद पुष्यमित्र शुंग ने स्वयं को सम्राट घोषित किया जिस नये राजवंश की स्थापना की उसे पूरे देश में शुंग साम्राज्य के नाम से जाना जाता है। शुंग ब्राह्मण थे। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद उन्होंने पुरोहित का कर्म त्यागकर सैनिक वृति को अपना लिया था। पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ का प्रधान सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग के पश्चात इस वंश में नौ शासक और हुए जिनके नाम थे -अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, भद्रक, तीन अज्ञात शासक, भागवत और देवभूति।

पुष्यमित्र ने सेनानी की उपाधि धारण की थी। दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र इसी रूप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी। शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ था मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी युग में हुई थी। अतः उसने निस्संदेह राजत्व को प्राप्त किया था। परवर्ती मौर्यों के निर्बल शासन में मगध का सरकारी प्रशासन तन्त्र शिथिल पड़ गया था एवं देश को आन्तरिक एवं बाह्य संकटों का खतरा था। ऐसी विकट स्थिति में पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर जहाँ एक ओर यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की और देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे। इसी कारण शुंग काल वैदिक प्रतिक्रिया अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता है।

पुष्यमित्र और अश्वमेध यज्ञ–

पुष्यमित्र सफलतापूर्वक सनातन संस्कृति की पुनर्स्थापना और वैदिक हिंदू धर्म की स्थापना के पश्चात पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करवाया था, जिसका प्रमाण पतंजलि में मिलता है। पुष्यमित्र शुंग द्वारा छोड़े गए अश्व को यवनों द्वारा पकड़ लिया जाता है, इसके पश्चात पुष्यमित्र शुंग उनके पुत्र अग्निमित्र शुंग को बताते हैं कि उस अश्व को मुक्त करवाओ नहीं तो यह यज्ञ सफल नहीं होगा। अग्निमित्र शुंग अपने पुत्र वसुमित्र शुंग की सहायता से अश्व को पारदेश्वर मिथ्रदात के साथ युद्ध करके मुक्त करवाते हैं।

अग्निमित्र (ल. 149–141 ई.पू) पुष्यमित्र की मृत्यु (149/148 ई.पू.) के पश्‍चात उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ। वह विदिशा का उपराजा था। उसने कुल 8 वर्षों तक शासन कीया। मालविकाग्निमित्रम् कालिदास द्वारा रचित संस्कृत नाटक है। यह पाँच अंकों का नाटक है, जिसमे मालवदेश की राजकुमारी मालविका तथा विदिशा के राजा अग्निमित्र का प्रेम और उनके विवाह का वर्णन है।

वसुज्येष्ठ (ल. 141–131 ई.पू) अग्निमित्र के बाद वसुज्येष्ठ राजा हुआ।

वसुमित्र (ल. 131–124 ई.पू) शुंग वंश का चौथा राजा वसुमित्र हुआ। उसने यवनों को पराजित किया था। एक दिन नृत्य का आनन्द लेते समय "मूजदेव" नामक व्यक्‍ति ने उसकी हत्या कर दी।

भगभद्र (ल. 124 या 93 ई.पू) हेलियोडोरस प्राचीन भारत का यूनानी राजनयिक था। वह पाँचवें शुंग राजा काशीपुत भगभद्र के राज्य काल के 14वें वर्ष में तक्षशिला के यवन नरेश एंटीयालकीड्स (ल. 140–130 ई.पू) का दूत बनकर विदिशा आया था। हेलियोडोरस 'दिया' (दियोन) का पुत्र और तक्षशिला का निवासी था। हेलियोडोरस यवन होते हुए भी हिंदू धर्म का अनुयायी हो गया था।

शुंग वंश का महत्व–

इस वंश के राजाओं ने मगध साम्रज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यव्स्था की स्थापना कर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोके रखा। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। यही कारण है की उसका शासनकाल हिंदू पुनर्जागरण या वैदिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है।

विदर्भ युद्ध–

मालविकाग्निमित्रम् के अनुसार पुष्यमित्र के काल में लगभग 184 ई.पू में विदर्भ युद्ध में पुष्यमित्र की विजय हुई और राज्य दो भागों में बाट दिया गया। वर्षा नदी दोनों राज्यों कीं सीमा मान ली गई। दोनो भागों के नरेश ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ। पुष्यमित्र का प्रभाव क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।

