पारिभाषिक शब्दावली

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पारिभाषिक शब्दावली या परिभाषा कोश, "ग्लासरी" या "ग्लॉसरी" (glossary) का प्रतिशब्द है। "ग्लासरी" मूलत: "ग्लॉस" शब्द से बना है। "ग्लॉस" ग्रीक भाषा का glossa है जिसका प्रारम्भिक अर्थ "वाणी" था। बाद में यह "भाषा" या "बोली" का वाचक हो गया। आगे चलकर इसमें और भी अर्थपरिवर्तन हुए और इसका प्रयोग किसी भी प्रकार के शब्द (पारिभाषिक, सामान्य, क्षेत्रीय, प्राचीन, अप्रचलित आदि) के लिए होने लगा। ऐसे शब्दों का संग्रह ही "ग्लॉसरी" या "परिभाषा कोश" है।

ज्ञान की किसी विशेष विधा (कार्य क्षेत्र) में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों की उनकी परिभाषा सहित सूची पारिभाषिक शब्दावली (glossary) या पारिभाषिक शब्दकोश कहलाती है। उदाहरण के लिये गणित के अध्ययन में आने वाले शब्दों एवं उनकी परिभाषा को गणित की पारिभाषिक शब्दावली कहते हैं। पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग जटिल विचारों की अभिव्यक्ति को सुचारु बनाता है।

महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रहः के 'संज्ञाधिकारः' नामक प्रथम अध्याय में कहा है-

न शक्यतेऽर्थोबोद्धुं यत्सर्वस्मिन् संज्ञया विना।
आदावतोऽस्य शास्त्रस्य परिभाषाभिध्यास्यते॥
( विना संज्ञा (नाम या शब्दावली) के किसी भी विषय का अर्थ समझाना सम्भव नही है। (अतः) इस शास्त्र के आरम्भ में ही परिभाषा दी जा रही है।)

इसके बाद उन्होने लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन, समय, सोना, चाँदी एवं अन्य धातुओं के मापन की इकाइयों के नाम और उनकी परिभाषा (परिमाण) दिया है। इसके बाद गणितीय संक्रियाओं के नाम और परिभाषा दी है तथा अन्य गणितीय परिभाषाएँ दी है।

द्विभाषिक शब्दावली में एक भाषा के शब्दों का दूसरी भाषा में समानार्थक शब्द दिया जाता है व उस शब्द की परिभाषा भी की जाती है।

अर्थ की दृष्टि से किसी भाषा की शब्दावली दो प्रकार की होती है- सामान्य शब्दावली और पारिभाषिक शब्दावली। ऐसे शब्द जो किसी विशेष ज्ञान के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, वह पारिभाषिक शब्द होते हैं और जो शब्द एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त नहीं होते वह सामान्य शब्द होते हैं।

प्रसिद्ध विद्वान आचार्य रघुवीर बड़े ही सरल शब्दों में पारिभाषिक और साधारण शब्दों का अन्तर स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

पारिभाषिक शब्द का अर्थ है जिसकी सीमाएँ बाँध दी गई हों। .... और जिनकी सीमा नहीं बाँधी जाती, वे साधारण शब्द होते हैं।

पारिभाषिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से परिभाषाएँ निश्चित करने का प्रयत्न किया है। डॉ॰ रघुवीर सिंह के अनुसार -

पारिभाषिक शब्द वह होता है जिसका प्रयाग किसी विशेष अर्थ में संकेत रूप से होता है।

डॉ॰ भोलानाथ तिवारी 'अनुवाद' के सम्पादकीय में इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

पारिभाषिक शब्द ऐसे शब्दों को कहते हैं जो सामान्य व्यवहार की भाषा के शब्द न होकर भौतिकी, रसायन, प्राणिविज्ञान, दर्शन, गणित, इंजीनियरी, विधि, वाणिज्य, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, भूगोल आदि ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के विशिष्ट शब्द होते हैं और जिनकी अर्थ सीमा सुनिश्चित और परिभाषित होती है। क्षेत्र विशेष में इन शब्दों का विशिष्ट अर्थ होता है।

इतिहास[संपादित करें]

शब्दावली की परम्परा "एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका" में तथा अन्यत्र भी फिलेटस (Philetas) से मानी जाती है। इनका काल तीसरी सदी ई. पू. है। इन्होंने "अतक्ता" (Atakta) शीर्षक शब्दावली संगृहीत की थी। किन्तु वस्तुत: शब्दावली का इतिहास अब बहुत पीछे चला गया है और अब तक प्राप्त प्राचीनतम शब्दावली हित्ताइत (हित्ती) भाषा की है, जिसका समय ईसा से प्राय: 1000 वर्ष पूर्व से भी आगे हैं।

भारत में प्राचीनतम शब्दावली निघंटु रूप में मिलती है। संस्कृत भाषा में विकास के कारण जब वैदिक संस्कृत लोगों के लिए दुरूह सिद्ध होने लगी तो वैदिक शब्दों के संग्रह किए गए, जिन्हें "निघण्टु" (निघण्टति शोभते इति) की संज्ञा दी गई। आज जो निघण्टु उपलब्ध है वह यास्काचार्य का है, किन्तु ऐसे विश्वास के पर्यांत प्रमाण हैं कि यास्क के समय में ऐसे 4-5 और भी निघण्टु थे। यास्क का समय 8वीं सदी ई. पू. माना गया है। इसका आशय यह हुआ कि पश्चिमी विद्वान् फिलटस की जिस शब्दावली (glossary) को प्राचीनतम मानते हैं वह भारतीय निघण्टुओं से कम से कम 4-5 सौ वर्ष बाद की है।

