सामग्री पर जाएँ

विद्याधर चक्रवर्ती

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

विद्याधर चक्रवर्ती। विद्याधर भट्टाचार्य (१६९३-१७५१) मध्यकालीन नगर-नियोजन के पुरोधा थे। आज से 286 साल पहले जयपुर जैसा सुव्यवस्थित और आधुनिक नगर बसाने के आमेर महाराजा सवाई जयसिंह के सपने को साकार करने में उनकी भूमिका सबसे निर्णायक और महत्वपूर्ण रही। गणित, शिल्पशास्त्र, ज्योतिष और संस्कृत आदि विषयों में उनकी असाधारण गति थी।

सब से पहले विद्याधर ने जिसकी रचना की : किला जयगढ़, आमेर

विद्याधर बंगाल मूल के एक गौड़-ब्राह्मण थे, जिनके दस वैदिक ब्राह्मण पूर्वज आमेर-राज्य की कुलदेवी दुर्गा शिलादेवी की शिला खुलना-उपक्षेत्र के जैसोर (तब पूर्व बंगाल), अब बांग्लादेश) से लाने के समय जयपुर आये थे। उन्हीं में से एक के वंशज विद्याधर थे।[1]

जन्म-और मृत्यु-तिथि

[संपादित करें]

जयपुर इतिहास के जाने माने विद्वान और अनुसंधानकर्ता डॉ॰ असीम कुमार राय ने सिटी-पैलेस, जयपुर के पोथीखाने से प्राप्त जन्मपत्री के आधार पर लिखा है -'विद्याधर का जन्म बंगाल में वैशाख शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1750 (सन 1693 ईस्वी) में ज्ञानेंद्र चक्रवर्ती, जो आमेर में संतोष राम नाम से प्रसिद्ध हुए के घर में हुआ था। उनकी मृत्यु फाल्गुन सुदी नवमी संवत 1807 (सन 1751) को जयपुर में हुई। डॉ॰ असीम कुमार राय के अनुसन्धान के अनुसार जयपुर दरबार के पुराने कागज़ात में विद्याधर के नाम का सबसे पहले उल्लेख संवत 1775 (सन 1719-20) में उपलब्ध हुआ है, जब वह आमेर के 'महकमा-हिसाब' ('कचहरी-मुस्तफी') (या लेखा-विभाग) में 'नायब-दरोगा' (Junior Inspector Audit) के पद पर काम कर रहे थे। संवत 1781 (सन 1725-26) में विद्याधर के मामा कृष्णाराम को अपनी पुत्री और भांजे विद्याधर के विवाह के लिए दरबार की और से 5 हज़ार रुपये बतौर परवरिश दिए जाने का लिखित उल्लेख मिला है।[2]

दीवान पद पर पदोन्नति

[संपादित करें]

सवाई जयसिंह, काबुल में हुई लड़ाई में अपने पिता महाराजा विष्णुसिंह के देहांत के बाद 1699-1700 ई. में आमेर की गद्दी पर बैठे थे- विद्याधर के जन्म के प्रायः छ: साल बाद- जिन्होंने अपने एक प्रायः अनाम लेखा-लिपिक विद्याधर की असामान्य प्रतिभा को न केवल पहचाना और सम्मानित किया; बल्कि सन 1729 में उन्हें पदोन्नत कर आमेर राज्य का 'देश-दीवान' (या राजस्व-मंत्री) का महत्वपूर्ण पद भी दिया। सन 1743 में सवाई जयसिंह के देहावसान के बाद भी विद्याधर शासन में रहे और समय-समय पर सम्मानित और पुरस्कृत होते रहे। [1]

जयपुर को विद्याधर का योगदान

[संपादित करें]

जयपुर के नगर नियोजक और प्रमुख-वास्तुविद के रूप में विद्याधर का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। वह कई अवसरों पर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर चुके थे और सवाई जयसिंह को उनकी मेधा और योग्यता पर पूरा भरोसा था इसलिए सन 1727 में आमेर को छोड़ कर जब पास में ही एक नया नगर बनाने का विचार उत्पन्न हुआ तो भला विद्याधर को छोड़ कर इस कल्पना को क्रियान्वित करने वाला भला दूसरा और कौन होता? लगभग चार साल में विद्याधर के मार्गदर्शन में नए नगर के निर्माण का आधारभूत काम पूरा हुआ। जयसिंह ने अपने नाम पर इस का नाम पहले पहल 'सवाई जयनगर' रखा जो बाद में 'सवाई जैपुर' और अंततः आम बोलचाल में और भी संक्षिप्त हो कर 'जयपुर' के रूप में जाना गया। [3]

