सामग्री पर जाएँ

भारतीय स्थापत्यकला

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
अजन्ता गुफा २६ का चैत्य

भारत के स्थापत्य की जड़ें यहाँ के इतिहास, दर्शन एवं संस्कृति में निहित हैं। भारत की वास्तुकला यहाँ की परम्परागत एवं बाहरी प्रभावों का मिश्रण है।

भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता, तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं।

'वास्तु' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वस्' धातु से हुई है जिसका अर्थ 'बसना' होता है। चूंकि बसने के लिये भवन की आवश्यकता होती है अतः 'वास्तु' का अर्थ 'रहने हेतु भवन' है। 'वस्' धातु से ही वास, आवास, निवास, बसति, बस्ती आदि शब्द बने हैं।

सिन्धुघाटी का स्थापत्य

[संपादित करें]
मोहनजोदड़ो में खुदाई से प्राप्त विशाल स्नानागार

दो-तीन हजार वर्ष ई. पू. विकसित सिंधु घाटी सभ्यता की खोज से एक आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आया है कि भारत की प्राचीनतम कला सौंदर्य की दृष्टि से ऐसी ही शून्य थी, जैसी आजकल की कोई भी सभ्यता। जब आजकल की कोई भी सभ्यता जागरण की अँगड़ाई भी न ले पाई थी तब भारत की यह कला इतनी विकसित थी। इन बस्तियों के निर्माताओं का नगर नियोजन संबंधी ज्ञान इतना परिपक्व था, उनके द्वारा प्रयुक्त सामग्री ऐसी उत्कृष्ट कोटि की थी और रचना इतनी सुदृढ़ थी कि उस सभ्यता का आरंभ बहुत पहले, लगभग चार पाँच हजार वर्ष, ईसा पूर्व, मानने को बाध्य हो पड़ता है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाइयों से प्राप्त अवशेष तत्कालीन भौतिक समृद्धि के सूचक हैं और उनमें किसी मंदिर, देवालय आदि के अभाव से यह अनुमान होता है कि वहाँ धार्मिक विचारों का कुछ विशेष स्थान न था, अथवा यदि था तो वह निराकार शक्ति में आस्था के रूप में ही था। फिर भी, विलक्षण प्रतिभा और उत्कृष्ट वास्तुकौशल से आद्योपांत परिप्लावित भारतीय जनजीवन के इतिहास का ऐसा आडंबरहीन आरंभ आश्चर्यजनक होने के साथ-साथ और अधिक गवेषण की अपेक्षा रखता है, जिससे आर्य सभ्यता से, जो इससे भी प्राचीन मानी जाती है, इसका संबंध जोड़नेवाली कड़ी का पता लग सके।

प्राचीन भारतीय स्थापत्य

[संपादित करें]
आदिनातह् को समर्पित रनकपुर के जैन मन्दिर में वास्तुकला का नमूना
आबू पर्वत पर स्थित देलवाड़ा जैन मंदिर
खजुराहो का कन्दारिया महादेव मंदिर
मदुरै का मीनाक्षी मंदिर

सीमित आवश्यकताओं में विश्वास रखनेवाले, अपने कृषिकर्म और आश्रमजीवन से संतुष्ट आर्य प्राय: ग्रामवासी थे और शायद इसीलिए, अपने परिपक्व विचारों के अनुरूप ही, समसामयिक सिंधु घाटी सभ्यता के विलासी भौतिक जीवन की चकाचौंध से अप्रभावित रहे। कुछ भी हो, उनके अस्थायी निवासों से ही बाद के भारतीय वास्तु का जन्म हुआ प्रतीत होता है। इसका आधार धरती में और विकास वृक्षों में हुआ, जैसा वैदिक वाङ्मय में महावन, तोरण, गोपुर आदि के उल्लेखों से विदित होता है। अत: यदि उस अस्थायी रचनाकाल की कोई स्मारक कृति आज देखने को नहीं मिलती, तो कोई आश्चर्य नहीं।

धीरे-धीरे नगरों की भी रचना हुई और स्थायी निवास भी बने। बिहार में मगध की राजधानी राजगृह शायद 8वीं शती ईसा पूर्व में उन्नति के शिखर पर थी। यह भी पता लगता है कि भवन आदिकालीन झोपड़ियों के नमूने पर प्रायः गोल ही बना करते थे। दीवारों में कच्ची ईंटें भी लगने लगी थीं और चौकोर दरवाजे खिड़कियाँ बनने लगी थीं। बौद्ध लेखक धम्मपाल के अनुसार, पाँचवीं शती ईसा पूर्व में महागोविन्द नामक स्थपति ने उत्तर भारत की अनेक राजधानियों के विन्यास तैयार किए थे। चौकोर नगरियाँ बीचोबीच दो मुख्य सड़कें बनाकर चार चार भागों में बाँटी गई थीं। एक भाग में राजमहल होते थे, जिनका विस्तृत वर्णन भी मिलता है। सड़कों के चारों सिरों पर नगरद्वार थे। मौर्यकाल (4थी शती ई. पू.) के अनेक नगर कपिलवस्तु, कुशीनगर, उरुबिल्व आदि एक ही नमूने के थे, यह इनके नगरद्वारों से प्रकट होता है। जगह-जगह पर बाहर निकले हुए छज्जों, स्तंभों से अलंकृत गवाक्षों, जँगलों और कटहरों से बौद्धकालीन पवित्र नगरियों की भावुकता का आभास मिलता है।

राज्य का आश्रय पाकर अनेक स्तूपों, चैत्यों, बिहारों, स्तम्भों, तोरणों और गुफामंदिरों में वास्तुकला का चरम विकास हुआ। तत्कालीन वास्तुकौशल के उत्कृष्ट उदाहरण पत्थर और ईंट के साथ-साथ लकड़ी पर भी मिलते हैं, जिनके विषय में सर जॉन मार्शल ने "भारत का पुरातात्विक सर्वेक्षण, 1912-13" में लिखा है कि "वे तत्कलीन कृतियों की अद्वितीय सूक्ष्मता और पूर्णता का दिग्दर्शन कराते हैं। उनके कारीगर आज भी यदि संसार में आ सकते, तो अपनी कला के क्षेत्र में कुछ विशेष सीखने योग्य शायद न पाते"। साँची, भरहुत, कुशीनगर, बेसनगर (विदिशा), तिगावाँ (जबलपुर), उदयगिरि, प्रयाग, कार्ली (मुम्बई), अजन्ता, इलोरा, विदिशा, अमरावती, नासिक, जुनार (पूना), कन्हेरी, भुज, कोंडेन, गांधार (वर्तमान कंधार-अफगानिस्तान), तक्षशिला पश्चिमोत्तर सीमान्त में चौथी शती ई. पू. से चौथी शती ई. तक की वास्तुकृतियाँ कला की दृष्टि से अनूठी हैं। दक्षिण भारत में गुंतूपल्ले (कृष्ण जिला) और शंकरन् पहाड़ी (विजगापट्टम् जिला) में शैलकृत्त वास्तु के दर्शन होते हैं। साँची, नालन्दा और सारनाथ में अपेक्षाकृत बाद की वास्तुकृतियाँ हैं।

पाँचवीं शती से ईंट का प्रयोग होने लगा। उसी समय से ब्राह्मण प्रभाव भी प्रकट हुआ। तत्कालीन ब्राह्मण मंदिरों में भीटागाँव (कानपुर जिला), बुधरामऊ (फतेहपुर जिला), सीरपुर और खरोद (रायपुर जिला), तथा तेर (शोलापुर के निकट) के मंदिरों की शृंखला उल्लेखनीय है। भीटागाँव का मंदिर, जो शायद सबसे प्राचीन है, 36 फुट वर्ग के ऊँचे चबूतरे पर बुर्ज की भाँति 70 फुट ऊँचा खड़ा है। बुधरामऊ का मंदिर भी ऐसा ही है। अन्य हिंदू मंदिरों की भाँति इनमें मण्डप आदि नहीं है, केवल गर्भगृह हैं। भीतर दीवारें यद्यपि सादी हैं, तथापि उनमें पट्टे, किंगरियाँ, दिल्हे, आले आदि, रचना की कुछ विशिष्टताएँ इमारतों की प्राचीनता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनके विभिन्न भागों का अनुपात सुंदर है और वास्तु प्रभाव कौशलपूर्ण। आलों में बौद्धचैत्यों की डाटों का प्रभाव अवश्य पड़ा दिखाई पड़ता है। इनकी शैलियों का अनुकरण शताब्दियों बाद बननेवाले मंदिरों में भी हुआ है।