यूरोप में जो शब्दावलियाँ प्रारम्भ में संगृहीत की गईं, एकभाषिक थीं किन्तु बाद में बहुभाषिक शब्दावलियों की परम्परा चली। यूरोप की प्राचीनतम ज्ञात द्विभाषिक शब्दावली लैटिनग्रीक की है, जिसके संग्रहकर्ता फिलॉक्सेनस माने जाते रहे हैं यद्यपि यह सिद्ध हो चुका है कि मूलत: यह रचना उनकी नहीं थी। इसका काल मोटे रूप से छठी सदी ई. है। यह उल्लेख है कि एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका आदि में इसे प्राचीनतम बहुभाषिक शब्दावली माना गया है, किन्तु वस्तुत: पीछे जिस हित्ताइत शब्दावली का उल्लेख किया जा चुका है, वह द्विभाषिक ही नहीं त्रिभाषिक (हित्ती-सुमेरी-अक्कादी) है। इस प्रकार प्राचीनतम बहुभाषिक शब्दावली का काल लैटिन-ग्रीक से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पीछे है। 1000 ई. के आसपास ग्रीक-लैटिन लैटिन-ग्रीक की कई शब्दावलियाँ बनीं।

भारत में बहुभाषिक शब्दावली की परभ्परा बहुत पुरानी नहीं है। अमरकोश के पूर्व - जैसे कात्य का "नाममाला", भागुरि का "त्रिकांड", अमरदत्त का "अमरमाला" या वाचस्पति का "शब्दार्णव" आदि-एवं बाद के - पुरुषोत्तम देव के "हारावली" तथा "त्रिकाण्डकोश", हलायुध का "अभिधान रत्नमाला", यादवप्रकाश का "वैजन्ती" आदि-कोश एकभाषिक ही हैं। प्राकृत अपभ्रंश - जैसे धनपालकृत "पाइअ लच्छीनाममाला", हेमचन्द्र की "देशीनाममाला" तथा गोपाल, द्रोण आदि के देशी "कोश" एवं हिन्दी के पुराने कोश - जैसे नन्ददास, बनारसीदास, बद्रीदास, हरिचरणदास, चेतनविजय, विनयसागर आदि की "नाममाला", प्रयागदास की "शब्दरत्नावली" या हरिचरणदास का "कर्णाभरण" आदि-उसी परम्परा में, अर्थात एकभाषिक शब्दावलियाँ हैं। इस परम्परा में कदाचित अन्तिम ग्रन्थ सुवंश शुक्ल का "उमरावकोश" (19वीं सदी) है।

भारत में एकाधिक भाषाओं की शब्दावलियों की परभ्परा मुसलमानों से आरम्भ होती है। इसका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ "खालिकबारी" है, जिसमें हिन्दी, फ़ारसी, तुर्की के शब्द हैं। खालिकबारी परम्परा में इस प्रकार के कई ग्रन्थ लिखे गए, जिनमें सबसे प्रसिद्ध रचना अमीर खुसरों की कही जाती है, यद्यपि इस सम्बन्ध में पर्याप्त विवाद है। अनेक विद्वानों के अनुसार खालिकबारी किसी "खुसरोशाह" की रचना है, जो प्रसिद्ध कवि खुसरो के बहुत बाद में हुए थे। शिवाजी ने भी राजनीति की फ़ारसी-संस्कृत शब्दावली बनाई थी, जिसमें लगभग 1500 शब्द थे। उसके बाद खालिकबारी परम्परा में हिन्दी-फारसी के कई कोश लिखे गए। किन्तु वैज्ञानिक ढंग से यह कार्य अंग्रेजों के सम्पर्क के बाद प्रारम्भ हुआ। यूरोप में इस दिशा में कार्य को वैज्ञानिक स्तर पर लाने का श्रेय जे. स्कैलिसर (1540-1609) को है। 1573 में प्रकाशित हेनरी स्टेफेनस की द्विभाषिक शब्दावली इस क्षेत्र की प्रथम महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है। भारत में अंग्रेज पादरियों ने धर्म एवं राजप्रचार की दृष्टि से यहाँ की कई भाषाओं के अंग्रेजी कोश प्रकाशित किए। हिन्दी की दृष्टि से इस शृंखला के प्रथम कोश जे. फरगुसन की "ए डिक्शनरी ऑफ़ हिन्दोस्तान लैंग्विज" है जो 1773 ई. में लन्दन से छपी थी। यह उल्लेख्य है कि इस परम्परा में होते हुए भी ये कोश शब्दावली की सीमा के बाहर हैं।

अब बहुभाषिक शब्दावलियों की परभ्परा बहुत विकसित हो गई है तथा इधर 3-4 से लेकर 10-12 भाषाओं की विभिन्न विषयों की शब्दावलियाँ प्रकाशित हुई हैं। इस दिशा में इंग्लैंड, अमरीका, जर्मनी, फ़्रांस तथा रूस ने पर्याप्त श्रम किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस दिशा में योग दिया है।

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि शब्दावलियों का ही विकास कोशों के रूप में हुआ है, किन्तु दोनों एक नहीं हैं। दोनों में अन्तर यह है कि शब्दावली में एक या अधिक भाषाओं के शब्दों का संग्रह रहता है, किन्तु कोश में शब्दों का अर्थ या उनकी व्याख्या आदि भी रहती है। कला, वाणिज्य, विज्ञान आदि के विज्ञान आदि के विभिन्न विषयों के द्विभाषिक या बहुभाषिक कोशों के अतिरिक्त, पर्याय एवं विलोमकोश (Thesaras , थिसॉरस) भी शब्दावलियों की ही परम्परा में आते हैं। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का "नाममाला" साहित्य इस दृष्टि से उल्लेख्य है। अब पर्याय कोशों की परम्परा बड़ी वैज्ञानिक हो गई है और लेखकों आदि के लिए ये बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

शब्दावली संकलन का प्रारम्भ तथा विकास[संपादित करें]

