श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि
(देवर्षि) श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि (1675-1761)[1] सवाई जयसिंह के समकालीन, बूंदी भरतपुर और जयपुर के राजदरबारों से सम्मानित, आन्ध्र-तैलंग-भट्ट, संस्कृत और ब्रजभाषा के महाकवि थे।[2]
सवाई जयसिंह द्वितीय (03 नवम्बर 1688 - 21 सितम्बर 1743) ने अपने समय में जिन विद्वत्परिवारों को बाहर से ला कर अपने राज्य में जागीर तथा संरक्षण दिया उनमें आन्ध्र प्रदेश से आया यह तैलंग ब्राह्मण-परिवार प्रमुख स्थान रखता है। इसी परिवार में उत्पन्न हुए थे (देवर्षि) कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट, जिन्होंने 'ईश्वर विलास', 'पद्यमुक्तावली', 'राघवगीत' आदि अनेक ग्रंथों की रचना कर राज्य का गौरव बढ़ाया। इन्होंने सवाई जयसिंह से सम्मान प्राप्त किया था, (उनके द्वारा आमेर (जयपुर) में आयोजित) अश्वमेध यज्ञ में भाग लिया था, जयपुर- नए नगर को बसते हुए देखा था और उसका एक ऐतिहासिक महाकाव्य में वर्णन किया था। देवर्षि-कुल के इस प्रकांड विद्वान ने अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जीवन-काल में पर्याप्त प्रसिद्धि, समृद्धि एवं सम्मान प्राप्त किया था।"[3] ब्रजभाषा छंदों में संस्कृत काव्यलेखन की जो परंपरा पश्चाद्वर्ती कवियों द्वारा समृद्ध की गई उसके प्रवर्तक के रूप में कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट का नाम स्मरणीय है। वे संस्कृत, प्राकृत, ब्रजभाषा और अपभ्रंश के सिद्धहस्त पंडित थे। व्याकरण, न्याय, मीमांसा, छंदशास्त्र, कर्मकांड, वेदांत आदि शास्त्रों के साथ-साथ उन्होंने वेदों का भी गहन अध्ययन किया था। 'ईश्वरविलास' महाकाव्य में अश्वमेध यज्ञ के वर्णन-प्रसंग में इनके ज्ञानगांभीर्य को देखा जा सकता है। श्रीकृष्ण भट्ट सवाई जयसिंह के पश्चात सवाई ईश्वरीसिंह और तदनंतर सवाई माधोसिंह के आश्रय में भी रहे। सवाई माधोसिंह ने भी इन्हें पर्याप्त सम्मान दिया।
भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने इन पूर्वज कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों[4] में स्मरण किया था- तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः। भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:।। [1]
'देवर्षि' अवटंक का इतिहास
[संपादित करें]इस परिवार के उत्तर भारत में प्रवजन का इतिहास बड़ा दिलचस्प है जिसका अभिलेख इसी वंश के विद्वानों ने "कुलप्रबंध" नामक संस्कृत काव्य में अभिलिखित भी कर दिया है। दक्षिण भारत के अधिकांश विद्वान् शंकराचार्य या वल्लभाचार्य जैसे आचार्यों द्वारा की गई सम्पूर्ण भारत की यात्रा या तीर्थयात्रा के सहयात्री होने के नाते उत्तर भारत तक आये थे, जिनमें से कुछ ने देशी रियासतों के राजाओं के उनके वैदुष्य से प्रभावित होने पर उनका गुरु या राजपंडित होना स्वीकार किया और वहीं बस गए। कुछ विद्याध्ययन के लिए काशी आये और इस विद्याकेंद्र से देशी राजाओं के द्वारा चुन-चुन कर अपनी रियासतों में ससम्मान ले जाए गए।
