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*'''कीर्तिसगार का युद्ध'''
*'''कीर्तिसगार का युद्ध'''
1187 में पृथ्वीराज ने पुन महोबा पे हमला किया, कीर्तिसागर के समीप घमासान युद्ध हुआ जिसमें परमर्दीदेव ने पृथ्वीराज को पराजित कर उसे भागने पर विवश कर दिया {{sfn|M.S. Randhawa| Indian Sculpture: The Scene, Themes, and Legends |1985 | pp= 532}}<ref>Parmal Raso, Shyam sunder Das, 1919, 467 pages</ref><ref>Pandey(1993) pg197-332</ref>{{sfn|Parmaalraso|1189|p=Jagnikarao}}
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1195 सीई बटेश्वर शिलालेख में कहा गया है कि अन्य सामंती राजा उसके सामने झुके थे, और 1201 सीई कलंजरा शिलालेख उन्हें [[दशरन]] देश के स्वामी के रूप में वर्णित करता है।{{sfn|Sisirkumar Mitra|1977|p=126}}
1195 सीई बटेश्वर शिलालेख में कहा गया है कि अन्य सामंती राजा उसके सामने झुके थे, और 1201 सीई कलंजरा शिलालेख उन्हें [[दशरन]] देश के स्वामी के रूप में वर्णित करता है।{{sfn|Sisirkumar Mitra|1977|p=126}}



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परमर्दिदेव
श्रीमंत-चक्रवर्ती सम्राट
बालोपीनेता, परमभट्टरक, परमेश्वर, परमभागवत, महाराजाधिराज, महोबानरेश, माहिष्मतीनरेश, दहालाधिपति, श्रीकलंजराधिपति
चित्र:Last Chakravartin Rajput Emperor Paramardidev-Varman Chandel.jpg
चक्रवर्ती सम्राट परमर्दिदेव-वर्मन चन्देल
18वें चक्रवर्ती चन्देल सम्राट
शासनावधिc. 1165-1203 CE
पूर्ववर्तीयशोवर्मन द्वितीय
उत्तरवर्तीत्रैलोक्यवर्मन
जन्म19 जनवरी, 1160 ई0
महोबा, उत्तर प्रदेश
निधन14 अप्रैल, 1203 ई0
महोबा, कालिंजर दुर्ग, उत्तर प्रदेश
जीवनसंगीमल्हाना परिहार (प्रतिहार राजकुमारी)
संतानब्रम्हजीत, रणजीत, इंद्रजीत, नायकी देवी, त्रैलोक्यवर्मन (समरजीत)
पूरा नाम
श्रीमन्मत परमर्दीदेव-वर्मन चन्देल (प्रथम)
शासनावधि नाम
परमाल
घरानाहैहय, चन्द्रवंश
राजवंशचन्देल
पितायशोवर्मन द्वितीय
धर्मवैष्णव धर्म, हिंदू धर्म

परमर्दिदेव या परमर्दिदेव चन्देल (संस्कृत: परमर्दिदेववर्मन) (शासनकाल 1165-1203 इ0), परमाल के नाम से विख्यात अंतिम चक्रवर्ती पुरबिया राजपुत सम्राट थे। वो मध्य भारत के सबसे शक्तिशाली और महान सम्राटों में से एक थे। उनका जन्म चन्द्रवंशी हैहयकुल के चन्देल साम्राज्य में हुआ था। उन्होंने राजधानी महोबा, जेजाकभुक्ति, उत्तर प्रदेश से शासन किया था। 1182 ई0 में पृथ्वीराज ने महोबा के गढ़-सिरसा पर छापा मारा लेकिन महोबा के युद्ध में सेनापति आल्हा चन्देल से पराजित हुआ। 1187 इ0 में कीर्तिसागर के युद्ध में पृथ्वीराज परमर्दिदेव से परास्त हुए। 1203 ई0 के दौरान, कलंजर के घेराबंदी में परमर्दी ने गोरी आमिर कुतुब-उद-दीन ऐबक से अंत तक युद्ध किया, परंतु सेना समय पे न पहुंचने के कारण वो युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

निजी जीवन

महोबे के सम्राट परमर्दिदेव या परमाल का नाम समस्त उत्तर भारत में विख्यात है। सन् 1165 के लगभग सिंहासन पर बैठने के समय इसकी उम्र 5 साल रही होगी किंतु इसने राज्य को अच्छी तरह संभाला। वो बहुत ही उदार राजा थे। परमर्दिदेव का नियम था की वो गऊ दान तथा ब्राह्मण को भोजन कराकर ही भोजन करता था। परमर्दिदेव चन्देल ने उरई की लड़ाई जितने के बाद उरई के राजा वासुदेव प्रतिहार की पुत्री मल्हना से विवाह किया तथा उसकी बहन देवला और तिलका का विवाह अपने छोटे चचेरे भाई दसराज वनाफर (चन्देल) और वत्सराज वनाफर (चन्देल) से कराया।