यवनों का आक्रमण–

यवनों को मध्य देश से निकालकर सिन्धु के किनारे तक खदेङ दिया और पुष्यमित्र के हाथों सेनापति एवं राजा के रूप में उन्हें पराजित होना पङा। यह पुष्यमित्र के काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।

पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध–

साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफ़ल रहा। पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्‍चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध (बंगाल) तक फ़ैला हुआ था। दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और स्यालकोट पर भी उसका अधिकार था।

साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्‍त करने की परम्परा चलती रही। पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह-शाशक नियुक्‍त कर रखा था। उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार सेना के संचालक भी थे। इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। इस काल तक आते-आते मौर्यकालीन केन्द्रीय नियन्त्रण में शिथिलता आ गयी थी तथा सामंतीकरण की प्रवृत्ति सक्रिय होने लगी थीं।

शुंगकालीन संस्कृति के प्रमुख तथ्य–
भरहुत से प्राप्त उद्भृति पर एक मनुष्य, शुंग काल, द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व
  • शुंग राजाओं का काल वैदिक अथवा हिंदू धर्म का पुनर्जागरण काल माना जाता है।
  • मानव आकृतियों के अंकन में कुशलता दिखायी गयी है। एक चित्र में गरुङ सूर्य तथा दूसरे में श्रीलक्ष्मी का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है।
  • पुष्यमित्र शुंग ने हिंदू धर्म का पुनरुत्थान किया। शुंग के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं।
  • बोधगया के विशाल मन्दिर के चारों और एक छोटी पाषाण वेदिका मिली है। इसका निर्माण भी शुंगकाल में हुआ था। इसमें कमल, राजा, रानी, पुरुष, पशु, बोधिवृक्ष, छ्त्र, त्रिरत्न, कल्पवृक्ष, आदि प्रमुख हैं।
  • स्वर्ण मुद्रा को निष्क, दिनार, सुवर्ण, मात्रिक कहा जाता था। ताँबे के सिक्‍के काषार्पण कहलाते थे। चाँदी के सिक्‍के के लिए पुराण और धारण शब्द आया है।
  • शुंग राजाओं का काल वैदिक काल की अपेक्षा एक बड़े वर्ग के लोगों के मस्तिष्क परम्परा, संस्कृति एवं विचारधारा को प्रतिबिम्बित कर सकने में अधिक समर्थ है।
  • शुंग काल के उत्कृष्ट नमूने बिहार के बोधगया से प्राप्त होते हैं। भरहुत, सांची, बेसनगर की कला भी उत्कृष्ट है।
  • महाभाष्य के अलावा मनुस्मृति का मौजूदा स्वरुप सम्भवतः इसी युग में रचा गया था।
  • बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार यह भी सच है कि शुंग बौद्ध धर्म आदर नही करते थे पर द्वेष भी नहीं करते थे। शुंगो ने कुछ बौद्धों को अपना मन्त्री नियुक्‍त कर रखा था।
  • पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार उसका काल ई.पू से 148 ई.पू तक माना जाता है।
राजवंश का अंत–

शुंग वंश के अन्तिम शाशक देवभूति अत्यन्त विलासी था, इस लिए उसके सचिव वासुदेव कण्व ने 73 ई.पू. मे उसके हत्या कर दी और कण्व वंश की नींंव डाली। इस प्रकार शुंग वंश का अन्त हो गया।

शासकों की सूची–
शुंग साम्राज्य के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू) टिप्पणी
1. सम्राट पुष्यमित्र शुंग 185–149 बृहद्रथ की हत्या करने के बाद राजवंश की 185 ई.पू स्थापना की।
2. सम्राट अग्निमित्र 149–141 सम्राट पुष्यमित्र का पुत्र और एक महान विजेता।
3. सम्राट वसुज्येष्ठ 141–131 सम्राट अग्निमित्र का पुत्र और एक महान विजेता।
4. सम्राट वसुमित्र 131–124 सम्राट अग्निमित्र का पुत्र।
5. सम्राट अन्ध्रक 124–122
6. सम्राट पुलिन्दक 122–119
7. सम्राट घोष शुंग 119–108
8. सम्राट वज्रमित्र 108–94
9. सम्राट भगभद्र 94–83
10. सम्राट देवभूति 83–73 देवभूति राजवंश के अंतिम शासक थे, जो एक विलासी शासक था, जिसे उसके सचिव वासुदेव कण्व द्वारा मगध की गद्दी से 73 ई.पू मे हटा दिया गया और कण्व वंश की स्थापना की।

