योग का इतिहास

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योग की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसकी उत्‍पत्ति हजारों वर्ष पहले हुई थी। ऐसा माना जाता है कि जब से सभ्‍यता शुरू हुई है तभी से योग किया जा रहा है। अर्थात प्राचीनतम धर्मों या आस्‍थाओं (faiths) के जन्‍म लेने से काफी पहले योग का जन्म हो चुका था। योग विद्या में शिव को "आदि योगी" तथा "आदि गुरू" माना जाता है।

भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पतञ्जलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ, वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से विस्तार दिया।

योग से सम्बन्धित सबसे प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्य सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त वस्तुएँ हैं जिनकी शारीरिक मुद्राएँ और आसन उस काल में योग के अस्तित्व के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। योग के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करे तो इसके प्रारम्भ या अन्त का कोई प्रमाण नही मिलता, लेकिन योग का वर्णन सर्वप्रथम वेदों में मिलता है और वेद सबसे प्राचीन साहित्य माने जाते है। योग की शुरुआत भारत में हुई थी, आज के समय में भारत देश के कई राज्यों में योग में ध्यान दिया जा रहा है जिसमे सबसे आगे उत्तराखंड राज्य है, उत्तराखंड के ऋषिकेश को योग नगरी के नाम से भी जाना जाता है

नीचे विभिन्न कालों में योग के प्रचलन की स्थिति को रेखांकित किया गया है।

पूर्व वैदिक काल (ईसा पूर्व 3000 से पहले)[संपादित करें]

अभी हाल तक, पश्चिमी विद्वान ये मानते आये थे कि योग का जन्म करीब 500 ईसा पूर्व हुआ था जब बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। लेकिन हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में जो उत्खनन हुआ, उससे प्राप्त योग मुद्राओं से ज्ञात होता है कि योग का चलन 5000 वर्ष पहले से ही था।

वैदिक काल (3000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व)[संपादित करें]

वैदिक काल में एकाग्रता का विकास करने के लिए और सांसारिक कठिनाइयों को पार करने के लिए योगाभ्यास किया जाता था। पुरातन काल के योगासनों में और वर्तमान योगासनों में बहुत अन्तर है। इस काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी।

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥' ( ऋक्संहिता, मंडल-1, सूक्त-18, मंत्र-7)
अर्थात- योग के बिना विद्वान का भी कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता।
स घा नो योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स न:॥' ( ऋग्वेद 1-5-3 )
अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेक, ख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो, अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करे।

पूर्वशास्त्रीय काल (500 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व तक)[संपादित करें]

उपनिषदों, महाभारत और भगवद्‌गीता में योग के बारे में बहुत चर्चा हुई है। भगवद्गीता में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का उल्लेख है। गीतोपदेश में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को योग का महत्व बताते हुए कर्मयोग, भक्तियोग व ज्ञानयोग का वर्णन करते हैं। गीता के चौथे अध्याय के पहले श्लोक में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ ४.१

अर्थात् हे अर्जुन मैने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था , सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।

इस अवधि में योग, श्वसन एवं मुद्रा सम्बंधी अभ्यास न होकर एक जीवनशैली बन गया था। उपनिषद् में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में इसके लक्षण को बताया गया है-

तां योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय धारणम्

जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था। 563 से 200 ई.पू. योग के तीन अंग - तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - का प्रचलन था। इसे 'क्रियायोग' कहा जाता है।

प्रसिद्ध संवाद, “योग याज्ञवल्क्य” में, जोकि बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित है, में याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच कई साँस लेने सम्बन्धी व्यायाम, शरीर की सफाई के लिए आसन और ध्यान का उल्लेख है। गार्गी द्वारा छांदोग्य उपनिषद में भी योगासन के बारे में बात की गई है।

शास्त्रीय काल (200 ईसा पूर्व से 500 ई)[संपादित करें]

इस काल में योग एक स्पष्ट और समग्र रूप में सामने आया। पतञ्जलि ने वेद में बिखरी योग विद्या को 200 ई.पू. पहली बार समग्र रूप में प्रस्तुत किया। उन्होने सार रूप योग के 195 सूत्र संकलित किए (देखें, योगसूत्र)। पतंजलि सूत्र का योग, राजयोग है। इसके आठ अंग हैं: यम (सामाजिक आचरण), नियम (व्यक्तिगत आचरण), आसन (शारीरिक आसन), प्राणायाम (श्वास विनियमन), प्रत्याहार (इंद्रियों की वापसी), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि। यद्यपि पतंजलि योग में शारीरिक मुद्राओं एवं श्वसन को भी स्थान दिया गया है लेकिन ध्यान और समाधि को अधिक महत्त्व दिया गया है। योगसूत्र में किसी भी आसन या प्राणायाम का नाम नहीं है।

इसी काल में योग से सम्बन्धित कई ग्रन्थ रचे गए, जिनमें पतंजलि का योगसूत्र, योगयाज्ञवल्क्य, योगाचारभूमिशास्त्र, और विसुद्धिमग्ग प्रमुख हैं।

मध्ययुग (500 ई से 1500 ई)[संपादित करें]

इस काल में पतंजलि योग के अनुयायियों ने आसन, शरीर और मन की सफाई, क्रियाएँ और प्राणायाम करने को अधिक से अधिक महत्व देकर योग को एक नया दृष्टिकोण या नया मोड़ दिया। योग का यह रूप हठयोग कहलाता है। इस युग में योग की छोटी-छोटी पद्धतियाँ शुरू हुईं।

आधुनिक काल[संपादित करें]

स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में योग का उल्लेख कर सारे विश्व को योग से परिचित कराया। महर्षि महेश योगी, परमहंस योगानन्द, रमण महर्षि जैसे कई योगियों ने पश्चिमी दुनिया को प्रभावित किया और धीरे-धीरे योग एक धर्मनिरपेक्ष, प्रक्रिया-आधारित धार्मिक सिद्धान्त के रूप में दुनिया भर में स्वीकार किया गया।

हाल के दिनों में, टी. कृष्णमाचार्य के तीन शिष्यों, बी.के.एस आयंगर, पट्टाभि जोइस और टी.वी.के देशिकाचार विश्व स्तर पर योग को लोकप्रिय बनाया है।

११ दिसम्बर सन २०१४ को भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में २१ जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा था जिसे 193 देशों में से 175 देशों ने बिना किसी मतदान के स्वीकार कर लिया। यूएन ने योग की महत्ता को स्वीकारते हुए माना कि ‘योग मानव स्वास्थ्य व कल्याण की दिशा में एक सम्पूर्ण नजरिया है।’

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]