ख़ालसा
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खालसा सिख धर्म के विधिवत् दीक्षाप्राप्त अनुयायियों सामूहिक रूप है। खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ०९ अप्रैल सन १६९९, तिथि अनुसार २५ चैत्र शुक्ल पक्ष दशमी विरोधी, विक्रम सम्वत १७५६ बृहस्पतिवार को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की। इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया।
सतगुरु गोबिंद सिंह ने खालसा महिमा में खालसा को "अकाल पुरख की फ़ौज" पद से नवाजा है। किरपान और केश तो पहले ही सिखों के पास थे, गुरु गोबिंद सिंह ने "खंडे बाटे की पाहुल" तयार कर कच्छा, कड़ा और कंघा भी दिया। इसी दिन खालसे के नाम के पीछे "सिंह" लग गया। भौतिक रूप से खालसे की भिन्नता नजर आने लगी, पर खालसे ने आत्मज्ञान नहीं छोड़ा। उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर किरपान भी चलती रही।
पूर्व इतिहास
[संपादित करें]हिन्दुओं के ऊपर कट्टर इस्लाम और सरकारी नुमाइन्दो के वार लगातार बढ़ गए थे। सरकार को गलत खबरें दे कर इस्लाम के कट्टर अनुयायियों ने गुरु अर्जुन देव जी को मौत की सजा दिलवा दी। जब गुरु अर्जुन देव, को बहुत दुःख दे कर शहीद कर दिया गया तो गुरु हरगोबिन्द जी ने तलवार उठा ली। यह तलवार सिर्फ आत्म रक्षा और आम जनता की बेहतरी के लिए उठाई थी। गुरु हरगोबिन्द जी के जीवन में उन पर लगातार ४ हमले हुए और सतगुरु हरि राए पर भी एक हमला हुआ। गुरु हरि कृष्ण को भी बादशाह औरंगजेब ने अपना अनुयायी बनाने की कोशिश की।
गुरु तेग़ बहादुर को क्रुर इस्लामिक शासक औरंगजेब ने हत्या कर दिया, क्योंकि औरंगजेब कट्टर इस्लाम था , वह सभी गैर-इस्लामिको से घृणा करता था । गुरु तेगबहादुरजी ने गैर-इस्लामो पर होने वाले अन्याय तथा अत्याचार का विरोध किया । इसलिए औरंजेब ने गुरुतेगबहादुर को बंदी बनाया तथा उनकी बेरहमी से सर काटकर हत्या कर दी । उसके बाद औरंगजेब के इस्लामिक अहलकारों ने धर्म के बढते प्रचार व अनुयायियों की भारी संख्या को इस्लाम के लिए खतरा समझना शुरु कर दिया और वो इसके विरुद्ध एकजुट हो गए। इस बीच गुरु गोबिंद सिंह ने कुछ बानियों की रचना की जिस में इस्लाम के खिलाफ सख्त टिप्पणियाँ थी।
उपरोक्त परिस्थितयों तथा औरंगजेब और उसके नुमाइंदों के गैर-मुस्लिम जनता के प्रति अत्याचारी व्यवहार को देखते हुए धर्म की रक्षा हेतु जब गुरु गोबिंद सिंह ने सशस्त्र संघर्ष का निर्णय लिया तो उन्होंने ऐसे सिखों (शिष्यों) की तलाश की जो धर्म विचारधारा को आगे बढाएं, दुखियों की मदद करें और ज़रुरत पढने पर अपना बलिदान देनें में भी पीछे ना हटें|
खालसा पंथ साजने का चित्र
[संपादित करें]जब आनंदपुर में गुरु गोबिंद सिंह ने तलवार निकल कर कहा की "मुझे एक सिर चाहिये" । सब हक्के-बक्के रह गए। कुछ तो मौके से ही खिसक गए। कुछ कहने लग पड़े गुरु पागल हो गया है। कुछ तमाशा देखने आए थे। कुछ माता गुजरी के पास भाग गए की देखो तुमहरा सपुत्र क्या खिचड़ी पका रहा है ।
