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योग का इतिहास

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योग की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसकी उत्‍पत्ति हजारों वर्ष पहले हुई थी। ऐसा माना जाता है कि जब से सभ्‍यता शुरू हुई है तभी से योग किया जा रहा है। अर्थात प्राचीनतम धर्मों या आस्‍थाओं (faiths) के जन्‍म लेने से काफी पहले योग का जन्म हो चुका था। योग विद्या में शिव को "आदि योगी" तथा "आदि गुरू" माना जाता है।

भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पतञ्जलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ, वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से विस्तार दिया।

योग से सम्बन्धित सबसे प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्य सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त वस्तुएँ हैं जिनकी शारीरिक मुद्राएँ और आसन उस काल में योग के अस्तित्व के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। योग के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करे तो इसके प्रारम्भ या अन्त का कोई प्रमाण नही मिलता, लेकिन योग का वर्णन सर्वप्रथम वेदों में मिलता है और वेद सबसे प्राचीन साहित्य माने जाते है।

नीचे विभिन्न कालों में योग के प्रचलन की स्थिति को रेखांकित किया गया है।

पूर्व वैदिक काल (ईसा पूर्व 3000 से पहले)

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अभी हाल तक, पश्चिमी विद्वान ये मानते आये थे कि योग का जन्म करीब 500 ईसा पूर्व हुआ था जब बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। लेकिन हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में जो उत्खनन हुआ, उससे प्राप्त योग मुद्राओं से ज्ञात होता है कि योग का चलन 5000 वर्ष पहले से ही था।

वैदिक काल (3000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व)

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वैदिक काल में एकाग्रता का विकास करने के लिए और सांसारिक कठिनाइयों को पार करने के लिए योगाभ्यास किया जाता था। पुरातन काल के योगासनों में और वर्तमान योगासनों में बहुत अन्तर है। इस काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी।

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥' ( ऋक्संहिता, मंडल-1, सूक्त-18, मंत्र-7)
अर्थात- योग के बिना विद्वान का भी कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता।
स घा नो योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स न:॥' ( ऋग्वेद 1-5-3 )
अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेक, ख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो, अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करे।

पूर्वशास्त्रीय काल (500 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व तक)

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उपनिषदों, महाभारत और भगवद्‌गीता में योग के बारे में बहुत चर्चा हुई है। भगवद्गीता में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का उल्लेख है। गीतोपदेश में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को योग का महत्व बताते हुए कर्मयोग, भक्तियोग व ज्ञानयोग का वर्णन करते हैं। गीता के चौथे अध्याय के पहले श्लोक में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ ४.१

अर्थात् हे अर्जुन मैने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था , सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।

इस अवधि में योग, श्वसन एवं मुद्रा सम्बंधी अभ्यास न होकर एक जीवनशैली बन गया था। उपनिषद् में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में इसके लक्षण को बताया गया है-

तां योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय धारणम्

जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था। 563 से 200 ई.पू. योग के तीन अंग - तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - का प्रचलन था। इसे 'क्रियायोग' कहा जाता है।

प्रसिद्ध संवाद, “योग याज्ञवल्क्य” में, जोकि बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित है, में याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच कई साँस लेने सम्बन्धी व्यायाम, शरीर की सफाई के लिए आसन और ध्यान का उल्लेख है। गार्गी द्वारा छांदोग्य उपनिषद में भी योगासन के बारे में बात की गई है।

शास्त्रीय काल (200 ईसा पूर्व से 500 ई)

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इस काल में योग एक स्पष्ट और समग्र रूप में सामने आया। पतञ्जलि ने वेद में बिखरी योग विद्या को 200 ई.पू. पहली बार समग्र रूप में प्रस्तुत किया। उन्होने सार रूप योग के 195 सूत्र संकलित किए (देखें, योगसूत्र)। पतंजलि सूत्र का योग, राजयोग है। इसके आठ अंग हैं: यम (सामाजिक आचरण), नियम (व्यक्तिगत आचरण), आसन (शारीरिक आसन), प्राणायाम (श्वास विनियमन), प्रत्याहार (इंद्रियों की वापसी), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि। यद्यपि पतंजलि योग में शारीरिक मुद्राओं एवं श्वसन को भी स्थान दिया गया है लेकिन ध्यान और समाधि को अधिक महत्त्व दिया गया है। योगसूत्र में किसी भी आसन या प्राणायाम का नाम नहीं है।