हिंदू वास्तुकौशल का विस्तार महलों, समाधियों, दुर्गों, बावड़ियों और घाटों में भी हुआ, किन्तु देश भर में बिखरे मंदिरों में यह विशेष मुखर हुआ है। गुप्तकाल (350-650 ई.) में मंदिरवास्तु के स्वरूप में स्थिरता आई। ७वीं शती के अंत में शिखर महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंग समझा जाने लगा। मंदिरवास्तु में उत्तर की ओर आर्य शैली और दक्षिण की ओर द्रविड़ शैली स्पष्ट दीखती है। ग्वालियर के "तेली का मंदिर" (११वीं शती) और भुवनेश्वर के "बैताल देवल मंदिर" (९वीं शती) उत्तरी शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं और सोमंगलम्, मणिमंगलम् आदि के चोल मंदिर (११वीं शती) दक्षिणी शैली का। किंतु ये शैलियाँ किसी भौगोलिक सीमा में बँधी नहीं हैं। चालुक्यों की राजधानी पट्टदकल के दस मंदिरों में से चार (पप्पानाथ - 680 ई., जंबुलिंग, करसिद्धेश्वर, काशीविश्वनाथ) उत्तरी शैली के और छह (संगमेश्वर - 75 ई., विरूपाक्ष - 740 ई., मल्लिकार्जुन-740 ई., गलगनाथ-740 ई., सुनमेश्वर और जैन मंदिर) दक्षिणी शैली के हैं। 10 वीं - 11 वीं शती में पल्लव, चोल, पांड्य, चालुक्य और राष्ट्रकूट सभी राजवंशों ने दक्षिणी शैली का पोषण किया। दोनों ही शैलियों पर बौद्ध वास्तु का प्रभाव है, विशेषकर शिखरों में।

भारत की ऐतिहासिक इमारतों की माया और रहस्य के पीछे अनेक किंवदंतियाँ हैं। मध्य भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ मंदिर एक काल्पनिक राजकुमार जनकाचार्य द्वारा बनाए कहे जाते हैं, जिसे ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त स्वरूप बीस वर्ष इस काम में लगाने पड़े थे। एक अन्य किंवदंति के अनुसार ये असाधारण इमारतें एक ही रात में पाण्डवों न खड़ी की थीं। उत्तरी गुजरात का विशाल मंदिर (1125 ई.) गुजरात-नरेश सिद्धराज द्वारा और खानदेश के मंदिर गवाली राजवंश द्वारा निर्मित कह जाते हैं। दक्षिण के अनेक मंदिर राजा रामचंद्र के मंत्री हेमदपन्त के धार्मिक उत्साह से बने कहे जाते हैं और 13वीं शती के कुछ मंदिरों की शैली ही हेमदपन्ती कहलाने लगी है। इसे अज्ञात निर्माताओं की शालीनता कहें, या ऐतिहासिक तमिस्र, किंतु इसमें सन्देह नहीं कि मंदिरवास्तु, जिसे अनूठे उदाहरण भुवनेश्वर के लिंगराज (1000 ई.), मुक्तेश्वर (975 ई.), ब्रह्मेश्वर (1075 ई.), रामेश्वर (1075 ई.), परमेश्वर, उत्तरेश्वर, ईश्वरेश्वर, भरतेश्वर, लक्ष्मणेश्वर आदि मंदिर, कोणार्क का सूर्यमंदिर, ममल्लिपुरम् के सप्तरथ, कांचीवरम् का कैलाशनाथ मंदिर, श्री निवासनालुर (त्रिचनापल्ली जिला) का कोरंगनाथ मंदिर, त्रिचनापल्ली का जम्बुकेश्वर मंदिर, दारासुरम् (तंजौरजिला) का ऐरावतेश्वर मंदिर, तंजौर के सुब्रह्मण्यम् एवं बृहदेश्वर मंदिर, विजयनगर का विट्ठलस्वामी मंदिर (16 वीं शती), तिरुवल्लूर एवं मदुरा के विशाल मंदिर, त्रावनकोर का शचीन्द्रम् मंदिर (16 वीं शती), रामेश्वर के विशाल मंदिर (17 वी शती) वेलूर (मैसूर) का चन्नकेशव मंदिर (12 वीं शती), सोमनाथपुर (मैसूर) का केशव मंदिर (1268 ई.), पुरी का जगन्नाथ मंदिर (1100 ई.), खजुराहो की आदिनाथ, विश्वनाथ, पार्श्वनाथ और कंदरिया महादेव मंदिर, किरादू (मेवाड़) के शिव मंदिर (11 वीं शती), आबू के तेजपाल (13 वीं शती) तथा विमल मंदिर (11 वी शती), ग्वलियर का सासबहू मंदिर एवं उदयेश्वर मंदिर (दोनों 11 वीं शती) सेजाकपुर (काठियावाड़) का नवलखा मंदिर (11 वीं शती), पट्टन का सोमनाथ मंदिर (12 वीं शती), मोधेरा (बड़ोदा) का सूर्य मंदिर (11 वीं शती), अंबरनाथ (थानाजिला) का महादेव मंदिर (11 वीं शती), जोगदा (नासिक जिला) का मानकेश्वर मंदिर, मथुरा वृंदावन का गोविंददेव मंदिर (1590 ई.), शत्रुंजय पहाड़ी (काठियावाड़) के जैन मंदिर, रणपुर (सादरी जोधपुर) का आदिनाथ मंदिर (1450 ई.) आदि आदि देश भर में बिखरे पड़े हैं, जो भव्यता, विशालता, उत्कृष्टता और सर्थकता सभी दृष्टियों से अनुपम है। देश में साथ साथ विकसित होते हुए बौद्धवास्तु, जैन वास्तु, हिंदू वास्तु, तथा द्रविण वास्तु की ये झाँकियाँ विशाल भारत की परंपरागत धार्मिक सहिष्णुता का प्रमाण हैं।

मध्यकालीन मुस्लिम वास्तु

[संपादित करें]
यमुना के दूसरे पार से ताजमहल का दृष्य

वास्तुकला पर मुसलमानों के आक्रमण का जितना प्रभाव भारत में पड़ा उतना अन्यत्र कहीं नहीं, क्योंकि जिस सभ्यता से मुस्लिम सभ्यता की टक्कर हुई, किसी से उसका इतना विरोध नहीं था जितना भारतीय सभ्यता से। चिर प्रतिष्ठित भारतीय सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों की तुलना में मुस्लिम सभ्यता बिलकुल नई तो थी ही, उसके मौलिक सिद्धात भी भिन्न थे। दोनों का संघर्ष यथार्थवाद का आदर्शवाद से, वास्तविकता का स्वप्नदर्शिता से और व्यक्त का अव्यक्त से संघर्ष था, जिसका प्रमाण मस्जिद और मंदिर के भेद में स्पष्ट है। मस्जिदें खुली हुई होती हैं, उनका केंद्र सुदूर मक्का की दिशा में होता है; जबकि मंदिर रहस्य का घर होता है, जिसका केंद्र अनेक दीवारों एवं गलियारों से घिरा हुआ बीच का देवस्थान या गर्भगृह होता है। मजिस्द की दीवारें प्राय: सादी या पवित्र आयतों से उत्कीर्ण होती हैं, उनमें मानव आकृतियों का चित्रण निषिद्ध होता है; जबकि मंदिरों की दीवारों में मूर्तिकला और मानवकृति चित्रण उच्चतम शिखर पर पहुँचा, पर लिखाई का नाम न था। पत्थरों के सहल रंगों में ही इस चित्रण द्वारा मंदिरों की सजीवता आई; जबकि मस्जिदों में रंगबिरंगे पत्थरों, संगमर्मर और चित्र विचित्र पलस्तर के द्वारा दीवारें मुखर की गई।

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर एक ही प्रकार की भारी भरकम संरचनाएँ खड़ी करने में सिद्धहस्त, भारतीय कारीगरों की युगों युगों से एक ही लीक पर पड़ी, निष्प्रवाह प्रतिभा, विजेताओं द्वारा अन्य देशों से लाए हुए नए सिद्धांत, नई पद्धतियाँ और नई दिशा पाकर स्फूर्त हो उठी। फलस्वरूप धार्मिक इमारतों, जैसे मस्जिदों, मकबरों, रौजों और दरगाहों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की धर्मनिरपेक्ष इमारतें भी, जैसे महल, मंडप, नगरद्वार, कूप, उद्यान और बड़े बड़े किले, यहाँ तक कि सारा शहर घेरनेवाले परकोटे तक तैयार हुए। देश में उत्तर से दक्षिण तक जैसे जैसे मुस्लिम प्रभत्व बढ़ता गा, वास्तुकला का युग भी बदलता गया।

