मैथिली साहित्य
मैथिली मुख्यतः भारत के उत्तर-पूर्व बिहार ,झारखंड, उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, असाम और नेपाल देश के साथ विभिन्न देश की भाषा है।[1] बिहार के 21 जिलों में (मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर,खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, सुपौल, मधेपुरा, मुंगेर, भागलपुर, सहरसा, पूर्णिया, सीतामढ़ी, शिवहर, वैशाली, बाँका, लखीसराय, जमुई और बेगूसराय) और नेपाल के सात जिलों में (धनुषा जिला, महोत्तरी जिला, सिराहा जिला, सर्लाही जिला, सप्तरी जिला, सुनसरी जिला और मोरंग जिला) यह प्रमुख रूप से बोली जाती है। इसका क्षेत्र लगभग 30,000 वर्गमील में व्याप्त है। मैथिली भाषा का सांस्कृतिक केंद्र भारत में मधुबनी, दरभंगा,सितामढ्ढी, सहरसा, मुज्जफपुर, देवघर,भागलपुर और नेपाल में जनकपुर है। [2][3]
बांग्ला भाषा, असमिया और उड़िया के साथ-साथ इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। [4] कुछ अंशों में ये बंगला और कुछ अंशों में हिंदी से मिलती जुलती है।
मैथिली लिपि
[संपादित करें]अन्य स्वतंत्र साहित्यिक भाषाओं की तरह मैथिली की अपनी प्राचीन लिपि है जिसे "तिरहुता" या मिथिलाक्षर कहते हैं। इसका विकास नवीं शताब्दी ईo में शुरू हो गया था। आजकल छपी हुई पुस्तकों में अधिकांश देवनागरी का ही प्रयोग होने लगा है।
मैथिली साहित्य का काल विभाजन
[संपादित करें]मैथिली के साहित्य को तीन कालों में विभक्त किया जाता है -
- आदिकाल (1000 ई. - 1600 ई.),
- मध्यकाल (1600 ई. -1860 ई.), और
- आधुनिक काल (1860 ई. से ........)।
प्रथम काल में गीतिकाव्य, द्वितीय में नाटक और तृतीय में गद्य की प्रधानता रही है।
मैथिली का सबसे प्राचीन साहित्य बौद्ध तांत्रिकों के अपभ्रंश दोहों और भाषा गीतों में पाया जाता है। इनकी भाषा मिथिला के पूर्वीय भाग की बोली का प्राचीन रूप है तथापि बँगला, उड़िया और असमिया भी अपना आदि-साहित्य इन्हीं को मानती हैं। इसके बाद इसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग मिथिला में कार्णाट राजाओं का उदय हुआ। उन्होंने मैथिल संगीत की परंपरा स्थापित की जिसके कारण काणाटिवंश के हरसिंह देव का काल स्वर्णयुग (लगभग 1324 ई0) कहलाया। उनके समकालीन ज्योतिरीश्वर ठाकुर का "वर्णन-रत्नाकर" नामक एक महान गद्यकाव्य मिलता है। इसमें विभिन्न विषयों पर कवियों के उपयोगार्थ उपमाओं और वर्णनों को सजाकर रखा गया है। (हाल ही में उन्हीं का "धूर्तसमागम" नामक नाटक और मैथिली गीत भी उपलब्ध हुए हैं।)
ज्यातिरीश्वर के उपरांत विद्यापति ठाकुर का युग आता है (1350-1450)। इस युग में मिथिला में ओइनिवार वंश का राज्य था। बंगाल में जयदेव ने जिस कृष्ण प्रेम के संगीत की परंपरा चलाई, उसी में मैथिल कोकिल विद्यापति ने हजारों पदों में अपना सुर मिलाया और उसी के साथ मैथिली काव्यधारा की विशेषत: गीतिकाव्य की एक अनोधी परंपरा चल पड़ी जिसने तीन शताब्दियों तक पूर्वीय भारत में मैथिली का सिक्का जमा दिया।