इसी काल में योग से सम्बन्धित कई ग्रन्थ रचे गए, जिनमें पतंजलि का योगसूत्र, योगयाज्ञवल्क्य, योगाचारभूमिशास्त्र, और विसुद्धिमग्ग प्रमुख हैं।

मध्ययुग (500 ई से 1500 ई)

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इस काल में पतंजलि योग के अनुयायियों ने आसन, शरीर और मन की सफाई, क्रियाएँ और प्राणायाम करने को अधिक से अधिक महत्व देकर योग को एक नया दृष्टिकोण या नया मोड़ दिया। योग का यह रूप हठयोग कहलाता है। इस युग में योग की छोटी-छोटी पद्धतियाँ शुरू हुईं।

आधुनिक काल

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स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में योग का उल्लेख कर सारे विश्व को योग से परिचित कराया। महर्षि महेश योगी, परमहंस योगानन्द, रमण महर्षि जैसे कई योगियों ने पश्चिमी दुनिया को प्रभावित किया और धीरे-धीरे योग एक धर्मनिरपेक्ष, प्रक्रिया-आधारित धार्मिक सिद्धान्त के रूप में दुनिया भर में स्वीकार किया गया।

हाल के दिनों में, टी. कृष्णमाचार्य के तीन शिष्यों, बी.के.एस आयंगर, पट्टाभि जोइस और टी.वी.के देशिकाचार विश्व स्तर पर योग को लोकप्रिय बनाया है।

११ दिसम्बर सन २०१४ को भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में २१ जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा था जिसे 193 देशों में से 175 देशों ने बिना किसी मतदान के स्वीकार कर लिया। यूएन ने योग की महत्ता को स्वीकारते हुए माना कि ‘योग मानव स्वास्थ्य व कल्याण की दिशा में एक सम्पूर्ण नजरिया है।’

विभिन्न ग्रन्थों में योग

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योग शब्द युज् धातु ते निष्पन्न है। धातुपाठ में युज्‌ शब्द के तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं - समाधि, संयोग, संयमन । लेकिन योगशात्र का प्रतिपादक शब्द निःसन्देह दिवादिगणीय "युज्" धातु से बना है जिसका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है 'समाधि' । व्यास जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - "योगः समाधिः"। योग पद 'युजिर् योगे' धातु से निष्पन्न मानने पर वाचस्पतिमिश्र तथा विज्ञानभिक्षु ने आपत्त्ति प्रकट की है तथा पातञ्जल योगदर्शन के योगपद को समाधि के अर्थ में माना है। सूत्रकार पतंजलि ने भी सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात दोनों प्रकार के योगों के लिए 'समाधि' पद का प्रयोग किया है। वृत्तिकार भोज ने भी योग पद समाधि अर्थ में माना है (युज समाधौ अनुशिष्यते व्याख्यायते। -- भोजवृत्ति) । अतः योगपद- युज् समाधौ धातु से ही निष्पन्न है।

योग शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य के समय से ही प्राप्त होता है । समस्त वैदिक साहित्य में योग शब्द का विभिन्‍न अर्थों में प्रयोग मिलता है । ऋग्वेद में इसका प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है जैसे - जुड़ा डालना, हल चलाना, अनुपलब्ध की प्राप्ति , जोड़ना इत्यादि । अथर्ववेद में अष्टायोग और षड्योग शब्द भी मिलते हैं जो शायद अष्टाङ्ग योग के सूचक हैं। शतपथ ब्राह्मण में योग शब्द मन एवं वाणी को संयुक्त करने के अर्थ में आया है। याज्ञवल्क्य ने योग की परिभाषा इसी प्रकार दी है (संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मापरमात्मनोरिति)। श्वेवेताश्वेतरोपनिषद् में ध्यान योग का उल्लेख हुआ है (ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्‌ देवात्य शक्ति स्वगुणौनिर्गूढाम्‌)। कठोपनिषद्‌ में योगी का स्वरूप बतलाया गया है। इसी में योग का लक्षण भी कहा है। इसके अनुसार मन के सहित पाँचों ज्ञानिन्द्रियों की स्थिरता योग है। स्मृति साहित्य में भी योग शब्द का प्रचुर मात्र में प्रयोग पाया जाता है। भगवद्गीता में इसका बाहुल्य देखा जा सकता है । इसके प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर योग शब्द का उल्लेख किया गया है। इसमें योग, योगी, युक्तः, युजान, युंजीत, योग सेवया, सांख्ययोगौ इत्यादि "यृज्‌" धातु ते निष्पनन शब्द और उनसे निर्मित समस्तपद लगभग ११८ बार आए हैं।

