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"धन्वन्तरि": अवतरणों में अंतर

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::::'''कालाम्भोदोज्ज्वलाङ्गं कटितटविलसच्चारूपीताम्बराढ्यम्।'''
::::'''कालाम्भोदोज्ज्वलाङ्गं कटितटविलसच्चारूपीताम्बराढ्यम्।'''
::::'''वन्दे धन्वन्तरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम्॥'''<ref name="ॐ"/>
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'''धन्वन्तरि पूजा विधि'''

हिन्दू धर्म में धन्वंतरि देवताओं के वैद्य माने गए हैं। धन्वंतरि महान चिकित्सक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार धनवंतरि भगवान विष्णु के अवतार समझे गए हैं। समुद्र मंथन के दौरान धन्वंतरि का पृथ्वी लोक में अवतरण हुआ था।

शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरि, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिए दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरि का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है।

धन्वन्तरि त्रयोदशी के दिन इस पूजा को करें


आचमन
पांच नदीयों का जल पांच पात्र से तीन बार लेकर आचमन करें

ॐ आत्मा -तत्त्वं शोधयामि स्वाहा।
ॐ विद्या -तत्त्वं शोधयामि स्वाहा ।
ॐ शिवा -तत्त्वं शोधयामि स्वाहा ।


सङ्कल्प
आचमन के बाद पांच पात्र से जल लकर हाथ स्वच्छ करें .
दाहिने हाथ में स्वच्छ जल अक्षत, पुष्प आदि लेकर संकल्प बोलें


पूजा संकल्प मंत्र

ॐ तत्सत अद्येतस्य ब्रह्मनोहनी द्वितीय -प्रहारार्द्धे श्वेत-वराह -कल्पे
जम्बू -द्वीप भारत -खंड अमुक -प्रदेशे अमुक -पुण्य -क्षेत्र कलियुगे
कलि -प्रथम -चराने अमुक -संवत्सरे कार्तिक -मासे कृष्ण -पक्षे
त्रयोदशी -तिथौ अमुक -वासरे अमुक -गोत्रोत्पन्नो अमुक -नाम -अहम्
श्री धन्वन्तरि -देवता -प्रीति -पूर्वकम आयुष्य -आरोग्य -ऐश्वर्या -अभिवृद्धयर्थं
श्री धन्वन्तरि -पूजनामहम करिष्यामि ।

मन्त्र अर्थ - ॐ तत्सत् (ब्रह्म ही एक-मात्र सत्य है)। आज ब्रह्मा के प्रथम दिवस के इस दूसरे पहर में, श्वेत-वराह नामक कल्प में, 'जम्बू' नामक द्वीप में, 'भरत' के भू-खण्ड में, अमुक नामक 'प्रदेश' में, अमुक पवित्र 'क्षेत्र' में, 'कलियुग' में, 'कलि' के प्रथम चरण में, अमुक 'सम्वत्सर' में, कार्तिक 'मास' में, कृष्ण 'पक्ष' में, त्रयोदशी 'तिथि' में, अमुक 'दिवस' में, अमुक 'मैं' में उत्पन्न, अमुक 'नाम' वाला 'मैं', श्रीधन्वन्तरि देवता की प्रसन्नता-पूर्वक आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य की अभिवृद्धि के लिए मैं श्रीधन्वन्तरि की पूजा करूँगा।
इस प्रकार संकल्प पढ़कर दाहिने हाथ में लिया हुआ जल अपने सम्मुख छोड़ दे।


आत्म-शोधन
संकल्प पाठ के बाद जल अपने पर व् पूजा सामग्री पर छिड़कें
ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोपि व ।
यह स्मरेत पुण्डरीकाक्षं सा बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
मन्त्र अर्थ - अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी दशा में हो, जो कमल-नयन इष्ट – देवता का स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर दोनों प्रकार से पवित्र हो जाता है।


ध्यान
भगवान धन्वन्तरि का ध्यान शुद्ध घी के दीपक के सामने करें

भगवान धन्वन्तरि

चतुर्भुजम पिता -वस्त्रम सर्वालंकारा -शोभितं ।
ध्याये धन्वन्तरिम देवम सुरसुरा -नमस्कृतम ॥1॥

युवनाम पुण्डरीकाक्षं सर्वाभरणा -भूषिताम ।
दधानममृतस्यैव कमण्डलूम श्रिया -युतं ॥2॥

यज्ञ -भोग -भुजं देवम सुरसुरा -नमस्कृतम ।
ध्याये धन्वन्तरिम देवम श्वेताम्बर -धर्म शुभम ॥3॥

मन्त्र अर्थ - मैं चार भुजाओंवाले, पीले वस्त्र पहने हुए, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित, सुरों और असुरों द्वारा वन्दित भगवान् धन्वन्तरि का ध्यान करता हूँ॥१॥
तरुण, कमल-नयन, सभी अलंकारों से विभूषित, अमृत-पूर्ण कमण्डलु लिये हुए, यज्ञ-भाग को खानेवाले, देवों और दानवों से वन्दित, श्री से युक्त, भगवान् धन्वन्तरि का मैं ध्यान करता हूँ॥२-३॥

