"बौद्ध दर्शन": अवतरणों में अंतर

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== बाहरी कड़ियाँ ==
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* [http://hindi.webdunia.com/religion/religion/buddhism/0902/06/1090206028_1.htm बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत] (वेबदुनिया)
* [https://web.archive.org/web/20100329144016/http://hindi.webdunia.com/religion/religion/buddhism/0902/06/1090206028_1.htm बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत] (वेबदुनिया)
* [https://books.google.co.in/books?id=fZnWZ48CkWMC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false बौद्ध धर्म दर्शन] (गूगल पुस्तक ; आचार्य नरेन्द्र देव)
* [https://web.archive.org/web/20170809170836/https://books.google.co.in/books?id=fZnWZ48CkWMC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false बौद्ध धर्म दर्शन] (गूगल पुस्तक ; आचार्य नरेन्द्र देव)
* [http://www.chauthiduniya.com/2009/07/sanatan-darshan-ka-baudh-dharm-par.html सनातन दर्शन का बौद्ध धर्म पर प्रभाव] (चौथी दुनिया)
* [https://web.archive.org/web/20100519015549/http://www.chauthiduniya.com/2009/07/sanatan-darshan-ka-baudh-dharm-par.html सनातन दर्शन का बौद्ध धर्म पर प्रभाव] (चौथी दुनिया)
* Sarunya Prasopchingchana & Dana Sugu, 'Distinctiveness of the Unseen Buddhist Identity' ([1]International Journal of Humanistic Ideology, Cluj-Napoca, Romania, vol. 4, 2010)
* Sarunya Prasopchingchana & Dana Sugu, 'Distinctiveness of the Unseen Buddhist Identity' ([1]International Journal of Humanistic Ideology, Cluj-Napoca, Romania, vol. 4, 2010)
* [http://www.accesstoinsight.org/lib/authors/narada/nutshell.html Buddhism in a Nutshell]
* [https://web.archive.org/web/20100405170427/http://www.accesstoinsight.org/lib/authors/narada/nutshell.html Buddhism in a Nutshell]
* [http://www.rigpawiki.org/index.php?title=Seng%C3%A9_Dradrok The story of Sengé Dradrok] <small>From A Great Treasure of Blessings, page 30:
* [https://web.archive.org/web/20101128003157/http://rigpawiki.org/index.php?title=Seng%C3%A9_Dradrok The story of Sengé Dradrok] <small>From A Great Treasure of Blessings, page 30:


{{बौद्ध धर्म विषयावली}}
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08:04, 15 जून 2020 का अवतरण

बौद्ध दर्शन से अभिप्राय उस दर्शन से है जो भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ। 'दुःख से मुक्ति' बौद्ध धर्म का सदा से मुख्य ध्येय रहा है। कर्म, ध्यान एवं प्रज्ञा इसके साधन रहे हैं।

बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।

अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किन्तु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है।

सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।

वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।

संक्षिप्त परिचय

बौद्ध दर्शन अपने प्रारम्भिक काल में जैन दर्शन की ही भाँति आचारशास्त्र के रूप में ही था। बाद में बुद्ध के उपदेशों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इसे आध्यात्मिक रूप देकर एक सशक्त दार्शनिकशास्त्र बनाया। बुद्ध द्वारा सर्वप्रथम सारनाथ में दिये गये उपदेशों में से चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं :- ‘दुःखसमुदायनिरोधमार्गाश्चत्वारआर्यबुद्धस्याभिमतानि तत्त्वानि।’ अर्थात् -

1. दुःख- संसार दुखमय है।
2. दुःखसमुदाय दर्शन- दुख उत्पन्न होने का कारण है (तृष्णा)
3. दुःखनिरोध- दुख का निवारण संभव है
4. दुःखनिरोधमार्ग- दुख निवारक मार्ग (आष्टांगिक मार्ग)

बुद्धाभिमत इन चारों तत्त्वों में से दुःखसमुदाय के अन्तर्गत द्वादशनिदान (जरामरण, जाति, भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान, संस्कार तथा अविद्या) तथा दुःखनिरोध के उपायों में अष्टांगमार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि) का विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) तथा द्वादश आयतन (पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि), जिनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए- भी आचार की दृष्टि से महनीय हैं। वस्तुतः चार आर्य सत्यों का विशद विवेचन ही बौद्ध दर्शन है।