योगवासिष्ठ के अनुसार योग वह युक्ति है जिसके द्वारा संसार सागर से पार जाया जा सकता है (संसारोत्तरेण युक्तिर्योग शब्देन कथ्यते)। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दार्शनिक अध्ययन की परम्पराओं की चर्चा करते हुए सांख्य, योग एवं लोकायत दर्शनों का उल्लेख किया है (सांख्य योगौ लोकायतं चेत्यान्वीक्षिकी)। इसमें योग शब्द पतंजलि के योग के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है अपितु अधिक धनप्रापप्ति, चिकित्सकों, तथा राजा को वश में करने के अर्थ में उपलब्ध होता है । अग्निपुराण में क्रियायोग को मोक्ष का साधन स्वीकार किया गया है। श्रीमद भागवत्‌ पुराण में ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग के भेद से योग तीन प्रकार का माना गया है (योगस्त्रयो मया प्रोक्ताः ...)। अमरकोष में कहा गया है कि योग शब्द का प्रयोग सन्‍नहन, उपाय, ध्यान, संगति तथा युक्ति अर्थों में होता है (योगः सन्‍नहनोपाय ध्यान संगति युक्तिषु। देवी भागवत्‌ के टीकाकार योग का अर्थ प्रीति स्वीकार करते हैं। लिंगपुराण में योग के सन्दर्भ में आने वाले अन्तरायों का वर्णन मिलता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय वाङ्मय में योग शब्द का प्रयोग अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है ।

योग की परम्परा

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योग दर्शन का उपलब्ध एक मात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ महर्षि पतञ्जलि रचित योगसूत्र है । लेकिन महर्षि पतंजलि द्वारा उक्त "अथ योगानुशासनम्‌" से प्रतीत होता है कि योग दर्शन के मूल वक्‍ता कोई अन्य हैं। इसके लिए याज्ञवल्क्य स्मृति में तथा महाभारत में हिरण्यगर्भ का नाम उपलब्ध होता है (हिरण्यगर्भो योगस्यवक्ताः नान्‍यः पुरातनः)। परन्तु उनका लिखा हुआ कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। योगसूत्र ही योगदर्शन का एकमात्र प्रतिनिधि ग्रन्थ है । यह चार पार्दों में विभक्‍त है ।

योगसूत्रकार पतंजलि के विषय में शंका उत्पन्न होती है कि ये भाष्यकार से भिन्‍न हैं या नहीं । विद्वानों में इस विषय पर मतभेद है। भारतीय विचारधारा के आनुसार ये दोनों ग्रन्थ एक ही पतंजलि की कृृतियाँ हैं। आचार्य शंकर ने महाभाष्यकार, योग सूत्रकार और चरक के टीकाकार तीनों पतंजलियों को एक ही व्यक्ति माना है, और कहा है कि-

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ॥

१८वीं शताब्दी के लेखक रामभद्र दीक्षित तथा चरक के टीकाकार चक्रपाणिदत्त ने इन्हें एक ही व्यक्ति माना है। डा0 सर्वेपल्ली राधाकृष्णन् ने भी इन्हें एक ही व्यक्ति स्वीकार किया है । पाश्वात्य विद्वानों में प्रो0 वुड्स ने इन दोनों तथा चरक के टीकाकार को एक ही व्यक्ति माना है। सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने तो स्पष्ट कहा है कि इन दोनों पुस्तकों के पूर्ण अध्ययन एवं परीक्षण के उपरान्त ऐसी कोई बात नहीं मिलती जो दोनों पतंजलियों की एकता में बाधक हो। लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य नहीं है। इस आधार पर इनका समय भी निर्धारित नहीं किया जा सकता । सर्वदर्शन संग्रह में पतंजलि का समय १५० ईसापूर्व निर्धारित किया है।

