नागरीप्रचारिणी सभा

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नागरीप्रचारिणी सभा
Nagari pracharini sabhaa bhavan.gif
स्थान काशी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
पता नागरीप्रचारिणी सभा, विश्वेश्वर गंज मुख्य डाकघर के सामने, वाराणसी- 221001 उत्तर प्रदेश

नागरीप्रचारिणी सभा, हिन्दी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार और प्रसार करनेवाली भारत की अग्रणी संस्था है। भारतेन्दु युग के अनन्तर हिन्दी साहित्य की जो उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ रही हैं उन सबके नियमन, नियन्त्रण और संचालन में इस सभा का महत्वपूर्ण योग रहा है। सभा का प्रधान कार्यालय वाराणसी में है और इसकी शाखाएँ नयी दिल्ली और हरिद्वार में।

नागरीप्रचारिणी सभा के ही तत्वावधान में हिन्दी विश्वकोश, हिन्दी शब्दसागर तथा पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण हुआ। सभा ने आर्यभाषा पुस्तकालय और मुद्रणालय स्थापित किया तथा सरस्वती नामक प्रसिद्ध पत्रिका का श्रीगणेश किया। हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज और संरक्षण के लिये सन् १९०० से सभा ने अन्वेषकों को गाँव-गाँव और नगर-नगर में घर-घर भेजकर इस बात का पता लगाना आरम्भ किया कि किनके यहाँ कौन-कौन से ग्रंथ उपलब्ध हैं। सभा के ही प्रयत्न से सन् १९०० से उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रदेश) में नागरी के प्रयोग की आज्ञा हुई और सरकारी कर्मचारियों के लिए हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं का जानना अनिवार्य कर दिया गया। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का संगठन और सर्वप्रथम उसका आयोजन भी सभा ने ही किया था। भारत कला भवन नामक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्व और चित्रसंग्रह का संरक्षण, पोषण और संवर्धन आरम्भिक नौ वर्षों तक यह सभा ही करती रही।

स्थापना[संपादित करें]

काशी नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना का विचार क्वीन्स कालेज, वाराणसी के नवीं कक्षा के तीन छात्रों - बाबू श्यामसुंदर दास, पं॰ रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने कालेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर की थी। बाद में १६ जुलाई १८९३ को इसकी स्थापना की तिथि इन्हीं महानुभावों ने निर्धारित की और आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष हुए। काशी के सप्तसागर मुहल्ले के घुड़साल में इसकी बैठक होती थी। बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना। पहले ही वर्ष जो लोग इसके सदस्य बने उनमें महामहोपाध्याय पं॰ सुधाकर द्विवेदी, जार्ज ग्रियर्सन, अम्बिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे भारत ख्याति के विद्वान् थे।

यह वह समय था जब अंग्रेज़ी, उर्दू और फारसी का बोलबाला था तथा हिंदी का प्रयोग करनेवाले बड़ी हेय दृष्टि से देखे जाते थे। तत्कालीन परिस्थितियों में सभा को अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिए आरम्भ से ही प्रतिकूलताओं के बीच अपना मार्ग निकालना पड़ा। किन्तु तत्कालीन विद्वन्मण्डल और जनसमाज की सहानुभूति तथा सक्रिय सहयोग सभा को आरम्भ से ही मिलने लगा था, अतः अपनी स्थापना के अल्प समय बाद ही सभा ने बड़े ठोस और महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लेना आरम्भ कर दिया।

कार्य एवं उपलब्धियाँ[संपादित करें]

अपनी स्थापना के अनन्तर ही सभा ने बड़े ठोस और महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लेना आरम्भ कर दिया। अपने जीवन के विगत वर्षों में सभा ने जो कुछ कार्य किया है उसका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है :

राजभाषा और राजलिपि[संपादित करें]

सभा की स्थापना के समय तक उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में अंग्रेजी और उर्दू ही विहित थी। सभा के प्रयत्न से, जिसमें स्व. महामना पं॰ मदनमोहन मालवीय का विशेष योग रहा, सन् १९०० से उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रदेश) में नागरी के प्रयोग की आज्ञा हुई और सरकारी कर्मचारियों के लिए हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं का जानना अनिवार्य कर दिया गया।