सेमरा ताम्रपत्र शिलालेख में उसे ऐसे व्यक्ति के रूप में स्तुति करता है जो सुंदरता में मकरध्वज (प्रेम के देवता) से आगे निकल गया, गहराई में समुद्र, महिमा में स्वर्ग का स्वामी, बृहस्पति ज्ञान में, और युधिष्ठिर सच्चाई में। [3]

परमर्दिदेव शिव का भक्त और अच्छा कवि था। संभवत: वह अच्छा राजा तथा राजनीतिज्ञ रहा; किंतु यदि परंपरागत कथाओं और शिलालेखों पर विश्वास करें तो यह मानना पड़ेगा कि दुश्मनों पे भी उदारता ही उसका दोष था।

राजकाल

सम्राट बनने के बाद ही उसने अपने पिता के समय स्वतंत्र हुए राजाओं को पुन हराया था। दक्षिण और पूर्व भारत के भागों को जितने के बाद इसके केवल दो प्रतिद्वंदी थे, एक तो काशी के राजा जयचंद और दूसरा अजमेर का राजा पृथ्वीराज चौहान। परमर्दिदेव ने जयचंद से मित्रता की और पृथ्वीराज से संघर्ष किया।

इस महान योद्धा की प्रस्तुत जानकारी काव्य और शिलालेख के आधार पर प्रस्तुत की गई है। परमालरासो तथा आल्हाखंड के वर्णनों से यह निश्चित है कि चौहानों और चन्देलों का यह संघर्ष कुछ वर्षों तक चलता रहा और इसमें दोनों पक्षों की पर्याप्त हानि हुई। परमर्दिदेव के मुख्य सेनापति में से चन्देलवंशी बनाफर बंधु आल्हा, ऊदल, सुलखे मलखे एवम युवराज ब्रम्हजित चन्देल थे। यह विनाशकारी युद्ध महोबा एवं कीर्तिसागर के युद्ध में चौहानों की हार और चन्देलो की विजय पर खत्म हुआ।

चित्र:Chandel Empire around 1202 A.D.jpg

परमर्दिदेव के शासनकाल के पहले कुछ वर्षों के शिलालेख सेमरा (1165-1166 सीई), महोबा (1166-1167 सीई), इछावर (1171 सीई), महोबा (1173 सीई) में पाए गए हैं। पचर (1176 सीई) और चरखारी (1178 सीई)।[4] ये सभी शिलालेख उनके लिए शाही उपाधियों का उपयोग करते हैं: बालोपनाता-परमभट्टरक-महाराजाधिराज-परमेश्वर परम-महेश्वर श्री-कलंजराधिपति चक्रवर्ती सम्राट श्रीमनमत परमर्दी-देव-वर्मन। यह इंगित करता है कि अपने शासनकाल के प्रारंभिक भाग में, परमर्दी-देव ने अपने दादा मदनवर्मन से विरासत में प्राप्त साम्राज्य को बरकरार रखा था। [5][6]

समयकालीन ग्रंथ

परमर्दिदेव शक्तिशाली चन्देल शासकों में से एक थे, और कई पौराणिक ग्रंथों जैसे परमाल रासो, में उल्लेख किया गया है। आल्हाखंड की अधिकांश सामग्री पृथ्वीराज चौहान और परमर्दिदेव को महिमामंडित करने के लिए लिखी गई है। इस प्रकार, ये ग्रंथ संदिग्ध ऐतिहासिकता के हैं, परमर्दिदेव का अधिकांश शासनकाल अस्पष्टता में डूबा हुआ है।[3][6]