आवाहन
आवाहन मुद्रा प्रदर्शित करते हुए भगवान धन्वन्तरि का आवाहन करें दोनों हाथों के को नमस्कार मुद्रा में दोनों अंगुष्ठों को अंदर मोड़ कर रखें

आगच्छा देवा -देवेश ! तेजोराशि जगत्पते !
क्रियामनाम माया पूजाम ग्रहण सूरा -सत्तामा !
॥श्री धन्वन्तरि -देवम आवाहयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवताओं के ईश्वर! तेज-सम्पन्न हे संसार के स्वामिन्! हे देवोत्तम! आइये, मेरे द्वारा की जानेवाली पूजा को स्वीकार करें।
॥मैं भगवान् श्रीधन्वन्तरि का आवाहन करता हूँ॥


पुष्पाञ्जलि
निम्न मंत्र को बोलते हुए पांच पुष्पोव को हाथ में लेकर भगवान श्री धन्वन्तरि को पुष्पांजलि दें
नाना -रत्न -समायुक्तं , कर्ता -स्वर -विभूषिताम ।
असणं देवा -देवेश ! प्रीत्यर्थं प्रति -गृह्यताम ॥
॥श्री धन्वन्तरि -देवया आसनार्थे पंचा -पुष्पाणि समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवताओं के ईश्वर! विविध प्रकार के रत्न से युक्त स्वर्ण-सज्जित आसन को प्रसन्नता हेतु ग्रहण करें।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के आसन के लिये मैं पाँच पुष्प अर्पित करता हूँ॥


स्वागत

श्री धन्वन्तरि -देवा ! स्वागतम ।
मन्त्र अर्थ - हे भगवान् धन्वन्तरि ! आपका स्वागत है।


पाद्य-समर्पण
भगवान् धन्वन्तरि के चरण जल से धोएं

पद्यम गृहण देवेश , सर्व -क्षमा -समर्थ , भोह !
भक्त्या समर्पितं देवा , लोकनाथ ! नमोअस्तु ते ॥
॥श्री धन्वन्तरि -देवया पद्यम नमः ॥

मन्त्र अर्थ - सब प्रकार के कल्याण करने में सक्षम हे देवेश्वर! पैर धोने का जल भक्ति-पूर्वक समर्पित है। उसे स्वीकार करें। हे विश्वेश्वर भगवन्! आपको नमस्कार है।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि को पैर धोने के लिये यह जल है-उन्हें नमस्कार॥


अर्घ्य-समर्पण
शिर के अभिषेक के लिये अर्घ्य करें

नमस्ते देवा -देवेश ! नमस्ते धरणी -धरा !
नमस्ते जगदाधरा ! अर्घ्यायम प्रति -गृह्यताम ।
गंधा -पुष्पाक्षतैर्युक्तं , पहाला -द्रव्य -समन्वितम ।
गृहण तोयमर्घ्यर्थम , परमेश्वर वत्सला !
॥श्री धन्वन्तरि -देवया अर्घ्यम स्वाहा ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवेश्वर! आपको नमस्कार। हे धरती को धारण करनेवाले! आपको नमस्कार। हे जगत् के आधार-स्वरूप! आपको नमस्कार। शिर के अभिषेक के लिये यह जल (अर्घ्य) स्वीकार करें। हे कृपालु परमेश्वर! चन्दन-पुष्प-अक्षत से युक्त, फल और द्रव्य के सहित यह जल शिर के अभिषेक के लिये स्वीकार करें।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये अर्घ्य समर्पित है॥


गन्ध-समर्पण/चन्दन-समर्पण

श्री -खंडा -चन्दनम दिव्यम गन्धाढ्यम सुमनोहरम ।
विलेपनं सूरा -श्रेष्ठ ! चन्दनम प्रति -गृह्यताम ॥
॥श्री धन्वन्तरि -देवया चन्दनम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवोत्तम! मनोहर और सुगन्धित चन्दन शरीर में लगाने हेतु ग्रहण करें।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये चन्दन समर्पित करता हूँ॥


पुष्प-समर्पण

सेवन्तिका -वाकुला -चम्पका -पाटबजैह , पुन्नगा -जाती -करवीरा -रसाला -पुष्पैः ।
विल्व -प्रवाला -तुलसी -दला -मल्लिकाभिस्त्वं , पूजयामि जगदीश्वर ! में प्रसीदा ॥
॥श्री धन्वन्तरि -देवया पुष्पम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे लोकेश्वर! श्वेत गुलाब (सेमन्ती), बकुल, चम्पा, लाल-पीला कमल, पुन्नाग (लोध्र), मालती, कनेर पुष्पों और बेल, मूँगे, तुलसी तथा मालती की पत्तियों द्वारा मैं आपकी पूजा करता हूँ। मुझ पर आप प्रसन्न हों।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये पुष्प समर्पित करता हूँ॥


धूप-समर्पण

वनस्पति -रसोद्भूतो गन्धाढ्यः सुमनोहरः ।
अग्रेयह सर्व -देवानाम , धूपवायाम प्रति -गृह्यताम ॥
॥श्री धन्वन्तरि -देवया धूपं समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - वृक्षों के रस से बनी हुई, सुन्दर, मनोहर, सुगन्धित और सभी देवताओं के सूँघने के योग्य यह धूप आप ग्रहण करें।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं धूप समर्पित करता हूँ॥