नागरी कोर्ट कैरेक्टर[संपादित करें]

सन् 1896 में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी दफ्तरों और अदालतों में फारसी अक्षरों की जगह रोमन लिपि लिखने का एक आदेश निकाला। सरकार के इस आदेश से नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी सेवियों के बीच काफी उथल-पुथल मच गई। नागरी भाषा के समर्थकों को इस बात का भय था कि यदि अदालतों और सरकारी दफ्दरों में रोमन लिपि लागू कर दी गई तो अदालतों में नागरी भाषा का द्वार हमेशा के लिए बन्द हो सकता है। नागरी प्रचारिणी सभा ने अदालतों में रोमन लिपि के विरोध में आन्दोलन करना शुरू कर दिया। बाबू श्यामसुन्दर दास आन्दोलन को मुखर बनाने के लिए मुजफ्फरपुर गए; वे वहां परमेश्वर नारायण मेहता और विश्वनाथ प्रसाद मेहता से मिलाकर कुछ धन इक्ठ्ठा कर काशी लौट आए। इधर बाबू राधाकृष्ण दास ने नागरी कैरेक्टर (The Nagari Character) लेख तैयार किया। बाबू श्यामसुन्दर दास ने इस लेख के पैम्पलेट छपवाकर लोगों में बटवा दिए। नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी सेवियों के आन्दोलन का असर यह हुआ कि सरकार ने जुलाई 1896 में आज्ञापत्र जारी कर अदालतों में रोमन लिपि लिखने पर रोक लगा दी।

नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य इस बात पर गहन विचार और विमर्श कर रहे थे कि नागरी भाषा को अदालतों में कैसे लागू करवाया जाए। सन् 1896 में भारतीय भवन का वार्षिक अधिवेशन हुआ जिसके सभापति जस्टिस नाक्स थे। इन्होंने सभा और पंडित मदनमोहन मालवीय से कहा कि आप लोग को अदालतों में नागरी भाषा को लागू करवाने के लिए प्रयास करना चाहिए। पंडित मदनमोहन मालवीय ने ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज एण्ड अवध’ (Court Character and Primary Education N.W. Provinees and Oudh) बड़े परिश्रम और लगन से तैयार किया। सन् 1898 बाबू श्यामसुंदर दास ने इस मेमोरियल का सार संक्षेप हिन्दी में ‘पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध में अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा’ शीर्षक से नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से प्रकाशित कर नागरी के पक्ष में माहौल निर्मित करने में अहम भूमिका निभाई। इस लेख में नागरी भाषा को अदालतों में लागू करने के पक्ष में तमाम उदाहरण और दलीले पेश की गई थी और यह भी कहा गया था कि पश्चिमोत्तर प्रान्त की अदालतों में नागरी भाषा के लागू न होने से जनता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

‘पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध में अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा’ लेख में कोर्ट आफ डाइरेक्टर के 30 सितबंर 1830 के आज्ञापत्र का उल्लेख करते हुए बताया गया कि

यहाँ के निवासियों को जज की भाषा सीखने के बदले जज को भारतवासियों की भाषा सीखना बहुत सुगम होगा, अतएव हम लोगों की सम्मति है कि न्यायलयों की समस्त कार्यवाई उस स्थान की भाषा में हो।

नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यकर्ताओं ने विभिन्न शहरों में घूम-घूम कर साठ हजार व्यक्तियों के नागरी कोर्ट मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाए। नागरी कोर्ट मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाने में केदारनाथ पाठक ने बड़ा योगदान किया था। उन्होने ब्रिटिश सरकार की परवाह किए बगैर कानपुर, लखनऊ, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, इटावा, अलींगढ़, मेरठ, हरदोई, देहरादून, फैजाबाद आदि शहरों में घूम-घूम कर लोगों के मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाए। इस दौरान उनको राजद्रोह का मुकदमा भी झेलना पड़ा और जेल भी जाना पड़ा।