मध्यकाल की नाममालाओं की परम्परा के बाद पहला शब्दावली संकलन का कार्य आदम ने 1829 में 'हिन्दवी भाषा का कोश' शीर्षक से तैयार किया जिसमें 20,000 शब्द थे। तद्भव तथा देशज शब्दों को प्रधानता दी गई। आदम साहब पहले व्यक्ति थे जिन्होंने लोक से बोलचाल के शब्द संगृहीत किये। आदम से पूर्व गिलक्राइस्ट, कर्कपैट्रिक, विलियम हण्टर, शेक्सपियर, रॉबक के कोश और बाद में फ़ैलन, येट, डंकर फ़ोर्ब्स, थॉमसन तथा जॉन प्लाट्स के कार्य उल्लेखनीय हैं। इनमें से फ़ैलन, थॉमसन तथा जॉन प्लाट्स के कार्य महत्त्वपूर्ण हैं। थॉमसन के संकलन में शब्दसंख्या 30,000 है, फ़ैलन के कोश में 1216 पृष्ठ (रायल क्टेव) हैं। प्लाट्स के कोश का पूरा नाम है - "'ए डिक्शनरी आफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एण्ड इंग्लिश" (1874) जिसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं:

  • (१) शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश,
  • (२) समान वर्तनी के अलग-अलग स्रोतों से आये शब्दों की अलग-अलग प्रविष्टियाँ,
  • (३) अकर्मक तथा सकर्मक क्रियाओं का उल्लेख,
  • (४) साहित्येतर शब्दों का संकलन।

भारतीयों द्वारा बनाये गये कोशों में जिन दो कोशों का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार हुआ, वे हैं - "श्रीधर भाषा कोश' (सन् १८९४), श्रीधर त्रिपाठी, लखनऊ, पृष्ठ सं. 744 तथा 'हिन्दी शब्दार्थ पारिजात' (सन् 1914), द्वारका प्रसाद चतुर्वेदी, इलाहाबाद। पहले कोश में लगभग २५,००० शब्द संख्या है जबकि दूसरे में ब्रजभाषा-अवधी आदि विभाषाओं के शब्दों की पर्याप्त संख्या रहने के कारण शब्द संख्या अधिक है। अनुमान किया जा सकता है कि २०वी शताब्दी के प्रारंभ तक शब्द संकलन 50,000 तक पहुँच गया।

आधुनिक काल में बाबू श्याम सुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, रामचन्द्र वर्मा के सत्प्रयासों से नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से 'हिन्दी शब्दसागर' (1922-29) प्रकाशित हुआ जिसकी योजना 23-8-1907 की सभा के परम हितैषी और उत्साही सदस्य श्रीयुत रेवरेंड ई. ग्रीब्ज़ के उस प्रस्ताव के अनुसार बनी जिसमें प्रार्थना की गई थी कि "हिन्दी के एक बृहत् और सर्वांगपूर्ण कोश का भार सभा अपने ऊपर ले."

सन् 1910 के आरम्भ में शब्द संग्रह का कार्य समाप्त हुआ। 10 लाख स्लिप बनाई गई जिनमें से लगभग एक लाख शब्दों का आकलन किया गया। यह कोश वस्तुतः सागर था जो शब्दों, अर्थों, मुहावरों, लोकोक्तियों, उदाहरणों तथा उद्धरणओं से भरपूर अर्थच्छटाएँ देने में सर्वोत्तम माना जाएगा। इसके बाद कोश कला में दीर्घकालीन अनुभव प्राप्त आचार्य रामचन्द्र वर्मा के प्रयासों से वाराणसी से 'प्रामाणिक हिन्दी कोश' (पृ.सं. 3966;1962-1966) प्रकाशित हुआ। 'वृहद् हिन्दी कोश' के तीसरे संस्करण में एक लाख अड़तालीस हज़ार शब्द हैं। इस बीच 'हिन्दी शब्दसागर' का नवीन संशोधित और परिवर्धित संस्करण (1965-74) में प्रकाशित हुआ जिसमें कुल पृष्ठ सं. 4470 है, संयोजक श्री करूणापति त्रिपाठी के दिनांक 18-2-65 के वक्तव्य के अनुसार "मूल शब्द सागर से इसकी शब्द संख्या में दुगुनी वृद्धि हुई है।" इस प्रकार कोशों के आधार पर शब्दावली की संख्या 2 लाख है।

पारिभाषिक शब्दावली का विकास[संपादित करें]

प्राचीन भारत में ही दर्शन, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद आदि कुछ विषयों में प्रचुर भारतीय शब्दावली उपलब्ध थी। स्थापित हो चुके पारिभाषिक शब्दों के लिए पर्याय निश्चित करने एवं मानक भाषा विकसित करने का वास्तविक कार्य भारत में नागरी प्रचारिणी सभा (काशी), हिन्दी साहित्य सम्मेलन (प्रयाग), बंगाल साहित्य परिषद, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय (हरिद्वार), उस्मानिया विश्वविद्यालय, हिंदुस्तानी कल्चर सोसाइटी आदि के माध्यम से संभव हो सका। सन् 1898 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा ने 'हिन्दी साइण्टिफ़िक ग्रासरी' नामक पारिभाषिक कोश को तैयार करना प्रारम्भ कर दिया था, जो सन् 1901 ई. में सम्पन्न हो गया था।[1] इस दिशा में डॉ॰ सत्यप्रकाश (विज्ञान परिषद, इलाहाबाद) तथा डॉ॰ रघुवीर के कार्य विशेष उल्लेखनीय हैं। उसके बाद लगभग चार दशक बाद सन् 1940 ई. में सुखसंपतिराय भंडारी (अजमेर) का 'ट्वेंटिएथ सेंच्युरी इंग्लिश-हिन्दी डिक्शनरी' छपकर लोगों के सामने आया और आजादी के बाद सन् 1951 ई.में डॉ॰ रघुवीर का ‘अ कोम्प्रिहेंसिव इंग्लिश-हिन्दी डिक्शनरी’ प्रकाशित हुआ।

