जीनोम परियोजना
जीनोम परियोजना वह वैज्ञानिक परियोजना है, जिसका लक्ष्य किसी प्राणी के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम का पता करना है। जीन हमारे जीवन की कुंजी है। हम वैसे ही दिखते या करते हैं, जो काफी अंश तक हमारे देह में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं। यही नहीं, जीन मानव इतिहास और भविष्य की ओर भी संकेत करते हैं। जीन वैज्ञानिकों का मानना है, कि यदि एक बार मानव जाति के समस्त जीनों की संरचना का पता लग जये, तो मनुष्य की जीन-कुण्डली के आधार पर, उसके जीवन की समस्त जैविक घटनाओं और दैहिक लक्षणों की भविष्यवाणी करना संभव हो जायेगा। यद्यपि यह कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि मानव शरीर में हजारों लाखों जीवित कोशिकएं होतीं हैं। जीनों के इस विशाल समूह को जीनोम कहते हैं। आज से लगभग 136 वर्ष पूर्व, बोहेमियन भिक्षुक ग्रेगर जॉन मेंडल ने मटर के दानों पर किये अपने प्रयोगों[1] को प्रकाशित किया था,[2] जिसमें अनुवांशिकी के अध्ययन का एक नया युग आरंभ हुआ था। इन्हीं लेखों से कालांतर में आनुवांशिकी के नियम बनाए गए। उन्होंने इसमें एक नयी अनुवांशिकीय इकाई का नाम जीन रखा, तथा इसके पृथक होने के नियमों का गठन किया। थॉमस हंट मॉर्गन ने १९१० में ड्रोसोफिला (फलमक्खी) के ऊपर शोधकार्य करते हुए, यह सिद्ध किया, कि जीन गुणसूत्र में, एक सीधी पंक्ति में सजे हुए रहते हैं, तथा कौन सा जीन गुणसूत्र में किस जगह पर है, इसका भी पता लगाया जा सकता है। हर्मन मुलर ने १९२६ में खोज की, कि ड्रोसोफिला के जीन में एक्सरे से अनुवांशिकीय परिवर्तन हो जाता है, जिसे उत्परिवर्तन भी कहते हैं। सन १९४४ में यह प्रमाणित हुआ कि प्रोटीन नहीं, वरन डी एन ए ही जीन होता है। सन १९५३ में वॉटसन और क्रिक ने डी एन ए की संरचना का पता लगाया और बतया, कि यह दो तंतुओं से बना हुआ घुमावदार सीढ़ीनुमा, या दोहरी कुंडलिनी के आकार का होता है।
मानव जीनोम
[संपादित करें]किसी भी प्राणी के संपूर्ण जीनोम पदार्थ को जीनोम कहते हैं। मानव शरीर हजारों-लाखों जीवित कोशिकाओं का बना हुआ है, जिन्हें हम कोशिकाओं के नाम से जानते हैं। प्रत्येक कोशिका इतनी सूक्ष्म होती है, कि हम उसे केवल आंखों से नहीं देख सकते हैं। उसे देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी का सहारा लेना पड़ता है। प्रत्येक कोशिका के अंदर एक केंद्रक होता है। प्रत्येक केन्द्रक के अंदर धागे के आकार की संरचनाएं होती हैं, जिन्हें गुणसूत्र कहते हैं। प्रत्येक केन्द्रक में 46 गुणासूत्र होते हैं। 23 गुणसुत्र पिता से व 23 माता से आते हैं। ये गुणसूत्र प्रोटीन तथा न्यूक्लिक अम्ल से मिलकर बने होते हैं। जिसे डी एन ए कहते हैं। न्यूक्लिक अम्ल की संरचनात्मक इकाई है न्यूक्लियोटाइड। जब एक कोशिका का विभाजन होकर दो कोशिकाएं बनतीं हैं, तब उनका जीनोम भी दुगुना हो जाता है। कोशिका का विभाजन होते समय डी एन ए के दोनों तंतु पृथक हो जाते हैं और प्रत्येक तंतु का एक नया संपूरक तंतु, न्यूक्लियोटाइड पेयरिंग या बेस पेयरिंग के नियम से बनता है। अतः प्रत्येक नयी कोशिका के डी एन ए में एक नया और एक पुराना तंतु होता है। बेस पेयरिंग के नियम के पालन से जो नया तंतु बनता है, वह पुराने तंतु की हूबहू प्रतिलिपि होता है।[3]
