बृहदारण्यक उपनिषद्

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बृहदारण्यकोपनिषद  
लेखक वैदिक ऋषि
चित्र रचनाकार अन्य पौराणिक ऋषि
देश भारत
भाषा संस्कृत
श्रृंखला शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद
विषय ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त
प्रकार हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ

हिन्दू धार्मिक ग्रंथ
पर एक श्रेणी का भाग

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ग्रन्थों का वर्गीकरण

श्रुति · स्मृति


बृहदारण्यक उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है। यह अद्वैत वेदान्त और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है। यह उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार है तथा मुख्य दस उपनिषदों के श्रेणी में सबसे अंतिम उपनिषद् माना जाता है। ब्रह्मा इसकी सम्प्रदाय परम्परा के प्रवर्तक हैं।

यह अति प्राचीन है और इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है। दार्शनिक रूप से महत्वपूर्ण इस उपनिषद पर आदि शंकराचार्य ने भी टीका लिखी थी। यह शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ का एक खंड है और इसको शतपथ ब्राह्मण के पाठ में सम्मिलित किया जाता है।

यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सद्गमय, नेति नेति जैसे विषय हैं। इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है।

इसके नाम (बृहदारण्यक = बृहद् + आरण्यक) का अर्थ 'बृहद ज्ञान वाला' या 'घने जंगलों में लिखा गया' उपनिषद है। इसमें तत्त्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म तथा उपासनाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है।

बृहदारण्यक उपनिषद् अद्वैत वेदांत और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है। इस उपनिषद् का ब्रह्मनिरूपणात्मक अधिकांश उन व्याख्याओं का समुचच्य है जिनसे अजातशत्रु ने गार्ग्य बालाकि की, जैवलि प्रवाहण ने श्वेतकेतु की, याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी और जनक की तथा जनक के यज्ञ में समवेत गार्गी और जारत्कारव आर्तभाग इत्यादि आठ मनीषियों की ब्रह्मजिज्ञासा निवृत्त की थी।

संरचना[संपादित करें]

प्रथम अध्याय[संपादित करें]

प्रथम अध्याय में छः ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण (अश्वमेध परक) में सृष्टि रूप यज्ञ को एक विराट् अश्व की उपमा से व्यक्त किया गया है और दूसरे ब्राह्मण में प्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। तीसरे ब्राह्मण में देवों एवं असुरों के प्रसंग से प्राण की महिमा और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं। चौथे ब्राह्मण में ब्रह्म को सर्वरूप कहकर उसके द्वारा चार वर्गों के विकास का उल्लेख है। छठवें में विभिन्न अन्नों की उत्पत्ति तथा मन, वाणी एवं प्राण के महत्त्व का वर्णन है। साथ ही नाम, रूप एवं कर्म की प्रतिष्ठा भी है।

प्रथम अध्याय. प्रथम ब्राह्मण


उषा यज्ञसम्बन्धी अश्व का सिर है, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है, वैश्वानर अग्नि खुला हुआ मुख है और संवत्सर यज्ञीय अश्व का आत्मा है । द्युलोक उसका पीठ है, अन्तरिक्ष उदर है, पृथ्वी पैर रखने का स्थान है, दिशाएँ पार्श्वभाग हैं, अवान्तर दिशाएँ पसलियाँ हैं, ऋतुएँ अंग हैं, मास और अर्द्धमास पर्व हैं, दिन और रात्रि प्रतिष्ठा हैं, नक्षत्र अस्थियाँ हैं, आकाश मांस है, बालू ऊवध्य है, नदियाँ नाड़ी हैं, पर्वत यकृत और हृदयगत मांसखण्ड हैं, ओषधि और वनस्पतियाँ लोम हैं, ऊपर की ओर जाता हुआ सूर्य नाभि से ऊपर का भाग और नीचे की ओर जाता हुआ सूर्य कटि से नीचे का भाग है । उसका जमुहाई लेना बिजली का चमकना है और शरीर हिलना मेघ का गर्जन है । वह जो मूत्र त्याग करता है वही वर्षा है और वाणी ही उसकी वाणी है ।1