कण्व साम्राज्य (ल. 73 – 28 ई.पू)[संपादित करें]

कण्व साम्राज्य का विस्तार

शुंग वंश के अन्तिम शासक देवभूति के मन्त्रि वसुदेव 73 ई.पू मे उसकी हत्या कर मगध की सत्ता प्राप्त कर कण्व राजवंश की स्थापना की। इस वंश के चार राजाओं ने 73 से 28 ई.पू तक 45 वर्षो तक शासन किया। वसुदेव पाटलिपुत्र के कण्व वंश का प्रवर्तक था। कण्व राजवंश के शासकों ने वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परम्परा शुंगो ने प्रारम्भ की थी। उसे कण्व वंश ने जारी रखा।

इस वंश का अन्तिम सम्राट सुशमी कण्य अत्यन्त अयोग्य और दुर्बल था। इसके शासन मे साम्राज्य मगध और बंगाल क्षेत्र तक संकुचित होने लगा। कण्व वंश का साम्राज्य बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित हो गया और अनेक प्रान्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। तत्पश्चात उसका पुत्र नारायण और अन्त में सुशमी, जिसे सातवाहन साम्राज्य के प्रवर्तक शिमुक ने पदच्युत कर दिया था।

शासकों की सूची–
शुंग साम्राज्य के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (ई.पू) टिप्पणी
1. सम्राट वासुदेव कण्व 73–66 देवभूति की हत्या करने के बाद राजवंश की 73 ई.पू स्थापना की।
2. सम्राट भूमिमित्र कण्व 66–52 सम्राट वासुदेव का पुत्र
3. सम्राट नारायण कण्व 52–40 सम्राट भूमिमित्र का पुत्र
4. सम्राट सुषरमन कण्व 40–28 अंतिम शासक, सातवाहन साम्राज्य के प्रवर्तक शिमुक ने हत्या कर दी।

मगध पर विदेशी सम्राज्यो का शासन (ल. 1 से 4 शताब्‍दी इस्वी)[संपादित करें]

शको का शासन[संपादित करें]

शको के क्षेत्र और उनकी सबसे बड़ी सीमा तक विस्तार, उत्तरी क्षत्रप और पश्चिमी क्षत्रप के क्षेत्रों सहित

मगध पर शको का कुछ समय तक ही शासन रहा। युग पुराण से हमे पता चलता है कि पहली शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान शक राजाओं ने द्वारा पाटलिपुत्र (मगध) पर आक्रमण का वर्णन मिलता है। युग पुराण यह भी बताता है कि शक राजाओं ने क्षेत्र की एक चौथाई आबादी को मार डाला, इससे पहले कि वह खुद कलिंग के राजा शत और सबल के एक समूह द्वारा मारे गए थे।

कुषाणों का शासन[संपादित करें]

कुषाण सम्राज्य के नियंत्रण की अधिकतम सीमा, कनिष्क के शासन मे

कुषाणकालीन अवशेष भी बिहार (मगध) से अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। कुछ समय के पश्चात प्रथम सदी इस्वी में इस क्षेत्र में कुषाणों का अभियान हुआ। कुषाण शासक कनिष्क द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किये जाने और यह के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष को अपने दरबार में प्रश्रय देने की चर्चा मिलती है।

अन्य भारतीय राजवंशों का शासन[संपादित करें]

सातवाहनों का शासन

मगध में आन्ध्रों या सातवाहनों का शासन था या नहीं इस बात पर इतिहासकारों मे मतभेद है। पुराणो के अनुसार मगध पर सातवाहनों का शासन था, पर इसकी कोई पूर्ण जानकारी नही मिलती है।

लिच्छवियों का शासन

मगध साम्राज्य के अंतर्गत लिच्छवि संघ ने प्रजातंत्र तरीके से सदियों तक मगध पर शासन किया। ईसवी सन् के आरंभ से कुषाण काल में लिच्छवियों ने पुन: स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद मगध पर लिच्छवियों का शासन रहा। लिच्छवियों ने अपना संगठन और अधिक प्रबल कर लिया और उत्तरी बिहार में वैशाली राज्य प्रमुख हो गया।

लिच्छवियों के बाद गुप्तो ने मगध पर शासन कर, पुनः हिन्दू साम्राज्य और मगध की महिमा की स्थापित की।