विद्यापति की प्रसिद्धि बंगाल में, उड़ीसा में और असम में खूब हुई। इन देशों में विद्यापति को वैष्णव माना गया और उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने मैथिली में पदावलियाँ रचीं। इस साहित्य की परंपरा आधुनिक काल तक चली आई है। 20वीं शताब्दी में विश्वकवि रवींद्र ने "भानुसिंहेर पदावली" के नाम से कई सुंदर ब्रजबुलीद पद लिखे।
विद्यापति की परंपरा मिथिला में भी चली। न केवल इनके राधाकृष्ण संबंधी श्रृंगारिक गीत, किंतु शक्ति और शिव विषयक कविताओं का भी (जिनहें क्रमश: गोसाउनिक गीत और नचारी कहते हैं) लोग अभ्यास करने लगे। विद्यापति के समकालीन कवियों में अमृतकर, चंद्रकला, भानु, दशावधान, विष्णुपुरी, कवि शेखर यशोधर, चतुर्भुज और भीषम कवि उल्लेखनीय हैं। विद्यापति के परवर्ती कवियों में, महाराज कंसनारायण (लगभग 1527 ई0) के दरबार में रहनेवाले कवियों का नाम लिया जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध लोकप्रिय कवि गोविंद हुए। ये गोविंददास से भिन्न थे और इनकी पदावली "कंसनारायण पदावली" में मिलती है। विद्यापति परंपरा के परकालीन कविर्यो में महिनाथ ठाकुर, लोचन झा, हर्षनाथ झा और चंदा झा के नाम गिनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल में तीन कवि प्रसिद्ध हुए जिन्होंने विद्यापति के शिव और शक्ति विषयक पदों का विशेष अनुकरण किया। उनके नाम हैं सिंह नरसिंह, भूपतींद्र मल्ल और जगतप्रकाश मल्ल।
मध्य काल
[संपादित करें]मध्यकाल में मुसलमानों के आक्रमणों के कारण मिथिला में कई वर्षो तक अराजकता रही। ओइनिवार वंश के नष्ट होने के बाद मिथिला के अधिकतर विद्वान कवि और संगीतज्ञ नेपाल के राजदरबारों में संरक्षण के लिये चले गए। वहाँ के मल्ल राजाओं की काव्य और नाटक का बड़ा शौक था। इसलिए मध्ययुगीन मैथिली साहित्य का एक बड़ा अंश नेपाल में ही लिखा गया।
नेपाल में रचित साहित्य में नाट्य साहित्य मुख्य था। पहले संस्कृत के नाटकों में मैथिली गानों का संनिवेश करना आरंभ हुआ। क्रमश: उनमें संस्कृत और प्राकृत का व्यवहार कम होने लगा और मैथिली में ही संपूर्ण नाटक लिखे जाने लगे। अंत में संस्कृत नाटक की भी रूपरेखा छोड़ दी गई और एक अभिनव गीतिनाट्य की परंपरा स्थापित हुई। इनमें संगीत की प्रधानता रहती थी। अधिकांश कथानक संकेत में ही व्यक्त होता था और गद्य का व्यवहार नहीं होता था। राजसभाओं में ही ये नाटक अभिनीत होते थे। रंगमंच खुला रहता था और अभिनय दिन में होता था। कथानक नवीन नहीं हुआ करते थे- बहुधा पुराने पौराणिक आख्यान या नाटक को ही फिर से गीतिनाट्य का रूप देकर अथवा केवल संशोधन करके ही उपस्थित कर देते थे।
नेपाली नाटककारों की कार्यभूमि मुख्यत: तीन स्थानों में रही- भक्तपुर, काठमांडू और पाटन। भक्तपुर में सबसे अधिक नाटक लिखे गए और अभिनीत हुए। मुख्य नाटककार पाँच हुए- जगज्योतिर्मल्ल, जगत्प्रकाश मल्ल, जितामित्र मल्ल, भूपतींद्र मल्ल और रणजित मल्ल। इनमें सबसे अधिक नाटक रणजित मल्ल ने लिखे। इनके बनाए 19 नाटकों का पता अब तक लगा है। काठमांडू में सबसे प्रसिद्ध नाटककार वंशमणि झा हुए। पाटन में सबसे बड़े कवि और नाटककार सिद्धिनरसिंह मल्ल (1620-1657) हुए।