अश्व के सामने महिमारूप से दिन प्रकट हुआ, उसकी पूर्व समुद्र योनि है । रात्रि इसके पीछे महिमारूप से प्रकट हुई, उसकी पश्चिम समुद्र योनि है । ये ही दोनों इस अश्व के आगे-पीछे के महिमासंज्ञक गृह हुए । इसने हय होकर देवताओं को, वाजी होकर गन्धर्वों को, अर्वा होकर असुरों को और अश्व होकर मनुष्यों को वहन किया । समुद्र ही इसका बन्धु है और समुद्र ही उदगम स्थान है ।2।।

द्वितीय ब्राह्मण


पहले यहाँ कुछ भी नहीं था । यह सब मृत्यु से ही आवृत था । यह अशनाया (क्षुधा) से ही आवृत था । अशनाया ही मृत्यु है । उसने ‘मैं आत्मा से युक्त होऊँ’ ऐसा मन किया । उसने अर्चन करते हुए आचमन किया । उसके अर्चन करने से आप हुआ । अर्चन करते हुए मेरे लिए क (जल) प्राप्त हुआ है, अतः यही अर्क का अर्कत्व है । जो इस प्रकार अर्क के इस अर्कत्व को जानता है उसे निश्चयक (सुख) होता है ।1।


आप (जल) अर्क है । उस जल का जो स्थूलभाग था वह एकत्रित हो गया । वह पृथ्वी हो गयी । उसके उत्पन्न होने पर वह मृत्यु थक गया । उस थके और तपे हुए प्रजापति के शरीर से उसका सारभूत तेज अग्नि प्रकट हुआ ।2।


उसने अपने को तीन प्रकार से विभक्त किया । उसने आदित्य को तीसरा भाग किया और वायु को तीसरा । इस प्रकार यह प्राण तीन भागों में हो गया । उसका पूर्व दिशा सिर है तथा इधर-उधर की विदिशाएँ बाहु हैं इसी प्रकार पश्चिम दिशा इसका पुच्छ है और इधर-उधर की विदिशाएँ जङ्घाएँ हैं । दक्षिण और उत्तर दिशाएँ उसके पार्श्व हैं, द्युलोक पृष्ठभाग है, अन्तरिक्ष उदर है, पृथ्वी हृदय है । यह जल में स्थित है । इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष जहाँ-कहीं जाता है वहीं प्रतिष्ठित होता है ।3।


उसने कामना की कि मेरा दूसरा शरीर उत्पन्न हो, अतः उस अशनायारूप मृत्यु ने मन से वेदरूप मिथुन की भावना की उससे जो रेत हुआ, वह संवत्सर हुआ । इससे पूर्व संवत्सर नहीं था । उस संवत्सर को जितना संवत्सरकाल होता है, उतने समय तक वह गर्भ में धारण किये रहा । इतने समय के पीछे उसने उसको उत्पन्न किया । उस उत्पन्न हुए कुमार के प्रति मुख फाड़ा । इससे उसने ‘भाण्’ ऐसा शब्द किया । वही वाक् हुआ ।4।

यह सभी उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार है। इस उपनिषद् में ३ काण्ड (मधुकाण्ड, मुनिकाण्ड, खिलकाण्ड) तथा छः अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में अनेकों ब्राह्मण (कुल ४७ ब्राह्मण) हैं। इसमें प्रलम्बित ४३५ पद हैं।


प्रथम अध्याय[संपादित करें]

प्रथम अध्याय में छः ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण (अश्वमेध परक) में सृष्टि रूप यज्ञ को एक विराट् अश्व की उपमा से व्यक्त किया गया है और दूसरे ब्राह्मण में प्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। तीसरे ब्राह्मण में देवों एवं असुरों के प्रसंग से प्राण की महिमा और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं। चौथे ब्राह्मण में ब्रह्म को सर्वरूप कहकर उसके द्वारा चार वर्गों के विकास का उल्लेख है। छठवें में विभिन्न अन्नों की उत्पत्ति तथा मन, वाणी एवं प्राण के महत्त्व का वर्णन है। साथ ही नाम, रूप एवं कर्म की प्रतिष्ठा भी है।

द्वितीय अध्याय[संपादित करें]

