बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

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बदरीनारायण चौधरी उपाध्याय "प्रेमघन" (1 सितम्बर 1855 ई०-1923 ई० यानि भाद्र कृष्ण षष्ठी संवत् 1912- फाल्गुन शुक्ल 14, संवत् 1980) हिन्दी साहित्यकार थे। भारतेन्दु मण्डल में गिने जाने वाले प्रेमघन ने हिंदी और संस्कृत के प्रचार-प्रसार में योगदान किया। हिन्दी आलोचना व अन्य गद्य विधाओं के विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

जीवनी[संपादित करें]

आपका जन्म भाद्र कृष्ण षष्ठी, संवत् 1912 तदनुसार 1 सितम्बर 1855 ई० को दत्तापुर, आजमगढ़ में हुआ था। पिता पं॰ गुरुचरणलाल उपाध्याय कर्मनिष्ठ तथा विद्यानुरागी ब्राह्मण थे। आप सरयूपारीण ब्राह्मण कुलोद्भूत भारद्वाज गोत्रीय खोरिया उपाध्याय थे।

इनकी माता ने मीरजापुर में हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराया। फ़ारसी की शिक्षा का आरम्भ भी घर पर करा दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा के लिए आप गोंडा (अवध) भेजे गए। यहाँ आपका सम्पर्क अयोध्यानरेश महाराज सर प्रतापनारायण सिंह (ददुआ साहेब), महाराज उदयनारायण सिंह, लाला त्रिलोकी नाथ प्रभृत ताल्लुकेदारों से हुआ। इस संसर्गज गुण से आपको मृगया, गजसंचालन, निशानेबाजी, घोड़ासवारी आदि ताल्लुकदारी शौकों में रुचि हुई। उच्च शिक्षा पाने के लिए संवत् 1924 में फैजाबाद चले आए। पैतृक व्यवसाय और रियासत के प्रबन्ध के लिए मीरजापुर आ जाना पड़ा।

चौधरी गुरुचरणलाल विद्याव्यसनी थे। उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी और फारसी के साथ ही साथ संस्कृत की शिक्षा की व्यवस्था की तथा पं॰ रामानन्द पाठक को अभिभावक शिक्षक नियुक्त किया। पाठक जी काव्यमर्मी एवं रसज्ञ थे। इनके साहचर्य से कविता में रुचि हुई। इन्हीं के उत्साह और प्रेरणा से पद्यरचना करने लगे। संपन्नता और यौवन के संधिकाल में आपका झुकाव संगीत की ओर हुआ और ताल, लय, राग, रागिनी का आपको परिज्ञान हो गया, विशेषत: इसलिए कि वे रसिक व्यक्ति थे और रागरंग में अपने को लिप्त कर सके थे। संवत् 1928 में कलकत्ते से अस्वस्थ होकर आए और लम्बी बीमारी में फँस गए। इसी बीमारी के दौरान में आपकी पं॰ इन्द्र नारायण सांगलू से मैत्री हुई। सांगलू जी शायरी करते थे और अपने मित्रों को शायरी करने के लिए प्रेरित भी करते। इस संगत से नज़्मों और गजलों की ओर रुचि हुई। उर्दू-फारसी का आपको गहरा ज्ञान था ही। अस्तु, इन रचनाओं के लिए "अब्र" (तखल्लुस) उपनाम रखकर गजल, नज्म और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के माध्यम से आपकी भारतेन्दु बाबू, हरिश्चन्द्र से मैत्री का सूत्रपात हुआ। धीरे धीरे यह मैत्री इतनी प्रगाढ़ हुई कि भारतेन्दु जी के रंग में प्रेमघन जी पूर्णतया पग गए, यहाँ तक कि रचनाशक्ति, जीवनपद्धति और वेशभूषा से भी भारतेन्दु जीवन अपना लिया। तथा भारतेंदु जी के निधन पर इन्होंने शोकाश्रुबिन्दु रचना लिखी थी।

वि. सं. 1930 में प्रेमधन जी ने "सद्धर्म सभा" तथा 1931 वि. सं. "रसिक समाज" की मीरजापुर में स्थापना की। संवत् 1933 वि. में "कवि-वचन-सुधा" प्रकाशित हुई जिसमें इनकी कृतियों का प्रकाशन होता। उसका स्मरण चौधरी जी की मीरजापुर की कोठी का धूलिधूसरित नृत्यकक्ष आज भी कराता है। अपने प्रकाशनों की सुविधा के लिए इसी कोठी में आनन्दकादंबिनी मुद्रणालय खोला गया। संवत् 1938 में "आनंदकादंबिनी" नामक मासिक पत्रिका की प्रथम माला प्रकाशित हुई। संवत् 1949 में 'नागरी नीरद' नामक साप्ताहिक का सम्पादन और प्रकाशन आरम्भ किया।