डी एन ए संरचना
[संपादित करें]डी एन ए चार मूल बेसों का बना होता है:
एक तंतु का ए दूसरे तंतु के टी के साथ, तथा एक तंतु का सी दूसरे तंतु के जी के साथ ही जुड़ता है। एक डी एन ए का तंतु दूसरे का संपूरक होता है। अतः यदि एक तंतु का अनुक्रम पता हो, तो दूसरे का ज्ञात किया जा सकता है। इन दो तंतुओं के बीच हाइड्रोजन बंध होते हैं, जो दो बेसों को जोड़ते हैं।
डी एन ए के विभिन्न बेस युग्मों का विशिष्ट अनुक्रम जीन कहलाता है। वस्तुतः जीन ही अनुवांशिकता की भौतिक व कायिक (फंक्श्नल) इकाई है। इसी के द्वारा वह सूचना कूटित होती है, जो प्रोटिन संश्लेशण को निर्देशित करती है। ऐसा अनुमान है, कि लगभग एक से डेड़ तक जीन प्रत्येक कोशिका में हैं, जो हमारे शरीर के सभी कार्यों को संपन्न करने में सक्षम हैं। परंतु ऐसे जीन कोशिका में लगभग तीन प्रतिशत ही हैं। शेष 97% डी एन ए जंक या बेकार डी एन ए है, जिसका सही कार्य आज भी ज्ञात नहीं है।
मानव जीनोम परियोजना
[संपादित करें]यह एक अति महत्वाकांक्षी वृहत एवं सर्वाधिक खर्चीली जैववैज्ञानिक परियोजना है। अमरीका के ऊर्जा विभाग (यू एस डी ई) तथा नेशनल इंश्टीट्यूट ऑफ हैल्थ (एन आई एच) की भागीदारी से, सन 1988 में मानव जीनोम परियोजना प्रारंभ हुई। इसका औपचारिक शुभारंभ 1990 में हुआ। कालांतर में इसने विश्वव्यापी रूप धारण किया। अठ्ठारह देशों की लगभग 250 प्रयोगशालाएं इसमें सम्मिलित हैं। इसके मुख्य लक्ष्य हैं:-
- मानव डी एन ए के लगभग एक लाख जीनों की पहचान करना।
- मानव डी एन ए बनाने वाले लगभग तीन अरब बीस करोड़ क्षरकों का निर्धारण करना।
- सूचनाओं को डाटाबेस में संचित करना।
- अधिक तेज और कार्यक्षम अनुक्रमित प्रौद्योगिकी का विकास करना।
- आंकड़ों के विश्लेषण के लिये टूल विकसित करना।
- परियोजना से नैतिक, विधिक व सामाजिक मुद्दों का निराकरण करना।
- इस परियोजना के तीन चरण हैं।
- पहला चरण 1990 में शुरु हुआ। तब इसे पंद्रह वर्षीय परियोजना के रूप में लिया गया था। इसके तहत मनुष्यों के लगभग एक लाख जीनों में विद्यमान तीन अरब क्षार युग्मों का लक्ष्य रखा गया था। प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्य मात्र तीन वर्षों में ही पूरा हो गया।
- दूसरी योजना की कार्यावधि भी 1993-1998 तक रही।
- तीसरी योजना के अंतिम चरण में, क्षार युग्मों का पूरा डाटा बेस तैयार किया जा रहा है।
औसतन मनुष्यों में, प्रत्येक गुणसूत्र में लगभग तेरह करोड़ क्षारक युग्म होते हैं। और पूरे जीनोम में लगभग तीन सौ करोड़ क्षारक युग्म पाये जाते हैं। प्रत्येक कोशिका के गुण सूत्र में, उपस्थित डी एन ए के चार क्षारकों का नुक्रम पता लगाना ही, मानव जीनोम परियोजना का मुख्य उद्देश्य है।