दीप-समर्पण
सज्यम वर्ती -संयुक्तं च वह्निना योजितं माया ,
दीपम गृहण देवेश ! त्रैलोक्य -तिमिरापहम ।
भक्त्या दीपम प्रयच्छामि देवया परमात्मने ।
त्राहि मां निरायड घोरडिपोअयम प्रति -गृह्यताम ॥
॥श्री धन्वन्तरि -देवया दीपम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवेश्वर! घी के सहित और बत्ती से मेरे द्वारा जलाया हुआ, तीनो लोकों के अँधेरे को दूर करनेवाला दीपक स्वीकार करें। मैं भक्ति-पूर्वक परमात्मा भगवान् को दीपक प्रदान करता हूँ। इस दीपक को स्वीकार करें और घोर नरक से मेरी रक्षा करें।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं दीपक समर्पित करता हूँ॥


नैवेद्य-समर्पण
शर्करा -खंडा -खाद्यानि दधि -क्षीरा -घृतनि च ।
अहारो भक्ष्य -भोज्यं च नैवेद्यम प्रति -गृह्यताम ।

॥यथामशतः श्री धन्वन्तरि -देवया नैवेद्यम समर्पयामि –
ॐ प्राणाय स्वाहा । ॐ अपानाय स्वाहा । ॐ व्यानाय स्वाहा ।
ॐ उदानाय स्वाहा । ॐ समानय स्वाहा ॥
मन्त्र अर्थ - शर्करा-खण्ड (बताशा आदि), खाद्य पदार्थ, दही, दूध और घी जैसी खाने की वस्तुओं से युक्त भोजन आप ग्रहण करें।
॥यथा-योग्य रूप भगवान् श्रीधन्वन्तरि को मैं नैवेद्य समर्पित करता हूँ-प्राण के लिये, अपान के लिये, व्यान के लिये, उदान के लिये और समान के लिये स्वीकार हो॥


आचमन-समर्पण/जल-समर्पण

ततः पनियम समर्पयामि इति उत्तरापोशनं ।
हस्ता -प्रक्षालनाम समर्पयामि । मुख -प्रक्षालनाम ।
करोद्वर्तनार्थे चन्दनम समर्पयामि ।

मन्त्र अर्थ - नैवेद्य के बाद मैं पीने और आचमन (उत्तरा-पोशन) के लिये, हाथ धोने के लिये, मुख धोने के लिये जल और हाथों में लगाने के लिये चन्दन समर्पित करता हूँ।

ताम्बूल-समर्पण

पूगी -फलम महा -दिव्यम नागा -वल्ली-दलैर्युतम ।
कर्पूरैला -समायुक्तं ताम्बूलं प्रति -गृह्यताम ॥
॥श्री धन्वन्तरि देवया मुख -वासरथं पूगी -पहला -युक्तं ताम्बूलं समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - पान के पत्तों से युक्त अत्यन्त सुन्दर सुपाड़ी, कपूर और इलायची से प्रस्तुत ताम्बूल आप स्वीकार करें।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के मुख को सुगन्धित करने के लिये सुपाड़ी से युक्त ताम्बूल मैं समर्पित करता हूँ॥


दक्षिणा

हिरण्य -गर्भा -गर्भस्थं हेम -विजम विभावसोः ।
अनंता -पुण्य -फलदमतः शान्तिम प्रयच्छा में ॥
॥श्री धन्वन्तरि देवया सुवर्ण -पुष्प -दक्षिणाम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - असीम पुण्य प्रदान करनेवाले स्वर्ण-गर्भित चम्पक पुष्प से मुझे शान्ति प्रदान करिये।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं स्वर्ण-पुष्प-रुपी दक्षिणा प्रदान करता हूँ॥

प्रदक्षिणा
पुश हाथ में लेकर बाएं से दाएं प्रदक्षिणा करें

यानि की च पापानि जन्मांतर -कृतानि च ।
तानी तानी विनश्यन्ति प्रदक्षिणाम पदे पदे॥
अन्यथा शरणम नास्ति त्वमेव शरणम प्रभो !
तस्मात् कारुण्य -भावना क्षमस्व परमेश्वर ॥
॥श्री धन्वन्तरि देवया प्रदक्षिणाम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - पिछले जन्मों में जो भी पाप किये होते हैं, वे सब प्रदक्षिणा करते समय एक-एक पग पर क्रमशः नष्ट होते जाते हैं। हे प्रभो! मेरे लिये कोई अन्य शरण देनेवाला नहीं है, तुम्हीं शरण-दाता हो। अतः हे परमेश्वर! दया-भाव से मुझे क्षमा करो।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि को मैं प्रदक्षिणा समर्पित करता हूँ॥