बौद्ध दर्शन का प्रारम्भिक श्रेणी विभाग, सत्ता के महत्त्वपूर्ण प्रश्न को लेकर किया गया, जो कि चार प्रस्थान के रूप में इस प्रकार जाना जाता है-

मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत्
योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः।
अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिकः
प्रत्यक्षं क्षणभंगुरं च सकलं वैभाषिको भाषते॥

वैभाषिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद)

ये अर्थ को ज्ञान से युक्त अर्थात् प्रत्यक्षगम्य मानते हैं।

सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थानुमेयवाद)

ये बाह्यार्थ को अनुमेय मानते हैं। यद्यपि बाह्यजगत की सत्ता दोनों स्वीकार करते हैं, किन्तु दृष्टि के भेद से एक के लिए चित्त निरपेक्ष तथा दूसरे के लिए चित्त सापेक्ष अर्थात् अनुमेय सत्ता है। सौत्रान्तिक मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी है।

योगाचार सम्प्रदाय (विज्ञानवाद)

इनके अनुसार बुद्धि ही आकार के साथ है अर्थात् बुद्धि में ही बाह्यार्थ चले आते हैं। चित्त अर्थात् आलयविज्ञान में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। क्षणभंगिनी चित्त सन्तति की सत्ता से सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है। वस्तुतः ये बाह्य सत्ता का सर्वथा निराकरण करते हैं। इनके यहाँ माध्यमिक मत के समान सत्ता दो प्रकार की मानी गई है-

  • अ) पारमार्थिक
  • ब) व्यावहारिक।

व्यावहारिक में पुनश्च परिकल्पित और परतन्त्र दो रूप ग्राह्य हैं। यहाँ चित्त की ही प्रवृत्ति तथा निवृत्ति (निरोध, मुक्ति) होती है। सभी वस्तुऐं चित्त का ही विकल्प है। इसे ही आलयविज्ञान कहते हैं। यह आलयविज्ञान क्षणिक विज्ञानों की सन्तति मात्र है।

माध्यमिक सम्प्रदाय (शून्यवाद)

यहाँ बाह्य एवम् अन्तः दोनों सत्ताओं का शून्य मेंं विलयन हुआ है, जो कि अनिर्वचनीय है। ये केवल ज्ञान को ही अपने में स्थित मानते हैं और दो प्रकार का सत्य स्वीकार करते हैं-

  • अ) सांवृत्तिक सत्य :- अविद्याजनित व्यावहारिक सत्ता।
  • ब) पारमार्थिक सत्य :- प्रज्ञाजनित सत्य

बौद्धों के इन चारों सम्प्रदायों में से प्रथम दो का सम्बन्ध हीनयान से तथा अन्तिम दोनों का सम्बन्ध महायान से है। हीनयानी सम्प्रदाय यथार्थवादी तथा सर्वास्तिवादी है, जबकि महायानी सम्प्रदायों में से योगाचारी विचार को ही परम तत्त्व तथा परम रूप में स्वीकार करते हैं। माध्यमिक दर्शन एक निषेधात्मक एवं विवेचनात्मक पद्धति है। यही कारण है कि माध्यमिक शून्यवाद को 'सर्ववैनाशिकवाद' के नाम से भी जाना जाता है।

हीनयान तथा महायान की अन्यान्य अनेक शाखाएँ हैं, जो कि प्रख्यात नहीं हैं-

क्षणिकवाद

बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसिलिये आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है । इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्रायः दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है; किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है।

प्रतीत्यसमुत्पाद

‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ से तात्पर्य एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति से है। प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी। सापेक्ष दृष्टि से वह संसार है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण। यह क्षणिकवाद की भाँति शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के मध्य का मार्ग है; इसीलिए इसे मध्यममार्ग कहा जाता है और इसको मानने वाले माध्यमिक।

इस चक्र के बारह क्रम हैं,जो एक दूसरे को उत्पन्न करने के कारण है; ये हैं-

1• अविद्या

2• संस्कार

3• विज्ञान

4• नाम-रूप

5• षडायतन

6• स्पर्श

7• वेदना

8• तृष्णा

9• उपादान

10• भव

11• जाति

12• जरा-मरण।

इन्हें भी देखें

प्रमुख बौद्ध दार्शनिक

बाहरी कड़ियाँ