मुस्लिम वास्तु के चार चरण

[संपादित करें]

मुस्लिम वास्तु के तीन क्रमिक चरण स्पष्ट हैं। पहला चरण, जो बहुत थोड़े समय रहा, विजयदर्प और धर्मांधता से प्रेरित "निर्मूलन" का था, जिसके बारे में हसन निज़ामी लिखता है कि प्रत्येक किला जीतने के बाद उसके स्तंभ और नींव तक महाकाय हाथियों के पैरों तले रौंदवाकर धूल में मिला देने का रिवाज था। अनेक दुर्ग, नगर और मंदिर इसी प्रकार अस्तित्वहीन किए गए। तदनंतर दूसरा चरण सोद्देश्य और आंशिक विध्वंस का आया, जिसमें इमारतें इसलिए तोड़ी गईं कि विजेताओं की मस्जिदों और मकबरों के लिए तैयार माल उपलब्ध हो सके। बड़ी-बड़ी धरनें और स्तम्भ अपने स्थान से हटाकर नई जगह ले जाने के लिए भी हाथियों का ही प्रयोग हुआ। प्रय: इसी काल में मंदिरों को विशेष क्षति पहुँची, जो विजित प्रांतों की नई नई राजधानियों के निर्माण के लिए तैयार माल की खान बन गए और उत्तर भारत से हिंदू वास्तु की प्राय: सफ़ाई ही हो गई। अंतिम चरण तब आरंभ हुआ, जब आक्रांता अनेक भागों में भली भाँति जग गए थे और उन्होंने प्रत्यवस्थापन के बजाय योजनाबद्ध निर्माण द्वारा सुविन्यस्त और उत्कृष्ट वास्तुकृतियाँ वस्तुत कीं।

मुस्लिम वास्तु की तीन शैलियाँ

[संपादित करें]

शैलियों की दृष्टि से भी मुस्लिम वास्तु के तीन वर्ग हो सकते हैं। पहली दिल्ली शैली, अथवा शहंशाही शैली है, जिसे प्राय: "पठान वास्तु" (1193-1554) कहते हैं (यद्यपि इसके सभी पोषक "पठान" नहीं थे)। इस वर्ग में दिल्ली की कुतुबमीनार (1200), सुल्तान गढ़ी (1231), अल्तमश का मकबरा (1236), अलाई दरवाज़ा (1305), निजामुद्दीन (1320), गयासुद्दीन तुगलक (1325) और फीरोजशाह तुगलक (1388) के मकबरे, कोटला फीरोजशाह (1354-1490), मुबारकशाह का मकबरा (1434), मेरठ की मस्जिद (1505), शेरशाह की मस्जिद (1540-45) सहसराम का शेरशाह का मकबरा (1540-45) और अजमेर का अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (1205) आदि उल्लेखनीय हैं।

दूसरे वर्ग में प्रांतीय शैलियाँ हैं। इनमें पंजाब शैली (1150-1325 ई.); जैसे मुल्तान के श्रकने आलम (1320) और शाहयूसुफ गर्दिजी (1150), तब्रिजी (1276), बहाउलहक (1262) के मकबरे; बंगाल शैली (1203-1573) : जैसे पंडुआ की अदीना मस्जिद (1364), गौर के फतेहखाँ का मकबरा (1657), कदम रसूल (1530), तांतीमारा मस्जिद (1475); गुजरात शैली (1300-1572) : जैसे खंबे (1325), अहमदाबाद (1423), भड़ोच और चमाने (1523) की जामा मस्जिदें, नगीना मस्जिद मकबरा (1525); जौनपुर शैली (1376-1479) : जैसे अटाला मस्जिद (1408), लाल दरवाजा मस्जिद (1450), जामा मस्जिद (1470); मालवा शैली (1405-1569) : जैसे माडू के जहाजमहल (1460), होशंग का मकबरा (1440), जामा मस्जिद (1440), हिंडोला महल (1425), धार की लाट मस्जिद (1405), चंदेरी का बदल महल फाटक (1460), कुशक महल (1445), शहज़ादी का रौजा (1450); दक्षिणी शैली (1347-1617) : जैसे गुलबर्ग की जामा मस्जिद (1367) और हफ्त गुंबज (1378), बीदर का मदरसा (1481), हैदराबाद की चारमीनार (1591) आदि; बीजापुर खानदेश शैली (1425-1660), जैसे बीजापुर के गोलगुंबज (1660), रौजा इब्राहीम (1615) और जामा मस्जिद (1570), थालनेर खानदेश के फारूकी वंश के मकबरे (15 वीं शती); और कश्मीर शैली (15-17 वीं शती) : जैसे श्रीनगर की जामा मस्जिद (1400), शाह हमदन का मकबरा (17 वीं शती) आदि, सम्मिलित हैं।

तीसरे वर्ग में मुगल शैली आती है, जिसके उत्कृष्टतम नमूने दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, लाहौर आदि में किलों, मकबरों, राजमहलों, उद्यान मंडपों आदि के रूप में मौजूद हैं। इसी काल में कला पत्थर से बढ़कर संगमर्मर तक पहुँची और दिल्ली के दीवाने खास, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद और आगरा के ताजमहल जैसी विश्वविश्रुत कृतियाँ तैयार हुई।

बृहत्तर भारत का वास्तु

[संपादित करें]
भक्तपुर (नेपाल) का पगोडा शैली का मन्दिर (१७०२-१७०८); इसमें मण्डप नहीं है जो अन्य मंदिरों में प्रायह होता हि।

अंकोरवाट मंदिर देखें।

भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने भारत के बाहर श्रीलंका, नेपाल, बरमा, स्याम, जावा, बाली, हिंदचीन और कंबोडिया में भी मिलते हैं। नेपाल के शंभुनाथ, बोधनाथ, मामनाथ मंदिर, लंका में अनुराधापुर का स्तूप और लंकातिलक मंदिर, बरमा के बौद्ध मठ और पगोडा, कंबोडिया में अंकोर के मंदिर, स्याम में बैंकाक के मंदिर, जावा में प्रांबनाम का बिहार, कलासन मंदिर और बोरोबंदर स्तूप आदि हिंदू और बौद्ध वास्तु के व्यपक प्रसार के प्रमाण हैं। जावा में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के कुछ प्रमाण 4 वी शती ईसवी के मिलते हैं। वहाँ के अनेक स्मारकों से पता लगता है कि मध्य जावा में 625 से 928 ई. तक वास्तुकला का स्वर्णकाल और पूर्वी जावा में 928 से 1478 ई. तक रजतकाल था।

बीसवीं शती का वास्तु

[संपादित करें]
सचिवालय, नयी दिल्ली

सन् 1911 ई. में ब्रिटिश राज्य उन्नति के शिखर पर था। उसी समय दिल्ली दरबार में घोषणा की गई और साम्राज्य की राजधानी के अनुरूप एक नई दिल्ली में और सारे भारत के जिला सदर स्थानों तक में, सुंदर इमारतें बनवाई, जिनमें अनेक कार्यालय भवन, गिरजे और ईसाई कब्रिस्तान कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। सरकारी प्रयास से नई दिल्ली में राजभवन (अब राष्ट्रपति भवन), सचिवालय भवन, संसद् भवन जैसी भव्य इमारतें बनीं, जिनमें पाश्चात्य कला के साथ हिंदू, बौद्ध और मुस्लिम कला का सुखद सम्मिश्रण दिखाई देता है।