वन्दना-सहित पुष्पाञ्जलि
पुष्पों के साथ वंदना करें

करा -कृतं व कयजाम कर्मजं व , श्रवण -नयनजं व माणसं वापराधम ।
विडितमविदितं व सर्वमेतत क्षमस्व , जय जय करुणाब्धे , श्री महा देवा शम्भो !
॥श्री धन्वन्तरि देवतायै मंत्र -पुष्पम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे दया-सागर, श्री महा-देव, कल्याण-कर! हाथों-पैरों द्वारा किये हुए या शरीर या कर्म से उत्पन्न, कानों-आँखों से उत्पन्न या मन के जो भी ज्ञात या अज्ञात मेरे अपराध हों, उन सबको आप क्षमा करें। आपकी जय हो, जय हो।
॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं मन्त्र-पुष्पांजलि समर्पित करता हूँ॥

साष्टाङ्ग-प्रणाम

नमः सर्व -हितार्थाय जगदाधरा -हेतवे ।
साष्टांगोयम प्रयत्नेन माया कृतः ॥
नमोअस्त्वनन्ताय सहस्रा -मूर्तये सहस्रा -पदाक्षि -शिरोरु -बहावे ।

मन्त्र अर्थ - सभी का कल्याण करनेवाले, जगत् के आधारभूत आपके लिये मैंने प्रयत्न-पूर्वक यह साष्टाङ्ग प्रणाम किया है-अनन्त भगवान् के लिये, सहस्रों स्वरुपवाले भगवान् के लिये, सहस्रों पैर-आँख-शिर-ऊर और बाहुवाले भगवान् के लिये नमस्कार है।

आरती - इसके बाद

क्षमा-प्रार्थना

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं ।
पूजा -कर्मा न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥
मंत्र -हिनम क्रिया -हिनम भक्ति -हिनम सुरेश्वर !
माया यात -पूजितं देवा ! परिपूर्णं तदस्तु में ॥
अपराध -सहस्राणि क्रियन्तेहर्निशं मया।
दासोअहमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ।
विधेहि देवा ! कल्याणम विधेहि विपुलं श्रियम ।
रूपम देहि , जायँ देहि , यशो देहि , द्विषो जाहि ॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपो -यज्ञ -क्रियादिषु ।
न्यूनम सम्पूर्णतम यति सद्यो वनडे तमच्युतम ॥
अन्ना यथा -मिलितोपचारा -द्रव्यैः कृता-पूजनेना श्री धन्वन्तरि -देवः प्रियतम ।

॥श्री धन्वन्तरि -देवरपानमस्तु ॥

मन्त्र अर्थ - न मैं आवाहन करना जानता हूँ, न विसर्जन करना। पूजा-कर्म भी मैं नहीं जानता। हे परमेश्वर! मुझे क्षमा करो। मन्त्र, क्रिया और भक्ति से रहित जो कुछ पूजा मैंने की है, हे भगवन्! वह मेरी पूजा सम्पूर्ण हो। मैं रात-दिन सहस्रों अपराध किया करता हूँ। 'मैं दास हूँ'-ऐसा मानकर, हे परमेश्वर! मुझे क्षमा करें। हे भगवन्! मुझे रूप, विजय और यश दें। मेरे शत्रुओं का नाश करें।
तपस्या और यज्ञादि क्रियाओं में जिनके नाम का स्मरण और उच्चारण करने से सारी कमी तुरन्त पूरी हो जाती है, मैं उन अच्युत भगवान् की वन्दना करता हूँ।
यथा-सम्भव प्राप्त उपचार-वस्तुओं से मैंने जो यह पूजन किया है, उससे भगवान् श्रीधन्वन्तरि प्रसन्न हों।
इसके बाद श्रीधन्वन्तरि जी की आरती करे - [https://shriaarti.in/hindi-aarti/aarti-dhanvantari-ji-ki/ श्रीधन्वन्तरि जी की आरती]

॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि को यह सब पूजन समर्पित है॥


== सन्दर्भ ==
== सन्दर्भ ==

18:06, 2 सितंबर 2023 का अवतरण

धन्वन्तरि
आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता
संबंध देवता, विष्णु के अवतार
निवासस्थान वनश सैन
मंत्र

ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वन्तरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रैलोक्यपतये त्रैलोक्यनिधये श्रीमहाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वन्तरीस्वरूपाय श्री श्री श्री औषधचक्राय नारायणाय नमः॥

[1][2][3]
अस्त्र शंख, चक्र,
अमृत-कलश और औषधि
सवारी कमल
त्यौहार धनतेरस

श्री धन्वन्तरि हिन्दू मान्यता के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार हैं जिन्होंने आयुर्वेद प्रवर्तन किया। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मन्थन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चन्द्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वन्तरि[4], चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती महालक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वन्तरि का अवतरण धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।[5]

इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परम्परा भी है।[6] इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।[7] सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वन्तरि की पूजा करते हैं। त्रिलोकी के व्योम रूपी समुद्र के मंथन से उत्पन्न विष का महारूद्र भगवान शंकर ने विषपान किया, धन्वन्तरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।

आयुर्वेद के सम्बन्ध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। तदुपरान्त उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।[7] भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय आदि मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।

विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।[8]

इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है। वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्रमन्थन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रूप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब सम्भव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अतः तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुनः जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।[7] इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वन्तरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे।

वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। धन्वन्तरि की परम्परा इस प्रकार है -

काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वन्तरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।

यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है।[9] विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-

काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वन्तरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।

महिमा

वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वन्तरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वन्तरि को विष्णु का अंश माना गया।[7] विषविद्या के सम्बन्ध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वन्तरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण[10] में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है -

सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शङ्करोस्योपशिष्यक:।।[11]

मन्त्र

तक्षकेश्वर मन्दिर में धन्वन्तरी की मूर्ति

भगवाण धन्वन्तरी की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:

ॐ धन्वन्तरये नमः॥[1]

इसके अलावा उनका एक और मन्त्र भी है:

ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वन्तरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वन्तरीस्वरूपाय श्रीश्रीश्री औषधचक्राय नारायणाय नमः॥[1][2][12]
ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय सर्व आमय
विनाशनाय त्रिलोकनाथाय श्रीमहाविष्णुवे नम: ||
अर्थात
परम भगवान् को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वन्तरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वन्तरी को नमन है।

धन्वन्तरी स्तोत्रम्

प्रचलि धन्वन्तरी स्तोत्र इस प्रकार से है।

ॐ शङ्खं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमम्भोजनेत्रम्॥
कालाम्भोदोज्ज्वलाङ्गं कटितटविलसच्चारूपीताम्बराढ्यम्।
वन्दे धन्वन्तरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम्॥[1]

धन्वन्तरि पूजा विधि

हिन्दू धर्म में धन्वंतरि देवताओं के वैद्य माने गए हैं। धन्वंतरि महान चिकित्सक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार धनवंतरि भगवान विष्णु के अवतार समझे गए हैं। समुद्र मंथन के दौरान धन्वंतरि का पृथ्वी लोक में अवतरण हुआ था।

शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरि, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिए दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरि का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है।

धन्वन्तरि त्रयोदशी के दिन इस पूजा को करें


आचमन पांच नदीयों का जल पांच पात्र से तीन बार लेकर आचमन करें

ॐ आत्मा -तत्त्वं शोधयामि स्वाहा। ॐ विद्या -तत्त्वं शोधयामि स्वाहा । ॐ शिवा -तत्त्वं शोधयामि स्वाहा ।


सङ्कल्प

आचमन के बाद पांच पात्र से जल लकर हाथ स्वच्छ करें .

दाहिने हाथ में स्वच्छ जल अक्षत, पुष्प आदि लेकर संकल्प बोलें


पूजा संकल्प मंत्र

ॐ तत्सत अद्येतस्य ब्रह्मनोहनी द्वितीय -प्रहारार्द्धे श्वेत-वराह -कल्पे जम्बू -द्वीप भारत -खंड अमुक -प्रदेशे अमुक -पुण्य -क्षेत्र कलियुगे कलि -प्रथम -चराने अमुक -संवत्सरे कार्तिक -मासे कृष्ण -पक्षे त्रयोदशी -तिथौ अमुक -वासरे अमुक -गोत्रोत्पन्नो अमुक -नाम -अहम् श्री धन्वन्तरि -देवता -प्रीति -पूर्वकम आयुष्य -आरोग्य -ऐश्वर्या -अभिवृद्धयर्थं श्री धन्वन्तरि -पूजनामहम करिष्यामि ।

मन्त्र अर्थ - ॐ तत्सत् (ब्रह्म ही एक-मात्र सत्य है)। आज ब्रह्मा के प्रथम दिवस के इस दूसरे पहर में, श्वेत-वराह नामक कल्प में, 'जम्बू' नामक द्वीप में, 'भरत' के भू-खण्ड में, अमुक नामक 'प्रदेश' में, अमुक पवित्र 'क्षेत्र' में, 'कलियुग' में, 'कलि' के प्रथम चरण में, अमुक 'सम्वत्सर' में, कार्तिक 'मास' में, कृष्ण 'पक्ष' में, त्रयोदशी 'तिथि' में, अमुक 'दिवस' में, अमुक 'मैं' में उत्पन्न, अमुक 'नाम' वाला 'मैं', श्रीधन्वन्तरि देवता की प्रसन्नता-पूर्वक आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य की अभिवृद्धि के लिए मैं श्रीधन्वन्तरि की पूजा करूँगा। इस प्रकार संकल्प पढ़कर दाहिने हाथ में लिया हुआ जल अपने सम्मुख छोड़ दे।


आत्म-शोधन संकल्प पाठ के बाद जल अपने पर व् पूजा सामग्री पर छिड़कें ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोपि व । यह स्मरेत पुण्डरीकाक्षं सा बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ मन्त्र अर्थ - अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी दशा में हो, जो कमल-नयन इष्ट – देवता का स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर दोनों प्रकार से पवित्र हो जाता है।


ध्यान भगवान धन्वन्तरि का ध्यान शुद्ध घी के दीपक के सामने करें

भगवान धन्वन्तरि

चतुर्भुजम पिता -वस्त्रम सर्वालंकारा -शोभितं । ध्याये धन्वन्तरिम देवम सुरसुरा -नमस्कृतम ॥1॥

युवनाम पुण्डरीकाक्षं सर्वाभरणा -भूषिताम । दधानममृतस्यैव कमण्डलूम श्रिया -युतं ॥2॥

यज्ञ -भोग -भुजं देवम सुरसुरा -नमस्कृतम । ध्याये धन्वन्तरिम देवम श्वेताम्बर -धर्म शुभम ॥3॥