धीरे-धीरे इन्होंने मातृभाषा के रूप में हिन्दी या उत्तरभारतीय भाषाएँ अपना लीं। इस परिवार के पूर्व-पुरुष बावी जी दीक्षित अपने मूल स्थान 'देवलपल्ली' (देवरकोंडा, आन्ध्रप्रदेश) से वल्लभाचार्य के परिवार के साथ उत्तर भारत आये थे। इन्होंने काशी और प्रयाग में विद्याध्ययन किया और अपने बालकों को भी वहीं पढ़वाया। प्रयाग में उन दिनों (पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी) रींवा रियासत का आधिपत्य था। रींवा नरेश गोपालसिंह ने बावी जी दीक्षित के प्रपौत्र मंडल दीक्षित के वैदुष्य से प्रभावित हो कर उन्हें राजगुरु बना लिया और दिवरिखिया नामक ग्राम जागीर में दिया। उसके बाद से उनका अवटंक ही देवर्षि बन गया। आन्ध्र के परिवारों में अपने ग्राम का नाम अपने नाम के प्रारंभ में लगाने की परिपाटी रही है- जैसे 'सर्वपल्ली राधाकृष्णन' ('सर्वपल्ली' ग्राम का नाम है)।"[5]
श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि का जयपुर आगमन
[संपादित करें](देवर्षि) भट्टजी का परिवार रींवा नरेश, जिन्हें 'बांधव-नरेश' भी कहा जाता है, की छत्रछाया में कुछ वर्ष रहा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इनके पिता पं. लक्ष्मण भट्ट वि.सं. 1740 (सन 1683) तक काम्यवन (कामां) में ही रह रहे थे, अतः यह माना जा सकता है कि श्रीकृष्ण भट्ट का जन्म संभवतः कामां में ही हुआ होगा। कविकलानिधि का बचपन भी कामां में ही बीता, अतः स्वाभाविक है वहां रहते हुए इन्होंने ब्रजभाषा में अपूर्व अधिकार प्राप्त कर लिया। डॉ. भालचंद्र राव [6] के अनुसार श्रीकृष्ण भट्ट ने ‘रामचंद्रोदय’ की रचना भरतपुर नरेश बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र राजकुमार प्रतापसिंह, जिनके आश्रय में वे रहे थे, के हेतु की थी।
कामवन (कामां) से कविकलानिधि बूंदी राजस्थान आए और वहां के तत्कालीन नरेश रावराजा बुधसिंह की सभा में सम्मानित हुए। इनकी आज्ञा से उन्होंने शृंगार रसमाधुरी तथा विदग्ध रसमाधुरी नामक ग्रंथों की रचना की।[7] बूंदी के राजा वैदुष्य के गुणग्राहक थे। जब बूंदी राजपरिवार का सम्बन्ध रींवा में हुआ तो वहां के कुछ राज पंडितों को जागीरें दे कर उन्होंने बूंदी में ला बसाया। बूंदी के राजा बुधसिंह, जो सवाई जयसिंह के बहनोई थे, के शासन में श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि बूंदी राज्य के राजपंडित थे। वह वेद, पुराण, दर्शन, व्याकरण, संगीत आदि शास्त्रों के मान्य विद्वान तो थे ही, संस्कृत, प्राकृत और ब्रजभाषा के एक अप्रतिम वक्ता और कवि भी थे। (बूंदी में) सवाई जयसिंह इनसे इतने प्रभावित हुए कि उनसे किसी भी कीमत पर आमेर आजाने का अनुरोध किया। श्रीकृष्ण भट्ट ने आमेर में राजपंडित हो कर आ कर बसने का यह आमंत्रण अपने संरक्षक राजा बुधसिंह की स्वीकृति पा कर ही स्वीकार किया, उससे पूर्व नहीं। अनेक ऐतिहासिक काव्यों में यह उल्लेख मिलता है-
"बूंदीपति बुधसिंह सौं ल्याए मुख सौं यांचि, रहे आइ अम्बेर में प्रीति रीति बहु भांति।" [8][2] श्रीकृष्ण भट्ट के प्रपौत्र वासुदेव भट्ट ने भी अपने ग्रंथ ‘राधारूपचंद्रिका’ में इसका उल्लेख किया है।
देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि के वंशजों में अनेक अद्वितीय विद्वान, कवि, तांत्रिक, संगीतज्ञ आदि हुए हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा से जयपुर की प्रतिष्ठा पूरे भारतवर्ष में फैलाई। उनकी इस विद्वद्वंश परंपरा में द्वारकानाथ भट्ट, जगदीश भट्ट, वासुदेव भट्ट, मण्डन भट्ट, देवर्षि रमानाथ शास्त्री, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, देवर्षि कलानाथ शास्त्री जैसे विद्वानों ने अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य एवं विपुल साहित्य सर्जन से संस्कृत जगत को आलोकित किया है।[9]
सम्मान और पदवी
[संपादित करें]देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट जी को ‘कविकलानिधि’ तथा ‘रामरासाचार्य’ की उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया गया था। महाराजा जयसिंह ने वेद-शास्त्रों पर उनके अद्भुत वैदुष्य तथा संस्कृत, प्राकृत तथा ब्रजभाषा में रसात्मक कविता करने की अनुपम क्षमता से प्रभावित होकर उन्हें ‘कविकलानिधि’ के अलंकरण से सम्मानित किया था।
स्वयं सवाई जयसिंह ने ही उन्हें ‘रामरासाचार्य’ की पदवी से भी सम्मानित किया था, जिसके सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग का विवरण मिलता है। एक दरबार के दौरान महाराजा जयसिंह ने सभासदों से पूछा कि जिस तरह श्रीकृष्ण की रासलीला का वर्णन मिलता है, क्या उस तरह श्रीराम की रासलीला के प्रसंग का भी कहीं कोई उल्लेख है? पूरे दरबार में चुप्पी छा गई। तभी श्रीकृष्ण भट्ट जी खड़े हुए और उन्होंने कहा कि ऐसी एक पुस्तक काशी में उपलब्ध है। राजा ने उन्हें इस पुस्तक को दो महीनों के भीतर ले आने के लिए कहा। श्रीकृष्ण भट्ट जी यह जानते थे कि वास्तव में ऐसी कोई पुस्तक कहीं थी ही नहीं, जब कि उन्होंने ऐसी पुस्तक के काशी में होने की बात कह दी थी। उन्होंने तब स्वयं राम-रास पर काव्य लिखना प्रारम्भ किया और दो महीने के भीतर ही ब्रजभाषा में “रामरासा” नामक पुस्तक तैयार कर दी जो रामायण के ही समकक्ष थी। समय सीमा के अंदर पुस्तक पाकर और यह जान कर कि यह काव्य स्वयं कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट ने ही लिखा है, कविता-कला-मर्मज्ञ महाराजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने भट्टजी को “रामरासाचार्य” की पदवी और विपुल धनराशि देकर सम्मानित किया।[10]
साहित्यिक-अवदान
[संपादित करें]'ईश्वरविलास' महाकाव्य इनका कविता-शैली में जयपुर के बारे में लिखा इतिहासग्रंथ ही है। इसकी पांडुलिपि सिटी पैलेस (चन्द्रमहल) के पोथीखाना में है। कई साल पहले इसे 'प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' जोधपुर ने भट्ट मथुरानाथ शास्त्री की भूमिका सहित प्रकाशित किया था।
कविकलानिधि द्वारा ब्रज भाषा में रचे गए ज्ञात ग्रंथों में कुछ ही प्रकाशित हो पाए हैं। ये ग्रंथ जयपुर के पोथीखाने में सुरक्षित हैं। वंशवृक्ष[5] में श्रीकृष्ण भट्ट द्वारा रचित साहित्य की सूची, गोविंदराम चरौरा द्वारा संपादित ‘रामगीतम’ की भूमिका [11], तथा ईश्वरविलास महाकाव्य [12] में दी गयी इनके ब्रजभाषा तथा संस्कृत ग्रंथों की सूचियों के अध्ययन से भट्टजी के निम्नलिखित ग्रन्थ ज्ञात हुए हैं -