दूसरे अध्याय के प्रथम ब्राह्मण में डींग हाँकने वाले गार्ग्य बालाकि एवं ज्ञानी राजा अजातशत्रु के संवाद के द्वारा ब्रह्म एवं आत्म तत्व को स्पष्ट किया गया है। साथ ही दूसरे एवं तीसरे ब्राह्मण में प्राणोपासना तथा ब्रह्म के दो (मूर्त और अमूर्त ) रूपों का वर्णन है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है। यह संवाद चौथे अध्याय के पांचवें ब्रह्मण में भी लगभग एक ही प्रकार से है। पाँचवें और छठे ब्राह्मण में मधुविद्या और उसकी परम्परा का वर्णन किया गया है।

तृतीय अध्याय[संपादित करें]

बृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के नौ ब्राह्मणों में राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं की प्रश्नोत्तरी है। गार्गी ने दो बार प्रश्र किए हैं, पहली बार अतिप्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने उन्हें मस्तक गिरने की बात कहकर रोक दिया। गार्गी सभा की अनुमति से पुनः दो प्रश्र करती हैं तथा समाधान पाकर लोगों से कह देती हैं कि इनसे कोई जीत नहीं सकेगा, किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने और अतिप्रश्न करने के कारण उनका मस्तक गिर गया।

चतुर्थ अध्याय[संपादित करें]

चौथे अध्याय में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद एवं याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद हैं। इस अध्याय में विविध रूपों में ब्रह्म की उपासना के साथ मनोमय पुरुष एवं वाक् की उपासना भी कही गयी है। मरणोत्तर ऊर्ध्वगति के साथ अन्न एवं प्राण की विविध रूपों में उपासना समझायी गयी है। गायत्री उपासना में जपनीय तीनों चरणों के साथ चौथे 'दर्शत' पद का भी उल्लेख है। छठे अध्याय में प्राण की श्रेष्ठता तथा सन्तानोत्पत्ति के विज्ञान का वर्णन है। अन्त में समस्त प्रकरण के आचार्य परम्परा की श्रृंखला व्यक्त की गयी है।

पञ्चम् अध्याय[संपादित करें]

इस अध्याय में १५ ब्राह्मण हैं।

षष्ट अध्याय[संपादित करें]

यह अन्तिम अध्याय है जिसमें ५ ब्राह्मण हैं।

वर्ण्य विषय[संपादित करें]

सृष्टि आरम्भ[संपादित करें]

इस उपनिषद् के अनुसार सृष्टि के पहले केवल ब्रह्म था। वह अव्याकृत था। उसने अहंकार किया जिससे उसने व्याकृत सृष्टि उत्पन्न की; दो पैरवाले, चार पैरवाले, पुर उसने बनाए और उनमें पक्षी बनकर पैठ गया। उसने अपनी माया से बहुत रूप धारण किए और इस प्रकार नाना रूप से भासमान ब्रह्माण्ड की रचना करके उसमें नखाग्र से शिक्षा तक अनुप्रविष्ट हो गया। शरीर में जो आत्मा है वही ब्रह्मांड में व्याप्त है और हमें जो नाना प्रकार का भान होता है वह ब्रह्म रूप है। पृथ्वी, जल, और अग्नि उसी के मूर्त एवं वायु तथा आकाश अमूर्त रूप हैं।

स्त्री, सन्तान अथवा जिस किसी से मनुष्य प्रेम करता है वह वस्तुतः अपने लिए करता है। अस्तु, यह आत्मा क्या है, इसे ढूँढना चाहिए, ज्ञानियों से इसके विषय में सुनना, इसका मनन करना और समाधि में साक्षात्कार करना ही परम पुरुषार्थ है।

'चक्षुर्वै सत्यम्' अर्थात् आँख देखी बात सत्य मानने की लोकधारणा के विचार से जगत् सत्य है, परन्तु वह प्रत्यक्षतः अनित्य और परिवर्तनशील है और निश्चय ही उसके मूल में स्थित तत्व नित्य और अविकारी है। अतएव मूल तत्व को 'सत्य का सत्य' अथवा अमृत कहते हैं। नाशवान् 'सत्य' से अमृत ढँका हुआ है।