मन्त्र अर्थ - मैं चार भुजाओंवाले, पीले वस्त्र पहने हुए, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित, सुरों और असुरों द्वारा वन्दित भगवान् धन्वन्तरि का ध्यान करता हूँ॥१॥ तरुण, कमल-नयन, सभी अलंकारों से विभूषित, अमृत-पूर्ण कमण्डलु लिये हुए, यज्ञ-भाग को खानेवाले, देवों और दानवों से वन्दित, श्री से युक्त, भगवान् धन्वन्तरि का मैं ध्यान करता हूँ॥२-३॥

आवाहन आवाहन मुद्रा प्रदर्शित करते हुए भगवान धन्वन्तरि का आवाहन करें दोनों हाथों के को नमस्कार मुद्रा में दोनों अंगुष्ठों को अंदर मोड़ कर रखें

आगच्छा देवा -देवेश ! तेजोराशि जगत्पते ! क्रियामनाम माया पूजाम ग्रहण सूरा -सत्तामा ! ॥श्री धन्वन्तरि -देवम आवाहयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवताओं के ईश्वर! तेज-सम्पन्न हे संसार के स्वामिन्! हे देवोत्तम! आइये, मेरे द्वारा की जानेवाली पूजा को स्वीकार करें। ॥मैं भगवान् श्रीधन्वन्तरि का आवाहन करता हूँ॥


पुष्पाञ्जलि निम्न मंत्र को बोलते हुए पांच पुष्पोव को हाथ में लेकर भगवान श्री धन्वन्तरि को पुष्पांजलि दें नाना -रत्न -समायुक्तं , कर्ता -स्वर -विभूषिताम । असणं देवा -देवेश ! प्रीत्यर्थं प्रति -गृह्यताम ॥ ॥श्री धन्वन्तरि -देवया आसनार्थे पंचा -पुष्पाणि समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवताओं के ईश्वर! विविध प्रकार के रत्न से युक्त स्वर्ण-सज्जित आसन को प्रसन्नता हेतु ग्रहण करें। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के आसन के लिये मैं पाँच पुष्प अर्पित करता हूँ॥


स्वागत

श्री धन्वन्तरि -देवा ! स्वागतम । मन्त्र अर्थ - हे भगवान् धन्वन्तरि ! आपका स्वागत है।


पाद्य-समर्पण

भगवान् धन्वन्तरि के चरण जल से धोएं

पद्यम गृहण देवेश , सर्व -क्षमा -समर्थ , भोह ! भक्त्या समर्पितं देवा , लोकनाथ ! नमोअस्तु ते ॥ ॥श्री धन्वन्तरि -देवया पद्यम नमः ॥

मन्त्र अर्थ - सब प्रकार के कल्याण करने में सक्षम हे देवेश्वर! पैर धोने का जल भक्ति-पूर्वक समर्पित है। उसे स्वीकार करें। हे विश्वेश्वर भगवन्! आपको नमस्कार है। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि को पैर धोने के लिये यह जल है-उन्हें नमस्कार॥


अर्घ्य-समर्पण शिर के अभिषेक के लिये अर्घ्य करें

नमस्ते देवा -देवेश ! नमस्ते धरणी -धरा ! नमस्ते जगदाधरा ! अर्घ्यायम प्रति -गृह्यताम । गंधा -पुष्पाक्षतैर्युक्तं , पहाला -द्रव्य -समन्वितम । गृहण तोयमर्घ्यर्थम , परमेश्वर वत्सला ! ॥श्री धन्वन्तरि -देवया अर्घ्यम स्वाहा ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवेश्वर! आपको नमस्कार। हे धरती को धारण करनेवाले! आपको नमस्कार। हे जगत् के आधार-स्वरूप! आपको नमस्कार। शिर के अभिषेक के लिये यह जल (अर्घ्य) स्वीकार करें। हे कृपालु परमेश्वर! चन्दन-पुष्प-अक्षत से युक्त, फल और द्रव्य के सहित यह जल शिर के अभिषेक के लिये स्वीकार करें। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये अर्घ्य समर्पित है॥


गन्ध-समर्पण/चन्दन-समर्पण 

श्री -खंडा -चन्दनम दिव्यम गन्धाढ्यम सुमनोहरम । विलेपनं सूरा -श्रेष्ठ ! चन्दनम प्रति -गृह्यताम ॥ ॥श्री धन्वन्तरि -देवया चन्दनम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवोत्तम! मनोहर और सुगन्धित चन्दन शरीर में लगाने हेतु ग्रहण करें। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये चन्दन समर्पित करता हूँ॥


पुष्प-समर्पण

सेवन्तिका -वाकुला -चम्पका -पाटबजैह , पुन्नगा -जाती -करवीरा -रसाला -पुष्पैः । विल्व -प्रवाला -तुलसी -दला -मल्लिकाभिस्त्वं , पूजयामि जगदीश्वर ! में प्रसीदा ॥ ॥श्री धन्वन्तरि -देवया पुष्पम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे लोकेश्वर! श्वेत गुलाब (सेमन्ती), बकुल, चम्पा, लाल-पीला कमल, पुन्नाग (लोध्र), मालती, कनेर पुष्पों और बेल, मूँगे, तुलसी तथा मालती की पत्तियों द्वारा मैं आपकी पूजा करता हूँ। मुझ पर आप प्रसन्न हों। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये पुष्प समर्पित करता हूँ॥


