अनत्त

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बौद्ध धर्म में, अनत्ता (पालि) या अनात्मन् (संस्कृत) बौद्ध धर्म का आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त है। इसके अनुसार आत्मा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है तथा यह पंच स्कन्धों का संघात (योग, जोड़) है। पंच स्कंद ये हैं- रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार। चूंकि बौद्ध धर्म में आत्मा को परिवर्तनशील माना गया है, अतः अन्य धर्मों (दर्शनों) में आत्मा के माने गये गुण (शाश्वत, नित्य, स्थाई, अजर, अमर आदि) प्रतिनिषिद्ध हैं।

दूसरे शब्दों में, अनत्त आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है किन्तु आत्मा को आत्मा न कह कर 'पञ्चस्कन्ध' कहते हैं। उनका कहना है कि आत्मा एक नहीं है बल्कि वह मानस प्रवृत्तियों का एक संघात मात्र है।

रूप : इन्द्रियों और विषयों को रूप कहते हैं। जिसके द्वारा विषय निरुपित होते हैं। वे इन्द्रियां रूप नाम से वाच्य हैं। जिनका निरुपण किया जाए वे विषय भी रूप कहलाते हैं। शरीर इन दोनों का ही नाम है। चक्षुरादि इन्द्रियां और उनके विषय आत्मा के प्रथम स्कन्ध है।

विज्ञान : अहं की अनुभूति और रूपादि विषयों का ज्ञान विज्ञान स्कन्ध कहा जाता है। यह विज्ञान एक प्रवाह है , कोई स्थायी तत्त्व नहीं है। एकता की प्रतीति भ्रांतिमूलक है। जिस प्रकार दीपशिक्षा क्षण-क्षण में भिन्न-भिन्न होते हुए भी ‘ यह वही है ’ ऐसी प्रतीति भ्रममूलक होती है। यह विज्ञान ही अन्य दर्शनों में जीव कहा जाता है। यह विज्ञान दो प्रकार का है - आलय विज्ञान और प्रवृत्ति विज्ञान। अहमाकरक ज्ञान आलय विज्ञान है। इसे बुद्धि या मन भी कहा जाता है। इसे आलय इसलिये कहते हैं यह धर्मों के बीजों का भण्डार है। चैत्त धर्म इसमें बीज रूप में अवस्थित रहते हैं और विज्ञान प्रवाह के रूप में बाहर निकलते हैं। प्रवृत्ति विज्ञान विषयों में प्रवृत्त होने वाला तथा पीतादि का उल्लेख करने वाला चित्त कहलाता है। यह प्रवृत्ति विज्ञान आलय विज्ञान से ही उत्पन्न होता है और उसी में लीन हो जाता है। यह प्रवृत्ति विज्ञान सात प्रकार का है - 1. चक्षु विज्ञान , 2. स्रोत विज्ञान , 3. घ्रण विज्ञान , 4. जिह्वा विज्ञान , 5. काय विज्ञान , 6. मनो विज्ञान तथा 7. क्लिष्ट मनोविज्ञान।

लंकावतारसूत्र में आलय विज्ञान और प्रवृत्ति विज्ञान को समुद्र और तरंगों के दृष्टान्त से समझाया गया है। आलय विज्ञान एक समुद्र के समान है जिसमें विषय पवन से झकझोरने पर सात प्रकार के प्रवृत्ति विज्ञान रूपी तरंगें निरन्तर नृत्य किया करती हैं।

वेदना : पूर्वोक्त रूप स्कन्ध और विज्ञान स्कन्ध के द्वारा जिन विषयों का ग्रहण किया जाता है , उससे सुख अथवा दुःख की अनुभूति होती है। प्रिय के स्पर्श से सुख और अप्रिय वस्तु के स्पर्श से दुःख होता है। सुख दुःख की इन प्रतीतियों का प्रवाह वेदना स्कन्ध कहलाता है। दूसरे शब्दों में सुख दुःख के द्वारा चित्त का परिणाम ही वेदना है।

संज्ञा : वस्तुओं को अच्छी प्रकार जानकर उनसे सुख - दुःख की वेदना को ग्रहण करने के पश्चात् हम वस्तुों का कुछ नाम रखते हैं। गौ, अश्व, घट, पट, आदि नामों का ज्ञान संज्ञा कहलाता है। नैयायिक जिसे सविकल्पक प्रत्यक्ष कहते हैं जिसमें वस्तु के नाम जाति गु्रप आदि का नाम होता है। बौद्ध दर्शन में उसे ही संज्ञा स्कन्ध कहा जाता है। विज्ञान और संज्ञा स्कन्ध में यही अन्तर है कि विज्ञा स्कन्ध तो अहं का विषयों का निर्विकल्पक ज्ञान मात्र है। उसके गुण , धर्म , जाति आदि का ज्ञान संज्ञा स्कन्ध में होता है।

संस्कार : उपर्युक्त चारों स्कन्धों के मन में राग या द्वेष का उदय होता है। उससे क्लेश उपक्लेश मद मनादि की लम्बी परम्परा प्रारम्भ हो जाती है। यही संस्कार स्कन्ध है। धर्माधर्म का प्रवाह भी संस्कार स्कन्ध के अंतर्गत ही आता है। अन्य भारतीय दर्शनों में पाप पुण्य रूप धर्माधर्म ही संस्कार कहलाते हैं। किन्तु बौद्ध मत में क्लेशों उपक्लेशों मदमान आदि को संस्कार माना गया है। इन संस्कारों का मुख्य जनक वेदना स्कन्ध ही है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

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