लीलावती

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

लीलावती, भारतीय गणितज्ञ भास्कर द्वितीय द्वारा सन ११५० ईस्वी में संस्कृत में रचित, गणित और खगोल शास्त्र का एक प्राचीन ग्रन्थ है, इसमें 625 श्लोक हैं साथ ही यह सिद्धान्त शिरोमणि का एक अंग भी है। लीलावती में अंकगणित का विवेचन किया गया है।

'लीलावती', भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। इस ग्रन्थ में पाटीगणित (अंकगणित), बीजगणित और ज्यामिति के प्रश्न एवं उनके उत्तर हैं। प्रश्न प्रायः लीलावती को सम्बोधित करके पूछे गये हैं। किसी गणितीय विषय (प्रकरण) की चर्चा करने के बाद लीलावती से एक प्रश्न पूछते हैं। उदाहरण के लिये निम्नलिखित श्लोक देखिये-

अये बाले लीलावति मतिमति ब्रूहि सहितान्
द्विपञ्चद्वात्रिंशत्‍त्रिनवतिशताष्टादश दश।
शतोपेतानेतानयुतवियुतांश्चापि वद मे
यदि व्यक्ते युक्तिव्यवकलनमार्गेऽसि कुशला ॥ (लीलावती, परिकर्माष्टक, १३)
(अये बाले लीलावति ! यदि तुम जोड़ और घटाने की क्रिया में दक्ष हो गयी हो तो (यदि व्यक्ते युक्तिव्यवकलनमार्गेऽसि कुशला) (इनका) योगफल (सहितान् ) बताओ- द्वि पञ्च द्वात्रिंशत् (32), त्रिनवतिशत् (193), अष्टादश (18), दश (10) -- इनमें १०० जोड़ते हुए (शतोपेतन), १० हजार से (अयुतात् ) इनको घटा दें (वियुताम्) तो। )

वर्ण्यविषय[संपादित करें]

लीलावती में १३ अध्याय हैं जिनमें निम्नलिखित विषयों का समावेश है-

१. परिभाषा
२. परिकर्म-अष्टक (संकलन (जोड़), व्यवकलन (घटाना), गुणन (गुणा करना), भाग (भाग करना), वर्ग (वर्ग करना), वर्गमूल (वर्ग मूल निकालना), घन (घन करना), घनमूल (घन मूल निकालना))
३. भिन्न-परिकर्म-अष्टक
४. शून्य-परिकर्म-अष्टक
५. प्रकीर्णक
६. मिश्रक-व्यवहार - इसमें ब्याज, स्वर्ण की मिलावट आदि से सम्बन्धित प्रश्न आते हैं।
७. श्रेढी-व्यवहार
८. क्षेत्र-व्यवहार
९. खात-व्यवहार
१०. चिति-व्यवहार
११. क्रकच-व्यवहार
१२. राशि-व्यवहार
१३. छाया-व्यवहार
१४. कुट्टक
१५. अंक-पाश


लीलावती के कुछ प्रश्न[संपादित करें]

लीलावती के

पार्थः कर्णवधाय मार्गणगणं क्रुद्धो रणे सन्दधे
तस्यार्धेन निवार्य तच्छरगणं मूलैश्चतुभिर्हयान् |
शल्यं षड्भिरथेषुभिस्त्रिभिरपि च्छत्रं ध्वजं कार्मुकम्
चिच्छेदास्य शिरः शरेण कति ते यानर्जुनः सन्दधे ॥ ७६ ॥ (भागमूलोन-दृष्ट श्लोक-४)

अन्वयः- पार्थः रणे क्रुद्धः सन् कर्णवधाय मार्गणगणं सन्दधे । तस्यान तच्छरगणं निवार्य तथा चतुभिः मूलैः ह्यान् निवार्य तथा षड्भिः इषुभिः शल्यं निवार्य । अथ त्रिभिः छत्रं ध्वजं कामुकम् अपि चिच्छेद । शरेण अस्य शिरः चिच्छेद। तर्हि कति ते बाणाः । यान् रणे अर्जुनः सन्दधे ॥४॥

अर्थ:- पृथा के पुत्र (अर्जुन) ने क्रोध से भरकर रण में कर्ण को मारने के लिए कुछ बाणों का समूह लिया। उसमें से आधे बाणों से कर्ण के बाणों को काट डाला और उस बाणगण के चतुर्गुणित मूल से उसके घोड़ों को मार डाला और ६ बाणों से उसके सारथी शल्य को यमराज का अतिथि बनाया। फिर तीन ३ बाणों से छत्र, ध्वजा और धनुष को तोड़ डाला। पीछे एक बाण से कर्ण का शिर काट डाला। तो कहो उस रण में अर्जुन ने कुल कितने बाण लिये थे? ॥४॥

