पाण्डव

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पाण्डव पांच महान भाइयों - युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव - और कर्ण को भी संदर्भित करते हैं जो हिन्दू महाकाव्य महाभारत के केंद्रीय पात्र हैं। उन्हें कुरु के राजा पाण्डु के पुत्रों के रूप में स्वीकार किया जाता है, लेकिन पाण्डु की स्वाभाविक रूप से बच्चों को गर्भ धारण करने में असमर्थता के कारण उनके पिता अलग-अलग देवों (देवताओं) द्वारा बनाए गए थे।

द्रौपदी और पांच पाण्डव

महाकाव्य में, पाण्डवों ने पांचाल की राजकुमारी द्रौपदी से विवाह किया था और कुरु साम्राज्य के विभाजन के बाद उत्तराधिकार विवादों से बचने के लिए इंद्रप्रस्थ शहर की स्थापना की। जब दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने अपने चचेरे भाइयों को अपना राज्य सौंपने के लिए धोखा दिया और इसे वापस करने से इनकार कर दिया, तो पाण्डवों ने अपने विस्तारित परिवार के खिलाफ गृह युद्ध छेड़ दिया और इस संघर्ष को कुरुक्षेत्र युद्ध के रूप में जाना गया। भगवान कृष्ण की सहायता से, पाण्डवों ने अंततः कौरवों की मृत्यु के साथ युद्ध जीत लिया, भले ही उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। लेखक-पीयुष कुमार शर्मा

शब्द-साधन[संपादित करें]

पाण्डव शब्द उनके पिता के नाम, पाण्डु से लिया गया है और इसका अर्थ है "पाण्डु के वंशज"। पाण्डवों को दिए गए अन्य विशेषण हैं:

पाण्डवों के नाम[संपादित करें]

पाण्डवों के आध्यात्मिक पिता का नाम पाण्डु था। वे बड़े ही प्रतापी कुरुवंशी राजा थे। पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं - कुन्ती तथा माद्रीयुधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन की माता कुन्ती थी और नकुल एवं सहदेव माद्री के पुत्र थे। असल में पाण्डव देवपुत्र थे। पाण्डवों के वास्तविक पिता इस प्रकार हैं :-

पाण्डवों के जन्म की कथा[संपादित करें]

एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों - कुन्ती तथा माद्री - के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, "राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।"

इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, "हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़" उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, "नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।" पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।"

ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, "हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?" कुन्ती बोली, "हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।" इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]