चौहान-चन्देल युद्ध

  • कारण

मध्ययुगीन गाथागीतों के अनुसार, पृथ्वीराज पद्मसेन की बेटी से शादी करके दिल्ली लौट रहे थे। इस यात्रा के दौरान उस पर तुर्क सेना ( घुरिद) द्वारा हमला किया गया था। चौहान सेना हमलों को खदेड़ने में कामयाब रही, लेकिन इस प्रक्रिया में गंभीर हताहत हुए। वे अपना रास्ता भटक गए, और चंदेल साम्राज्य की राजधानी महोबा में पहुंच गए। चौहान सेना, जिसमें कई घायल सैनिक थे, ने अनजाने में चंदेला शाही उद्यान में एक शिविर स्थापित कर दिया। उन्होंने बगीचे के रखवाले को उनकी उपस्थिति पर आपत्ति करने के लिए मार डाला। जब परमार्दी को इस बात का पता चला तो उन्होंने चौहान सेना का मुकाबला करने के लिए कुछ सैनिकों को भेजा। आगामी संघर्ष में चंदेलों को भारी नुकसान हुआ। तब परमर्दिदेव ने पृथ्वीराज के खिलाफ अपने सेनापति उदल के नेतृत्व में एक और सेना भेजने का फैसला किया। उदल ने इस प्रस्ताव के खिलाफ सलाह देते हुए तर्क दिया कि घायल सैनिकों पर हमला करना या पृथ्वीराज का विरोध करना उचित नहीं होगा इतनी सी बात पर। हालाँकि, सम्राट परमर्दिदेव अपने बहनोई माहिल परिहार (प्रतिहार) के प्रभाव में थे, जिन्होंने चन्देलो के खिलाफ गुप्त रूप से दुर्भावना को बरकरार रखा था। माहिल ने परमर्दिदेव को हमले की योजना पर आगे बढ़ने के लिए उकसाया।

  • सेनाओं के मध्य युद्ध

उदल के नेतृत्व में चन्देल सेना ने फिर चौहान सेना के खिलाफ दूसरा हमला किया, लेकिन हार गई। स्थिति तब शांत हुई जब पृथ्वीराज दिल्ली के लिए रवाना हुए।[7]

चित्र:Chandelas defeating Chahamanas under Paramardi.jpg

माहिल परिहार की राजनीतिक साजिश को सहन करने में असमर्थ, उदल और उनके भाई आल्हा ने चन्देल दरबार छोड़ दिया। उन्होंने जयचंद, गहदवाला कन्नौज के शासक के साथ शरण ली।[7] माहिल ने तब पृथ्वीराज चौहान को एक गुप्त संदेश भेजा, जिसमें उन्हें सूचित किया गया था कि परमर्दिदेव के सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों ने महोबा छोड़ दिया है। उसके द्वारा उकसाया गया।

  • सिरसागढ़ का प्रथम युद्ध

पृथ्वीराज 1182 ईस्वी में दिल्ली से निकला और ग्वालियर और बटेश्वर के रास्ते चन्देल साम्राज्य की ओर बढ़ा। सबसे पहले, उसने सिरसागढ़ को घेर लिया, जो कि आल्हा और उदल के चचेरे भाई मलखान के पास था। पृथ्वीराज ने मलखान को जीतने की कोशिश की, लेकिन मलखान परमर्दी के प्रति वफादार रहे और आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़े। मलखान द्वारा आक्रमणकारी सेना के आठ सेनापतियों के मारे जाने के बाद, पृथ्वीराज ने स्वयं युद्ध की कमान संभाली। चन्देल सिरसागढ़ का युद्ध युद्ध हार गए, और सेनापति मलखान (मलखे) चन्देल मारा गया।

पृथ्वीराज एवं परमर्दिदेव का युद्ध

  • दिल्ली का युद्ध

दिल्ली के युद्ध में परमर्दी-देव के पुत्र ब्रह्मजित और भतीजे आल्हा ने चौहानों को हराया और ब्रह्मजीत ने बेला चौहान (पृथ्वीराज III की पुत्री) से शादी की।[8][9][10]

  • महोबा का युद्ध

इसके बाद पृथ्वीराज ने चन्देलो की राजधानी महोबा पे हमला कर दिया, घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में चन्देल पक्ष से युवराज ब्रम्हजित, ऊदल, जयचंद्र के 2 पुत्र एक भतीजे मारे गए। महोबा के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान चन्देलो से बुरी तरह पराजित हुआ। युद्ध में उसकी पूरी सेना खत्म हो गई। सेनापति आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे लेकिन लेकिन वही महाराज परमर्दिदेव ने पृथ्वीराज के 5 पुत्रो को बंदी बना के ब्रम्हा की विधवा पत्नी बेला के सामने रख दिया, जिसके बाद चौहान राजकुमारी बेला ने उनका सर काट दिया और वो अपने पति ब्रम्हजित के साथ सती हो गई। ये सब देखने के बाद पृथ्वीराज अपनी जान बचाके महोबा से भाग गया और जाके मदनपुर के समीप कही छुप गया फिर वही से अपने ननिहाल के रास्ते दिल्ली गया। [9][8][11]

