जोगप्रदीपिका

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जोग प्रदीपिका , हठयोग से सम्बन्धित एक ग्रन्थ है। इसकी रचना १७३७ ई में रामानन्दी जयतराम ने की थी। यह हिन्दी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली की मिलीजुली भाषा में रचित है और शब्दावली संस्कृत के अत्यन्त निकट है। दोहा, चौपाई, सोरठा आदि छन्दों में योग के आठ अंगों का आठ खण्डों में वर्णन किया गया है। इसके खण्डों के नाम ये हैं-

  • (१) जम वरनन (यम वर्णन)
  • (२) नेम कथन (नियम कथन)
  • (३) आसनवर्णन (आसन वर्णन)
  • (४) इसका नाम नहीं दिया है। विविध विषयों का वर्णन
  • (५) प्रत्याहार वरनन
  • (६) धारना
  • (७) ध्यान वरनन
  • (८) समाधि वरनन

[1] इस ग्रन्थ में छः षट्कर्मों, ८४ आसनों, २४ मुद्राओं और ८ कुम्भकों का वर्णन है। [2] इस ग्रन्थ की सन् १८३० की एक पाण्डुलिपि में ८४ आसनों के चित्र हैं।[3]

आसन[संपादित करें]

१७३७ में रचित मूल ग्रन्थ की ९६४ पदों में से ३१४ में ८४ आसनों का वर्णन है। सभी आसनों के कुछ न कुछ चिकित्सा-सम्बन्धी लाभ बताए गए हैं। सभी आसनों में दृष्टि को दोनों भौहों के बीच या नासिका (नाक) के कोने पर केन्द्रित करने की सलाह दी गयी है।[4]

कुछ प्रमुख विचार[संपादित करें]

जोगप्रदीपिका में योग के विभिन्न विषयों पर स्पष्ट मत दिया गया है। नीचे कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-

जोगप्रदीपिका का आरम्भिक अंश
कहौं जोग के सुगम उपाय । जोगी जनकौ अतिसुखदाय ।
गुरुमुख साधि समाधि ही पावै । मनुमुख मूरिख अति डहकावै ॥8।
बैठण जुक्ति मडीकी आखौ । मित्याहार पथ्य पुनि भाखौं ।
यमनैमादिक आसन जोई । वरनू अंग आठ पुनि सोई ॥9।
यम
दस प्रकार के यम कहौ भिन्न भिन्न समझाय ।
जयतराम यह नीव करि योगमहल ठहराय ॥21।
अहिंसा
थावर जंगम जीव जे या भूलोक मझार ।
मन कर्म वचन न पीडवै यहै अहिंसा सार ॥24।
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य ऐसी विधि धारै तन करि युवती संग निवारे ।
मन करि विषै वासना तजै सुपनै नारि न कबहूं भजै ॥27।
मित्याहार
सातिग अंन भोजन करै मधुरस चिकनसार ।
चौथ अंस फुनि छाडि कै सो कहिये मितहार ॥33।
शौच
सौच जु जहिये दोइ प्रकारा तन अरु मन का तजै विकारा ।
जल मृतिका सौं तन सधु करिये राग-द्वेष मन का परिहरिये ॥34।
तप
पांचौ इंद्रियनकी विरति विषें भोग तें सोय ।
उलटि अपुठी आणिये उत्तम तप यह होय ॥38।
सन्तोष
जथा लाभ संतुष्ट रहे छाडि कल्पना दोष ।
ईश्वर इछा मन धरै यहै बडा संतोष ॥39।
मति
जे जे उतिम कर्म को वेद कियौ निरधार ।
तामें अति सरधा रहै सो मति कहिये सार ॥45।
आसन
प्रथमही आसन साधिये बैठिके धारै धीर ।
जयतराम तब सहजही निर्मल होय सरीर ॥3.49।
आसन नाम कहौ समझाई । साधै होय अधिक सुखदाई ।
जयतिराम जो विधि सौ साधै । सो नर जोग पंथ कौ लधै ॥50।
मयूरासन
या आसन तै विष जरै अग्नि अधिकता होय ।
गुलम पेट फीहयौ गरै मिटै अजिरन सोय ॥114।
मित्याहार
प्रभुकी आग्या जो कछु आवै ताकरि मन संतोष धरावै ।
संकल्प विकल्प मन तै टारै प्रथमही साधिक यह मति धारै ॥372।
अधिक अहार आय जो परै ताकौ असन युक्ति सौ करै ।
दोय भाग अंनसौ भरि लेवै त्रितीय भाग तोय भरि देवै ॥373।
चतुर्थ को अवसेष रहावै तामे प्राण वाय ले आवै ।
जो कबहु पूरण भक्षि करै ताकै वाय न घट में फिरै ॥374।
भक्ष्य अभक्ष्य कौ वारंवारा जोगी निति प्रति करै विचारा ॥375।
अति खाटो अति मीठो खारो ऐसी भक्ष्यन सकल निवारो ।
अरु जे वस्त मादादिक जोई तिनको भखे जोग नही होई ॥376।
भंग अफीम भक्ष जो करै सो तो जाय नरक में परै ।
सहस्र वर्षलग निकसै नाही नाना दुख सहे तामाहि ॥377।
ओंकार
ओंकारको रूप पछानै ताकरि जनममरन भय भानै ।
सो पुनि तीन अक्षरमय राजत अकार उकार मकार विराजत ॥711।
प्रत्याहार
प्रत्याहार अब कहत हौ चितवृति उलटन सोय ।
जयतराम गुरुक्रिपातै पावै विरला कोय ॥720।
जोगप्रदीपिका
जोग कल्पद्रुम है यहै दूरि करै श्रम सोय ।
जयतराम याकै निकट सहजमुक्ति फल होय ॥950।
जोगप्रदीपका यह है भाई प्रगट जोगकौ देत बताई ।
ज्यों मंदर मैं दीपक जोवै लहै वस्त अरु तमकौ खोवै ॥951।
ऐसे ग्रंथदीप यह जानौं साधन सकल तेल करि मानौ ।
काया मंदिर मै भरि जोवै लहै समाधि सकल तम खोवै ॥952।
संवत सतरासै असी अधिक चतुर्दश जान ।
अस्वन सित दसमी विजै पूरण ग्रंथ (समान Bप्रमान )॥960।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Bühnemann 2007, पृ॰प॰ 28-29, 38-63.
  2. Mallinson 2011, पृ॰प॰ 770–781.
  3. Bühnemann 2007, पृ॰प॰ 38-63.
  4. Mallinson & Singleton 2017, पृ॰प॰ 89-92.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

प्राथमिक स्रोत[संपादित करें]

  • जोगप्रदीपिका जोगप्रदीपिका
  • जोगप्रदीपिका (स्रोत : जोगप्रदीपिका, जयतराम कृत ; सम्पादक - एम एल घारोए ; राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर १९९९)
  • Jayataramā, Ramanandi (1999). Gharote, M. L. (संपा॰). Jogpradīpikā of Jayataramā. Jodhpur, Rajasthan, India: Rajasthan Oriental Research Institute.

द्वितीयक स्रोत[संपादित करें]