नेपाली नाटकों की परम्परा 1768 ईस्वी में नष्ट हो गई जब महाराज पृथ्वीनारायण शाह ने वहाँ के मल्ल राजाओं को हराकर गुरखों का राज्य स्थापित किया।
मध्यकाल-2 (1600-1660)
[संपादित करें]मैथिली नाटक मिथिला के राजदरबारों में गीतिनाट्य परंपरा बन रही थी जिसको 'कीर्तनिया नाटक' कहते हैं।
कीर्तनिया नाटक का आरम्भ प्राय: शिव या कृष्ण के चरित्र का कीर्तन करने से हुआ। परंतु वे धार्मिक नाटक नहीं होते थे। कीर्तनिया का अभिनय रात को होता था तथा इसका अपना विशेष संगीत हुआ करता था जिसे नादी कहते हैं।
कीर्तनिया नाटकों के आरंभ में भी केवल मैथिली गानों को संस्कृत नाटकों में रखा जाता था। ये गान संस्कृत श्लोंकों या वाक्यों का अर्थमात्र ललित भाषा में स्पष्ट करते थे। हाँ, कभी कभी स्वतंत्र गान का भी उपयोग होता था। क्रमश: लगभग संपूर्ण नाटक मैथिली गानमय होने लगा।
कीर्तनिया नाटककारों को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता हैं-1350-1700 तक, 1700-1900 तक और 1900-1950 तक।
पहले काल में विद्यापति का गोरक्षविजय, गोविंद कवि नलचरितनाट, रामदास का अनंदविजय, देवानन्द का उषाहरण, उमापति का पारिजातहरण और रमापति का रुकमणि परिणय गिने जा सकते हैं। इसमें सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध उमापति उपाध्याय (18वीं शताब्दी) हुए।
दूसरे काल के मुख्य नाटककार हैं- लाल कवि, नंदीपति, गाकुलानंद, जयानंद कान्हाराम, रत्नपाणि, भानुनाथ और हर्षनाथ। इनमें लाल कवि का गौरी स्वयंवर और हर्षनाथ का उषाहरण तथा माघवानंद अधिक प्रसिद्ध और साहित्यक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
तीसरे काल के लेखक विश्वनाथ झा, "बालाजी", चंदा झा और राजपंडित बलदेव मिश्र हैं। इनके नाटकों में प्राचीन कवियों के गानों और पदों की ही पुनरुक्ति अधिक हैं, नाटकीय संघर्ष का नितांत अभाव है।
मध्यकाल-3 (1600-1690ई.)
[संपादित करें]मैथिली नाटक (असम में) सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में मैथिली नाटक का एक रूप असम में भी विकसति हुआ, सुखन जिसे अंकिया-नाट कहते हैं। यह उपर्युक्त दोनों नाटकों की परंपराओं से भिन्न प्रकार का हुआ। इसमें लगभग संपूर्ण नाटक गद्यमय ही होता था। सूत्रधार पूरे पूरे नाटक में अभिनय करता था। अभिनय से अधिक वर्णनचमत्कार या पाठ की ओर ध्यान था। इन नाटकों का उद्देश्य मनोविनोद मात्र नहीं था, वरन् वैष्णव धर्म का प्रचार करना था। अधिकतर ये नाटक कृष्ण की वात्सल्यमय लीलाओं का वर्णन करते थे। इनमें एक ही अधिक अंकर नहीं होते थे।
अंकिया नाटककारों में शंकरदेव (1449-1558), माधवदेव और गोपालदेव के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध शंकर देव हुए। इनका रुक्मणीहरण नाटक असम में सबसे अधिक लोकप्रिय हैं।
मध्यकाल-4 (1600-1890)
