बनारसीदास चतुर्वेदी

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बनारसीदास चतुर्वेदी (२४ दिसम्बर, १८९२ -- २ मई, १९८५) प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार एवं पत्रकार थे। वे राज्यसभा के सांसद भी रहे। वे अपने समय का अग्रगण्य संपादक थे। उनके सम्पादकत्व में हिन्दी में कोलकाता से 'विशाल भारत'[1] नामक हिन्दी मासिक निकला।[2] पं॰ बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे सुधी चिन्तक ने ही साक्षात्कार की विधा को पुष्पित एवं पल्लवित करने के लिए सर्वप्रथम सार्थक कदम बढ़ाया था। उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

वे अपनी विशिष्ट और स्वतंत्र वृत्ति के लिए जाने जाते हैं। शहीदों की स्मृति का पुरस्कर्ता (सामने लाने वाला) और छायावाद का विरोधी समूचे हिंदी साहित्य में उनके जैसा कोई और नहीं हुआ।[3] उनकी स्मृति में बनारसीदास चतुर्वेदी सम्मान दिया जाता है। कहते हैं कि वे किसी भी नई सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या राष्ट्रीय मुहिम से जुड़ने, नए काम में हाथ डालने या नई रचना में प्रवृत्त होने से पहले स्वयं से एक ही प्रश्न पूछते थे कि उससे देश, समाज, उसकी भाषाओं और साहित्यों, विशेषकर हिंदी का कुछ भला होगा या मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में उच्चतर मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी या नहीं?

जीवन परिचय[संपादित करें]

सन 1892 ई में 24 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में जन्मे चतुर्वेदी जी 1913 में इंटर की परीक्षा पास करने के बाद पास ही स्थित फर्रुखाबाद के गवर्नमेंट हाईस्कूल में तीस रुपये मासिक वेतन पर अध्यापक नियुक्त हो गए। लेकिन अभी कुछ ही महीने बीते थे कि उनके गुरु लक्ष्मीधर वाजपेयी ने उन्हें अध्यापन छोड़कर आगरा आने और ‘आर्यमित्र’ संभालने का आदेश सुना दिया। लक्ष्मीधर जी उन दिनों आगरा से आर्यमित्र निकालते थे। वास्तव में, वाजपेयी द्वारिकाप्रसाद सेवक के बुलावे पर उनके मासिक ‘नवजीवन’ के संपादक बनने वाले थे और ‘आर्यमित्र’ को ऐसे संपादक के हवाले कर जाना चाहते थे, जो उनके भरोसे पर खरा उतर सके।

चतुर्वेदी जी लक्ष्मीधर वाजपेयी की आज्ञा शिरोधार्य भी कर ली थी, लेकिन इसी बीच उन्हें इन्दौर के डेली कॉलेज में नियुक्ति का आदेश मिल गया। चतुर्वेदी जी को इंदौर में पहले तो डाॅ. संपूर्णानन्द का साथ मिला, जो उसी कॉलेज में शिक्षक थे, फिर वहां हिंदी साहित्य सम्मेलन आयोजित हुआ तो उसकी अध्यक्षता करने आए महात्मा गांधी के सान्निध्य व संपर्क ने उनकी लगातार बेचैन रहने वाली सेवाभावना व रचनात्मकता को नए आयाम दिए।

महात्मा गांधी ने 1921 में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की तो उनके आदेश पर चतुर्वेदी जी अपनी सेवाएं अर्पित करने वहां चले गए। इससे पहले गांधीजी ने चतुर्वेदी जी से हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के अपने अभियान के संदर्भ में देश भर से अनेक मनीषियों के अभिप्राय एकत्र करवाए, जिसको पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया।

चतुर्वेदी जी ने फर्रुखाबाद में अपने अध्यापन काल में ही तोताराम सनाढ्य के लिए उनके संस्मरणों की पुस्तक 'फिज़ी द्वीप में मेरे 21 वर्ष' लिख डाली थी और तभी 'आर्यमित्र', 'भारत सुदशा प्रवर्तक', 'नवजीवन' और 'मर्यादा' आदि उस समय के कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख आदि छपने लगे थे। 'फिज़ी द्वीप में मेरे 21 वर्ष' के संस्मरणों में उस द्वीप पर अत्यंत दारुण परिस्थितियों में काम करने वाले भारत के प्रवासी गिरमिटिया मजजदूरों की त्रासदी का बड़ा ही संवेदनाप्रवण चित्रण था।[4] बाद में चतुर्वेदी जी ने सीएफ एंड्रयूज़ की माध्यम से इन मजदूरों की दुर्दशा का अंत सुनिश्चित करने के लिए बहुविध प्रयत्न किए। काका कालेलकर के अनुसार राष्ट्रीयता के उभार के उन दिनों में एंड्रयूज़ जैसे विदेशी मनीषियों और मानवसेवकों का सम्मान करने का चतुर्वेदी जी का आग्रह बहुत सराहनीय था। एंड्रयूज़ के निमंत्रण पर वे कुछ दिनों तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन में भी रहे थे। वे एंड्रयूज़ को ‘दीनबंधु’ कहते थे और उन्होंने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक अन्य लेखक के साथ मिलकर अंग्रेज़ी में भी एक पुस्तक लिखी है, जिसकी भूमिका महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई है।