पूर्व-मध्यकालीन मगध साम्राज्य (ल. 300 – 1200 इस्वी)[संपादित करें]

गुप्त साम्राज्य (ल. 275 – 550 इस्वी)[संपादित करें]

मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग, दक्षिण में वाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं।

मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई भारत की राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। गुप्त साम्राज्य का काल हिंदु धर्म का एक बार फिर चरमोत्कर्ष का काल रहा था। सभी गुप्त सम्राट हिंदु थे।

गुप्त साम्राज्य, अपने उत्कर्ष समय 375 ई. में
गुप्त वंश की स्थापना–

गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग 275 ई. में की थी। उनका वास्तविक नाम श्रीगुप्त था। गुप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि श्रीगुप्त का पुत्र घटोत्कच था।

श्रीगुप्त (ल. 275–290 इस्वी) श्रीगुप्त के समय में 'महाराजा' की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था। प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था। ज्यादातर इतिहासकारों के अनुसार श्रीगुप्त सातवाहनों के अधीन था।

घटोत्कच (ल. 290–319 इस्वी) घटोत्कच श्रीगुप्त का पुत्र था। 290 से 319 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी 'महाराजा' की उपाधि धारण की थी।

चन्द्रगुप्त प्रथम (ल. 319–335 इस्वी) – यह घटोत्कच का उत्तराधिकारी था, जो 319 ई. में शासक बना। उनकी उपाधि 'महाराजाधिराज से पता चलता है कि वह राजवंश के पहले सम्राट थे। चन्द्र्गुप्त के सिंहासनारोहण के अवसर पर (319 ई.) को गुप्त सम्वत भी कहा गया है।

चन्द्रगुप्त गुप्त राजवंश का प्रथम स्वतन्त्र शासक है। चन्द्रगुप्त के शासनकाल से स्कन्दगुप्त के शासनकाल तक भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है।

चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि सम्बन्ध–

चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। वह एक दूरदर्शी सम्राट था। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। विन्सेंट स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया। कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। समुद्रगुप्त, सबसे शक्तिशाली गुप्त सम्राट कुमार देवी का पुत्र था। जिसने लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को सम्राज्य मे मिलाया।

हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्‍कों का चलन करवाया। कुमारी देवी एक सिक्के पर अंकित पहली भारतीय रानी थीं। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।

समुद्रगुप्त (ल. 335–375 इस्वी) चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध के राजसिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें "परक्रमांक" कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।

हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त ने "महाराजाधिराज" की उपाधि धारण की। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें "भारत का नेपोलियन" की उपधि दी।

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे "कविराज" भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था, जिसे वीणा वादन का शौक था। इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्‍त किया था।

काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम "चन्द्रप्रकाश" मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था, वह हिन्दू धर्म का पालन करता था। हिन्दू धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी "धर्म की प्राचीर" कहा गया है।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य–

समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्‍चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्‍चिमी पंजाब, पश्‍चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे।

दक्षिणापथ के शासक तथा पश्‍चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्‍तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं। समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्‍तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्‍नति की चोटी पर जा पहुँचा था।

रामगुप्त (ल. 375–380 इस्वी) समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्‍न विद्वानों में मतभेद है। विभिन्‍न साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त। रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था। वह शकों द्वारा पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर अपनी पत्‍नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को भेंट में दे दिया था, लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्‍ति था। वह छद्‍म भेष में ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया। फलतः रामगुप्त निन्दनीय होता गया। तत्पश्‍चात्‌ चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी। उसकी पत्‍नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (ल. 380–415 इस्वी) चन्द्रगुप्त द्वितीय 380 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने 380 से 415/420 ई. तक शासन किया।

हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ही फ़ाहियान नामक चीनी यात्री (399 ई.) भारत आया था।

वैवाहिक सम्बन्ध और सम्राज्य विस्तार–

उसने नागवंश, वाकाटक और कदंब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी 'कुबेर नागा' के साथ विवाह किया, जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की।

वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था। चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदंब राजवंश में हुआ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजय यात्रा–

चन्द्रगुप्त एक महान प्रतापी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य का और विस्तार किया।