चित्र:Jaigarh Fort Wall.JPG
विद्याधर द्वारा आकल्पित बहुचर्चित किला 'जयगढ़'

१७३४ ईस्वी में जयपुर में सात-खंड (मंजिल) के राजमहल ' (चन्द्रमहल)' का निर्माण जहाँ विद्याधर ने करवाया, वहीं इस से पहले सन १७२६-२७ (संवत १७८३) में आमेर में दुर्गम और प्रसिद्ध किले जयगढ़ की तामीर भी इन्होने ही शिल्पशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर करवाई[4] - जिसके तुरंत बाद इन्हें आमेर राज्य का राजस्व-मंत्री ('देश-दीवान') का ओहदा मिला। [2] पुराना शहर चारों ओर से ऊंचे मज़बूत परकोटे से घिरा हुआ था, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे बनवाये गए। बहुत बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर सामान आकार के छह भागों में बँटा है और यह 111 फुट (34 मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। प्रासाद-भाग में हवामहल परिसर, टाउनहाल, तालकटोरा, गोविन्ददेव मंदिर, उद्यान एवं वेधशाला आदि हैं, तो पुराने शहर के उत्तर-पश्चिमी ओर की पहाड़ी पर नाहरगढ़, शहर के मुकुट जैसा लगता एक किला।[3]

नगर को वास्तु शास्त्र के अनुरूप अलग-अलग प्रखंडों (चौकड़ियों) में समकोणीय मार्गों (जिन्हें नगर नियोजन की भाषा में 'ग्रिड आयरन पैटर्न' कहा जाता है) के आधार पर बांटने, विशेषीकृत हाट-बाज़ार विकसित करने, इसकी सुन्दरता को बढ़ाने वाले अनेकानेक निर्माण करवाने वाले विद्याधर का नगर-नियोजन [4] आज देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में मानक-उदाहरण के रूप में छात्रों को पढ़ाया जाता है। ली कार्बूजियर के चंडीगढ़ की वास्तु-योजना [5][6] बहुत कुछ जयपुर के नगर-नियोजन से ही अभिप्रेरित है। रूस के भारतविद विद्वान ए. ए.कोरोत्स्काया ने अपनी प्रसिद्ध किताब भारत के नगर में विद्याधर और जयपुर की विशिष्ट वास्तुरचना बारे में विस्तार से विचार व्यक्त किये हैं।

सवाई जयसिंह के समकालीन, संस्कृत और ब्रजभाषा के महाकवि श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि ने अपने इतिहास-काव्यग्रंथ ईश्वरविलास महाकाव्य में विद्याधर की प्रशस्ति में कहा है "बंगालयप्रवर वैदिकागौड़विप्र: क्षिप्रप्रसादसुलभ: सुमुख:कलावान विद्याधरोजस्पति मंत्रिवरो नृपस्यराजाधिराजपरिपूजित: शुद्ध-बुद्धि:" भावार्थ यह कि महाराजा जयसिंह का मंत्री विद्याधर (वैदिक) गौड़ जाति का बंगाली-ब्राह्मण है, देखने में बड़ा सुन्दर और बोलने में बड़ा सरल स्वभाव का है, विभिन्न कलाओं में निष्णात शुद्ध बुद्धि वाले (इस विद्याधर) को महाराजाधिराज जयसिंह बड़ा मान-सम्मान देते हैं।" कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने सन 1947 में 476 पृष्ठों में प्रकाशित अपना एक यशस्वी काव्य-ग्रन्थ जयपुर-वैभवम तो विद्याधर की अमर वास्तुकृति- जयपुर के नगर-सौंदर्य, दर्शनीय स्थानों, देवालयों, मार्गों, यहाँ के सम्मानित नागरिकों, उत्सवों और त्योहारों आदि पर ही केन्द्रित किया था।

सम्मान-पुरस्कार और स्मृति-चिन्ह

[संपादित करें]