मंदिर वास्तु भी, जो केवल व्यक्तिगत प्रयास से अपना अस्तित्व बनाए रहा, कुछ कुछ इसी दिशा में झुका। मुस्लिम वास्तु के अनुकरण पर अशोककालीन शिलालेखों की प्रथा पुन: प्रतिष्ठित हुई और मंदिरों मे भीतर बाहर, मूर्तियों और चित्रों के साथ लेखों को भी स्थान मिलने लगा। दिल्ली का लक्ष्मीनारायण मंदिर और हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, का शिवमंदिर बीसवीं शती के मंदिरवास्तु की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। मंदिरों के अतिरिक्त राजाओं के महल और विद्यालय आदि भी कला को प्रश्रय देते रहे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सभी इमारतें और वाराणसी का भारतमाता मंदिर, काशी विश्वनाथ की मंदिरोंवाली नगरी में दर्शकों के लिए विशेष आकर्षण के केंद्र हैं। कुशीनगर में बने निर्वाण बिहार, बुद्ध मंदिर और सरकारी विश्रामगृह में बौद्ध कला को पुनर्जीवन मिला है। दिल्ली में लक्ष्मीनारायण मंदिर के साथ भी एक बुद्ध मंदिर है। इस प्रकार किसी शैली विशेष के पति अनाग्रह और उत्कृष्टता के लिए समन्वय 20 वीं शती की विशेषता समझी जा सकती है।

भारत गणराज्य (1947 -वर्तमान) का वास्तु

[संपादित करें]

वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ

[संपादित करें]

देखें, शिल्पशास्त्र

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में वास्तुकला और मूर्तिकला का उल्लेख

[संपादित करें]

नीचे प्रमुख प्राचीन भारतीय ग्रन्थों की सूची है जिनमें स्थापत्यकला (आर्किटेक्चर) और मूर्तिकला का उल्लेख मिलता है-[2]