  • कीर्तिसगार का युद्ध

1187 में पृथ्वीराज ने पुन महोबा पे हमला किया, कीर्तिसागर के समीप घमासान युद्ध हुआ जिसमें परमर्दीदेव ने पृथ्वीराज को पराजित कर उसे भागने पर विवश कर दिया [12][13][14][10] 1195 सीई बटेश्वर शिलालेख में कहा गया है कि अन्य सामंती राजा उसके सामने झुके थे, और 1201 सीई कलंजरा शिलालेख उन्हें दशरन देश के स्वामी के रूप में वर्णित करता है।[15]

बाद के दिन और मृत्यु

एक कलंजर शिलालेख के अनुसार, जबकि परमर्दिदेव के पूर्ववर्तियों में से एक ने सांसारिक शासकों की पत्नियों को कैद कर लिया था, परमर्दिदेव वीर ने दैवीय शासकों को भी अपनी पत्नियों की सुरक्षा के लिए चिंतित कर दिया। नतीजतन, देवताओं ने उसके खिलाफ मलेच्छस (विदेशियों) की एक सेना को छोड़ दिया, और उसे हार का सामना करना पड़ा।[16]

पृथ्वीराज चौहान 1192 ईस्वी में घुरिद के खिलाफ तराइन की दूसरी लड़ाई में मारा गया था। चौहान (चौहान) और गढ़वाला को हराने के बाद, दिल्ली के घुरीद राज्यपाल ने चन्देल साम्राज्य पर आक्रमण की योजना बनाई। सन् १२०२ में कुत्बुद्दीन ने कई अन्य अमीरों का साथ लेकर कालिंजर पर आक्रमण किया। परमर्दिदेव ने कुछ समय तक घेरे में रहते हुए युद्ध किया किंतु अंत में वो वीरगति को प्राप्त हुआ परंतु उसकी मृत्यु के बाद प्रधानामात्य अजय देव वशिष्ठ ने कुछ समय तक महोबा के सेना के साथ मुसलमानों का सामना किया परंतु मारा गया। सम्राट परमर्दिदेव का एक भृगुवंशी ब्राह्मण सेनापति चित्रगंध था जिसके पिता सेनापति ढेवा ने सम्राट परमार्दिदेव के साथ मिलके चौहानों को सीमा खदेड़ते वक्त धोखे से मारा गया। पिता की मृत्यु के बाद चित्रगंध को परमर्दिदेव ने अपने पुत्र समान ही पाला था, कहा जाता है की युद्ध में परमर्दिदेव की मृत्यु के बाद चित्रगंध को एहसास हो गया था की महोबा की सेना सम्राट के बिना नही जीत पाएगी इसलिए उसने परमर्दिदेव के आठ वर्षीय घायल पुत्र समरजीत को खजुराहों की कंदरा में धन के साथ छुपा दिया था। वही समरजीत बड़ा हो कर त्रैलोक्यवर्मन चन्देल के नाम से विख्यात हुआ और अपनी पिता और प्रजा की हत्या का प्रतिशोध किरतसागर को घुरीदो के खून से भरके लिया और विंध्याचल से यमुना तक चंदेल राज्य बना लिया।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • पृथ्वीराज रासो, महोबा खंड;
  • आल्हा खंड;
  • शिशिरकुमार मित्र, अर्ली रूलर्स ऑफ खजुराहो,
  • दशरथ शर्मा, प्राचीन चौहान राजवंश।
  1. Chandra, Satish (2007). History of Medieval India: 800-1700 (अंग्रेज़ी में). Orient BlackSwan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-250-3226-7.
  2. Chandra, Satish (2007). History of Medieval India: 800-1700 (अंग्रेज़ी में). Orient BlackSwan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-250-3226-7.
  3. R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 141.
  4. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 119.
  5. Parmaalraso 1187, पृ॰ 340.
  6. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 120.
  7. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 121.
  8. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 125.
  9. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 122.
  10. Parmaalraso 1189, पृ॰ Jagnikarao.
  11. Mohinder Singh Randhawa & Indian Council of Agricultural Research 1980, पृ॰प॰ 472.
  12. M.S. Randhawa & Indian Sculpture: The Scene, Themes, and Legends 1985, पृ॰प॰ 532.
  13. Parmal Raso, Shyam sunder Das, 1919, 467 pages
  14. Pandey(1993) pg197-332
  15. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 126.
  16. R. K. Dikshit 1976, पृ॰ 143.