‘नागरी कोर्ट कैरेक्टर मेमोरियल’ साठ हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर सहित सोलह जिल्दों में पश्चिमोत्तर प्रांत के लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल को सौंपे जाने का विचार किया गया। मैकडानेल को मेमोरियल देने के लिए सत्रह व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल बनाया गया। इस प्रतिनिधि मंडल में जिन सत्रह व्यक्तियों को शामिल किया गया उनकी सूची सरस्वती पत्रिका के अप्रैल 1900 के अंक में छपे ‘पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध में नागरी अक्षर का प्रचार’ नामक लेख में दी गई है। वह सूची इस प्रकार है-

1. महाराज सर प्रतापनारायण सिंह बहादुर, के. सी. आई. ई., अयोध्या
2. राजा रामप्रताप सिंह बहादुर, माँडा इलाहाबाद
3. राजा घनश्याम सिंह, मुरसान, अलीगढ
4. राजा रामपाल सिंह मेम्बर लेजिसलेटिव कौंसिल, रापपुर, प्रतापगढ
5. राजा सेठ लक्ष्मणदास, सी. आई. ई., मथुरा
6. राजा बलवंत सिंह, सी. आई. ई., एटा
7. राय सिद्धेश्वरी प्रसाद नारायण सिंह बहादुर, गोरखपुर
8. राय कृष्ण सहाय बहादुर, सभापति देवनागरी प्रचारिणी सभा, मेरठ
9. राय कंवर हरिचरण मिश्र बहादुर, बरेली
10. राय निहालचन्द बहादुर, मुजफ्फर नगर
11. आनरेबल राय श्रीराम बहादुर, एम.ए.बी.एल. एडवोकेट अवध, मेम्बर प्रांतिक लेजिसलेटिव कौंसिल, तथा फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी, लखनऊ
12. राय प्रमदादास मित्र बहादुर, फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी
13. आनरेबल सेठ रघुबरदयान, मेम्बर प्रांतिक लेजिसलेटिव कौंसिल, सीतापुर
14. मुन्शी माधवलाल, रईस, काशी
15. मुन्शी रामनप्रसाद, एडवोकेट तथा सभापति कायस्थ पाठशाला कमेटी, इलाहाबाद
16. पंडित सुन्दरलाल बी.ए. एडवोकेट तथा फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी
17. पंडित मदनमोहन मालवीय, बी.ए. एल.एल.बी., वकील हाईकोर्ट, तथा प्रतिनिधि काशी नागरी प्रचारिणी सभा।

2 मार्च 1898 को मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में सत्रह व्यक्तियों के प्रतिनिधि मंडल ने पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध के लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल को ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज’ सौंप दिया। नागरी प्रचारिणी सभा और महामना के नेतृत्व में चले इस आन्दोलन ने पश्चिमोत्तर प्रांत में कचहरियों और प्राइमरी स्कूलों में हिन्दी भाषा के लिए द्वार खोल दिया। 18 अप्रैल 1900 को पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध के लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल ‘बोर्ड आफ रिवेन्यु’ और हाई कोर्ट तथा ‘जुडिशियल कमिशनर अवध’ से सम्मति लेकर आज्ञापत्र जारी कर दिया।[1]

‘सरस्वती’ के अप्रैल 1900 के अंक में 'पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध में नागरी अक्षर का प्रचार’ लेख में गर्वनर एंटोनी मैकडानेल के आदेश को अक्षरशः प्रकाशित किया गया। वह इस प्रकार है-