  • शक विजय– पश्‍चिम भारत में शक क्षत्रप शक्‍तिशाली साम्राज्य था। ये गुप्त राजाओं को हमेशा परेशान करते थे। शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्‍चिमी मालवा पर राज्य करते थे। 389 से 412 ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर विजित किया।
  • वाहीक विजय– महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी। वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है, पंजाब का वह भाग जो व्यास का निकटवर्ती भाग है।
  • बंगाल विजय– महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।
  • गणराज्यों पर विजय– पश्‍चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों द्वारा समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्‍चात्‌ अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी गई थी, चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणरज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में विलीन किया गया।

अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्‍चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्‍न थे–

  1. कालिदास
  2. धन्वन्तरि
  3. क्षपणक
  4. अमरसिंह
  5. शंकु
  6. बेतालभट्ट
  7. घटकर्पर
  8. वाराहमिहिर
  9. वररुचि

निस्संदेह चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल हिंदु धर्म का चरमोत्कर्ष का काल रहा था।

कुमारगुप्त प्रथम (ल. 415–455 इस्वी) चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्‍चात्‌ 415 ई. में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्‍नी ध्रुवदेवी से उत्पन्‍न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था।

कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। साम्राज्य की उन्‍नति के पराकाष्ठा पर था। इसने अपने साम्राज्य का अधिक संगठित और सुशोभित बनाये रखा। कुमारगुप्त ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था। इन्होंने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्‍चिम में अरब सागर तक विस्तृत था।

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण कीं। उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी। मिलरक्द अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान था। कुमारगुप्त प्रथम स्वयं हिंदू धर्मानुयायी था।

गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं। उसने अधिकाधिक संक्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थीं। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गई थी।

कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनाएं निम्न है–
  • पुष्यमित्र से युद्धभीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम क्षण में शान्ति नहीं थी। इस काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था। उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया।
  • दक्षिणी विजय अभियान– कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है।
  • अश्‍वमेध यज्ञ– सतारा जिले से प्राप्त 1395 मुद्राओं व लेकर पुर से 13 मुद्राओं के सहारे से अश्‍वमेध यज्ञ करने की पुष्टि होती है।

स्कन्दगुप्त (ल. 455–467 इस्वी) पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की 455 ई. में मृत्यु हो गयी थी। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की। उसने 12 वर्ष तक शासन किया। स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य और क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। कहीय अभिलेख में स्कन्दगुप्त को "शक्रोपन" कहा गया है।

उदारता एवं परोपकारिता के कार्य–

स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था, जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था, उसने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।

हूणों का आक्रमण–

हूणों का भारत पर प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के काल में हुआ था। हूण मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी। हूणों ने अपनी जनसंख्या और प्रसार के लिए दो शाखाओं में विभाजित होकर विश्‍व के विभिन्‍न क्षेत्रों में फैल गये। पूर्वी शाखा के हूणों ने भारत पर अनेकों बार आक्रमण किया। स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमण से रक्षा कर अपनी संस्कृति और हिंदू धर्म को नष्ट होने से बचाया।

गोविन्दगुप्त का विद्रोह–

यह स्कन्दगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के राज्यपाल पद पर नियुक्‍त था। इसने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। स्कन्दगुप्त ने इस विद्रोह का दमन किया।

वाकाटकों से युद्ध–

मन्दसौर शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया।

गुप्त साम्राज्य का पतन–

स्कन्दगुप्त राजवंश का आखिरी शक्‍तिशाली सम्राट था। 467/468 ई. उसका निधन हो गया और साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।

पुरुगुप्त (ल. 467–473 इस्वी) यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापे की अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था, फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।

कुमारगुप्त द्वितीय (ल. 473–476 इस्वी) पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय 445 ई. अंकित है।

बुद्धगुप्त (ल. 476–495 इस्वी) कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना, जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था।

नरसिंहगुप्त बालादित्य (ल. 495–530 इस्वी) बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना।

गुप्त साम्राज्य का विभाजन और अंत–

इस समय तक गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्‍तिशाली राजा था। हूणों के अत्याचारी शासक मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को "परम भागवत" कहा गया है।

कुमारगुप्त तृतीय (ल. 530–540 इस्वी) नरसिंहगुप्त के बाद गुप्तो की मगध शाखा पर नरसिंहगुप्त का पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासकों मे से एक था।