डॉ॰ रघुवीर के कोश कार्य की एक ओर अत्यधिक प्रशंसा हुई, दूसरी ओर अत्यधिक आलोचना। वस्तुतः यह प्रशंसनीय कार्य था, जिसको अत्यधिक श्रम से वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया गया। संपूर्णतः संस्कृत पर आधारित होने के कारण इसकी व्यावहारिकता पर संदेह किया जाने लगा। उन्होंने सर्वप्रथम भाषा-निर्माण में यांत्रिकता तथा वैज्ञानिकता को स्थान दिया। उपसर्ग तथा प्रत्ययों के धातुओँ के योग से लाखों शब्द सहज ही बनाये जा सकते हैं:

उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते। प्रहार-आहार-संहार-विहार-परिहार वत् ॥

इस प्रक्रिया को कोश की भूमिका में समझाया. यदि मात्र दो सम्भावित योग लें, मूलांश 400 और तीन प्रत्यय लें तो 8000 रूप बन सकते हैं, जबकि अभी तक मात्र 340 योगों का उपयोग किया गया है। यहाँ शब्द-निर्माण की अद्भुत क्षमता उद्घाटित होती है। उन्होंने विस्तार से उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार गम् धातु मात्र से 180 शब्द सहज ही बन जाते हैं। प्रगति, परागति, परिगति, प्रतिगति, अनुगति, अधिगति, अपगति, अतिगति, आगति, अवगति, उपगति, उद्गति, सुगति, संगति, निगति, निर्गति, विगति, दुर्गति, अवगति, अभिगति, गति, गन्तव्य, गम्य, गमनीय, गमक, जंगम, गम्यमान, गत्वर, गमनिका आदि कुछ उदाहरण हैं। मात्र 'इ' धातु के साथ विभिन्न एक अथवा दो उपसर्ग जोड़कर 107 शब्दों का निर्माण संभव है। उन्होंने स्पष्ट किया कि 520 धातुओं के साथ 20 उपसर्गों तथा 80 प्रत्ययों के योग से लाखों शब्दों का निर्माण किया जा सकता है। अगर धातुओं की संख्या बढ़ा ली जाए तो 1700 धातुओं से 23,800 मौलिक तथा 84,96,24,000 शब्दों को व्युत्पन्न किया जा सकता है।

इस प्रकार संस्कृत में शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता है, जिसका अभी नाममात्र का ही उपयोग किया जा सका है। अतिवादी दृष्टि से बचकर भी लाखों ऐसे सरल शब्दों को प्रयोग में लाया जा सकता है, जो हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुकूल हैं।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग में आने वाले तथा पूर्व स्वीकृत वैज्ञानिक शब्दों को स्वीकार कर लेना चाहिए। प्रयोग के आधार पर कुछ शब्द पूर्ण पारिभाषिक (ध्वनिग्राम, संस्वन, प्रकरी, दशमलव), कुछ अर्धपारिभाषिक, जैसे अक्षर, संगति, आपत्ति. ऐतिहासिक आधार पर तत्सम, तद्भव के साथ विदेशी शब्दावली का विशेष महत्त्व है।

शब्दावली के विविध सम्प्रदाय[संपादित करें]

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर स्पष्ट होता है कि भारत में पारिभाषिक शब्दावली निर्माण के क्षेत्र में आरम्भ से ही विभिन्न मत परिपुष्ट होते रहे हैं। हिन्दी में पारिभाषिक शब्द निर्माण के क्षेत्र में प्रमुख वाद निम्नलिखित हैं-

राष्ट्रीयतावादी या पुनरुद्धारवादी सम्प्रदाय[संपादित करें]

इस प्रवृत्ति को शुद्धतावादी, प्राचीनतावादी, संस्कृतवादी आदि अनेक नामों से भी अभिहित किया जाता है। इस मत में विश्वास रखने वाले लोग पारिभाषिक शब्दों के लिए या तो संस्कृत से शब्द ग्रहण करना चाहते हैं या संस्कृत के उपसर्ग, प्रत्यय, शब्द, धातु आदि के आधार पर नए शब्द गढ़ना चाहते हैं। इस विचारधारा के प्रवर्तक डॉ. रघुवीर थे। उनका मानना था कि जो पारदर्शिता हिन्दी के शब्दों में है वह संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। संस्कृत के उपलब्ध 22 उपसर्गों, 500 धातुओं और 80 प्रत्ययों की सहायता से लाखों-करोड़ों शब्द बनाए जा सकते हैं। संस्कृत का आधार बनाकर डॉ. रघुवीर ने लाखों शब्दों का निर्माण किया तथा लोग उन्हें 'अभिनव पाणिनी' के रूप में देखने लगे। व्यक्तिगत रूप से डॉ. रघुवीर का पारिभाषिक शब्दावली निर्माण सम्बन्धी कार्य उल्लेखनीय है। उन्होंने 'आंग्ल भारतीय महाकोश' चार भाग (इसमें प्रत्येक शब्द का पर्याय देवनागरी, बंगला, कन्नड़ और तमिल लिपियों में भी दिया गया है।) 'वाणिज्य शब्दकोश', 'सांख्यिकी शब्दकोश', 'वैज्ञानिक शब्दकोश', 'अर्थशास्त्र शब्दकोश','तर्कशास्त्र शब्दकोश', 'पक्षिनामावली', 'भेषज-संहिता शब्दकोश', 'मंत्रालय कोश','विविध कोश', 'वानिकी कृषि कोश', 'अंग्रेजी-हिन्दी वृहतकोश' आदि का निर्माण किया। उनकी इच्छा अंग्रेजी के लाखों शब्दों के हिन्दी पर्याय बनाने की थी तथा मृत्यु होने तक वे लगभग 5 लाख शब्दों का निर्माण कर चुके थे। उन्होंने शब्द-निर्माण में संस्कृत को आधार बनाया। डॉ. रघुवीर ने संस्कृत भाषा की शब्द निर्माण की उर्वरा-शक्ति का प्रयोग पारिभाषिक शब्दावली निर्माण में भरपूर कुशलता के साथ किया है। इस संप्रदाय के विद्वान भारतीय भाषाओं के सारे के सारे शब्द संस्कृत से अपनाने के पक्षधर रहे हैं।