ब्रजभाषा ग्रन्थ
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संस्कृत ग्रंथ
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उक्त ग्रंथों में शृंगार रसमाधुरी तथा अलंकार कलानिधि नामक ग्रंथ काव्यशास्त्र विषयक हैं। ब्रजभाषा में लिखा ग्रन्थ 'अलंकार कलानिधि' मम्मट के ग्रन्थ ‘काव्यप्रकाश’ से काफ़ी हद तक प्रभावित लगता है। डॉ नगेंद्र द्वारा संपादित "हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास भाग 6"[18] में कवि कलानिधि को ‘शृंगार रस निरूपक आचार्य’ कहा गया है। शृंगार रसमाधुरी नामक अपने ग्रंथ में श्रीकृष्ण भट्ट ने शृंगार रस को मूर्धन्य रस मानकर सारे रसों का विस्तृत वर्णन किया है।
शृंगार रसमाधुरी 16 आस्वादों (अध्यायों) में विभाजित है।[19] इस ग्रंथ की रचना बूंदी नरेश रावराजा बुधसिंह की आज्ञा से की गई थी। इस ग्रंथ में प्रधान रूप से शृंगार रस और उसके बाद शृंगारेतर रसों एवं काव्यदोषों का वर्णन अत्यंत माधुर्य और लालित्य के साथ किया गया है। ग्रन्थ के प्रारंभिक अध्याय में गणेश वंदना, बूंदी राज्य का वर्णन, बूंदी नरेश बुधसिंह की आज्ञा और शृंगार रस का वर्णन है। उसके बाद आगे के अध्यायों में क्रमशः आलंबन, नायिका रूप निरूपण, राग के हेतु स्वप्न व चित्र में दर्शन आदि, नायक नायिकाओं की चेष्टाएँ, रति प्रसंग तथा मिलन, भाव विवेचन तथा हेला, लीला, ललित आदि हावों का वर्णन, परंपरागत आठ प्रकार की नायिकाएं, विप्रलम्भ शृंगार तथा पूर्व राग, मान और उसके भेद, नायक द्वारा प्रयुक्त मान मोचन के उपाय, विप्रलम्भ के तीसरे अंग - प्रवास तथा चौथे अंग - करुण का विवेचन, करुण विप्रलंभ और प्रवास-जनित विरह को मिटाने के लिए सखाजनों द्वारा किए गए मिलन के उपाय, सखियों के कर्मों का वर्णन, शृंगारेतर रसों – हास्य, करुण, वीर आदि का वर्णन, काव्यवृत्ति विवेचन तथा रस प्रत्यनीक अथवा रस-विरोध का विवेचन है।
देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट रचित दूसरा महत्वपूर्ण काव्यशास्त्रीय ग्रंथ ’अलंकार कलानिधि’ है [20], जिसकी रचना आमेर नरेश जयसिंह की आज्ञा से की गई थी जैसा स्वयं श्रीकृष्ण भट्ट ने कहा है -
"तिन कवि लाल कलानिधि सों सनेह करि कियौ जब कछुक हुकुम रसभीनो है। तब तिन भाष में अशेष कवि रीति आन अलंकार कलानिधि नाम ग्रंथ कीनो है।।"[21]
अलंकार कलानिधि ग्रन्थ 14 निदेशों अर्थात् अध्यायों में विभक्त है।[22] ये इन निदेशों में क्रमशः अर्थव्यंजकता, रस लक्षण, रस भेद, ध्वनि विवेचन, गुणीभूत व्यंग्य तथा उसके भेद, अधम काव्य के प्रकार, शब्द चित्र, अर्थ चित्रों का वर्णन, काव्य गुणों का विवेचन, प्राचीन और नवीन आचार्यों के अनुसार गुणों के स्वरूप एवं भेदों का विवेचन, शब्दालंकार, अर्थालंकार, अलंकार दोष एवं नायिका भेद आदि विविध काव्यांगों का विवेचन किया गया है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Makers of Indian Literature : Bhatt Mathuranath Shastri 'Manjunath', Central Sahitya Academy, New Delhi, 2013, ISBN 978-81-260-3365-2