विष्णुगुप्त (ल. 540–550 इस्वी) विष्णुगुप्त चंद्रादित्य गुप्त राजवंश के कम ज्ञात राजाओं में से एक थे। उन्हें आम तौर पर गुप्त साम्राज्य का अंतिम मान्यता प्राप्त राजा माना जाता है। उनका शासनकाल 10 वर्षों तक चला, 540 से 550 इस्वी तक रहा।

शासकों की सूची–
शासक (महाराजाधिराज) शासन (ईस्वी)
श्रीगुप्त प्रथम ल. तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में
घटोत्कच 290–319
चन्द्रगुप्त प्रथम 319–335
समुद्रगुप्त 335–375
रामगुप्त 375
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य 375–415
कुमारगुप्त प्रथम 415–455
स्कन्दगुप्त 455–467
पुरुगुप्त 467–473
कुमारगुप्त द्वितीय 473–476
बुद्धगुप्त 476–495
नरसिंहगुप्त बालादित्य 495–530
कुमारगुप्त तृतीय 530–540
विष्णुगुप्त 540–550

उत्तर गुप्त राजवंश (ल. 500 – 750 ईस्वी)[संपादित करें]

गुप्त साम्राज्य का 550 ई. में पतन हो गया। गुप्त वंश के पतन के बाद भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण एवं अनिश्‍चितता का माहौल उत्पन्‍न हो गया। अनेक स्थानीय सामन्तों एवं शासकों ने साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों में अलग-अलग छोते-छोटे राजवंशों की स्थापना कर ली। इसमें एक था, उत्तर गुप्त या परवर्ती गुप्त राजवंश। इस राजवंश ने करीब दो शताब्दियों तक शासन किया। इस वंश के लेखों में चक्रवर्ती गुप्त राजाओं का उल्लेख नहीं है।

उत्तर गुप्त राजवंश, अपने उत्कर्ष के समय लगभग 590 ई, तथा इसके पड़ोसी राज्य

कृष्णगुप्त (500/510–521 ई.) ने उत्तर गुप्त राजवंश की स्थापना की। अफसढ़ लेख के अनुसार मगध उसका मूल स्थान था, जबकि विद्वानों ने उनका मूल स्थान मालवा कहा गया है।

कृष्णगुप्त का उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ है। हर्षगुप्त का उत्तराधिकारी जीवितगुप्त हुआ। उत्तर गुप्त वंश के तीन शासकों ने शासन किया। तीनों शासकों ने मौखरि वंश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रह।

कुमारगुप्त यह उत्तर गुप्त वंश का चौथा राजा था, जो जीवितगुप्त का पुत्र था। यह शासक अत्यन्त शक्‍तिशाली एवं महत्वाकांक्षी था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसका प्रतिद्वन्दी मौखरि नरेश ईशान वर्मा समान रूप से महत्वाकांक्षी शासक था। इस समय प्रयाग में पूष्यार्जन हेतु प्राणान्त करने की प्रथा प्रचलित थी। हांग गांगेय देव जैसे शसकों का अनुसरण करते हुए कुमार गुप्त ने प्रयाग जाकर स्वर्ग प्राप्ति की लालसा से अपने जीवन का त्याग किया।

दामोदरगुप्त कुमारगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध 582 ई. के आस-पस हुआ था।

महासेनगुप्त दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। उसने मौखरि नरेश अवन्ति वर्मा की अधीनता स्वीकार कर ली। महासेनगुप्त ने असम नरेश सुस्थित वर्मन को ब्राह्मण नदी के तट पर पराजित किया। अफसढ़ लेख के अनुसार महासेनगुप्त बहुत पराक्रमी था।

देवगुप्त महासेनगुप्त के बाद उसका पुत्र देवगुप्त का शासक बना। उसके दो सौतेले भाई कुमारगुप्त और माधवगुप्त थे। देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के सहयोग से कन्‍नौज के मौखरि वंश पर आक्रमण किया और गृहवर्मा की हत्या कर दी। प्रभाकरवर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने शीघ्र ही देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे मार डाला।

माधवगुप्त हर्षवर्धन के समय में माधवगुप्त मगध के सामन्त के रूप में शासन करता था। वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र और विश्‍वासपात्र था। हर्ष जब शशांक को दण्डित करने हेतु गया तो माधवगुप्त साथ गया था। उसने 650 ई. तक शासन किया। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त उत्तर भारत में अराजकता फैली तो माधवगुप्त ने भी अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया।