अन्तरराष्ट्रीयवादी या आदानवादी या शब्द ग्रहणवादी सम्प्रदाय[संपादित करें]

इस सम्प्रदाय के समर्थक अनेक प्रमुख भारतीय वैज्ञानिक तथा अंग्रेजी परम्परा के लोग थे। इस सम्प्रदाय के लोगों का मानना है कि अंग्रेजी तथा अन्तरराष्ट्रीय पारिभाषिक शब्दों का ज्यों-का-त्यों, या फिर यत्किंचित अनुकूलित करके हिन्दी में चला लिया जाए। हिन्दी में वैसे भी असंख्य शब्द विदेशी भाषाओं के पहले ही चल चुके हैं। अत: शब्द ग्रहण में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। इस सम्प्रदाय की यह बात एक हद तक तो ठीक थी और उनके अनुसार हिन्दी में अनेक शब्द ग्रहण किए गए तथा ध्वन्यानुकूलन की प्रक्रिया से भी ग्रहण किए गए; यथा-कामदी, त्रासदी, अन्तरिम, तकनीक, नेत्रजन आदि। किसी भी भाषा में, किसी अन्य भाषा के सारे-के-सारे पारिभाषिक शब्द यथावत् पचाए नहीं जा सकते। अत: इस सम्प्रदाय की विचारधारा एक हद तक ही लोगों को रास आई।

प्रयोगवादी या हिन्दुस्तानी सम्प्रदाय[संपादित करें]

इस सम्प्रदाय में हिन्दुस्तानी भाषा के समर्थक पं. सुन्दरलाल, हिन्दुस्तानी कल्चर सोसाइटी, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद आदि रहे हैं तथा इन्होंने इसी विचारधारा के आधार पर पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया है। इस सम्प्रदाय ने हिन्दी और उर्दू का समन्वय करके सरल एवं सहज पारिभाषिक शब्दावली के नाम पर शब्दों की पंचमेल खिचड़ी पकाई है। उदाहरण के लिए - Acknowledgement - रसीदियाना, Extermination - 3150151, Sanitaryसफाईकारी, Emergency - अचानकी, President - राजपति, Psychology - मनविद्या , half heartedness - अधदिलापन, Simplify- आसानियाना आदि। उर्दू व्याकरण के आधार पर कानूनियाना, वाणिज्यियाना, नौबस्तियाना, अणुयाना आदि शब्द भी बनाए गए लेकिन ये शब्द प्रचलित न हो सके।

लोकवादी सम्प्रदाय[संपादित करें]

लोकवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों ने शब्द जनप्रयोग से ग्रहण किए तथा जन प्रचलित शब्दों के योग से शब्द भी बनाए। लेकिन इस तरह आवश्यकतानुरूप संख्या में पारिभाषिक शब्द नहीं बना पाए। वैसे शब्द-निर्माण की लोकवादी प्रणाली हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुकूल थी लेकिन जरूरत के अनुसार इस प्रणाली से शब्द मिले नहीं। कुछ शब्द उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं : Defector - दलबदलू, आयाराम-गयाराम, Infiltrator - घुसपैठिया आदि। Maternity Home - के लिए 'जच्चाघर' तथा Power House के लिए 'बिजलीघर' जन प्रचलन से लिया।

मध्यममार्गी या समन्वयवादी सम्प्रदाय[संपादित करें]

इस सभ्प्रदाय के अनुसार सुविधा की दृष्टि से और हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं की प्रकृति की दृष्टि से अन्तरराष्ट्रीय स्तर की भाषाओं जैसे अंग्रेजी आदि से तथा भारतीय भाषाओं- यथा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, आधुनिक भारतीय भाषाओं, बोलियों आदि से शब्द ग्रहण किए जा सकते हैं या फिर समन्वय के आधार पर भी शब्द-निर्माण किया जा सकता है। इस विचारधारा का अनुसरण मुख्य रूप से सरकारी शब्द-निर्माण संस्थानों में किया गया। इस विचारधारा में ग्रहण, अनुकूलन और निर्माण पर जोर दिया गया। भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने आरम्भ में पारिभाषिक शब्द निर्माण में जोर दिया कि (क) सर्वप्रथम हिन्दी के उपलब्ध शब्दों को ग्रहण किया जाए, (ख) उसके बाद, हिन्दी में रचे-पचे सभी देशी भारतीय भाषाओं के तथा विदेशी शब्दों को लिया जाए और (ग) यदि फिर भी काम न चले और मजबूरी में किसी अप्रचलित विदेशी शब्द को हिन्दी में ग्रहण करना पड़े तो उसका अनुकूलन कर लिया जाए जैसे - Academy का 'अकादमी', Interim का 'अन्तरिम' आदि।

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग[संपादित करें]

मुख्य लेख वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग

स्वतन्त्रता के बाद वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली के लिए शिक्षा मन्त्रालय ने सन् 1950 में बोर्ड की स्थापना की। सन् 1952 में बोर्ड के तत्त्वावधान में शब्दावली निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। अन्तत: 1960 में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना हुई। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर तैयार शब्दावली को 'पारिभाषिक शब्द संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य एक ओर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के समन्वय कार्य के लिए आधार प्रदान करना था और दूसरी ओर अन्तरिम अवधि में लेखकों को नई संकल्पनाओं के लिए सर्वसम्मत पारिभाषिक शब्द प्रदान करना था।