(१) सम्पूर्ण मनुष्य प्रार्थनापत्र और अर्जीदावों को अपनी इच्छा के अनुसार नागरी या फारसी के अक्षरों में दे सकते हैं।
(२) सम्पूर्ण सम्मन, सूचनापत्र और दूसरे प्रकार के पत्र जो सरकारी न्यायालयों वा प्रधान कर्मचारियों की ओर से देश भाषा में प्रकाशित किए जाते हैं, फरसी और नागरी अक्षरों में जारी होंगे और इन पत्रों की शेष भाग की खानापूरी भी हिन्दी भाषा में उतनी ही होगी जितनी फारसी अक्षरों में की जाए।
(३) अंग्रेजी अफसरों को छोड़कर आज से किसी न्यायालय में कोई मनुष्य उस समय तक नहीं नियत किया जायगा जब तक वह नागरी और फारसी अक्षरों को अच्छी तरह से लिख और पढ़ न सकेगा।

आर्यभाषा पुस्तकालय[संपादित करें]

सभा का यह पुस्तकालय देश में हिंदी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है। ठाकुर गदाधर सिंह ने अपना पुस्तकालय सभा को प्रदान किया और उसी से इसकी स्थापना सभा में सन् १८९६ ई. में हुई। १९०३-०४ में यह विशेशरगंज स्थित अपने वर्तमान भवन में आया।[2] विशेषतः १९वीं शताब्दी के अंतिम तथा २०वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षो में हिंदी के जो महत्वपूर्ण ग्रंथ और पत्रपत्रिकाएँ छपी थीं उनके संग्रह में यह पुस्तकालय बेजोड़ है। हस्तलेखों का इतना बड़ा संग्रह कहीं और नहीं है। अनुपलब्ध और दुर्लभ ग्रंथों का ऐसा संकलन भी कहीं और मिलना मुश्किल है। [3]

मुद्रित पुस्तकें डयूई की दशमलव पद्धति के अनुसार वर्गीकृत हैं। इसकी उपयोगिता एकमात्र इसी तथ्य से स्पष्ट है कि हिंदी में शोध करनेवाला कोई भी विद्यार्थी जब तक इस पुस्तकालय का आलोकन नहीं कर लेता तब तक उसका शोधकार्य पूरा नहीं होता। स्व. पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी, स्व. जगन्नाथदास 'रत्नाकर', स्व. पं॰ मयाशंकर याज्ञिक, स्व. डॉ॰ हीरानंद शास्त्री तथा स्व. पं॰ रामनारायण मिश्र ने अपने अपने संग्रह भी इस पुस्तकालय को दे दिए हैं जिससे इसकी उपादेयता और बढ़ गई हैं।

हस्तलिखित ग्रंथों की खोज[संपादित करें]

स्थापित होते ही सभा ने यह लक्ष्य किया कि प्राचीन विद्वानों के हस्तलेख नगरों और देहातों में लोगों के बेठनों में बँधे बँधे नष्ट हो रहे हैं। अतः सन् १९०० से सभा ने अन्वेषकों को गाँव-गाँव और नगर-नगर में घर-घर भेजकर इस बात का पता लगाना आरम्भ किया कि किनके यहाँ कौन-कौन से ग्रंथ उपलब्ध हैं। उत्तर प्रदेश में तो यह कार्य अब तक बहुत विस्तृत और व्यापक रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी यह कार्य हुआ है। इस खोज की त्रैवार्षिक रिपोर्ट भी सभा प्रकाशित करती है। सन् १९५५ तक की खोज का संक्षिप्त विवरण भी दो भागों में सभा ने प्रकाशित किया है। इस योजना के परिणामस्वरूप ही हिंदी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास तैयार हो सका है और अनेक अज्ञात लेखक तथा ज्ञात लेखकों की अनेक अज्ञात कृतियाँ प्रकाश में आई हैं। आज सभा के पास 20 हजार से अधिक पांडुलिपियां, 50 हजार से अधिक पुरानी पत्रिकाएं और 1.25 लाख से अधिक ग्रंथों का भंडार है। हिंदी की इस थाती के संरक्षण के लिए संस्था के पास पर्याप्त धन नहीं है।[4]

प्रकाशन[संपादित करें]