प्रेमधन जी के साथ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का पारिवारिक-सा सम्बन्ध था। शुक्ल जी शहर के रमईपट्टी मुहल्ले में रहते थे और लंडन मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर थे। आनन्द कादंबिनी प्रेस में छपाई भी देख लेते थे। चौधरी बंधुओं की सत्प्रेरणा और साहचर्य से अयोध्यानरेश ने युगप्रसिद्ध छन्दशास्त्र और रसग्रन्थ रसकुसुमाकर की रचना करवाई। रसकुसमाकर की व्याख्याशैली, संकलन, भाव, भाषा, चित्र चित्रण में आज तक इस बेजोड़ ग्रंथ को चुनौती देने में कोई रचना समर्थ नहीं हो सकी है यद्यपि यह ग्रंथ निजी व्यय पर निजी प्रसारण के लिए मुद्रित हुआ था। भारतेन्दु जी की आयु 34 वर्ष की थी। मित्र प्रेमधन जी ने इससे पूरी दूनी आयु पाई यानी 68 वर्ष की अवस्था में फाल्गुन शुक्ल 14, संवत् 1978 को आपकी इहलीला समाप्त हो गई।

प्रेमधन जी आधुनिक हिंदी के आविर्भाव काल में उत्पन्न हुए थे। उनके अनेक समसामयिक थे जिन्होंने हिंदी को हिंदी का रूप देने में सम्पूर्ण योगदान किया। इनमें प्रमुख प्रतापनारायण मिश्र, पण्डित अम्बिकादत्त व्यास, पं॰ सुधाकर द्विवेदी, पं॰ गोविन्दनारायण मिश्र, पं॰ बालकृष्ण भट्ट, ठाकुर जगमोहन सिंह, बाबू राधाकृष्णदास, पं॰ किशोरीलाल गोस्वामी तथा रामकृष्ण वर्मा प्रभृत साहित्यिक थे।

कृतित्व[संपादित करें]

प्रेमघन की रचनाओं का क्रमशः तीन खंडों में विभाजन किया जाता है : 1. प्रबंध काव्य 2. संगीत काव्य 3. स्फुट निबंध। वे कवि ही नहीं उच्च कोटि के गद्यलेखक और नाटककार भी थे। गद्य में निबंध, आलोचना, नाटक, प्रहसन, लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का बड़ी पटुता से निर्वाह किया है। आपकी गद्य रचनाओं में हास परिहास का पुटपाक होता था। कथोपकथन शैली का आपके "दिल्ली दरबार में मित्रमंडली के यार में देहलवी उर्दू का फारसी शब्दों से संयुक्त चुस्त मुहावरेदार भाषा का अच्छा नमूना है। गद्य में खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग (संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द) आलंकारिक योजना के साथ प्रयुक्त हुआ। प्रेमघन की गद्यशैली की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि खड़ी बोली गद्य के वे प्रथम आचार्य थे। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई (रामचंद्र शुक्ल)।

उन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें "भारत सौभाग्य" 1888 में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा गया था।

प्रेमघन का काव्यक्षेत्र विस्तृत था। वे ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थ। प्रेमघन ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया, उनके काव्य से स्पष्ट है। "बेसुरी तान" शीर्षक लेख में आपने भारतेन्दु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन कृतियों का संकलन उनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय ने किया है जिसका "प्रेमघन सर्वस्व" नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में प्रकाशन किया है। प्रेमघन, हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. 1912) मनोनीत हुए थे।

कृतियाँ[संपादित करें]

(1) भारत सौभाग्य (2) प्रयाग रामागमन, संगीत सुधासरोवर, भारत भाग्योदय काव्य।

गद्य पद्य के अलावा आपने लोकगीतात्मक कजली, होली, चैता आदि की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे नमूने हैं और संभवत: आज तक बेजोड़ भी। कजली कादंबिनी में कजलियों का संग्रह है। प्रेमघन जी का स्मरण हिंदी साहित्य के प्रथम उत्थान का स्मरण है।

पत्रिका  : 1881 को मिर्जापुर से 'आनन्द कादम्बनी' इनके द्वारा ही संपादित की गई।