अज्ञान अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानने के कारण मनुष्य संसार के नाना प्रकार के व्यापारों में लिपटा हुआ सांसारिक वित्त आदि नाशवान पदार्थों से अक्षय सुख की व्यर्थ आशा करता है। कामनामय होने से जिस उद्देश्य की वह कामना करता है तद्रूप हो जाता हैं; पुण्य कर्मों से पुण्यवान् और पाप कर्मों से पापी होता और मृत्यु काल में उसके प्राण उत्क्रमण करके कर्मानुसार मृत्युलोक, पितृलोक अथवा देवलोक प्राप्त करते हैं। जिस देवता की वह उपासना करता है मानो उसी का पशु हो जाता है। यह अज्ञान आत्मा की 'महती विनष्टि' (सब से बड़ी क्षति) है।

अद्वैत[संपादित करें]

आत्मा और ब्रह्म एक हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिसे नानात्व दिखता है वह मृत्यु से मृत्यु की ओर बढ़ता है। आत्मा महान्, अनंत, अपार, अविनाशी, अनुच्छित्तिधर्मा और विज्ञानधन है। नमक की डली पानी में घुल जाने पर एकरस हो जाने से जैसे नमक और पानी का अभेद हो जाता है, ब्रह्मात्मैक्य तद्रूप अभेदात्मक है। जिसे समय साधक हो यह अपरोक्षानुभूति हो जाती है कि मैं ब्रह्म हूँ और भूतात्माएँ और मैं एक हूँ उसके द्रष्टा और दृष्टि, ज्ञाता और ज्ञेय इत्यादि भेद विलीन हो जाते हैं, और वह 'ब्रह्म भवतिय एवं वेद' - ब्रह्मभूत हो जाता है। उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते, वह यहीं जीवन्मुक्त हो जाता है। वह विधि निषेध के परे है। उसे संन्यास लेकर भैक्ष्यचर्या करनी चाहिए। यह ज्ञान की परमावधि, आत्मा की परम गति और परमानंद है जिसका अंश प्राणियों का जीवनस्त्रोत है।

यह शोक-मोह-रहित, विज्वर और विलक्षण आनंद की स्थिति है जिससे ब्रह्म को 'विज्ञानमानंदंब्रह्म' कहा गया है। यह स्वरूप मन और इंद्रियों के अगोचर और केवल समाधि में प्रत्यक्षानुभूति का विषय एवं नामरूप से परे होने के कारण, ब्रह्म का 'नेति नेति' शब्दों द्वारा अंतिम निर्देश है।

आत्मसाक्षात्कार के लिए वेदानुबंधन, यज्ञ, दान और तपोपवासादि से चित्तशुद्धि करके सूर्य, चंद्र, विद्युत्, आकाश, वायु, जल इत्यादि अथवा प्राणरूप से ब्रह्म की उपासना का निर्देश करते हुए आत्मचिंतन सर्वश्रेष्ठ उपासना बतलाई गई है।

शान्ति मन्त्र[संपादित करें]

इस उपनिषद का शान्तिपाठ निम्न है:

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

प्रसिद्ध श्लोक[संपादित करें]

इस उपनिषद् का प्रसिद्ध श्लोक निम्नलिखित है -

ॐ असतोमा सद्गमय।
तमसोमा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28.

निम्नलिखित श्लोक वृहदारण्यक उपनिषद के आरम्भ और अन्त में आता है-

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के शास्त्रार्थ में नेति नेति बार-बार आया है।

अथात आदेशो नेति नेति ।
न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत्परमस्ति ।
अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यमिति ।
प्राणा वै सत्यम् ।
तेषामेष सत्यम् ॥ २,३.६ ॥
(अब से (ब्रह्म के बारे में) आदेश 'नेति नेति' (यह नहीं, यह नहीं) है।
इसके अलावा दूसरा आदेश (मार्ग) नहीं है। दूसरा उपदेशक्रम नहीं है।)[1]
अब इसका नाम 'सत्य का सत्य ' रहेगा।
प्राण ही सत्य हैं।
उनका यह सत्य है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. अथात आदेशो ‘नेति नेति’...

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

मूल ग्रन्थ[संपादित करें]

अनुवाद[संपादित करें]