[संपादित करें]गद्य साहित्य- इस काल के प्राचीन दानपत्र एवं पत्रों से मैथिली गद्य के स्वरूप का विकास जाना जा सकता है। इनसे उस समय के दास प्रथा संबंधी विषयों का पूर्ण ज्ञान होता हैं।
विद्यापति परंपरा के अतिरिक्त जो गीतिकाव्यकार हुए उनमें भज्जन कवि, लाल कवि, कर्ण श्याम प्रभृंति मुख्य हैं। पद्य का एक नया विकास लंबे काव्य, महाकाव्य, चरित और सम्मर के रूप में हुआ इनके लेखकों में कृष्णजन्म कर्ता मनवोध, नंदापति रतिपति और चक्रपाणि उल्लेखनीय हैं।
तीसरी धारा काव्यकर्ताओं की वह हुई जिसमें संतों ने (विशेषकर वैष्णव संतों ने) गीत लिखे। इनमें सबसे प्रसिद्ध साइब रामदास हुए। इनकी 'पदावली' का रचनाकाल 1746 ई. है।
आधुनिक काल
[संपादित करें]सन् 1860 ई में मिथिला में आधुनिक जीवन का सूत्रपात हुआ। सिपाही विद्रोह से जो अराजकता छा गई थी वह दूर हुई। पश्चिमी शिक्षा का प्रचार होने लगा, रेल और तार का व्यवहार आरंभ हुआ, स्वायत्त शासन की सुविधा हुई तथा मुद्रणालयों की स्थापना होने लगी। इसी समय कतिपय साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं की स्थापना हुई जो नव जाग्रति के कार्य को पूर्ण करने में संलग्न हुई। फलस्वरूप लोगों की अभिरुचि प्राचीन साहित्य के अन्वेषण और अध्ययन की और गई और नवीन युग के अनुरूप साहित्य की नींव पड़ी।
नवयुग के निर्माण में कवीश्वर चंदा झा (मृत्यु 1907 ई।) का नाम सबसे महत्वपर्ण है। इनके महाकाव्य "रामायण" की रचना से मैथिली भाषा का गौरव ऊँचा हुआ।
आधुनिक युग गद्य का युग है। मैथिली समाचारपत्रों ने गद्य के विकास में महत्वपूर्ण सहायता दी। इसीलिये मैथिलहितसाधन, मिथ्थिलामोद, मिथिलामिहिर और मिथिला के नाम मैथिली गद्य के इतिहास में अमर हैं। मैथिली लेखशैली की वैज्ञानिक पद्धति का निर्ण म0 भ0 डॉ॰ श्री उमेश मिश्र, रमानाथ झा और वैयाकरणों के द्वारा (विशेषत: दीनबंधु झा द्वारा) हो जाने से आधुनिक गद्य का रूप परिपक्व हो गया है।
किन्तु मैथिली के सर्वांगीण विकास मे बाबू भोलालाल दास का जो योगदान है वह अप्रतिम है। उन्होने न केवल मैथिली को विश्वविद्यालय के अध्यापन क्षेत्र मे प्रवेश दिलवाया अपितु मैथिली मे लिखने हेतु अन्यान्य लेखको को प्रेरित किया और मैथिली मे अनेक कथाकारो और निबन्धकारो के जन्मदाता साबित हुए। मैथिली के प्रथम व्याकरणाचार्य और बाल साहित्यकार अगर बाबू भोलालाल दास को माना जाय तो कोइ अतिशयोक्ति नही होगी। यह भी उन्ही की देन है कि मैथिली भारतीय सन्विधान की ८वीं अनुसूची मे स्थान प्राप्त कर सका।
उपन्यास और कहानी आधुनिक युग की प्रमुख देन है। इन क्षेत्रों में पहले अनुवाद अधिक हुए, जिनमें परमेश्वर झा के सामंतिनी आख्यान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आरम्भ में रासबिहारीलाल दास, जनार्दन झा, भोला झा और पुण्यानंद झा की कृतियों प्रसिद्ध हुईं। इधर आकर हरिमोहन झा ने "कन्यादान" और "द्विरागमन" में मैथिली उपन्यास को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। व्यंग्य, चामत्कारिक भाषा और सजीव चित्रण इनकी विशेषताएँ हैं। "सरोज यात्री", "व्यास", झा प्रभृति गत दशक के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। इन्होंने सामाजिक जीवन के निकटतम पहलुओं को दिखलाने की चेष्टा की है। 21 वीं सदी में गौरीनाथ का उपन्यास दाग खासा चर्चित रहा है।