सन १७२७ में जयगढ़(देखें चित्र) पूरा होने पर इन्हें 'सिरोपाव' सम्मान मिला, १७३४ में चन्द्रमहल बनवाने पर पुनः सिरोपाव और सन १७३५ में झोटवाडा के पास 'दर्भावती नदी'/ 'द्रयावती' (बांडी नदी) से नहर बनवा कर उसका पानी जयपुर शहर में लाने पर एक बड़ा राजसम्मान 'सिरोपाव' मिला।[5] इसी बारे में यदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक' जयपुर का इतिहास' ('अ हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर') के पृष्ठ १९६ पर लिखा है-" जैसा जयपुर राज्य के कागजात (अभिलेख) से ज़ाहिर है, विद्याधर का सम्मान और ओहदा एक वास्तुविद के रूप में जयपुर-सरकार में निश्चित रूप से ऊंचा था। सन १७२९ ईस्वी में उन्हें 'देश-दीवान' पद पर पदोन्नत किया गया, सन १७३४ में 'सात-मंजिल के राजमहल को शीघ्र पूरा करवाने' और वर्ष १७३५ में 'द्रयावती' नदी का पानी जयपुर में लाने' के उपलक्ष्य में के लिए राज्य से सम्मानित किया गया। इस बात की पुष्टि भी जयपुर अभिलेखों से होती है- उन्हें इसके अलावा भी अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले जिनमें २३ फ़रवरी १७५१ को उन्हें एक हाथी भेंट किये जाने का (लिखित) प्रमाण भी शामिल है।..."[6] जयपुर राजदरबार में विद्याधर का सम्मान इतना था कि "उनके पुत्र मुरलीधर चक्रवर्ती को न केवल अपने पिता का पद सौंपा गया बल्कि 5,000 रुपये सालाना की वार्षिक आय की जागीर भी।"[7] यदुनाथ सरकार के 'जयपुर का इतिहास' में यह तथ्य सर्वप्रथम बार उल्लेखित है।

जिस सुन्दर शहर का नक्शा ऐसे गुणवान नगर-नियोजक ने बनाया था, आज उस जयपुर में उन्हीं वास्तुविद विद्याधर के कोई वंशज नहीं बचे हैं, पर जयपुर-आगरा महामार्ग पर 'घाट की घूनी' में बनाया गया मुग़लों की 'चारबाग' शैली पर आधारित एक सुन्दर उद्यान 'विद्याधर का बाग' और त्रिपोलिया बाज़ार में 'विद्याधर के रास्ते' में स्थित उनकी पुश्तैनी-हवेली, उनकी धुंधली सी याद को यथासंभव सुरक्षित रखे हुए हैं। जयपुर विकास प्राधिकरण ने अहमदाबाद के प्रसिद्ध वास्तुविद बालकृष्ण विट्ठल दास दोषी (जन्म 26 अगस्त 1927-) के नक़्शे से उनके नाम पर एक पूरा का पूरा विशाल उपनगर 'विद्याधर नगर' ही जयपुर-सीकर रोड पर बसाया है। [8]

इतिहास से ज्ञात होता है एक पुत्र मुरलीधर के अलावा विद्याधर के दो पुत्रियाँ भी थीं- मायादेवी और कम्यादेवी. मायादेवी ने त्रिपोलिया के बाहर 'चौड़े-रास्ते' में प्रसिद्ध शिवालय 'ताड़केश्वरजी मंदिर' की प्रतिष्ठा करवाई और यों अपने पिता की स्मृति को चिरस्थाई बनाया, वहीं आमेर के 'बकाण के कुँए' के पास एक और शिव-मंदिर भी (संभवतः अपने पिता की याद में (?) निर्मित करवाया. इन्हीं मायादेवी के पुत्र हरिहर चक्रवर्ती की महाराजा ईश्वरीसिंह के शासन में 'देश-दीवान' के मंत्री-पद पर नियुक्ति की गयी।[9]

जयपुर का 'चन्द्रमहल' : जिसके वास्तुविद विद्याधर थे

विद्याधर के पूर्वज और मथुरा के राजा कंस की शिला

[संपादित करें]

विद्याधर के वंशज (प्रपौत्र के पौत्र) सूरजबक्श की जानकारी[10] के अनुसार "महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के छोटे भाई (अनुज) मेघनाथ भट्टाचार्य ने सन १९०४ ईस्वी में अपने पूर्वज विद्याधर पर एक बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी ' साहित्य-परिषद्-पत्रिका' में प्रकाशित करवाई थी। इस विवरण को संवत १३२२ (सन १९१८ ईस्वी) में कलकत्ता के ज्ञानेंद्र मोहन दास ने अपनी बांगला-पुस्तक 'बगैर बाहिरे बांगाली' में भी शामिल किया था। इस विवरण के अनुसार : " यशोहर (जो बांगलादेश में आज का जैसोर है) के राजा विक्रमादित्य ने अपने पुत्र प्रतापादित्य को मुग़ल शासन की जानकारी करने के लिए आगरा भेजा था। जब वह आगरा पहुँचने से पहले कुछ दिन मथुरा में था, तो उसे वहां ग्रेनाइट की एक काली शिला मिली जिसके बारे में यह बात इतिहास में प्रसिद्ध थी कि यह शिला वही है, जिस पर एक के बाद एक पटक कर मथुरा के राजा कंस ने देवकी की सात संतानों को मार डाला था। कहा जाता है कि आठवीं संतान एक बालिका थी और जब कंस ने इस शिला पर पटक कर उसे भी मौत के घाट उतारना चाहा तो वह उसके हाथों से छूट गयी। आकाशगामी हो कर उस योगमाया ने (अष्टभुजा देवी के रूप में प्रकट हो कर) कंस के वध की भविष्यवाणी की।