अखिल भारतीय शब्दावली[संपादित करें]

बहुत सारे शिक्षाविदों, भाषा-विज्ञानियों एवं विद्वानों की यह धारणा है कि भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली ऐसी होनी चाहिए जिसमें सभी भाषाओं में परस्पर समरूपता हो ताकि उच्च शिक्षा अनुसन्धान तथा सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान एवं अन्तर-भाषायी सम्प्रेषण में सुविधा रहे। इस प्रयोजन के लिए भारतीय भाषाओं में एक सर्वनिष्ठ एवं समरूप शब्द भण्डार होना आवश्यक है। चूँकि देश के विभिन्न राज्यों की भाषाओं में तकनीकी शब्दों के मूलरूप प्रायः एक समान हैं, अतः अनेक शब्दों में आपस में समानता दृष्टिगत होती है।

समय की इस माँग को ध्यान में रखते हुए आयोग ने विज्ञान तथा तकनीकी से सम्बन्धित आधारभूत शब्दों के अखिल भारतीय पर्यायों की पहचान करने अथवा पर्याय निर्धारित करने की योजना पर काम करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए 1979 में बंगलौर विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय शब्दावली (Pan Indian Terminology) विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की। इस संगोष्ठी में अखिल भारतीय शब्दावली विषय पर चर्चा हुई और इससे सम्बन्धित आवश्यक दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए।

अखिल भारतीय शब्दावली पहचान के सामान्य पक्ष[संपादित करें]

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगोष्ठियों में विचार-विमर्श के दौरान कुछ सामान्य पक्ष भी उभर कर सामने आए। ये पक्ष थे, जिन्हें आधार रूप में स्वीकार करने पर अखिल भारतीय शब्दावली निर्धारण में मदद मिलती है। आयोग ने इन्हीं पक्षों के आलोक में अखिल भारतीय शब्दावली सम्बन्धी कार्य को आगे बढ़ाया। आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. मलिक मोहम्मद ने भौतिकी की अखिल भारतीय शब्दावली की प्रस्तावना में इन पक्षों को उजागर किया है। उनके अनुसार ये पक्ष हैं

  • (१) अन्तरराष्ट्रीय शब्द सभी को मान्य हैं।
  • (२) अधिकांश ऐसे संस्कृत शब्द जो विभिन्न भारतीय भाषाओं में बहुत अलग-अलग अर्थ नहीं देते, अखिल भारतीय स्तर पर प्रयोग के लिए स्वीकृत कर लिए जाते हैं।
  • (३) फारसी-अरबी से उद्धृत शब्द जो पहले से ही प्रचलित हैं, अधिकांश भारतीय भाषाओं द्वारा मान्य हैं।
  • (४) यदि कोई शब्द किसी एक भी भाषा में अनादरसूचक अर्थ का बोधक है तो वह एकदम अस्वीकृत कर दिया जाता है।
  • (५) यदि किसी भाषा को कोई विशेष शब्द इसलिए मान्य नहीं होता क्योंकि उसके स्थान पर पहले से कोई क्षेत्रीय शब्द इतना प्रचलित है कि उसे बदलना असम्भव है तो ऐसी स्थिति में अपवादस्वरूप उस भाषा को अपने पूर्व-प्रचलित शब्द का प्रयोग करते रहने की छूट दे दी जाती है।

अखिल भारतीय शब्दावली की निर्माणपद्धति[संपादित करें]

अखिल भारतीय शब्दावली निर्माण के लिए जिस पद्धति को अपनाया गया, उसमें सबसे पहले प्रयास यह किया गया कि वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग विषय-विशेष की आधारभूत शब्दावली की सूची को अंग्रेजी में तैयार करता। यह सूची उन शब्दों का संकलन होती, जिन्हें अखिल भारतीय प्रयोग के लिए स्वीकार किया जा सकता था। उसके बाद तैयार सूची की प्रतियाँ देश के सभी राज्य पाठ्य पुस्तक मण्डलों को इस अनुरोध के साथ भेजी जातीं कि वे इस सूची को अपने भाषायी क्षेत्र में किसी ऐसे विद्वान के पास भेजें जो विषय-विशेष का विशेषज्ञ तो हो ही, साथ ही वह अपनी भाषा में उस विषय विशेष में व्यवहत/प्रयुक्त होने वाले वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दों से भली प्रकार से परिचित भी हों। वह विशेषज्ञ उसी सूची में शामिल अंग्रेजी में लिखित तकनीकी शब्दों के पर्याय अपनी भाषा में से संकलित करता और फिर उन्हें आयोग के पास भेज देता। भाषायी क्षेत्र की दृष्टि से ये स्वयं में मानक पर्याय होते। लेकिन इतना कार्य करके वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा अखिल भारतीय शब्दावली के पर्याय निश्चित निर्धारित नहीं कर लिए जाते। सभी राज्य पाठ्य पुस्तक मण्डलों से प्राप्त सूचियों में शामिल अंग्रेजी शब्दों के मानक पर्यायों को सारणीबद्ध करके उन्हें अखिल भारतीय संगोष्ठियों में भी प्रस्तुत किया जाता था। इन सूचियों में आयोग द्वारा उन शब्दों के लिए अनुमोदित पर्याय भी दिए रहते थे। इन संगोष्ठियों में राज्य पाठ्य पुस्तक मण्डलों द्वारा नामित विद्वान और कुछ भाषाविद आमन्त्रित किए जाते थे। ये संगोष्ठियाँ देश के विभिन्न स्थलों पर आयोजित की जाती थीं। संगोष्ठियों में आमन्त्रित विद्वान सारणीबद्ध पर्यायों में से उस शब्द को चुनने की कोशिश करते जो देश की सभी अथवा अधिकांश भाषाओं में स्वीकार्य हो। इसके अलावा, ऐसा भी होता कि यदि उपलब्ध पर्यायों में से कोई पर्याय कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो संगोष्ठियों में आमन्त्रित भाषाविद ऐसा नया पर्याय 'गढ़ने में मदद करते जो अखिल भारतीय स्तर पर व्यवहार में लाया जा सके। इस तरह अखिल भारतीय शब्दावली के पर्याय निर्धारित किए जाते।