योग भाष्यकार व्यास

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योगशास्त्र के इतिहास में योगसूत्रों के पश्चात्‌ महर्षि व्यास का भाष्य प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध होता है । योगदर्शन का शास्त्रीय तथा व्यावहारिक स्वरूप निरूपण योगभाष्य के आधार पर ही किया जाता है । इस भाष्य की प्रसिद्धि योगभाष्य, व्यासभाष्य, पातंजलभाष्य और सांख्य प्रवचनभाष्य आदि नामों से है। इन सब नामों में "सांख्यप्रवचनभाष्य" नाम अधिक संगत एवं प्राचीन है क्योंकि योग के सिद्धान्त वास्तव में सांख्य से अभिन्‍न ही हैं तथा व्यासभाष्य की चारों पर्दों की पुष्पिकाओं में सांख्यप्रवचनभाष्य पाठ पुरानी सभी प्रतिलिपियों में उपलब्ध होता है ( इति पातञ्जले सांख्यप्रववने योगशास्त्रे समाधिपादः प्रथमः -- यो० द० प्रथम पाद की पुष्पिका ।)। व्यासभाष्य विषय का साङ्गोपाङ्ग निरूपण करता है, सूत्र का मन्तव्य स्पष्ट करता है और योगियों में प्रसिद्ध प्रमाणों से सूत्रार्थ को परिपुष्ट करता है ।

व्यास जी के समय के बारे में कोई मतैक्य नहीं है क्योंकि अपने ग्रन्थ में उन्होंने कहीं भी अपना समय निर्दिष्ट नहीं किया है। और फिर 'व्यास' एक "वंश परम्परा" कृत नाम भी है। तथापि विद्वानों ने इनका समय लगभग ईसा का तृतीय-चतुर्थ शतक निर्धारित किया है। डा0 राधाकृष्णन के अनुसार इनका समय ईसा का चतुर्थ शतक है। बलदेव उपाध्याय ने अपने 'भारतीय दर्शन' नामक ग्रन्थ में इनका समय विक्रम की तृतीय शती से पहले का माना है। लेकिन "श्रामण्य फलसूत्र " नामक बौद्ध ग्रन्थ में व्यास भाष्य के वचन देखे जाते हैं। अतः इनके समय के विषय में निश्चिचत रूप ते कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तत्ववैशारदीकार वाचस्पतिमिश्र द्वारा व्यासभाष्य की गूढार्थता को सुलझाने के लिए योगभाष्य पर अनेक टीकाएं लिखी गईं जिनमें 'तत्ववैशारदी' अति प्राचीन एवं सर्वोत्कृष्ट टीका है । वाचस्पति मिश्र का काल लगभग ८४१ ई0 प्रतिपादित होता है। अतः सिद्व होता है कि यह ९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखी गई । वुड्स के अनुसार री वाचस्पत्तिमिश्र मिथिला में पैदा हुए थे। इनकी पत्नी का नाम 'भामती' था जिस आधार पर रमाशंकर भट्टाचार्य ने इन्हें 'भामतिपति' शब्द से अभिहित किया है। वाचस्पतिमिश्र ने लगभग प्रत्येक आस्तिक दर्शन पर टीका लिखी थी ऐसा भामती के उपसंहार श्लोक ते प्रतीत होता है। तत्ववैशारदी योगदर्शन की अत्यन्त प्रामाणिक टीका मानी गई है । परवर्ती टीकाकारों मे इनके मतों को प्रामाण्यतया ग्रहण किया है। इसमें विभिन्‍न समुदायों के दृष्टिकोणों को भी प्रदर्शित किया गया है। सक्षेप में योग मन्तव्यों को समझने के लिए इससे अधिक स्वतन्त्र और उपयोगी ग्रन्थ अनुपलब्ध है। तत्ववैशारदी पर राघवानन्द सरस्वती ने 'पातञ्जलरहस्य' नामक टीका लिखी जो अत्यन्त संक्षिप्त तथा उपयोगी है।