उत्तमोत्तम ग्रंथों और पत्रपत्रिकाओं का प्रकाशन सभा के मूलभूत उद्देश्यों में रहा है। अब तक सभा द्वारा भिन्न-भिन्न विषयों के लगभग ५०० ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। त्रैमासिक 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' सभा का मुखपत्र तथा हिंदी की सुप्रसिद्ध शोधपत्रिका है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य विषयक शोधात्मक सामग्री इसमें छपती है और निर्व्यवधान प्रकाशित होती रहनेवाली पत्रिकाओं में यह सबसे पुरानी है। मासिक 'हिंदी', 'विधि पत्रिका' और 'हिंदी रिव्यू' (अंगरेजी) नामक पत्रिकाएँ भी सभा द्वारा निकाली गई थीं किंतु कालांतर में वे बंद हो गई। सभा के उल्लेखनीय प्रकाशनों में हिंदी शब्दसागर, हिंदी व्याकरण, वैज्ञानिक शब्दावली, सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, भिखारीदास, पद्माकर, जसवंसिंह, मतिराम आदि मुख्य मुख्य कवियों की ग्रंथावलियाँ, कचहरी-हिंदी-कोश, द्विवेदी अभिनंदनग्रंथ, संपूर्णानंद अभिनंदनग्रंथ, हिंदी साहित्य का इतिहास और हिंदी विश्वकोश आदि ग्रंथ मुख्य हैं।

हिन्दी विश्वकोश तथा हिन्दी शब्दसागर[संपादित करें]

उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त हिन्दी विश्वकोश का प्रणयन सभा ने केंद्रीय सरकार की वित्तीय सहायता से किया है। इसके बारह भाग प्रकाशित हुए हैं। हिंदी शब्दसागर का संशोधन-परिवर्धन केंद्रीय सरकार की सहायता से सभा ने किया है जो दस खंडों में प्रकाशित हुआ है। यह हिंदी का सर्वाधिक प्रामाणिक तथा विस्तृत कोश है। दो अन्य छोटे कोशों 'लघु शब्दसागर' तथा 'लघुतर शब्दसागर' का प्रणयन भी छात्रों की आवश्यकतापूर्ति के लिए सभा ने किया है। सभा देवनागरी लिपि में भारतीय भाषाओं के साहित्य का प्रकाशन और हिंदी का अन्य भारतीय भाषाओं की लिपियों में प्रकाशित करने के लिए योजनाबद्ध रूप से सक्रिय हैं। प्रेमचंद जी के जन्मस्थान लमही (वाराणसी) में उनका एक स्मारक भी बनवाया है।

पारिभाषिक शब्दावली[संपादित करें]

८ वर्ष के परिश्रम से काशी नागरी प्रचारणी सभा ने १८९८ में पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत की। हिंदी में पारिभाषिक शब्द निर्माण के इस सर्वप्रथम सर्वाधिक सुनियोजित, संस्थागत प्रयास में गुजराती, मराठी और बंगला में हुए इसी प्रकार के कार्यों का समुचित उपयोग किया गया। सभा का यह कार्य देश में सभी प्रचलित भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली और साहित्य के निर्माण की शृंखलाबद्ध प्रक्रिया का सूत्रपात करनेवाला सिद्ध हुआ।

मुद्रणालय[संपादित करें]

सन् १९५३ से सभा अपना प्रकाशन कार्य समुचित रूप से चलाते रहने के उद्देश्य से अपना मुद्रणालय भी चला रही है। पुरस्कार पदक - विभिन्न विषयों के उत्तमोत्तम ग्रंथ अधिकाधिक संख्या में प्रकाशित होते रहें, इसे प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सभा प्रति वर्ष कई पुरस्कार एवं स्वर्ण तथा रजत पदक ग्रंथकर्ताओं को दिया करती है जिनका हिंदी-जगत में अत्यंत समादर है।

अन्यान्य प्रवृत्तियाँ[संपादित करें]

अपनी समानधर्मा संस्थाओं से संबंधस्थापन, अहिंदीभाषी छात्रों को हिंदी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देना, हिंदी की आशुलिपि (शार्टहैंड) तथा टंकण (टाइप राइटिंग) की शिक्षा देना, लोकप्रिय विषयों पर समय-समय पर सुबोध व्याख्यानों का आयोजन करना, प्राचीन और सामयिक विद्वानों के तैलचित्र सभाभवन में स्थापित करना आदि सभा की अन्य प्रवृत्तियाँ हैं।