- ↑ कलानाथ शास्त्री :'संस्कृत के गौरव शिखर'(राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली, प्रकाशन 1998)
- ↑ 'संस्कृत के युग-पुरुष: मंजुनाथ': पृष्ठ 1, प्रकाशक: 'मंजुनाथ स्मृति संस्थान, सी-८, पृथ्वीराज रोड, जयपुर-३०२००१
- ↑ भट्ट मथुरानाथ शास्त्री :'जयपुर-वैभवम':'आमुखवीथी': पृष्ठ १८ (प्रथम संस्करण-१९४७)
- ↑ अ आ उपरोक्त
- ↑ डॉ. भालचंद्र राव तेलंग, "देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि तथा जयपुर", मराठवाडा विद्यापीठ पत्रिका
- ↑ 'ईश्वरविलास महाकाव्य', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर, 2006
- ↑ Tripathi, Radhavallabh; Shastri, Devarshi Kalanath; Pandey, Ramakant, eds. (2010). मंजुनाथग्रन्थावलिः (मंजुनाथोपाह्वभट्टश्रीमथुरानाथशास्त्रिणां काव्यरचनानां संग्रहः) [The works of Mañjunātha (Anthology of poetic works of Bhaṭṭaśrī Mathurānātha Śāstri, known by the pen-name of Mañjunātha)] (in Sanskrit). New Delhi, India: Rashtriya Sanskrit Sansthan. ISBN 978-81-86111-32-1. Retrieved February 26, 2013.
- ↑ 'उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष' (भाग-2) संपादक स्व. पोतकूर्ची कंठमणि शास्त्री और करंजी गोकुलानंद तैलंग द्वारा 'शुद्धाद्वैत वैष्णव वेल्लनाटीय युवक-मंडल', नाथद्वारा से वि. सं. 2007 में प्रकाशित
- ↑ “साहित्य वैभवम्”, मंजुनाथ ग्रंथावलिः, सं. प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली, 2010, ISBN 978-81-86111-33-8
- ↑ 'रामगीतम', सं. गोविन्दराम चरौरा, राजस्थानी ग्रंथागार, 1992
- ↑ 'ईश्वरविलास महाकाव्य', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर, 2006, पेज ९१-९२
- ↑ 'साम्भर युद्ध', राजस्थान सुलभ पुस्तकमाला भाग 25, राजस्थान साहित्य समिति, 1978
- ↑ 'पद्यमुक्तावली', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला भाग 30, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1959
- ↑ 'वृत्तमुक्तावली', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला भाग 69, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1963
- ↑ 'रामगीतम', सं. गोविन्दराम चरौरा, राजस्थानी ग्रंथागार, 1992
- ↑ 'ईश्वरविलास महाकाव्य', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर, 2006
- ↑ हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास, षष्ठ भाग, रीतिकाल, रीतिबद्ध काव्य (संवत 1700 - 1900), संपादक डॉ नगेंद्र, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत 2030 वि.
- ↑ हिंदी साहित्य का इतिहास, भाग२, डॉ. संजय गुप्ता, ओम साईँ टैक बुक, दिल्ली, २०१९, पेज ३२-३४
- ↑ मध्य भारती शोध पत्रिका, सागर विश्वविद्यालय, वोल.२८-३३, १९८५, पेज ८२-८४
- ↑ 'ईश्वरविलास महाकाव्य', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर, 2006, पेज ९०
- ↑ हिंदी साहित्य का इतिहास, भाग२, डॉ. संजय गुप्ता, ओम साईँ टैक बुक, दिल्ली, २०१९, पेज ३२-३४
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें][20] अभिगमन तिथि २९ मई २०२०.
[21] अभिगमन तिथि २९ मई २०२०.