विज्ञानभिक्षु का योगवार्तिक एवं योगसारसंग्रह

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व्याससभाष्य पर ही टीका करने वाले एक प्रसिद्व विद्वान विज्ञानभिक्षु हैं । विज्ञानभिक्षु ने योग भाष्य पर सर्वप्रथम "योगवार्तिक" की रचना की तथा फिर योग का समन्वयात्मक ग्रन्थ "योगसारसंग्रह" रचा । इनके समय के बारे में काफी विवाद है, फिर भी इनका समय एस0एन0 दासगुप्ता, राधाकृष्णन, ए० वी० कीथ आदि विद्वानों ने १६वीं शताब्दी निश्चित किया है । इनका योग के मौलिक स्वरूप एवं उसकी विविध प्रक्रियाओं के निरूपण में वाचस्पति मिश्र से पर्याप्त मतमेद है। योगवार्तिक में श्रुति स्मृति आदि वचनों का प्रामाण्य बहुलता से प्राप्त होता है जिनके आधार पर यह सैद्वान्तिक दृष्टि से उपयोगी होने पर भी योग के सूक्ष्म एवं गूढ़ विषयों के प्रति इसमें अन्तर्दृष्टि का अभाव लक्षित होता है ।

योगसारसंग्रह में योग के सिद्वान्तों का सार संकलित किया गया है । इसकी भाषा अत्यन्त सरल एवं शैली नितान्त सुबोध है। इसके विषय में स्वयं मिक्षु ने कहा है "योगवार्तिकाचल स्वरूप मथनी के द्वारा योग रूप समुद्र को मथ कर जो सारभूत अमृत निकाला है, वह इस ग्रन्थ कुम्भ में निहित किया जाता है (वार्तिकाचल दण्डेन योग सागरम्‌ उद्धृत्यामृतसारो यं ग्रन्थकुम्भे निधीयते) । संक्षेपतः, योग का ऐसा स्पष्ट विवेचन अत्पन्त दुर्लभ है।

यद्यपि योगदर्शन पर अन्य अनेक टीकाएं उपलब्ध होती हैं किन्तु वे सभी लगभग तत्ववैशारदी अथवा योगवार्तिक को आधार बनाकर ही लिखी गई हैं।

योगसूत्रकार महर्षि पतञ्जलि ने वैयकक्तिक जीवन के अनेक पहलुओं पर वियार किया है। यद्यपि उन्होंने मुख्य रूप से समाधि का वर्णन किया है तथापि उन्होंने जीवन सम्बन्धी अनेक अन्य रहस्यों का भी उद्घाटन किया है। उनके अनुसार प्राणी का की जीवन उसके द्वारा पूर्वजन्म में किए गए अनेक कर्मों का परिणाम है । उन कर्मों के अनुसार ही प्राणी वर्तमान जीवन मैं जाति, आयु और भोग प्राप्त करता है। उनके इस सिद्वान्त को 'कर्मवाद' अथवा 'मीमांसा' कहा जाता है।

कर्ममीमांसा वैदिक साहित्य के काल से ही उपलब्ध होती है। वैदिक काल के सभी लोग कुछ न कुछ कर्मगति के बारे में जानते थे और कर्मगति की महिमा को समझते थे। भारतीय कथानक के अनुसार मानवदेह ८४ लाख योनियों के बाद मिलता है और उस समय यदि वह भटक जाए तो पुनः चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ता है ।