  • अग्निपुराण
    • ४२. प्रासाद-लक्षण-कथन
    • ४३. प्रासाद-देवता-स्थापन
    • ४४. वासुदेवादि-प्रतिमा-लक्षण-विधि
    • ४५. पिण्डिका-लक्षण
    • ४६. शालग्रामादि-मूर्ति-लक्षण-कथन
    • ४९. मत्स्यादि-दशावतारा-कथन
    • ५०. देवी-प्रतिमा-लक्षण-कथन
    • ५१. सूर्यादि-प्रतिमा-लक्षण
    • ५२. देवी-प्रतिमा-लक्षण (cf. ५०)
    • ५३. लिङ्ग-लक्षण
    • ५४. लिङ्ग-मानादि-कथन
    • ५५. पिण्डिका-लक्षण-कथन (cf. ४५)
    • ६०. वासुदेव-प्रतिष्ठा-विधि (cf. ४४)
    • ६२. लक्ष्मी-प्रतिष्ठा-विधि
    • १०४. प्रासाद-लक्षण (cf. ४२)
    • १०५. गृहादि-वास्तु-कथन
    • १०६. नगरादि-वास्तु
  • अङ्क-शास्त्र
  • अपराजित-पृच्छ
  • अपराजित-वास्तु-शास्त्र
  • अभिलाषितार्थ-चिन्तामणि
  • अर्थ-शास्त्र (कौटिलीय)
    • २२. जनपद-निवेश
    • २३. भूमिच्छिद्र-विधान
    • २४. दुर्ग-विधान
    • २५. दुर्ग-निवेश
    • ६५. वास्तुक, गृह-वास्तुक
    • ६६. वास्तु-विक्रय; सीमा-विवाद; मर्यादा-स्थापन; बाध-बाधिक
    • ६७. वास्तुक विवीते क्षेत्र-पथ-हिंसा
  • अंशुमत्-(काश्यपीय)
  • अंशुमद्-भेदागम (आगम में भी देखें)
  • अंशुमाना-कल्प
  • आगमस्
    • अंशुमद्-भेदागम
      • २८. उत्तम-दश-ताल-विधि
    • कामिकाम
      • ११. भू-परीक्षा-विधि
      • १२. प्रवेश-बलि-विधि
      • १३. भू-परिग्रह-विधि
      • १४. भू-कर्षण-विधि
      • १५. शंकु-स्थापन-विधि
      • १६. मानोपक़रण-विधि
      • १७. पाद-विन्यास
      • १८. सूत्र-निर्माण
      • १९. वास्तु-देव-बलि
      • २०. ग्रामादि-लक्षण
      • २१. विस्तारायाम-लक्षण
      • २२. आयादि-लक्षण
      • २४. दण्डिका-विधि (कपाट और द्वार से सम्बन्धित)
      • २५. वीथी-द्वारादि-मान
      • २६. ग्रामादि-देवता-स्थापन
      • २८. ग्रामादि-विन्यास
      • २९. ब्रह्मा-देव-पादाति
      • ३०. ग्रामादि-अङ्ग-स्थान-निर्माण
      • ३१. गर्भ-न्यास
      • ३२. बाल-स्थापन-विधि
      • ३३. ग्राम-गृह-विन्यास
      • ३४. वास्तु-शान्ति-विधि
      • ३५. शाला-लक्षण-विधि
      • ३६. विशेष-लक्षण-विधि
      • ३७. द्वि-शाला-लक्षण-विधि
      • ३८. चतुः-शाला-लक्षण-विधि
      • ४०. वर्त (?ध) मान-शाला-लक्षण
      • ४१. नन्द्यावर्त-विधि
      • ४२. स्वस्तिक-विधि
      • ४३. पक्ष-शालादि-विधि
      • ४४. (ह)स्ति-शाला-विधि
      • ४५. मालिका-लक्षण-विधि
      • ४६. लाङ्गल-मालिका-विधि
      • ४७. मौलिक-मालिका-विधि
      • ४८. पद्म-मालिका-विधि
      • ४९. नगरादि-विभेद
      • ५०. भूमि-लक्ब-विधि
      • ५१. आद्येष्टका-विधान-विधि
      • ५२. उपपीठ-विधि
      • ५३. पाद-मान-विधि
      • ५४. प्रस्तार-विधि
      • ५५. प्रासाद-भूषण-विधि
      • ५६. कण्ठ-लक्षण-विधि
      • ५७. शिखर-लक्षण-विधि
      • ५८. स्तूपिका-लक्षण-विधि
      • ५९. नालादि-स्थापन-विधि
      • ६०. एक-भूम्यादि-विधि
      • ६१. मूर्ध्नि-स्थापन-विधि
      • ६२. लिङ्ग-लक्षण-विधि
      • ६३. अङ्कुरार्पण-विधि
      • ६४. लिङ्ग-प्रतिष्ठा-विधि
      • ६५. प्रतिमा-लक्षण-विधि
      • ६७. देवता-स्थापन-विधि
      • ६८. प्रतिमा-प्रतिष्ठा-विधि
      • ६९. विमान-स्थापन-विधि
      • ७०. मण्डप-स्थापन-विधि
      • ७१. प्राकार-लक्षण-विधि
      • ७२. परिवार-स्थापन-विधि
    • कारणगम
      • भाग १ (पटल अथवा अध्याय):
        • ३. वास्तु-विन्यास
        • ४. आद्येष्टका-विधि
        • ५. अधिष्ठान-विधि
        • ६. गर्भ-न्यास-विधि
        • ७. प्रासाद-लक्षण-विधि
        • ८. प्राकार-लक्षण-विधि
        • ९. लिङ्ग-लक्षण
        • १०. मूर्ध्नीष्टका-लक्षण
        • ११. प्रतिमा-लक्षण
        • १२. श्री-मान-दश-ताल-लक्षण
        • १३. कनिष्ठ-दश-ताल-लक्षण
        • १४. नव-तालोत्तम-लक्षण
        • १६. बलि-कर्म-विधि
        • १९. मृत्-संग्रहण-विधि
        • २०. अङ्कुरार्पण-विधि
        • ४१. महाभिषेक-विधि
        • ५६. वास्तु-होम-विधि
        • ५९. लिङ्ग-स्थापन-विधि
        • ६०. परिवार-स्थापन-विधि
        • ६१. बलि-पीठ-प्रतिष्ठा-विधि
        • ६२. रत्न-लिङ्ग-स्थापन-विधि
        • ६६. परिवार-बलि
        • ७०. विमान-स्थापन-विधि
        • ८८. भक्त-स्थापन-विधि
        • १३८. मृत्-संग्रहण (cf. १९)
      • भाग २, अध्याय:
        • ४. कील-परीक्षा
        • ५. गोपुर-लक्षण
        • ६. मण्डप-लक्षण
        • ७. पीठ-लक्षण
        • ८. शक्ति-लक्षण
        • ९. ग्राम-शान्ति-विधि
        • १०. वास्तु-शान्ति-विधि
        • ११. मृत्-संग्रहण
        • १२. अङ्कुरार्पण
        • १३. बिम्ब-शुद्धि
        • १४. कौतुक-बन्धन
        • १५. नयनोन्मीलन
        • १८. बिम्ब-शुद्धि (cf. II. १३)
        • १९. शयनारोपण
        • २१. शिव-लिङ्ग-स्थापन
        • ९८. मठ-प्रतिष्ठा
    • वैखानसागम
      • २२. प्रतिमा-लक्षण
      • ४३. उत्तम-दश-ताल
    • सुप्रभेदागम
      • २२. करणाधिकार-लक्षण, उष्णीष (crowns, head-gears), आसन (chair, seats), पर्यङ्क (bedsteads, couches, आदि) सिंहासन (thrones), रङ्ग (court-yards, theatres), स्तम्भ (columns, pillars), आदि के बारे में
      • २३. ग्रामादि-लक्षण-विधि
      • २६. तरुणालया-विधि
      • २७. प्रासाद-वास्तु-विधि
      • २८. आद्येष्टका-विधि
      • २९. गर्भ-न्यास-विधि
      • ३०. अङ्गुली-लक्षण-विधि
      • ३१. प्रासाद-लक्षण-विधि
      • ३२. मूर्ध्नीष्टक-विधि
      • ३३. लिङ्ग-लक्षण
      • ३४. सकल-लक्षण-विधि
      • ३५. अङ्कुरार्पण-विधि
      • ३६. लिङ्ग-प्रतिष्ठा-विधि
      • ३७. सकल(image, idol)-प्रतिष्ठा
      • ३८. शक्ति-प्रतिष्ठा-विधि
      • ३९. परिवार-विधि
      • ४०. वृषभ-स्थापन-विधि
  • अगस्त्य-सकलाधिकार
    • १. मान-संग्रह
    • २. उत्तम-दश-ताल
    • ३. मध्यम-दश-ताल
    • ४. अधम-दश-ताल
    • ५. प्रतिमा-लक्षण
    • ६. वृषभ-वाहन-लक्षण
    • ७. नटेश्वर-विधि
    • ८. षोडश-प्रतिमा-लक्षण
    • ९. दारु-संग्रह
    • १०. मृत्-संस्कार
    • ११. वर्ण-संस्कार
    • १. मान-संग्रह-विशेष
    • २. उत्तम-दश-ताल
    • ३. मध्यम-दश-ताल
    • ४. सोमास्कन्द-लक्षण
    • ५. चन्द्र-शेखर-लक्षण
    • ६. वृष-वाहन-लक्षण
    • १९. प्रतिमा-लक्षण
    • २०. (३) उपपीठ-विधान
    • २१. (९) शूल-मान-विधान
    • २२. (१०) रज्जु-बन्ध-संस्कार-विधि
    • २३. (११) वर्ण-संस्कार
    • २४. (२१) अक्षि-मोक्षण
  • आगार-विनोद
  • आय-तत्त्व
  • आयादि-लक्षण
  • आरामदि-प्रतिष्ठ्ठता-पद्धति
  • कामिकाम (आगम में देखें)
  • करणगम (आगम में देखें)
  • काश्यपीय
    • १. कर्षण
    • २. प्रासाद-वास्तु
    • ३. वास्तु-होम
    • ४. प्रथमेष्टक-विधि
    • ५. उपपीठ-विधान
    • ६. अधिष्ठान-विधि
    • ७. नाल-लक्षण
    • ८. स्तम्भ-लक्षण
    • ९. फलक-लक्षण
    • १०. वेदिका-लक्षण
    • ११. जालका-लक्षण
    • १२. त(ओ)रण-लक्षण
    • १३. वृत्त-स्फुटित-लक्षण
    • १४. स्तम्भ-तोरण-विधि
    • १५. कुम्भ-ताल-लक्षण
    • १६. वृत्त-स्फुटित-लक्षण, cf. १३
    • १७. द्वार-लक्षण
    • १८. कम्प-द्वार-लक्षण
    • १९. प्रस्तारा-लक्षण
    • २०. गल-विधान
    • २१. शिखर-लक्षण
    • २२. नासिका-लक्षण
    • २३. मानोपक़रण
    • २४. मान-सूत्रादि-लक्षण
    • २५. नगरादि-विधि
    • २६. गर्भ-न्यास-विधि
    • २७. एक-तल-विधान
    • २८-४०. द्वि-त्रयोदश-तल-विधान
    • ४१. षोडश-भूमि-विधान
    • ४२. मूर्धनीष्टक-विधान
    • ४३. प्राकार-लक्षण
    • ४४. मंट(-ड)प-लक्षण
    • ४५. गोपुर-लक्षण
    • ४६. सप्त-मातृक-लक्षण
    • ४७. विनायक-लक्षण
    • ४८. परिवार-विधि
    • ४९. लिङ्ग-लक्षणोद्धार
    • ५०. उत्तम-दश-ताल-पुरुष-मान
    • ५१. मध्यम-दश-ताल-पुरुष-मान
    • ५२. उत्तम-नव-ताल
    • ५३. मध्यम-नव-ताल
    • ५४. अधम-नव-ताल
    • ५५. अष्ट-ताल
    • ५६. सप्त-ताल
    • ५७. पीठ-लक्षणोद्धार