सन् १९०५ में, काशी में कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर एक भाषा सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता रमेशचन्द्र दत्त ने की और उसमें नागरीप्रचारिणी सभा के प्रांगण में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह घोषणा की कि हिन्दी ही भारत की भाषा हो सकती है और देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत की सभी भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए तथा यह कार्य सभा को करना चाहिए। [5]

सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका सरस्वती का श्रीगणेश और उसके संपादनादि की संपूर्ण व्यवस्था आरंभ में इस सभा ने ही की थी। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य संमेलन का संगठन और सर्वप्रथम उसका आयोजन भी सभा ने ही किया था। इसी प्रकार, संप्रति हिंदू विश्वविद्यालय में स्थित भारत कला भवन नामक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्व और चित्रसंग्रह का एक युग तो संरक्षण, पोषण और संवर्धन यह सभा ही करती रही। अंततः जब उसका स्वतंत्र विकास यहाँ अवरुद्ध होने लगा और विश्वविद्यालय में उसकी भविष्योन्नति की संभावना हुई तो सभा ने उसे विश्वविद्यालय को हस्तांतरित कर दिया।

स्वर्ण जयन्ती और हीरक जयन्ती[संपादित करें]

संवत् २००० वि. (सन १९४३) में सभा ने अपनी स्वर्ण जयन्ती और महाराज विक्रमादित्य की द्विसहस्स्राब्दी जयन्ती मनाया। इसी तरह जीवन के ६० वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में सं. २०१० (सन १९५३ ई) में अपनी हीरक जयन्ती के आयोजन बड़े समारम्भपूर्वक किए। इन दोनों आयोजनों की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह रही की ये आयोजन उत्सव मात्र नहीं थे, प्रत्युत इन अवसरों पर सभा ने बड़े महत्वपूर्ण, ठोस तथा रचनात्मक कार्यों का समारंभ किया। उदाहरणार्थ, स्वर्णजयंती पर सभा ने अपना ५० वर्षों का विस्तृत इतिहास तथा नागरीप्रचारिणी पत्रिका का विक्रमांक (दो जिल्दों में) प्रकाशित किया। ५० वर्षों की खोज में ज्ञात सामग्री का विवरण एवं भारत कला भवन तथा आर्यभाषा पुस्तकालय में संगृहीत सामग्री की व्यवस्थित सूची प्रकाशित करने की भी उसकी योजना थीं, किन्तु ये कार्य खंडशः ही हो पाए। परिव्राजक स्वामी, सत्यदेव जी ने अपना आश्रम सत्यज्ञान निकेतन इसी अवसर पर देश के पश्चिमी भागों में प्रचार कार्य का केंद्र बनाने के निमित्त, सभा को दान कर दिया। इसी प्रकार हीरक जयंती पर सभा के ६० वर्षीय इतिहास के साथ हिंदी तथा अन्यान्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का इन ६० वर्षों का इतिहास, नारीप्रचारिणी पत्रिका का विशेषांक, हिंदी शब्दसागर का संशोधन-परिवर्धन तथा आकर ग्रंथों की एक पुस्तकमाला प्रकाशित करने की सभा की योजना थी। यथोचित राजकीय सहयोग भी सभा को सुलभ हुआ, परिणामतः सभा ये कार्य सम्यक् रूप से संपन्न कर रही है।

बौद्धिक तथा आर्थिक सहयोग[संपादित करें]