लेकिन शिक्षण का काम उन्हें इस अर्थ में कतई रास नहीं आ रहा था कि उसमें ठहराव बहुत था जबकि उनकी रचनात्मक प्रवृत्ति को हर कदम पर एक नई मंजिल की तलाश रहती थी। अंततः एक दिन उन्होंने गुजरात विद्यापीठ से अवकाश लेकर पूर्णकालिक पत्रकार बनने का निर्णय कर डाला। कोलकाता से प्रकाशित मासिक ‘विशाल भारत’ ने उनके संपादन में अपना स्वर्णकाल देखा। उस समय का बिरला ही कोई हिंदी साहित्यकार होगा, जो अपनी रचनाएं ‘विशाल भारत’ में छपी देखने का अभिलाषी न रहा हो।

चतुर्वेदी जी के प्रिय अंग्रेज़ी पत्र ‘मॉडर्न रिव्यू’ के मालिक और प्रतिष्ठित पत्रकार रमानन्द चट्टोपाध्याय ही ‘विशाल भारत’ के भी मालिक थे। वे चतुर्वेदी जी की संपादन कुशलता और विद्वता के कायल थे और चतुर्वेदी जी भी उनका बहुत सम्मान करते थे, लेकिन संपादकीय असहमति के अवसरों पर मजाल क्या कि चतुर्वेदी जी उनका लिहाज करें। ऐसे कई अवसर चर्चित भी हुए।

महात्मा गांधी के बाद गणेशशंकर विद्यार्थी को चतुर्वेदी जी अपने पत्रकारीय जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा मानते थे। उन्होंने उनकी जीवनी भी लिखी है।

1930 में उन्होंने ओरछा नरेश वीर सिंह जूदेव के प्रस्ताव पर टीकमगढ़ जाकर ‘मधुकर’ नाम के पत्र का संपादन किया।[5] नरेश ने उन्हें उनके निर्विघ्न व निर्बाध संपादकीय अधिकारों के प्रति आश्वस्त कर रखा था लेकिन बाद में उन्होंने पाया कि चतुर्वेदी जी ‘मधुकर’ को राष्ट्रीय चेतना का वाहक और सांस्कृतिक क्रांति का अग्रदूत बनाने की धुन में किंचित भी ‘दरबारी’ नहीं रहने दे रहे, तो उसका प्रकाशन रुकवा दिया।

भारत के स्वतन्त्र होने के पश्चात चतुर्वेदी जी बारह वर्ष तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे और 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया[6]

उन्होंने कई विदेशयात्राएं कीं और देश-विदेश में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक संस्थाओं और प्रतिभाओं के पुष्पन-पल्लवन में भी विशिष्ट योग दिया।

भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के लोकप्रिय लेखक सुधीर विद्यार्थी कहते हैं कि वे 1972 में चतुर्वेदी जी द्वारा संपादित आगरा के ‘युवक’ मासिक के ‘स्वतंत्रता संग्राम योद्धांक’ से प्रेरित होकर ही क्रांतिकारियों की कीर्ति रक्षा के मिशन में लगे। वे चतुर्वेदी जी को अपना ‘गुरुवर’ बताते हैं और स्बयं को उनका ‘प्रिय विद्यार्थी’।

2 मई, 1985 को उनका निधन हो गया।

कृतियाँ[संपादित करें]

‘साहित्य और जीवन’, ‘रेखाचित्र’, ‘संस्मरण’, ‘सत्यनारायण कविरत्न’, ‘भारतभक्त एंड्रयूज़’, ‘केशवचन्द्र सेन’, ‘प्रवासी भारतवासी’, ‘फिज़ी में भारतीय’, ‘फिज़ी की समस्या’, ‘हमारे आराध्य’ और ‘सेतुबंध’

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • बनारसीदास चतुर्वेदी के चुनिन्दा पत्र (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - नारायण दत्त)
  • [7]"रेखाचित्र : बनारसीदास चतुर्वेदी - Rekhachitra : Banarasidas Chaturvedi". Free Hindi PDF Books. मूल से 10 दिसंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि Dec 31, 2017.

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. सिंह, कृष्ण प्रताप (Dec 24, 2017). "संग्रहीत प्रति". The Wire - Hindi. मूल से 31 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि Dec 31, 2017. नामालूम प्राचल |e= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  2. Ratneśa, Ā. (2010). Banārasīdāsa Caturvedī. Patrakāritā ke yuga nirmātā (लातवियाई में). Prabhāta Prakāśana. पृ॰ 96. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7315-752-3. अभिगमन तिथि Dec 31, 2017.
  3. बनारसीदास चतुर्वेदी, जिन्हें हिंदी के लोगों ने भुला दिया
  4. बनारसीदास चतुर्वेदी: जिनके साहित्य का बड़ा हिस्सा गिरमिटिया मज़दूरों के नाम रहा
  5. "9788173157523". Banarsidas Chaturvedi. मूल से 31 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि Dec 31, 2017.
  6. "संग्रहीत प्रति" (PDF). मूल (PDF) से 15 नवंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 दिसंबर 2017.
  7. Free Hindi PDF Books.