    • ५८. सकल-स्थापना-विधि
    • ५९-६०. सुखासन
    • ६१. चन्द्र-शेखर-मूर्ति-लक्षण
    • ६२. वृष-वाहन-मूर्ति-लक्षण
    • ६३. नृत्त-मूर्ति-लक्षण
    • ६४. गङ्गाधर-मूर्ति-लक्षण
    • ६५. त्रि-पुर-मूर्ति-लक्षण
    • ६६. कल्याण-सुन्दर-लक्षण
    • ६७. अर्धनारीश्वर-लक्षण
    • ६८. गजाह-मूर्ति-लक्षण
    • ६९. पशुपति-मूर्ति-लक्षण
    • ७०. कङ्काल-मूर्ति-लक्षण
    • ७१. हर्यर्ध-हर-लक्षण
    • ७२. भिक्षाटन-मूर्ति-लक्षण
    • ७३. चण्डेशानुग्रह
    • ७४. दक्षिणामूर्ति-लक्षण
    • ७५. कालह-मूर्ति-लक्षण
    • ७६. लिङ्गोद्भव-लक्षण
    • ७७. वृक्ष-संग्रहण
    • ७८. शूल-लक्षण
    • ७९. शूल-पाणि-लक्षण
    • ८०. रज्जु-बन्ध-लक्षण
    • ८१. मृत्-संस्कार-लक्षण
    • ८२. कल्का-संस्कार-लक्षण
    • ८३. वर्ण-संस्कार-लक्षण
    • ८४. वर्ण-लेपन-मेध्य-लक्षण
    • ८५. ग्रामादि-लक्षण
    • ८६. ग्राम-लक्षण
  • कुपादि-जल-स्थान-लक्षण
  • कौतुक-लक्षण
  • क्रिया-संग्रह-पञ्जिकञा
  • क्षीरार्णव
  • क्षेत्र-निर्माण-विधि
  • गरुड-पुराण (पुराण में देखें)
  • गार्ग्य-संहिता
    • द्वार-निर्देश
    • द्वार-प्रमाण-विधि
    • गार्ग्ययायां वास्तु-विद्यायां चतुः-शाला-द्वि-त्रि-शालैक-शाला-विधि
    • वास्तु-विद्यायां चतुर्-भाग-त्रि-भाग-प्रति-भाग, आदि
    • द्वार-स्तम्भोच्छ्राय-विधि
    • वास्तु-विद्यायां प्रथमोऽध्यायः
    • द्वितीयोऽध्यायः
    • द्वार-प्रमाण-निर्देशम्
    • गृह-प्रवेशम्
  • गृह-निरूपण-संक्षेप
  • गृह-निर्माण-विधि
  • गृह-पीठिका
  • गृह-वास्तु-प्रदीप
  • गृहारम्भ
  • गोपुर-विमानादि-लक्षण
  • ग्राम-निर्णय
  • घट्टोत्सर्ग-सूचनिका
  • चक्र-शास्त्र
  • चित्र-कर्म-शिल्प-शास्त्र
  • चित्र-पट
  • चित्र-लक्षण
  • चित्र-सूत्र
  • जय-माधव-मानसोल्लास
  • जालार्गल
  • जालार्गल-यन्त्र
  • ज्ञान-रत्न-कोश
  • तच्छु-शास्त्र (Same as मनुष्यलय-चन्द्रिका)
  • तारा-लक्षण
  • दश-ताल-न्यग्रोध-परिमण्डल-बुद्ध-प्रतिमा-लक्षण
  • दश-प्रकार
  • दिक-साधन
  • दीर्घ-विस्तारा-प्रकार
  • देवता-शिल्प
  • देवालया-लक्षण
  • द्वार-लक्षण-पटल
  • ध्रुवादि-षोडश-गेहानि
  • नारद-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • नारद-संहिता
      1. सुर-प्रतिष्ठा
        1. वास्तु-विधान
      1. वास्तु-लक्षण
  • नावा-शास्त्र
  • (यह पाण्डुलिपि अब प्राप्त नहीं है। यह दुर्ग, गृह, ग्राम-निर्माण और नौकायन आदि से सम्बन्धित थी।)
  • पक्षि-मनुष्यलय-लक्षण
  • पञ्च-रात्र-(प्र)दीपिका (इसे मन्त्रदीपिका भी कहते हैं।)
    • १. शिला-संग्रह-लक्षण
    • २. दारु-संग्रहन
    • ३. प्रतिमा-लक्षण
    • ४. ... नाम-तृतीयोऽध्याय
    • ५. प्रतिमा-संग्रहे जलधिवसन-अष्टमोऽध्याय
  • पिण्ड-प्रकार
  • पीठ-लक्षण
  • पुराणस्
    • अग्नि-पुराण
    • गरुड-पुराण
      • ४५. शालग्राम-मूर्ति-लक्षण
      • ४६. प्रासाद-आराम-दुर्ग-देवालया-मठादि-वास्तु-मान-लक्षण-निरूपण
      • ४७. प्रासाद-लिङ्ग-मण्डपादि-शुभाशुभ-लक्षण-निरूपण
      • ४८. देवानां प्रतिष्ठा-विधि
    • नारद-पुराण
      • भाग १, अध्याय:
        • १३. देवतायन-वापी-कूप-तडागादि-निर्माण
    • ब्रह्माण्ड-पुराण
      • अध्याय:
        • ७. गृहादि-निर्माण
    • भविष्य-पुराण
      • अध्याय:
        • १२. मध्य-पर्वणि, प्रतिदेवता-प्रतिमा-लक्षण-वर्णन
        • १३०. ब्रह्म-पर्वणि, प्रासाद-लक्षण-वर्णन
        • १३१. मूर्ति-स्थान (इसमें उन पदार्थों एवं सामग्रियों का वर्णन है जिनसे मूर्तियाँ बनायी जाती हैं।)
        • १३२. प्रतिमा-मान (इसमें मूर्तियों के विभिन्न आयामों के मापन का वर्णन है।)
    • मत्स्यपुराण
      • अध्याय:
        • २५२. इसमें १८ प्राचीन वास्तुकारों का परिचय दिया गया है)
        • २५५. स्तम्भ-मान-विनिर्णय
        • २५७. दार्वहरण
        • २५८. नव-ताल-मान
        • २६२. पीठिका-लक्षण
        • २६३. लिङ्ग-लक्षण
        • २६९. प्रासाद-वर्णन
        • २७०. मण्डप-लक्षण
    • लिङ्ग-पुराण
      • भाग २, अध्याय:
        • ४८. याग-कुण्ड-विन्यास-कथन-पूर्वकं सर्वासं देवतानां स्थापना-विधि-निरूपणम्, प्रासादार्चानि-निरूपणम्
    • वायुपुराण
      • भाग १, अध्याय:
        • ३९. शैल-स्थित-विविध-देवालया-कीर्तन
    • स्कन्द-पुराण
      • अध्याय:
        • २४. माहेश्वर-खण्डे-प्रथमे—हिमालयेन स्व-सुताया विवाहार्थं गर्गाचार्य-पुरोहितं पुरस्कृत्य विश्वकर्म-द्वारा पूर्व-मण्डप-निर्माणदि-वर्णनम्, नारदाद् विश्वकर्मकृत-विवाह-मण्डपं चातुर्येण सर्व-देव-प्रतिकृति-चित्रविन्यासं श्रुत्वा सर्वेषां देवानां शङ्का-प्राप्तिः
        • माहेश्वर-खण्डे द्वितीये—स्वयं विश्वकर्म-द्वारा-निर्मापिते महीनगरे स्थापन-वर्णन
        • २५. वैष्णव-खण्डे द्वितीये—नारद-लिखित-साहित्य-सम्भवासंग्रह-पत्रं श्रुत्वा इन्द्रद्युम्नाज्ञया पद्मन‌िधिना स्वर्णशाला-निर्माणं, नारदाज्ञया विश्वकर्मान‌ा स्यन्दन-त्रय-निर्माणं, तस्य रथस्य नारद-करेण स्थापनं, तत्-प्रसंगेन रथ-स्थापन-प्रकार-विधि-वर्णनम्
  • प्रतिमा-द्रव्यादि-वचन
  • प्रतिमा-मान-लक्षण
  • प्रतिष्ठा-तत्त्व (इसे मय-संग्रह भी कहते हैं)
  • प्रतिष्ठा-तन्त्र
  • प्रासाद-कल्प
  • प्रासाद-कीर्तन
  • प्रासाद-दीपिका
  • प्रासाद-मण्डन-वास्तु-शास्त्र
    • १. मिश्र-कलश
    • २. जगति-दृश्शि-दोषो आयतनाधिकार
    • ३. भित्ति-पीठ-मण्डोवर-गर्भ-गृहोदुम्बरा-प्रमाण
    • ४. प्रमाण-दृष्टि-पद-स्थान-शिखर-कलश-लक्षण
    • ५. राज्यादि-प्रासादाधिकार
    • ६. केशर्यादि-प्रासाद-जाति-लक्षण, पञ्च-क्षेत्र-पञ्च-चत्वारिंशन्-मेरु-लक्षणाध्याय
    • ७. मण्डप-बालानक-सम्भरणाधिकार
    • ८. जीर्णोद्धार-भिन्न-दोष-स्थावर-प्रतिष्ठा, सूत्र-धारपूजा, जिन-प्रतिष्ठा, वास्तु-पुरुष-विन्यास
  • प्रासाद-लक्षण
  • प्रासाद-लक्षण
  • प्रासादालङ्कर-लक्षण
  • बिम्बमान
  • बृहत-संहिता
    • ५३. वास्तु-विद्या
    • ५६. प्रासाद-लक्षण
    • ५७. वज्र-लेप
    • ५८. प्रतिमा-लक्षण
    • ७९. शय्यासन-लक्षण
  • बुद्ध-प्रतिमा-लक्षण
  • बुद्ध-लक्षण
  • ब्रह्माण्ड-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • भविष्य-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • मठ-प्रतिष्ठा-तत्त्व
  • मत्स्य-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • मनुष्यलय-चन्द्रिका (इसे तच्छु-शास्त्र भी कहते हैं)
  • मनुष्यलय-लक्षण
  • मञ्जु-श्री-मूल-कल्प
  • मन्त्र-दीपिका (पञ्च-रात्र-प्रदीपिका देखें)
  • मयमत
    • १. संग्रहाध्याय
    • २. वास्तु-प्रकार
    • ३. भू-परीक्षा
    • ४. भू-परिग्रह
    • ५. मानोपक़रण
    • ६. दिक्-परिच्छेदन
    • ७. पद-देवता-विन्यास
    • ८. देव-बलि-कर्म-विधान (अपूर्ण)
    • ९. ग्राम-गर्भ-विन्यास (अपूर्ण)
    • १०. नागर-विन्यास
    • ११. भू-लम्ब(भ)-विधान
    • १२. गर्भ-न्यास-विधान
    • १३. उपपीठ-विधान
    • १४. अधिष्ठान-विधान
    • १५. पाद-प्रमाण-द्रव्य-परिग्रह
    • १६. प्रस्तर-करण
    • १७. संधि-कर्म-विधान
    • १८. शिखर-करण-भवन-समाप्ति-विधान
    • १९. एक-भूमि-विधान
    • २०. द्वि-भूमि-विधान
    • २१. त्रि-भूमि-विधान
    • २२. बहु-भूमि-विधान
    • २३. प्राकार-परिवार (अन्यत्र इसे 'संधि-कर्म-विधान' कहा गया है)
    • २४. गोपुर-विधान
    • २५. सभा(मण्डप)-विधान
    • २६. शाला-विधान
    • २७. गृह-मानाधिकार (अन्यत्र इसे 'चतुर्-गृह-विधान' कहा गया है)
    • २८. गृह-प्रवेश
    • २९. राज-वेश्म-विधान
    • ३०. द्वार-विधान
    • ३१. यानाधिकार
    • ३२. यान-शयनाधिकार
    • ३३. लिङ्ग-लक्षण
    • ३४. पीठ-लक्षण (अपूर्ण)
    • ३५. अनुकर्म-विधान
    • ३६. प्रतिमा-लक्षण
    • १. प्रतिमा-विधान
    • २. आय-लक्षण
    • ३. लिङ्ग-लक्षण
    • ४. दश-ताल-विधान
    • ५. कुञ्चित-विधान
    • ६. नव-ताल-विधान
    • ७. हस्त-कर्म-विधान
    • ८. उपपीठ-विधान