यद्यपि यह आक्षेप भी लगाया जाता है कि वैदिक संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख नहीं है तथापि यह निराधार है क्योंकि वैदिक संहिताओं में कर्मवाद ले सम्बन्धित अनेक मन्त्र हैं। उस समय में कर्म सुकृत एवं दुष्कृत - दो प्रकार के माने जाते थे। इन सुकृत एवं दुष्कृत कर्मों की प्रशंसा एवं निन्‍दा में ही कर्म का माहात्म्य प्रतिपादित किया गया है। कर्म के विषय में यजुर्वेद मैं कहा है कि व्यक्ति इस संसार में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे (कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः)।ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा गया है कि जीव नाना योनियों में जन्म धारण करता है। ऋग्वेद का यह मन्त्र व्यक्ति द्वारा किए गए कर्मों पर ही प्रकाश डालता है । नाना जीवन धारण करने का कारण अलग-अलग जन्मों में अशुभ कर्मों के संचय ही हैं। अथर्वविद के एक मन्त्र में जीव की मृत्यु के पश्चात्‌ तीन गतियाँ का उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार है - "पृण्य ते स्वर्ग की प्राप्ति, पाप से नरक की प्राप्ति तथा पाप और पुण्य दोनों के योग ते पृथ्वी में जन्म ग्रहण कर सुख-दुःख रूपी भोग की प्राप्ति।" अथर्ववेद के इस मन्त्र में परोक्ष रूप ते तीन प्रकार के कर्म कहे हैं - शुक्ल, कृष्ण एवं शुक्लकृष्ण। शुक्लठकर्मों के अनुष्ठान से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है, कृष्ण कर्मों के अनुष्ठान ले नरक लोक की तथा शुक्लकृष्ण कर्मों के करने से जीव को पृथ्वीलोक की प्राप्ति होती है। मोक्षावस्था का वर्णन न करने से यह भी स्पष्ट होता है कि इन्होंने ये कर्म अत्यन्त सिद्व पुरुषों से रहित जीवों के बताए हैं । यजुर्वेद में भी एक स्थान पर पुनर्जन्म की ओर संकेत किया गया है।

स्मृति साहित्य में तो कर्म का अत्यन्त विषद वर्णन प्राप्त होता है । मनुस्मृति के अनुसार कोई भी कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। चाहें वह शारीरिक हो अथवा वाचिक अथवा मानसिक, उसका अच्छा या बुरा परिणाम अवश्य मिलता है (नत्वेव तु कृतो धर्मः कर्तुर्भवति निष्फलः)। याज्ञवल्क्य के अनुसार यह आत्मा ही धर्म एवं अधर्म दोनों प्रकार के कर्म करती है - कुछ स्वभाव के कारण तो कुछ अभ्यास के कारण। उनके अनुसार जीव मानसिक, वाचिक और कायिक कर्मों से उत्पन्न दोषों के कारण ही चाण्डाल, पक्षी और वृक्षादि स्थावर पदार्थों का रूप सैकड़ों योनियों में प्राप्त करता है। जीवों के अपने-अपने शरीरों में जिस प्रकार के अनन्त भाव होते हैं उत्ती प्रकार के रूप भी सभी योनियों में देहियों को प्राप्त होते हैं। कुछ कर्मों के फल मृत्यु के उपरान्त दूसरा शरीर मिलने पर प्राप्त होते है और कुछ कर्मों के फल इसी लोक में मिल जाते हैं। गीता में कहा गया है कि मनुष्य योनि से ऊपर की देवयोनियाँ केवल पूर्वकृत पुण्य के परिणाम को भोगने के लिए ही हैं। उनके भोग पूरे होने पर उन्हें वहां से गिरना पड़ता है। महाभारत में आख्यान है कि मनुष्य लोक कर्मभूमि है, स्वर्ग भोगभूमि है । मनुष्य लोक में पुण्य कार्य करने वाले निश्वय ही स्वर्गलोक में जाते हैं तथा पाप करने वाले निर्दयी व्यक्ति नरक को प्राप्त करते हैं। गीता का तो सार ही कर्मयोग है। जनकादि राजर्षियों के बारे मैं गीता मैं मिलता है कि इन लोगों ने कर्म के ही द्वारा सम्सिद्धि प्राप्त की थी (कर्मणेव संसिद्धिमास्थिता जनकादयः)।

इस प्रकार कर्म का वेदों से लेकर उत्तर साहित्य तक विशद वर्णन प्राप्त होता है। इनका और अधिक और स्पष्ट और तैज्ञानिक विवेवन योगदर्शन में प्राप्त होता है।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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