जैसोर के राजा विक्रमादित्य का पुत्र प्रतापादित्य मथुरा से इसी शिला को अपने पिता के राज्य जैसोर (बंगाल) ले गया। जब वह राजा बना, तो आमेर के राजा मानसिंह(प्रथम) ने (बंगाल-बिहार के सूबेदार के नाते) जैसोर को मुग़ल सत्ता के अधीन करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया। प्रतापादित्य को युद्ध में पराजित कर अकबर के सेनापति राजा मानसिंह इस शिला को आमेर ले आये। " उस 'भयंकर' शिला के साथ विद्याधर के पूर्वज दस वैदिक बंगाली ब्राह्मण भी आमेर आये थे जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है। "तांत्रिक-पद्धति से पूजा अर्चना करने वाले वैदिक बंगाली ब्राह्मणों के परामर्श से इस शिला पर अष्टभुजा महिषासुर मर्दिनी महिषासुर मर्दिनी की सुन्दर प्रतिमा उत्कीर्ण करवाई गयी"[11] और आमेर महलों में एक मंदिर निर्मित करवा कर विधिवत प्रतिष्ठित कर दी गयी। आज भी आमेर के राजप्रासाद में यही मूर्ति विद्यमान है। पशुबलि पर कानूनी-प्रतिबन्ध लगने से पहले इस विग्रह पर एक समय दुर्गा अष्टमी के दिन जीवित महिष (भैंसे) (और बाद में बकरे) की बलि भी दी जाती थी।

पुस्तक सन्दर्भ

[संपादित करें]

[7]

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. 1.जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : 'जयपुर अढाईशती समारोह समिति' प्रधान-सम्पादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा'सहृदय' नाट्याचार्य वर्ष 1978
  2. 2.'जयपुर-दर्शन' जयपुर अढाई शती समारोह समिति: संपादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा सहृदय नाट्याचार्य एवं हरि महर्षि तथा अन्य : 1978
  3. 'अ हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर' : यदुनाथ सरकार)
  4. "संग्रहीत प्रति". मूल से 1 जुलाई 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 जुलाई 2014.
  5. 'जयपुर-दर्शन' जयपुर अढाई शती समारोह समिति: संपादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा सहृदय नाट्याचार्य एवं हरि महर्षि तथा अन्य : 1978
  6. 3.Jadunath Sarkar: "A history of Jaipur': Orient Black Swan:Hyderabad: 2011 Reprint: ISBN 978 81 250 3691 3
  7. 4.'जयपुर-दर्शन' जयपुर अढाई शती समारोह समिति: संपादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा सहृदय नाट्याचार्य एवं हरि महर्षि तथा अन्य : 1978
  8. 'चार शहरनामे' : इतिहास-पुस्तक : हेमंत शेष : शब्दार्थ प्रकाशन,जयपुर :2019
  9. 5.'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 210] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर,
  10. 6. 'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : 'जयपुर अढाईशती समारोह समिति' प्रधान-सम्पादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय' नाट्याचार्य वर्ष 1978
  11. 7.'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 210] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर,

पठनीय-सामग्री

[संपादित करें]

1. 'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज २१०] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर

2. 'संस्कृत-कल्पतरु' : संपादक कलानाथ शास्त्री एवं घनश्याम गोस्वामी: मंजुनाथ शोध संस्थान, सी-8, पृथ्वीराज रोड, सी-स्कीम, जयपुर-302001 से प्राप्य

3. डॉ॰ ज्ञान प्रकाश पिलानिया, 'Enlightened Government in Modern India: Heritage of Sawai Jai Singh (हेरिटेज ऑफ़ सवाई जयसिंह)' (पुस्तक)[8] ISBN 8187359161, ISBN 9788187359166

4. यदुनाथ सरकार : The History of Jaipur :Orient BlackSwan:

5. डॉ॰ असीम कुमार राय की पुस्तक : "the history of jaipur city "[9]

6.कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री: जयपुर-वैभवम[10]

7. चार शहरनामे' : इतिहास-पुस्तक : हेमंत शेष : शब्दार्थ प्रकाशन,जयपुर :2019

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]