लीलावती के क्षेत्रव्यवहार प्रकरण में भास्कराचार्य ने त्रिकोणमिति पर प्रश्न, त्रिभुजों तथा चतुर्भुजों के क्षेत्रफल, पाई का मान और गोलों के तल के क्षेत्रफल तथा आयतन के बारे में जानकारी दी है-

व्यासे भनन्दाग्नि (३९२७) हते विभक्ते ,
खबाणसूर्यैः (१२५०) परिधिस्तु सूक्ष्मः ॥
द्वाविंशति (२२) घ्ने वृहितेथ शैलैः (७)
स्थूलोऽथवा स्याद व्यवहारः योग्यः॥
अर्थात पाई का सूक्ष्म मान = ३९२७/१२५० , और
पाई का स्थूल मान = २२/७ है। [1]
[ भनन्दाग्नि = भ + नन्द + अग्नि ---> भम् (नक्षत्र) - २७, नन्द (नन्द राजाओं की संख्या) - ९, अग्नि - ३ (जठराग्नि, बड़वाग्नि, तथा दावाग्नि) , भनन्दाग्नि - ३९२७ (ध्यान रखे, अंकानां वामतो गतिः --> अंकों को दायें से बायें तरफ रखना है), खम् (आकाश) - ०, बाण - ५, सूर्याः - १२, खबाणसूर्याः - १२५०, शैलम् - ७]

निम्नलिखित प्रश्न, गायत्री छन्द से सम्बन्धित क्रमचय के बारे में है-

प्रस्तारे मित्र गायत्र्याः स्युः पादे व्यक्तयः कति।
एकादिगुरवश्चाशु कथ्यतां तत्पृथक् पृथक् ॥११०॥
[The metre गायत्री has six syllables। The number of possible times the long syllable occurs in any पाद in a metre with sixsyllables is six, then umber of times it occurs twice is fifteen and so on, so that the sum total of all its occurrences is 64 (including the case when it does not occur at all। For the गायत्र्री metre with four पाद, the number of all such possibilities is 644 = 16777216 ].

लीलावती कौन थी[संपादित करें]

अनभिज्ञ लोग कहेंगे कि लीलावती नाम की भास्कराचार्य की कन्या थी। जबकि सम्पूर्ण ग्रन्थ का अध्ययन करने पर यह कल्पना आ ही नहीं सकती।

उदाहरण के लिए, भिन्न परिक्रमाष्टक प्रकरण के प्रारम्भ में गणेश स्तुति करते हुए लिखते हैं-

लीलागललुलल्लोलकालव्यालविलासिने
गणेशाय नमो नीलकमलामलकान्तये।

इस प्रकार, 'लीला' शब्द से ग्रन्थ आराम्भ हुआ है। इसके बाद स्थान-स्थान पर 'लीला' या 'लीलावती' शब्द प्रयुक्त हुआ है।

लीलावती ग्रन्थ का अन्तिम श्लोक इस बात का प्रमाण है कि लीलावती, भास्कराचार्य की पत्नी का नाम है।

येषां सुजातिगुणवर्गविभूषिताङ्गी शुद्धाखिल व्यवहृति खलु कण्ठासक्ता।
लीलावतीह सरसोक्तिमुदाहरन्ती तेषां सदैव सुखसम्पदुपैति वृद्धिम्॥

इस श्लोक के स्पष्टतः दो अभिप्राय हैं-

  • (१) भावार्थ - जिन शिष्यों को जोड़, घटाना, गुणन, भाग, वर्ग, घन आदि व्यवहारों, गणित के अवयवों निर्दोषगणित आदि से विभूषित लीलावती ग्रन्थ कण्ठस्थ होता है, उनकी गणित सम्पत्ति सदा वर्धमान होती है।
  • (२) भावार्थ- उच्च कुलपरम्परा में उत्पन्न, सुन्दर, सुशील, गुणसम्पत्तिसम्पन्न, स्वच्छव्यवहारप्रिया, सुकोमल एवं मधुरभाषिणी पत्नी जिनके कण्ठासक्ता हो (अर्थात अर्धाङ्गिनी हो) , उनकी सुख सम्पत्ति इस जगत में सदा सुखद, सुभद एवम वर्धमान होती है।

अतएव उक्त सद्गुणसम्पन्ना आर्या लीलावती नाम की श्रीमती को आचार्य भास्कर की अर्धाङ्गिनी होने का ऐतिहासिक गौरव प्राप्त है। [2]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. [https://web.archive.org/web/20160304141940/https://books.google.co.in/books?id=kzHyr5yd7hAC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false Archived 2016-03-04 at the वेबैक मशीन संसार के महान गणितज्ञ, पृष्ट ९१]] (गूगल पुस्तक ; गुणाकर मूले)
  2. "गणेशदैवज्ञकृत ग्रहलाघवम्, पृष्ठ २०". मूल से 3 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 3 अप्रैल 2018.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]