उक्त प्रक्रिया को अपनाकर आयोग ने संगोष्ठियों, प्रमुख विषय विशेषज्ञों और भाषा विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में अखिल भारतीय शब्दावलियाँ निर्मित करने की दिशा में कार्य आरम्भ किया। इस प्रकार संकलित विभिन्न विषयों के शब्द 'अखिल भारतीय शब्दावली' कहलाते हैं। आयोग ने सबसे पहले 1985 में 'अखिल भारतीय शब्दावली-खगोलिकी' प्रकाशित की। इसके पश्चात अर्थशास्त्र और वाणिज्य, भूगोल, गणित, समाजविज्ञान एवं सांस्कृतिक विज्ञान (सभी 1986 में), भौतिकी (1987), जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, भाषा विषान, समुद्रविज्ञान, और भूविज्ञान, (1990), शिक्षा, मनोविज्ञान तथा मनोरोगविज्ञान, सांख्यिकी (1991), प्रायोगिक भूगोल (1992), सिविल इंजीनियरी, मानव भूगोल (1993), भूविज्ञान (1995) आयुर्विज्ञान (1996) आदि विषयों की अखिल भारतीय शब्दावलियां प्रकाशित की गई। आयोग इन शब्दावलियों को देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के विभिन्न विषयों के प्राध्यापकों, भाषाविदों, लेखकों, अनुवादकों, कोशकारों, पत्रकारों एवं राज्य के पाठ्य-पुस्तक निर्माण मण्डलों को निःशुल्क वितरित करता है। इसके अलावा, आयोग ने उक्त सभी अखिल भारतीय शब्दावलियों को एक ग्रन्थ में उपलब्ध कराने की दिशा में भी काम किया। आयोग ने इसे 'समेकित अखिल भारतीय शब्द संग्रह' (Comprehensive Glossary of Pan-indian Terms) नाम से वर्ष 2002 में हरियाणा साहित्य अकादमी के तत्वावधान में प्रकाशित किया। वह अंग्रेजी-रोमन-हिन्दी में तैयार किया गया शब्द-संग्रह है।

संक्षिप्त रूपों द्वारा नई शब्दावली[संपादित करें]

आज इस भागदौड़ के युग में हर आदमी की यह आदत बनती जा रही है कि कम से कम समय में कम से कम शब्दों में अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करे। इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप ही संस्थाओं तथा संगठनों के लम्बे-लम्बे नाम संक्षिप्त होते जा रहे हैं। नई प्रकार की यह शब्दावली अंग्रेजी में 'एक्रोनिम' से अभिहित की जाती है। प्रत्येक काल में ऐसे शब्द बनते रहे हैं। कालान्तर में जब ये शब्द बहुप्रयुक्त होकर कोश के अन्तर्गत अपना समुचित स्थान बना लेते हैं, तो प्राय: भूल जाते हैं कि इनका निर्माण इस विधि से हुआ होगा, जैसे अंग्रेजी 'न्यूज़'। हिन्दी में प्रचलित 'बदी' तथा 'सुदी' शब्द भी इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप हैं, 'स' सुदि: [शु.(शुक्लपक्ष) तथा 'ब' बहुल (कृष्णपक्ष)] हिन्दी में अंकटाड, सैम, मीडो, सीटो, इंटक, नाटो, यूनेस्को आदि पर्याप्त शब्द इसी कोटि के हैं। पिछली बार चीन के आक्रमण के समय नेफ़ा, मिग तथा रडार तीन शब्द काफ़ी प्रचलित हो गये। युद्ध में 'लेसर', 'मिग' प्रचलित हैं, प्रबन्धशास्त्र में 'प्रिन्स' 'पर्ट' इसी प्रकार के शब्द हैं। हिन्दी पत्रकारिता में प्रचलित अंनिआ, उर्वसी, उपूसी, इंका, लोद इसी प्रकार के शब्द हैं।

हिन्दी की विभाषा तथा बोलियों का महत्त्व[संपादित करें]

किसी बोली का लोकजीवन से अभिन्न सम्बन्ध है। बोलियों का ही परिष्कृत, सामान्यीकृत तथा संस्कृत रूप भाषा है। भाषा को ही बोलियों से ही सहज शक्ति प्राप्त होती है। गंगा का आदिस्रोत हिमखण्डों से निर्मित गोमुख है, उसी प्रकार हिन्दी की गंगा को उसकी बोलियों से सारभूत तत्त्व तथा प्राणशक्ति मिलती है। व्यावहारिक लोकभाषा से शब्द संग्रह करना सरल कार्य नहीं। लोकबोली के स्थायी तत्त्व लोकगीत तथा लोककहानियों में समाहित रहते हैं। शब्द रूपों के स्रोत तथा उनके विकास की परम्परा और साथ ही अर्थ विकास की शृंखला निर्धारित करने में लोकजीवन का विशेष महत्त्व है। बोलियों में जब कोई बोली शिक्षित लोगों के मुख्य नगर या अन्य शिष्ट सामाजिक वर्ग की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो जाती है तब वह मानक भाषा कहलाती है।

हिन्दी का शब्द-सामर्थ्य[संपादित करें]

किस भाषा को विकसित-विकासशील माना जाए और किसको नहीं, इसके लिए प्रो॰ फर्गुसन ने बड़ी गहराई से विचार किया है। लिखित रूप में प्राप्त जिस भाषा में निम्न्ललिखित विशेषताएँ हों वह भाषा विकसित मानी जाएगी -