धूप-समर्पण

वनस्पति -रसोद्भूतो गन्धाढ्यः सुमनोहरः । अग्रेयह सर्व -देवानाम , धूपवायाम प्रति -गृह्यताम ॥ ॥श्री धन्वन्तरि -देवया धूपं समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - वृक्षों के रस से बनी हुई, सुन्दर, मनोहर, सुगन्धित और सभी देवताओं के सूँघने के योग्य यह धूप आप ग्रहण करें। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं धूप समर्पित करता हूँ॥


दीप-समर्पण सज्यम वर्ती -संयुक्तं च वह्निना योजितं माया , दीपम गृहण देवेश ! त्रैलोक्य -तिमिरापहम । भक्त्या दीपम प्रयच्छामि देवया परमात्मने । त्राहि मां निरायड घोरडिपोअयम प्रति -गृह्यताम ॥ ॥श्री धन्वन्तरि -देवया दीपम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे देवेश्वर! घी के सहित और बत्ती से मेरे द्वारा जलाया हुआ, तीनो लोकों के अँधेरे को दूर करनेवाला दीपक स्वीकार करें। मैं भक्ति-पूर्वक परमात्मा भगवान् को दीपक प्रदान करता हूँ। इस दीपक को स्वीकार करें और घोर नरक से मेरी रक्षा करें। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं दीपक समर्पित करता हूँ॥


नैवेद्य-समर्पण

शर्करा -खंडा -खाद्यानि दधि -क्षीरा -घृतनि च । अहारो भक्ष्य -भोज्यं च नैवेद्यम प्रति -गृह्यताम ।

॥यथामशतः श्री धन्वन्तरि -देवया नैवेद्यम समर्पयामि – ॐ प्राणाय स्वाहा । ॐ अपानाय स्वाहा । ॐ व्यानाय स्वाहा । ॐ उदानाय स्वाहा । ॐ समानय स्वाहा ॥ मन्त्र अर्थ - शर्करा-खण्ड (बताशा आदि), खाद्य पदार्थ, दही, दूध और घी जैसी खाने की वस्तुओं से युक्त भोजन आप ग्रहण करें। ॥यथा-योग्य रूप भगवान् श्रीधन्वन्तरि को मैं नैवेद्य समर्पित करता हूँ-प्राण के लिये, अपान के लिये, व्यान के लिये, उदान के लिये और समान के लिये स्वीकार हो॥


आचमन-समर्पण/जल-समर्पण

ततः पनियम समर्पयामि इति उत्तरापोशनं । हस्ता -प्रक्षालनाम समर्पयामि । मुख -प्रक्षालनाम । करोद्वर्तनार्थे चन्दनम समर्पयामि ।

मन्त्र अर्थ - नैवेद्य के बाद मैं पीने और आचमन (उत्तरा-पोशन) के लिये, हाथ धोने के लिये, मुख धोने के लिये जल और हाथों में लगाने के लिये चन्दन समर्पित करता हूँ।

ताम्बूल-समर्पण

पूगी -फलम महा -दिव्यम नागा -वल्ली-दलैर्युतम । कर्पूरैला -समायुक्तं ताम्बूलं प्रति -गृह्यताम ॥ ॥श्री धन्वन्तरि देवया मुख -वासरथं पूगी -पहला -युक्तं ताम्बूलं समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - पान के पत्तों से युक्त अत्यन्त सुन्दर सुपाड़ी, कपूर और इलायची से प्रस्तुत ताम्बूल आप स्वीकार करें। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के मुख को सुगन्धित करने के लिये सुपाड़ी से युक्त ताम्बूल मैं समर्पित करता हूँ॥


दक्षिणा

हिरण्य -गर्भा -गर्भस्थं हेम -विजम विभावसोः । अनंता -पुण्य -फलदमतः शान्तिम प्रयच्छा में ॥ ॥श्री धन्वन्तरि देवया सुवर्ण -पुष्प -दक्षिणाम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - असीम पुण्य प्रदान करनेवाले स्वर्ण-गर्भित चम्पक पुष्प से मुझे शान्ति प्रदान करिये। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं स्वर्ण-पुष्प-रुपी दक्षिणा प्रदान करता हूँ॥

प्रदक्षिणा पुश हाथ में लेकर बाएं से दाएं प्रदक्षिणा करें

यानि की च पापानि जन्मांतर -कृतानि च । तानी तानी विनश्यन्ति प्रदक्षिणाम पदे पदे॥ अन्यथा शरणम नास्ति त्वमेव शरणम प्रभो ! तस्मात् कारुण्य -भावना क्षमस्व परमेश्वर ॥ ॥श्री धन्वन्तरि देवया प्रदक्षिणाम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - पिछले जन्मों में जो भी पाप किये होते हैं, वे सब प्रदक्षिणा करते समय एक-एक पग पर क्रमशः नष्ट होते जाते हैं। हे प्रभो! मेरे लिये कोई अन्य शरण देनेवाला नहीं है, तुम्हीं शरण-दाता हो। अतः हे परमेश्वर! दया-भाव से मुझे क्षमा करो। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि को मैं प्रदक्षिणा समर्पित करता हूँ॥