१० हज़ार की भीड़ में से पहला हाथ भाई दया सिंह जी का था। धर्म के लिए वोह सिर कटवाने को तैयार थे। गुरु साहिब उसको तम्बू में ले गए। वहाँ एक बकरे की गर्दन काटी। खून तम्बू से बहर निकलता दिखाई दिया। जनता में डर और बढ़ गया । तब भी हिम्मत दिखा कर धर्म सिंह, हिम्मत सिंह, मोहकम सिंह, साहिब सिंह ने अपना सीस कटवाना स्वीकार किया। गुरु साहिब बकरे झटकते रहे।
पाँचों को फिर तम्बू से बहर निकला और 'खंडे बाटे की पाहुल' तयार की।
खंडे बाटे की पाहुल
[संपादित करें]खंडा बाटा, जंत्र मंत्र और तंत्र के स्मेल से बना है। इसको पहली बार सतगुर गोबिंद सिंह ने बनाया था।
- जंत्र : बाटा (बर्तन) और दो धारी खंडा
- मंत्र : ५ बानियाँ - जपु साहिब, जाप साहिब, त्व प्रसाद सवैये, चोपाई साहिब, आनंद साहिब
- तंत्र : मीठे पतासे डालना, बानियों को पढ़ा जाना और खंडे को बाटे में घुमाना
इस विधि से हुआ तयार जल को "पाहुल" कहते हैं। आम भाषा में इसे लोग अमृत भी कहते हैं।इस को पी कर सिख, खालसा फ़ौज, का हिसा बन जाता है अर्थात अब उसने तन मन धन सब परमेश्वर को सौंप दिया है, अब वो सिर्फ सच का प्रचार करेगा और ज़रूरत पढने पर वो अपना गला कटाने से पीछे नहीं हटेगा। सब विकारों से दूर रहेगा। ऐसे सिख को अमृतधारी भी कहा जाता है। यह पाहुल पाँचों को पिलाई गई और उन्हें पांच प्यारों के ख़िताब से निवाजा।
२ कक्कर तो सिख धर्म में पहले से ही थे। जहाँ सिख आत्मिक सत्ल पर सब से भीं समझ रखता था सतगुर गोबिंद सिंह जी ने उन दो ककारों के साथ साथ कंघा, कड़ा और कछा दे कर शारीरिक देख में भी खालसे को भिन्न कर दिया। आज खंडे बाटे की पाहुल पांच प्यारे ही तयार करते हैं। यह प्रिक्रिया आज रिवाज बन गयी है। आज वैसी परीक्षा नहीं ली जाती जैसी उस समे ली गई थी।
इस प्रिक्रिया को अमृत संचार भी कहा जाता है।
खालसा और गुरू गोबिंद सिंह
[संपादित करें]इतिहास इस बात का गवाह है कि गुरु गोबिंद सिंह जी भी पांच प्यारों के आधीन चला करते थे और उन के हुक्म को माना करते थे। पांच प्यारों ने गोबिंद सिंह को चमकोर का किला छोड़ने का हुक्म दिया और उन्हें मानना पड़ा। पांच प्यारों ने फिर गोबिंद सिंह जी को टोका, जब गोबिंद सिंह इन की परख के लिए दादू की कब्र पर नमस्कार कर रहे थे। गोबिंद सिंह ने बंदा बहादुर को भी पांच प्यारों के संग भेजा गया, इतिहास में ज़िक्र है कि जब बंदा बहादुर प्यारों की उलंघना करता रहा तो बंदा बहादुर को सब किले में छोड़ गए। गोबिंद सिंह और खालसा फ़ौज ने बहादुर शाह की मदद की और उसे शासक बनाने के लिए उसके भाई से लोहा भी लिया। खालसा ने ही गुरु गोबिंद सिंह की बानियों को खोजा और ग्रन्थ के रूप में ढाला।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- पंज प्यारे (पंच प्यारे)