शासकों की सूची–[3][4][5]
मगध के उत्तर गुप्त राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (इस्वी में)
1 कृष्णगुप्त लगभग 500 इस्वी
2 हर्षगुप्त
3 जीवित गुप्त
4 कुमारगुप्त
5 दामोदरगुप्त
6 महासेनगुप्त
7 माधवगुप्त 615–650 इस्वी
8 आदित्यसेन
9 देवगुप्त
10 विष्णुगुप्त
11 जीवित गुप्त द्वितीय लगभग 740/750 इस्वी

वर्धन सम्राज्य (ल. 606 – 647 ईस्वी)[संपादित करें]

पुष्यभूति सम्राज्य का चरम विस्तार, 645 इस्वी मे

हर्षवर्धन (606–647) हर्षवर्धन ने मगध, केंद्रीय भारत और उत्तरी भारत का एकीकरण किया और 40 वर्षों तक इस पर शासन किया।

पाल साम्राज्य (ल. 750 – 1174 ईस्वी)[संपादित करें]

यह पूर्व मध्यकालीन राजवंश था। जब हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पन्न हो गया, तब बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सम्पूर्ण क्षेत्र में पूरी तरह अराजकत फैली थी।

पाल साम्राज्य, अपने अधिकतम विस्तार पर

गोपाल (750–770) आठवीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में पाल वंश का उदय हुआ। गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है। जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया गया था। वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने 750 ई. से 770 ई. तक शासन किया। इस दौरान उसने औदंतपुरी (बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया।

धर्मपाल (770–810) गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल 770 ई. में सिंहासन पर बैठा। धर्मपाल ने 40 वर्षों तक शासन किया। धर्मपाल ने कन्‍नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्‍नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा "उत्तरापथ स्वामिन" की उपाधि धारण की।

उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया था। उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे। उल्लेखनीय है कि प्रतिहारों राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजवंश के राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था।

देवपाल (810–850) धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा। इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई। उसने पूर्वोत्तर में प्रगज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया। कन्‍नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। उसने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए 5 गाँव अनुदान में दिए।

देवपाल ने 850 ई. तक शासन किया था। देवपाल के बाद पाल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी। मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया।

महीपाल प्रथम (988–1038) 11वीं सदी में महीपाल प्रथम ने 988–1038 ई. तक शासन किया। महीपाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है। उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया।

राजवंश के उत्तराधिकारी और अंत–

महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्‍न कर दिया था। बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार सेन आदि शक्‍तिशाली हो गये थे। रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था। सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया। इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।

लगभग 1175 इस्वी मे पाल राजवंश समाप्त हो गया और सेन राजवंश का मुख्य शक्ति के रूप मे उदय हुआ। पाल राजवंश के पश्चात सेन राजवंश ने बंगाल पर 130 वर्षों तक राज किया।

शासकों की सूची–
पाल राजवंश के शासकों की सूची
क्रम-संख्या शासक शासन अवधि (इस्वी में)
1 गोपाल (पाल) 750–770
2 धर्मपाल 770–810
3 देवपाल 810–850
4 महेन्द्रपाल 850–854
5 विग्रह पाल 854–855
6 नारायण पाल 855–908
7 राज्यो पाल 908–940
8 गोपाल २ 940–960
9 विग्रह पाल २ 960–988
10 महिपाल 988–1038
11 नय पाल 1038–1055
12 विग्रह पाल ३ 1055–1070
13 महिपाल २ 1070–1075
14 शूर पाल २ 1075–1077
15 रामपाल 1077–1130
16 कुमारपाल 1130–1140
17 गोपाल ३ 1140–1144
18 मदनपाल 1144–1162
19 गोविन्द पाल 1162–1174

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. नाहर, डॉ रतिभानु सिंह (1974). प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास. इलाहाबाद, भारत: किताबमहल. पृ॰ 112. पाठ "editor: " की उपेक्षा की गयी (मदद); |access-date= दिए जाने पर |url= भी दिया जाना चाहिए (मदद)
  2. "हिन्दी⁸ शब्दकोश". मूल से 5 मई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अप्रैल 2016.
  3. Ronald M. Davidson 2012, पृ॰ 35.
  4. Sailendra Nath Sen 1999, पृ॰प॰ 247-248.
  5. Hans Bakker 2014, पृ॰ 83.