वन्दना-सहित पुष्पाञ्जलि पुष्पों के साथ वंदना करें

करा -कृतं व कयजाम कर्मजं व , श्रवण -नयनजं व माणसं वापराधम । विडितमविदितं व सर्वमेतत क्षमस्व , जय जय करुणाब्धे , श्री महा देवा शम्भो ! ॥श्री धन्वन्तरि देवतायै मंत्र -पुष्पम समर्पयामि ॥

मन्त्र अर्थ - हे दया-सागर, श्री महा-देव, कल्याण-कर! हाथों-पैरों द्वारा किये हुए या शरीर या कर्म से उत्पन्न, कानों-आँखों से उत्पन्न या मन के जो भी ज्ञात या अज्ञात मेरे अपराध हों, उन सबको आप क्षमा करें। आपकी जय हो, जय हो। ॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि के लिये मैं मन्त्र-पुष्पांजलि समर्पित करता हूँ॥

साष्टाङ्ग-प्रणाम

नमः सर्व -हितार्थाय जगदाधरा -हेतवे । साष्टांगोयम प्रयत्नेन माया कृतः ॥ नमोअस्त्वनन्ताय सहस्रा -मूर्तये सहस्रा -पदाक्षि -शिरोरु -बहावे ।

मन्त्र अर्थ - सभी का कल्याण करनेवाले, जगत् के आधारभूत आपके लिये मैंने प्रयत्न-पूर्वक यह साष्टाङ्ग प्रणाम किया है-अनन्त भगवान् के लिये, सहस्रों स्वरुपवाले भगवान् के लिये, सहस्रों पैर-आँख-शिर-ऊर और बाहुवाले भगवान् के लिये नमस्कार है।

आरती - इसके बाद

क्षमा-प्रार्थना

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं । पूजा -कर्मा न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ मंत्र -हिनम क्रिया -हिनम भक्ति -हिनम सुरेश्वर ! माया यात -पूजितं देवा ! परिपूर्णं तदस्तु में ॥ अपराध -सहस्राणि क्रियन्तेहर्निशं मया। दासोअहमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर । विधेहि देवा ! कल्याणम विधेहि विपुलं श्रियम । रूपम देहि , जायँ देहि , यशो देहि , द्विषो जाहि ॥ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपो -यज्ञ -क्रियादिषु । न्यूनम सम्पूर्णतम यति सद्यो वनडे तमच्युतम ॥ अन्ना यथा -मिलितोपचारा -द्रव्यैः कृता-पूजनेना श्री धन्वन्तरि -देवः प्रियतम ।

॥श्री धन्वन्तरि -देवरपानमस्तु ॥

मन्त्र अर्थ - न मैं आवाहन करना जानता हूँ, न विसर्जन करना। पूजा-कर्म भी मैं नहीं जानता। हे परमेश्वर! मुझे क्षमा करो। मन्त्र, क्रिया और भक्ति से रहित जो कुछ पूजा मैंने की है, हे भगवन्! वह मेरी पूजा सम्पूर्ण हो। मैं रात-दिन सहस्रों अपराध किया करता हूँ। 'मैं दास हूँ'-ऐसा मानकर, हे परमेश्वर! मुझे क्षमा करें। हे भगवन्! मुझे रूप, विजय और यश दें। मेरे शत्रुओं का नाश करें। तपस्या और यज्ञादि क्रियाओं में जिनके नाम का स्मरण और उच्चारण करने से सारी कमी तुरन्त पूरी हो जाती है, मैं उन अच्युत भगवान् की वन्दना करता हूँ। यथा-सम्भव प्राप्त उपचार-वस्तुओं से मैंने जो यह पूजन किया है, उससे भगवान् श्रीधन्वन्तरि प्रसन्न हों। इसके बाद श्रीधन्वन्तरि जी की आरती करे - श्रीधन्वन्तरि जी की आरती

॥भगवान् श्रीधन्वन्तरि को यह सब पूजन समर्पित है॥

सन्दर्भ

  1. ॐ धन्वन्तरये नमः
  2. धन्वन्तरी मन्त्र, आई लव इंडिया
  3. मन्त्राज़ ऑफ लॉर्ड धन्वन्तरी, द सेलेस्टियल हीलर एण्ड फ़िज़ीशियन
  4. विष्णु पुराण-४ Archived 2018-02-27 at the वेबैक मशीन। २६ मार्च २०१०। भार्गव
  5. दीपावली – पूजन का शास्त्रोक्त विधान Archived 2010-12-06 at the वेबैक मशीन। आश्रम.ऑर्ग। २८ अक्टूबर २००८
  6. धनतेरस पर सोना नहीं पीतल खरीदें Archived 2013-11-01 at the वेबैक मशीन। वेब दुनिया
  7. काशी की विभूतियाँ Archived 2016-03-04 at the वेबैक मशीन। वाराणसी वैभव
  8. भावप्रकाश
  9. हरिवंश पुराण (पर्व १ अ २९)
  10. ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१)
  11. ब्रह्मवैवर्त पुराण३.५१
  12. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; मंत्राज़ नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।

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इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