    • ९. एक-भूमि-विधान
    • १०. द्वि-ताल-विधान
    • ११. त्रि-ताल-विधान
    • १२. गोपुर-विधान
  • मयमत-शिल्प-शास्त्र-विधान
  • मय-शिल्प-शतिका
  • मय-शिल्प
  • मय-वास्तु
  • मय-वास्तु-शास्त्रम्
  • माय्यामतया (सिंहल भाषा में)
  • मयमत-वास्तु-शास्त्र
  • महा-निर्वाण-तन्त्र
  • महाभारत
    • सभा-पर्वन्, अध्याय:
      • १. मय ने पाण्डवों के लिये सभः (council hall) का निर्माण किया
      • ७. इन्द्र-सभा-वर्णन
      • ८. यम-सभा-वर्णन
      • ९. वरुण-सभा-वर्णन
      • १०. कुबेर-सभा-वर्णन
      • ११. ब्रह्म-सभा-वर्णन
  • मान-कथन
  • मानव-वास्तु-लक्षण
  • मानस (= मानसार)
  • मानसार
  • मानसोल्लास
    • १. मन्दिराम्भ-मुहूर्त-कथन
    • २. षोडश-प्रकार-गृह-लक्षण
    • ३. राज-गृह-लक्षण
    • ४. वास्तु-देव-पूजा-विधि
    • ५. गृह-प्रवेश-कथन
    • ६. गृह-वर्णन
    • ७. गृह-चित्र-वर्ण-लक्षण
    • ८. वज्र-लेप-लक्षण
    • ९. लेखनी-लक्षण
    • १०. ताम्बूल-भोग-कथन
    • ११. विलेपनोपभोग-कथन
    • १२. वस्त्रोपभोग-कथन
    • १३. माल्योपभोग-कथन
    • १४. भूषाभोग-कथन
    • १५. आसन-भोग-कथन
    • १६. पुत्रदि-भोग-कथन
    • १७. अन्न-भोग-कथन
    • १८. पानीय-भोग-कथन
    • १९. अभ्यङ्ग-भोग-कथन
    • २०. यान-भोग-कथन
    • २१. छत्र-भोग-कथन
    • २२. शय्या-भोग-कथन
    • २३. धूप-भोग-कथन
    • २४. स्त्री-भोग-कथन
  • मानसोल्लास-वृत्तान्त-प्रकाश
  • मूर्ति-ध्यान
  • मूर्ति-लक्षण
  • मूल-स्तम्भ-निर्णय
  • रत्न-दीपिका
  • रत्न-माला
    • १७. वास्तु-प्रकरण
    • १८. गृह-प्रवेश
    • २०. देव-प्रतिष्ठा
  • राज-गृह-निर्माण
  • राज-वल्लभ-टीका
  • रामायण
    • आदिकाण्ड, ५वां सर्ग, अयोध्या नगर का वर्णन
    • लङ्काकाण्ड, ५वां सर्ग, लङ्का दुर्ग का वर्णन
  • राशि-प्रकार
  • रूप-मण्डन
  • लक्षण-समुच्चय
  • लघु-शिल्प-ज्योतिष
  • लघु-शिल्प-ज्योतिः-सार
  • लिङ्ग-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • वलि-पीठ-लक्षण
  • वायु-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • वास्तु-चक्र
  • वास्तु-तत्त्व
  • वास्तु-निर्णय
  • वास्तु-पुरुष-लक्षण
  • वास्तु-प्रकाश
  • वास्तु-प्रदीप
  • वास्तु-प्रवन्ध
  • वास्तु-मञ्जरी
  • वास्तु-मण्डन
  • वास्तु-योग-तत्त्व
  • वास्तु-रत्न-प्रदीप
  • वास्तु-रत्नावली
  • वास्तु-राज-वल्लभ
  • वास्तु-लक्षण
  • वास्तु-विचार
  • वास्तु-विद्या
    • १. साधन-कथन
    • २. वसुधा-लक्षण
    • ३. वास्तु-देवता-कथन
    • ४. वास्तु-पुरुष-कथन
    • ५. वेदि-संस्थान
    • ६. वास्तु-मर्म-संस्थान
    • ७. काल-नियम
    • ८. शाला-विधान
    • ९. पद-मान-कथन
    • १०. लुपा-लक्षण
    • ११. लुपा-करण
    • १२. धूलि-निरोधन
    • १३. द्वार-विन्यास
    • १४. कवाट-द्वार-विन्यास
    • १५. भवन-परिग्रह
    • १६. मृल्-लोष्ट-लक्षण
  • वास्तु-विधि
  • वास्तु-शास्त्र (सनत्-कुमार के अन्तर्गत देखें)
  • वास्तु-शास्त्र (इसे 'शिल्प-शास्त्र' भी कहते हैं)
    • १. मिश्रक-लक्षण
    • २. वास्तु-लक्षण
    • ३. आयादि-लक्षण
    • ४. प्राकार-यन्त्र-वापी-कूप-तडाग-लक्षण
    • ५. राज-गृह-निवेशदि-लक्षण
    • ६. एक-शाला-द्वि-शाला-गृह-लक्षण
    • ७. द्वि-शाला-त्रि-शाला-चतुः-शाला-गृह-लक्षण
    • ८. शयन-सिंहासन-छत्र-गवाक्ष-सभाष्टक-वेदिकाचतुष्टय-दीप-लक्षण
    • ९. राज-गृहादि-लक्षण
    • १०. (मापित) क्षेत्राद्भुत-लक्षण
    • ११. दिन-शुद्धि-गृह-निवेश-गृह-प्रवेश-विवाह-मुहूर्ता-लक्षण
    • १२. गोचर-दिन-रात्रि-मान-स्वरोदय-कोट-चक्र-मातृक-लक्षण
    • १३. ज्योतिष-लक्षण
    • १४. शकुन-लक्षण
  • वास्तु-शास्त्र-समराङ्गण-सूत्रधार
  • वास्तु-शिरोमणि
  • वास्तु-समुच्चय
  • वास्तु-संख्या
  • वास्तु-संग्रह
  • वास्तु-संग्रहमु
  • वास्तु-सर्वस्व
  • वास्तु-सार
  • वास्तु-सारणि
  • वास्तु-सार-सर्वस्व-संग्रह
  • विमान-लक्षण
  • विश्वकर्म-मत
  • विश्वकर्म-ज्ञान
  • विश्वकर्म-पुराण
  • विश्वकर्म-प्रकाश (इसे 'वास्तु-शास्त्र' भी कहते हैं)
    • १. मङ्गलाचरण
    • २. वास्तु-पुरुषोत्पत्ति-वर्णन-पूर्वकं-पूजनादिका
    • ३. भूमि-लक्षणं फलं च
    • ४. गृह-प्रवेश-समये शकुन-फल
    • ५. खनन-विधि
    • ६. स्वप्न-विधि
    • ७. भूमि-फल
    • ८. गृहारम्भे समय-शुद्धि
    • ९. ध्वजाद्यय-फालनि
    • १०. आय-व्ययांशदीनां फालनि
    • ११. गृह-मध्ये देवादिनां स्थापन-निर्णय
    • १२. ध्रुवादि-गृह-भेद
    • १३. द्वार-माननि
    • १४. स्तम्भ-प्रमाणानि
    • १५. गृहाणां शाला-निर्णय
    • १६. गृहारम्भ-काल-निर्णय
    • १७. गृहारम्भे लग्न-कुण्डलीष्ठ-ग्रह-फलानी
    • १८. शय्या-मन्दिर-भुवन-शुद्धारदि-गृहाणां लक्षणानि
    • १९. पादुका-उपानह-मञ्चादीनञ्ं मान-लक्षण
    • २०. शंकु-शिला-न्यास-निर्णय
    • २१. वास्तु-देह-लक्षणं पूजनानं बलि-दानं च
    • २२. शिला-न्यास (cf. २० के बाद)
    • २३. प्रासाद-विधान
    • २४. शिल्प-न्यास
    • २५. प्रासाद-निर्णय
    • २६. पीठिका-लक्षण
    • २७. मण्डप-लक्षण
    • २८. द्वार-लक्षण
    • २९. वापी-कूप-तडागोद्यान-क्रिया
    • ३०. दारु-छेदन-विधि
    • ३१. गृह-प्रवेश निर्णय
    • ३२. गृह-प्रवेश-काल-शुद्धि
    • ३३. शय्यासन-दोलिकादीनां लक्षण
    • ३४. प्रवेश-कलश-चक्रादि-वास्तु-शान्ति
    • ३५. दुर्ग-निर्णय
    • ३६. शल्य-ज्ञानं शल्योद्धार
    • ३७. नागर-सम्बन्धि-राज-गृहादीनां निर्णय
  • विश्वकर्म-सम्प्रदाय
  • विश्वकर्मीय-शील-शास्त्र
  • विश्व-विद्याभरण
  • वेदान्त-सार
  • वैखानस
  • वैखानसागम (आगम के अन्तर्गत देखें)
  • शास्त्र-जलधि-रत्न
  • शिल्प-कला-दीपका
  • शिल्प –ग्रन्थ
  • शिल्प–दीपका
  • शिल्प-निघण्टु
  • शिल्प–रत्न
  • शिल्प -लेखा
  • शिल्प-शास्त्र
    • १. अंशुमान-भेदे काश्यपे परिवार-लक्षण-पटल
    • २. उमास्कन्द-सहित-लक्षण-पटल
    • ३. चन्द्र-शेखर-मूर्ति-पटल
    • ४. दक्षिणा-मूर्ति-लक्षण
    • ५. काल-मूर्ति
    • ६. लिङ्गोद्भव-लक्षण
    • ७. नृत्त-मूर्ति
    • ८. गङ्गाधर-मूर्ति
    • ९. त्रि-पुरान्तक-मूर्ति
    • १०. कल्याण-मूर्ति
    • ११. अर्धनारीश्वर-मूर्ति
    • १२. गज-भार-मूर्ति
    • १३. पाशुपत-मूर्ति
    • १४. भक्त-लक्षण
    • १५. भू-मान-पटल
    • १६. ग्रामादि-लक्षण
    • १. इत्य-अगस्त्ये-सकालाधिकारे मानस-ग्राह्य-विशेषाणां प्रथमोऽध्याय
    • १८१. इति पञ्च-विम्मशति-रूप-भेद
    • २५१. इत्य-अंशुमान-भेदे काश्यपे ताल-भेद-पटल
    • २६६. काश्यप उत्तम-दशतल-पटल
    • २७४. ज(ग)ौरी-लक्षण-पटल, अधम-दश-ताल-प्रमाण
  • शिल्प
  • शिल्प-शास्त्र
  • शिल्प-शास्त्र-भूषालय
  • शिल्प-शास्त्र
  • शिल्प-शास्त्र-सार-संग्रह
  • शिल्प-सर्वस्व-संग्रह
  • शिल्प-संग्रह
  • शिल्प-सार
  • शिल्पार्थ-शास्त्र
  • ** शिल्पि-शास्त्र**
  • शुक्रनीति
    • १. देव-मन्दिरादि-निर्माण-व्यवस्था
    • २. प्रतिमा-निर्माण- व्यवस्था
    • ३. मूर्तिनर्ह वाहन-व्यवस्था
    • ४. गणपति-मूर्ति-व्यवस्था
    • ५. सती (शक्ति)-मूर्ति-व्यवस्था
    • ६. बाल-मूर्ति-व्यवस्था
    • ७. सप्त-तालादि-मूर्ति-भावस्य निर्माण-व्यवस्था
    • ८. पैशाची-मूर्ति-व्यवस्था
    • ९. भग्न-प्रतिमा-स्थापन-व्यवस्था
    • १०. उत्सव-व्यापार-व्यवस्था
    • ११. दुर्ग-निर्माण (निर्माण के लिये प्रयत्न आदि)
  • शुल्वसूत्र
  • षड्-विदिक-सन्धान
  • सकलाधिकार
  • सनत्-कुमार-वास्तु-शास्त्र
    • १. गृह-संस्थापन
    • २. नक्षत्र-ग्रह-योग-विधि
    • ३. ग्रह-लग्न-विधि
    • ४. तरु-तन्त्र-विधि
    • ५. भू-परीक्षा-विधि
    • ६. नक्षत्र-तिथि-वार-शुद्धि
    • ७. नक्षत्र-लग्न-फल-द्वार-बन्ध-शुभ-स्थान-निर्णय
    • ८. गृह-प्रवेश
  • सर्व-विहारिय-यन्त्र
  • संग्रह-शिरोमणि
  • सरस्वतीय-शिल्प-शास्त्र
  • सुप्रभेदागम (आगम के अन्तर्गत देखें)
  • स्कन्द-पुराण (पुराण के अन्तर्गत देखें)
  • स्थल-शुभाशुभ-कथन
  • हस्त-प्रमाण