नाग्रीप्रचारिणी सभा से देश के अनेक नेता जुडे और इसकी बौद्धिक एवं आर्थिक सहायता की। सर आशुतोष मुखर्जी सभा के न्यासी मण्डल के अध्यक्ष बने और बाद में लाला लाजपत राय इस पद पर आये। सर तेजबहादुर ‍‌सप्रू ने उस युग में सभा की आर्थिक एवं नैतिक सहायता की जो तब कई सहस्र रुपयों की थी। गोविन्दवल्लभ पन्त सन् १९०८ से प्रतिमाह डेढ़ रुपये से सभा की सहायता करने लगे। उन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक जीवन की शुरुआत अपनी संस्था 'प्रेम सभा' को नागरीप्रचारिणी सभा से सम्बद्ध करके की। उस समय के राजा-महाराजाओं में काशी, उदयपुर, ग्वालियर, खेतड़ी, जोधपुर, बीकानेर, कोटा, बूँदी, रीवाँ आदि के राजाओं जहाँ इसे आर्थिक सहायता पहुँचाई, वहीं मोहनदास करमचंद गाँधी ने भी इसकी कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में सहायता की और सन् 1१९३४ में यंग इंडिया में उन्होंने सभा की सहायता के लिए अपने हस्ताक्षर से अपील की। मोतीलाल नेहरू ने भी सभा की धन से सहायता की। सी.वाई. चिन्तामणि ने विधान परिषद् में सभा के भाषा के संबंध में विचारों का बराबर समर्थन किया तथा सर सुन्दरलाल आदि ने इसकी भरपूर सहायता की।

वर्तमान स्थिति[संपादित करें]

वर्तमान समय में सभा की स्थिति अच्छी नहीं है। इसकी पदाधिकारियों को लेकर विवाद है जो न्यायालय में लम्बित है।[6] इस बीच जनवरी २०२० में एक समाचार आया कि परतंत्र भारत में हिंदी के माथे की बिंदी बन उसे संरक्षित करने वाली नागरी प्रचारिणी सभा काशी का वैभव लौटने वाला है। इसके लिए केंद्र सरकार व उत्तर प्रदेश सरकार ने पहल की है। प्रदेश सरकार इसमें भारतेन्दु अकादमी खोलने की घोषणा कर चुकी है तो केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय इसमें सहेजी गई दुर्लभ पांडुलिपियों को संरक्षित करेगा। इसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की विशेष परियोजना के तहत सजाया-संवारा जाएगा। [7] जून २०२१ में जिलाधिकारी ने प्रबन्ध समिति के चुनाव कराने का आदेश दिया था। [8] किन्तु जुलाई २०२१ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस आदेश पर स्थगन का आदेश दिया।[9]

9 जून 2022 को मतदान हुआ। किन्तु मतगणना और परिणाम तुरन्त नहीं हुआ। ६ अप्रैल २०२३ को परिणाम घोषित हुए। [10]

अन्य नागरीप्रचारिणी सभाएँ[संपादित करें]

'नागरीप्रच्रिणी सभा' नाम से अन्य भारत के अन्य भागों में भी कुछ संस्थाएँ कार्यरत हैं, जैसे-

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • अर्धशताब्दी इतिहास, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
  • हीरकजयन्ती ग्रंथ, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
  • नारीप्रचारिणी सभा, काशी के वार्षिक विवरण संवत् २०११ से लेकर २०१९ तक।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी अस्मिता का निर्माण
  2. "आर्यभाषा पुस्तकालय, वाराणसी". मूल से 1 मार्च 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 मार्च 2022.
  3. नागरी प्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय को अब संरक्षण की दरकार
  4. काशी में हिंदी की सबसे बड़ी पीठ बदहाल
  5. Bal Gangadhar Tilak, his writings and speeches
  6. नागरी प्रचारिणी सभा में लोकतंत्र की बहाली, हिंदी प्रेमियों में खुशी की लहर (१२ जून २०२१)
  7. लौटेगा नागरी प्रचारिणी सभा का वैभव
  8. वाराणसी : छह दशकों बाद गैरकानूनी कब्जे से आजाद हुई नागरीप्रचारिणी संस्था (१३ जून २०२१)
  9. वाराणसी : नागरी प्रचारिणी सभा के चुनाव पर हाईकोर्ट ने दिया स्थगन का आदेश
  10. आज खुलेगा विश्वप्रसिद्ध आर्यभाषा पुस्तकालय का ताला
  11. हिन्दी साहित्य यात्रा की साक्षी है देवरिया की नागरी प्रचारिणी

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]