"गल्पलेखकों में विद्यासिंधु", "सरोज", "किरण", "भुवन" आदि उल्लेखनीय कलाकर (हरिमोहन झा हास्य रस की अत्यंत ह्रदयग्राही कहानियाँ लिखते हैं)। यंगानंद सिंह, नगेंद्रकुमार, मनमोहन, उमानाथ झा और उपेंद्रनाथ झा हमारे उच्च श्रेणी के कहानीकार है। रमाकर, शेखर, यात्री और अमर कल्पनाशील कहानियाँ लिखते हैं।
निबंध के स्वरूप आदि में देशोन्नति की भावना व्याप्त है। गंगानंद सिंह, भुवन जी, उमेंश मिश्र प्रभृति गंभीर लेख लिखते हैं। भाषा और साहित्य पर लिखनेवालों में दीनबंधु झा, डॉ॰ सुभद्र झा, गंगापति सिंह, नरेंद्रनाथ दास प्रभृति अग्रगझय हैं। दार्शनिक गद्य क्षेमधारी सिंह, डॉ॰ सर गंगानाथ झा आदि ने लिखा है।
आधुनिक मैथिली काव्य की दो मुख्य धाराएँ है, एक प्राचीनतावादी और दूसरी नवीनतावादी। प्राचनतावादी कवि महाकाव्य, खंडकाव्य, परंपरागत गीतिकाव्य, मुक्तक काव्य आदि लिखते हैं। इनमें मुख्य कवि चंदा झा, रघुनंवदनदास, लालदास, बदरीनाथ झा, दत्तबंधु, गणनाथ झा, सीताराम झा, ऋद्धिनाथ झा और जीवन झा हैं। नवीन धारा में देशभक्ति का काव्य, आधुनिक गतिकाव्य, वर्णनात्मक और हास्यत्मक काव्य गिनाए जा सकते हैं। इनमें यदुवर और राधवाचार्य, भुवन, सुमन, मोहन और यात्री, एवं अमर तथा हरिमोहन झा उल्लेखनीय हैं।
मैथिली के गौरवर्पूण इतिहास में पध के साथ साथ गध साहित्य का अनुपम योगदान है। यहाँ के ग्रामीणोँ में गोनु झा के चतुराई की कहानियाँ अत्यन्त लोकप्रिय है। यहाँ की भुमि देवस्पर्श की धनी है। यहाँ की भुमि राम सिया के पावन विवाह की साक्षी बनी। यहाँ इस विवाह से संबंधित लोक गीत अति लोकप्रिय हैं।
नाटक की पुरानी परंपराएँ समाप्त हो गई हैं और जीवन झा ने प्रचुर आधुनिक गद्य का समावेश कर नवीन नाटक की नींव डाली है। आनन्द झा और ईशनाथ झा के नाटकों का स्थान आधुनिक काल में महत्वपूर्ण है। इधर एकांकी नाटकों का विशेष प्रचार हुआ है। इनके लेखकों में तंंत्रनाथ झा और हरिमोहन झा के नाम प्रमुख हैं।
- मैथिली के अन्य आधुनिक साहित्यकार
- अमृतकर
- बिष्णुपुरी
- गोविन्द दास
- नृपति जगज्योतिर्मल्ल
- उमापति
- नरसिंह
- लोचन
- चतुर चतुर्भुज
- रघुनाथदास
- महाकवि मनबोध
- लक्ष्मीनाथ गोसाई
- भानुनाथ झा
- चन्दा झा
- रामजी चौधरी
- हर्षनाथ झा
- लालदास
- कविवर जीवन झा
- कुमार गंगानन्द सिंह
- मुन्शी रघुन्दन झा
- जनार्दन झा,जनसीदन
- ललित नारायण मिश्र
- भवप्रीतनन्द ओझा
- रामवृक्ष बेनीपुरी
- त्रिपुरारि कुमार शर्मा
- कुशेश्वर कुमर
- सीता राम झा
- कविवर बदरीनाथ झा
- पुलकित लाल दास मधुर
- छेदी लाल द्विजवर
- बाबू छेमधारी सिंह
- अच्युतानन्द दत्त
- भोला लाल दास
- महावीर झा वीर
- श्रीवल्लभ झा
- श्यामनन्द झा
- जयनारायण झा
- डा० कांचीनाथ झा
- बाबू भुवनेश्वर सिंह भुवन