भारतीय वास्तुशास्त्र के मूल सिद्धान्त

[संपादित करें]

वास्तु तीन सिद्धांतों पर आधारित है- (१) भोगाद्यम् (२) सुखदर्शन (३) रम्य ।

पहले सिद्धांत को हम भोगाद्यम् कहते हैैं, जिसके द्वारा डिजाइन किया हुआ परिसर इस्तेमाल-लायक रहता हैैं और सहज ही इस्तेमाल किया जा सकता है। दूसरे को हम सुख-दर्शन कहते हैैं, जहाँ पर डिजाइन किया हुआ परिसर, ‘आँखो को सुहाना लगता है या लगना चाहिए’। इस्तेमाल मेें प्रयुक्त माल तथा जगह का अनुपात, आन्तरिक एवं बाहरी भाग (आभूषित, रंगत, खिडकियों के साईज व आकार, बिल्डिंग के दरवाजे, कमरे तथा प्रक्षेपण-लय व ताल) सुन्दर होने चाहिए। तीसरे सिद्धांत मेें रम्य हैैं, ऐसे परिसर द्वारा उसके निवासियों के लिए सुख और समृद्धि के आह्वान को बल मिलना चाहिये।

वास्तु वह प्रचीन विज्ञान है, जोकि ‘पर्यावरणीय परमानन्द’ से जुड़ा हुआ है, जिसमेें कुछ निर्धारित नियमों व कानूनों तथा मापदण्ड़ों को अपनाया गया है। इन मापदण्ड़ों एवं मानकों का निर्धारण एवं निर्माण, काफी लम्बे शोध व प्रयोग द्वारा किया गया हैैं। हमारे प्रचीन भारतीय मंदिर तथा ऐतिहासिक भवन आदि इन्हीं सब प्रयोगों के ज्वलन्त उदाहरण हैैं। [3]

भारतीय स्थापत्य से सम्बन्धित कुछ शब्द

[संपादित करें]

रचयिता , वास्तुवित् , स्थपति , रचनाकार , रचना , स्थापत्य , स्थापत्यशास्त्र , जालरचना , जालस्थापत्य , अतिमानकस्थापत्य , नोय्मन्स्थापत्य , गृहनिर्माणाध्यक्ष , गृहचिन्तक , मेतृ , पेश , सूत्रधार , सूत्रधृक् , सूत्रकर्मकृत् , वास्तुविद्या , निर्माणशिल्प , वास्तुज्ञान , वास्तुकर्मन् , निर्माणिक , सुकर्मन् , देववर्धकि , शब्दमेतृ , कारु , स्थापत्यवेद , वास्तुविद्य , विश्वकारु , विश्वसूत्रधृक् , अन्तरित , विश्वकृत् , सुकर्मन्

छबिदीर्घा

[संपादित करें]

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. Bhagwat, Ramu (19 December 2001). "Ambedkar memorial set up at Deekshabhoomi". Times of India. Archived from the original on 16 अक्तूबर 2013. Retrieved 1 July 2013. {{cite news}}: Check date values in: |archive-date= (help)
  2. Appendix I — A Sketch of Sanskrit Treatises on Architecture
  3. वास्तुविज्ञान : आचार्य एवं ग्रन्थ