अनात्मवाद
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दर्शन में दो विचारधाराएँ होती हैं:
(1) आत्मवाद, जो आत्मा का अस्तित्व मानती है:
(2) अनात्मवाद, जो आत्मा का अस्तित्व नहीं मानती।
एक तीसरी विचारधारा नैरात्मवाद की भी है, जो आत्म-अनात्म से परे नैरात्मा को देवता की तरह मानती है। कुछ दर्शनों में आत्मवाद और अनात्मवाद का समन्वय भी पाया जाता है; यथा जैन दर्शन में। आत्मवाद ब्राह्मणपंरपरा या श्रौतदर्शन माना जाता है; अनात्मवाद के अंतर्गत चार्वाक के लोकायत और श्रमणपरंपरा के बौद्ध दर्शन का समावेश होता है। पुद्गल प्रतिषेधवाद और पुद्गल नैरात्मवाद भी इसके निकटतम दर्शनाम्नाय हैं।
चार्वाक दर्शन में परमात्म तथा आत्म दोनों तत्वों का निषेध है। वह विशुद्ध भौतिकवादी दर्शन है। किंतु समन्वयार्थी बुद्ध ने कहा कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार विज्ञान ये पाँच स्कंध आत्मा नहीं हैं। पाश्चात्य दर्शन में ह्यूम की स्थिति प्राय: इसी प्रकार की है; वहाँ कार्य-कारण-पद्धति का प्रतिबंध है और अंतत: सब क्षणिक संवेदनाओं का समन्वय ही अनुभव का आधार माना गया है। आत्मा स्कंधों से भिन्न होकर भी आत्मा के ये सब अंग कैसे होते हैं, यह सिद्ध करने में बुद्ध और परवर्ती बौद्ध नैयायिकों ने बहुत से तर्क प्रस्तुत किए हैं। बुद्ध कई अंतिम प्रश्नों पर मौन रहे। उनके शिष्यों ने उस मौन के कई प्रकार के अर्थ लगाए। थेरवादी नागसेन के अनुसार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का संघात मात्र आत्मा है। उसका उपयोग प्रज्ञप्ति के लिए किया जाता है। अन्यथा वह अवस्तु है। आत्मा चूँकि नित्य परिवर्तनशील स्कंध है, अत: आत्मा इन स्कंधों की संतानमात्र है। दूसरी ओर वात्सीपुत्रीय बौद्ध पुद्गलवादी हैं, इन्होंने आत्मा को पुद्गल या द्रव्य का पर्याय माना है। वसुबंधु ने 'अभिधर्मकोश' में इस तर्क का खण्डन किया और यह प्रमाण दिया कि पुद्गलवाद अन्ततः पुनः शाश्वतवाद की ओर हमें घसीट ले जाता है, जो एक दोष है। केवल हेतु प्रत्यय से जनित धर्म है, स्कंध, आयतन और धातु हैं, आत्मा नहीं है। सर्वास्तिवादी बौद्ध सन्तानवाद को मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा एक क्षण-क्षण-परिवर्ती वस्तु है। हेराक्लीतस के अग्नितत्व की भाँति यह निरन्तर नवीन होती जाती है। विज्ञानवादी बौद्धों ने आत्मा को आत्मविज्ञान माना। उनके अनुसार बुद्ध ने, एक ओर आत्मा की चिर स्थिरता और दूसरी ओर उसका सर्वथा उच्छेद, इन दो अतिरेकी स्थितियों से भिन्न मध्य का मार्ग माना। योगाचारियों के मत से आत्मा केवल विज्ञान है। यह आत्मविज्ञान विज्ञप्ति मात्रता को मानकर वेदान्त की स्थिति तक पहुँच जाता है। सौत्रांतिकों में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने-आत्मविज्ञान को ही सत् और ध्रुव माना, किन्तु नित्य नहीं।
पाश्चात्य दार्शनिकों में अनात्मवाद का अधिक तटस्थता से विचार हुआ, क्योंकि दर्शन और धर्म वहाँ भिन्न वस्तुएँ थीं। लॉक के संवेदनावाद से शुरु करके कांट ओर हेगेल के आदर्शवादी परा-कोटि-वाद तक कई रूप अनात्मवादी दर्शन ने लिए। परन्तु हेगेल के बाद मार्क्स, रोंगेतस आदि ने भौतिकवादी दृष्टिकोण से अनात्मवाद की नई व्याख्या प्रस्तुत की। परमात्म या अंशी आत्मतत्व के अस्तित्व को न मानने पर भी जीवजगत् की समस्याओं का समाधान प्राप्त हो सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
[संपादित करें]- राहुल सांकृत्यायन : दर्शनदिग्दर्शन;
- आचार्य नरेंद्रदेव : बौद्धधर्म दर्शन;
- भरतसिंह उपाध्याय : बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन;
- डॉ॰ देवराज : भारतीय दर्शन;
- बर्ट्रैड रसेल : हिस्ट्री ऑव वेस्टर्न फ़िलासफ़ी;
- एम.एन.रा : हिस्ट्री ऑव वेस्टर्न मैटीरियालिज्म
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- अनत्त (अनात्मवाद)