- बाबू लझ्मी सिंह
- ईशनाथ झा
- काशीकान्त मधुप
- हरिमोहन झा
- राजकमल चौधरी
- कविचूड़ामणि मधुप
- रामधारी सिंह दिनकर
- तंत्रनाथ
- स्नेहलता
- कालीकान्त झा बूच
- शिवकुमार झा टिल्लू
- चंद्रशेखर कामति
- बाल मुकुन्द
- जीवनाथ झा
- सुरेन्द झा सुमन
- रमेश चन्द्र झा
- वैधनाथ मिश्र यात्री,नागार्जुन
- आरसी प्रसाद सिंह
- वैध नाथ मल्लिक
- उपेन्द ठाकुर
- राम इकबाल सिंह ,राकेश,
- आनन्द झा
- जयनारायण मल्लिक
- राजलछ्मी
- राघवाचार्य
- उपेन्द नाथ व्यास
- ब्रजकिशोर सिंह रमाकर
- रामचरित्र पाण्डे
- फणीश्वर नाथ "रेणु
- सुधांशु शेखर
- गोविन्द झा
- रामाकृष्ण किशुन
- चन्दर मिश्र अमर
- चन्दभानु सिंह
- दीनानाथ पाठक
- भवनाथ दीपक
- मधुरानन्द चौधरी
- दुर्गानाथ झा
- राजकमल चौधरी
- गोपाल गोपेश
- केदारनाथ लाभ
- भोलानाथ झा धुमकेतु
- मायानन्द
- धीरेश्वर धीरेन्द
- सोमन डोम
- सोमदेव
- रामानन्द रेणु
- मन्नत नाथ हंसराज
- रवीन्द्र नाथ ठाकुर
- कीतिनारायण
- जीवकान्त
- मैथिली पुत्र प्रदीप
- गौरीकान्त चौधरी
- गनेश गुंजन
- कुलानन्द मिश्र
- मो. फजलुर रहमान हाशमी
- विलट पासवान विहंगम
- मार्कण्डेय प्रवासी
- विधानाथ विदित
- बुध्दिनाथ
- पधनारायण
- मोहन भारद्वाज
- उदय चन्द विनोद
- कलानन्द भट्ट
- डा.अमरेश पाठक
- मंत्रेश्वर झा
- उपेन्द दोसी
- शान्ति सुमन
- डॉ. भीमनाथ झा
- इलारानी सिंह
- गौरीनाथ ठाकुर
- विरेन्द मल्लिक
- जगदीश प्रसाद मण्डल
- डॉ. बचेश्वर झा
- महाप्रकाश
- डॉ. योगेन्द्र पाठक ‘वियोगी’
- डॉ. जयनारायण गिरी
- सुकान्त सोम
- उदय नारायण सिंह नचिकेता
- रामभरोस कापड़ि
- लक्ष्मण झा सागर
- कपिलेश्वर राउत
- रामदेव भावुक
- रबीन्द्र नारायण मिश्र
- विभूति आनंद
- अच्छेलाल शास्त्री-
- नारायण यादव
- डॉ. शिव कुमार प्रसाद
- नन्द विलास राय
- राम विलास साहु
- महेन्द्र नारायण राम
- राजदेव मण्डल
- मो. सद्रे आलम गौहर
- अरविन्द श्रीवास्तव
- लालदेव कामत
- जय प्रकाश मण्डल
- सुरेश पासवान
- दुर्गा नन्द मण्डल
- रामदेव प्रसाद मण्डल ‘झारूदार’
- बेचन ठाकुर
- रघुनाथ मुखिया
- संजय भागलपुरी
- उदय शंकर
- राज सिंह बनारसी
- शरदिन्दु चौधरी
- महावीर उतराचंली
- प्रदीप कुमार
- राम नरेश
- दीनानाथ प्रसाद ‘जुवराज’
- श्री मनोज
- रामसिफित पासवान
- डा० मो० जियाउर रहमान जाफरी
- डॉ. उमेश मण्डल
- प्रदीप पुष्प
- किशन कारीगर (यादव)
- मुन्नी कामत
- काशीकान्त मिश्र'मधुप'
- मणिपद्म
- हरे कृष्ण झा
- तारानंद वियोगी
- कृष्ण मोहन झा
- अविनाश
- रमण कुमार सिंह
- कामिनी
- रामभरोस कापड़ी भ्रमर
- दिनेश यादव
- श्रीहर्ष आचार्य
- दिपक वत्स
- निशांत सिंह
- रामजी चौधरी (१८७८-१९५२)
- बिनोद बिहारी वर्मा
- नागार्जुन
- उग्रनारायण मिश्र "कनक"
- आरसी प्रसाद सिंह
- त्रिपुरारि
- विनीत ठाकुर
- संतोष कुमार मिश्रा
- चन्दा झा
- जीवन झा
- सीताराम झा
- बाबू भोलालाल दास
- सुरेन्द्र झा सुमन
- काशीकान्त मिश्र मधुप
- मणिपद्म
- राजकमल चौधरी
- हरिमोहन झा
- ललित
- सोमदेव
- चन्द्र्नाथ मिश्र 'अमर'