  • (क) आपसी पत्र-व्यवहार होता हो,
  • (ख) पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हों,
  • (ग) मौलिक पुस्तकों का लेखन कार्य होता हो,

इस कसौटी पर हिन्दी बिल्कुल खरी उतरती है। हाँ, उन्होंने जो आगे की अवस्थाएँ स्वीकार की हैं कि

  • (१) उसमें वैज्ञानिक साहित्य निरन्तर प्रकाशित होता रहे तथा
  • (२) अन्य भाषाओं में हुए वैज्ञानिक कार्य का अनुवाद तथा सार संक्षेप प्रकाशित होता रहे

उस दृष्टि से अभी हिन्दी विकासशील भाषा है और भविष्य में उसमें अनन्त सम्भावनाएँ निहित हैं।

हॉगन ने विकसित भाषा के जो चार तत्त्व स्वीकार किये हैं उनमें से 'आधुनिकता' पर विशेष बल दिया है। 'भाषा की आधुनिकता' से तात्पर्य है: शब्दावली में वृद्धि तथा नई शैली तथा अभिव्यक्तियों का विकास। इस कसौटी पर भी हिन्दी खरी उतरती है।

हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि तथा विचारक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन की मान्यता है कि "भाषा कल्पवृक्ष है। जो उससे आस्थापूर्वक माँगा जाता है, भाषा वह देती है। उससे कुछ माँगा ही न जाए क्योंकि वह पेड़ से लटका हुआ नहीं दीख रहा है, तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता।"

बीसवीं शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ भाषाविद्, ब्लूमफ़ील्ड के अनुसार-

भाषा की शक्ति अथवा सम्पत्ति रूपिमों और व्याकरणिमों में है (वाक्य प्रतिरूपों, संरचनाओं और स्थानापत्तियों में) है। रूपिमों और व्याकरणिमों की संख्या भाषाविशेष में हज़ारों में पहुँचती है। यह साधारणतया माना जाता है कि भाषा सम्पत्ति विभिन्न प्रयुक्त शब्दों पर निर्भर है किन्तु यह संख्या अनिश्चित है क्योंकि रूपीय संरचनाओं के सादृश्य पर शब्द मनचाहे ढंग से बनते रहते हैं। (भाषा, पृष्ठ 332)

वस्तुत: भाषा मूलतः अभिव्यक्ति की संरचना तथा शब्दावली का संयुक्त रूप है जो परस्पर संगुम्फित है। शब्दावली आती-जाती, नई बनती रहती है, पुराने शब्दों में नवीन अर्थ भरते जाते हैं, जैसे आज अधिक्रम, अधिवक्ता, अभिलेख, अभ्यर्थी, आख्यापन से सर्वथा नवीन अर्थों की अभिव्यंजना होती है। हिन्दी की आक्षरिक संरचना भी बड़ी सम्पन्न है। आक्षरिक साँचों में पर्याप्त रिक्त स्थान होने के कारण विकास की अभूतपूर्व क्षमता स्पष्ट होती है। 'व्यंजन स्वर-व्यंजन दीर्घ स्वर' साँचे में यदि मात्र 'क्' तथा 'ल्' व्यंजन क्रमश: लिए जाएँ तो 21 सम्भव शब्द बन सकते हैं, जिनमें से 19 स्थान रिक्त पड़े हुए थे। इन रिक्त स्थानों में से चार स्थानों पर क़िला, क़िले, कुली, किलो शब्द बड़ी आसानी से खप गये।

अब तक के प्रमुख भाषाविद् उपयुक्त सभी दृष्टियों से हिन्दी की अभूतपूर्व क्षमता तथा सामर्थ्य में विश्वास करते हैं।

  • "हिन्दी इसी मिट्टी की बोली है और अरबी या फ़ारसी से अधिक जनमानस के निकट है।" - फ़ैलन
  • "भारतीय भाषा में कोई भी मानवीय भावना व्यक्त करने की पूर्ण सामर्थ्य है और वह उच्चतम वैज्ञानिक शिक्षा के लिए उपयुक्त है।" - क्रस्ट
  • "हिन्दी के पास ऐसा शब्द कोश और अभिव्यक्ति की ऐसी सामर्थ्य है, जो अंग्रेजी से किसी प्रकार कम नहीं।" - 1901 की जनगणना रिपोर्ट
  • "यही (हिन्दी) एक भाषा है जिसमें दो विभिन्न प्रान्तों के लोग आपस में बातचीत कर सकते हैं। यह भारत में सर्वत्र समझी जाती है, क्योंकि इसका व्याकरण भारत की अधिकांश भाषाओं के समान है और इसका शब्दकोश सबकी सम्मिलित सम्पत्ति है।" - ग्रियर्सन

भारतीय संविधान में (351) हिन्दी के 'शब्द भण्डार के लिए मुख्यत: संस्कृत से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्दग्रहण कर समृद्ध' करने की व्यवस्था है।

भारत के लिये संस्कृत आधारित पारिभाषिक शब्दावली का महत्व[संपादित करें]

  • संस्कृत में अति प्राचीन काल से पारिभाषिक शब्दों के निर्माण और उपयोग का प्रचलन रहा है।
  • अधिकांश शब्द सभी भारतीयों के लिये परिचित हैं,
  • शब्दों से नये शब्द बनाने आसान और तर्कसंगत होंगे, जैसे 'कोशिका' से कोशिकीय, कोशिकाद्रव्य, बहुकोशीय, एककोशीय, कोशिकाक्षय आदि।
  • जिस प्रकार स्वभाषा में पठन-पाठन से छात्रों में मौलिकता आती है, रटने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है; उसी प्रकार स्वभाषा की शब्दावली से भी विषय की गहराई से समझ पैदा करने में सहायता मिलती है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

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