- रामदेव झा
- भीमनाथ झा
- धीरेन्द्र
- बलराम
- राज मोहन झा
- प्रभास कुमार चौधरी
- धूमकेतु
- जीवकान्त
- गंगेश गुंजन
- महाप्रकाश
- डॉ. तारानंद वियोगी
- अशोक
- शिवशंकर श्रीनिवास
- प्रदीप बिहारी
- विभूति आनंद
- नारायण जी
- डॉ. सुरेंद्र लाल दास
- उदय चंद्र झा विनोद
- दिलीप कुमार झा
- डॉ. शेफालिका वर्मा
- जगदीश प्रसाद कर्न
- उषा किरण खान
- गजेन्द्र ठाकुर
- बेचन ठाकुर
- राम विलास साहु
- दुर्गानन्द मण्डल
- धीरेन्द्र कुमार
- डॉ. बिभा कुमारी
- नारायण यादव
- मुन्नी कामत
- कपिलेश्वर राउत
- शिव कुमार प्रसाद :
- डॉ.बचेश्वर झा
- गौरीनाथ
- श्रीधरम
- शुभेंदु शेखर
- कुणाल
- गौतम गोविन्द (1995 से वर्तमान)
- डॉ. शिव कुमार प्रसाद
- धीरेन्द्र कुमार
- प्रदीप पुष्प
- लालदेव कामत
- दीनानाथ प्रसाद 'जुवराज'
- किशन कारीगर
- जय प्रकाश मण्डल
- उमेश पासवान
- मो. सद्रे आलम गौहर
- रघुनाथ मुखिया
- बद्रनाथ राय
- रबीन्द्र नारायण मिश्र
- पं. बाल गोविन्द आर्य
- जगदीश प्रसाद मण्डल
- मन्त्रेश्वर झा
- प्रीतम कुमार निषाद
- डॉ. योगेन्द्र पाठक 'वियोगी'
- सुशान्त भास्कर
नाटक
[संपादित करें]- ओकरा आंगनक बारहमासा : यह नाटक मैथिली का सबसे प्रसिद्ध नाटक है। इसके नाटककार महेन्द्र मलन्गिया जी हैं।
- ओ खाली मुँह देखै छै
- गाम नै सुतैये
- खिच्चैर
- कमला कातक राम, लक्ष्मण आ सीता
- देह पर कोठी खसा दिअ
- चीनिक लड्डू
- बसात
- भफाइत चाहक जिनगी : एहि नाटकक रचयिता- शुधांशु शेखर चौधरी छैथ
- छुतहा घैल
- ओरिजनल काम
- काठक लोक
- डाक बाबू
- काजे तोहर भगवान
- विदापत
- मिथिलाक बेटी : नाटकार- जगदीश प्रसाद मण्डल
- स्वयंवर : नाटककार- जगदीश प्रसाद मण्डल
- झमेलिया बिआह : नाटककार- जगदीश प्रसाद मण्डल
- पंचवटी एकांकी संचयन : नाटककार- जगदीश प्रसाद मण्डल
- बाप भेल पित्ती : एहि नाटकक रचयिता छैथ- बेचन ठाकुर
पत्रिका
[संपादित करें]- अंतिका - सं. अनलकांत
- आरंभ - सं. राज मोहन झा
- शिखा - सं. अग्निपुष्प, कुणाल
- गामघर (साप्ताहिक) - सम्पादक : राम भरोस कपारी भ्रमर
- आँजुर (मासिक) - सम्पादक : राम भरोस कपारी भ्रमर
- कोसी सन्देश- सं. अर्द्धनारीश्वर
- विदेह-सदेह- सं. गजेन्द्र ठाकुर
- समय साल-
- घर-बाहर
- मिथिला दर्शन
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Yadava, Y. P. (2013). Linguistic context and language endangerment in Nepal. Nepalese Linguistics 28: 262–274.
- ↑ "धनुषाधामको पर्यटकीय विकासमा बिदेह मिथिला सकृय". जनकपुर् टुडे (नेपाली में). मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जनवरी 2014.
- ↑ "मैथिली भाषाका जोड़ नही". जागरण. मूल से 9 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 दिसंबर 2013.
- ↑ "महाकवि विद्यापति की रचनाओं का काव्य सौंदर्य". हिन्दू जक्सन. मूल से 19 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 दिसंबर 2015.
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- विदेह - प्रथम मैथिली पाक्षिक इ पत्रिका