जीनोम को अनुक्रमित करने के लिये सर्व प्रथम डी एन ए की आवश्यकता थी, जिसके लिये मानव दाताओं की सहायता ली गयी। विज्ञापन देकर प्रयोगशाला या केन्द्र के आस-पास लोगों को बुलाया गया। उनके रक्त के नमूने प्राप्त किये गये। नमूने को दाता का नाम मिटाकर एक नंबर दिया गया। इसलिये कि कौन सा नमूना किस व्यक्ति विशेष से लिया गया है, इसका पता ना चल सके। संबंधित प्रयोगशाला, इसमें से नमूने का चयन करती। कोशिकाओं का संवर्धन करने के लिये, इनकी सेल लाइन बनाई गयी, ताकि वे मर ना सकें। अन्ततः इन कोशिकाओं से डी एन ए निकाला गया। डी एन ए के छोटे छोटे टुकडए बनाकर उसे जीवाणु में क्लोनन किया गया। अंत में सारे क्लोनों के अनुक्रमण को कम्प्यूटर की सहायत्रा से क्रमवार लगाकर, जीनोम अनुक्रमण का अंतिम रूप निर्धारित किया गया। जीनोम की संरचना का पता लगाने के लिये उन्नत रोबोटिक मशीनों का उपयोग किया जा रहा है। ये मशीनें प्रति मिनट बारह हज़ार इकाइयों का संसाधन करने में सक्षम हैं। इस परियोजना से प्राप्त होने वाली जानकारी या डाटा की विशाल मात्रा, विज्ञान के क्षेत्र में, एक कीर्तिमान है।
यद्यपि आज हम मनुष्य की संपूर्ण अनुवांशिक कूट संहिता को पढ़ने में सक्षम हो गये हैं, किन्तु यह कार्य उतना सरल नहीं है। शुरु से अंत तक केवल ए टी सी और जी के भिन्न भिन्न अनुक्रम से बनी हुई यह कूट संहिता, यदि लेखी जाये, तो दो सौ से अधिक दूरभाष निर्देशिकाएं भर जायेंगीं।
मानव जीनोम संरचना का उपयोग तभी संभव है, जब हज़ारों जीनों द्वारा निर्मित प्रोटीनों की क्रिया विधि की जानकारी सुलभ हो पाये। जीन में विद्यमान डी एन ए के क्षारों का क्रम प्रोटीन के अमीनो अम्ल का क्रम तय करता है। परियोजना के तहत यह भी पता लगाया जायेगा, कि जीन अपने आप को किस प्रकार व्यक्त करते हैं। यह भी पता कगाया जायेगा, कि मानव जाति के जीनों के बीच इतनी विभिन्नताएं क्यों हैं और कैसे पनपीं। मानव जीनों की संरचनाओं की तुलना, अन्य जीवों की संरचनाओं से भी की जायेगी। डॉ॰फ्रांसिस कोलेंस, जो कि इस मानव परियोजना के अध्यक्ष हैं, का मानना है, कि 2050 तक जीनोमिक्स या जीनोम विज्ञान एक उपयोगी विधा के रूप में स्थापित हो जायेगा।
भारत में मानव जीनोम परियोजना
[संपादित करें]अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही मानव जीनोम परियोजना से भारत भी अछूता नहीं है। सन 1999 में, चेन्नई में आयोजित राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में, जीनोम सम्मिट नाम से एक दिवसीय सत्र आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता जेम्स वॉटसन ने की थी। सत्र में देश के वैज्ञानिकों की राय थी, कि भारत को इस जीनोम युग का लाभ उठाना चाहिये। क्योंकि भारत के पास पर्याप्त अवसर हैं। वस्तुतः भारत अपने जातीय व जनजातीय समुदाय के कारण अनुवांशिकी की जीती जागती विशाल प्रयोगशाला है। एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक पीपल ऑफ इंडिया में बताया गया है, कि भारत में विभिन्न समुदायों की कुल संख्या चार हज़ार छः सौ पैतीस है, जिसमें 75 लुप्तप्राय जनजातियां भी शामिल हैं। भार्त में कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान के वैज्ञानिक, भारत का जीनोग्राफिक मानचित्र बनाने में लगे हुए हैं। अबतक चौदह विभिन्न समुदायों के जीन पहचाने जा चुके हैं। और इनमें सामान्य रोग फैलाने वाले जीनों के वितरण पर अध्ययन किय जा रहा है। भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अनुसार, देश भर में उन्नत अनुसंधान केंद्रों का जाल बिछाया जायेगा। इसका पहला केंद्र बंगलौर में स्थापित करने की योजना है। इसका नाम मानव अनुवांशिकी अनुसंधान केंद्र रखा गया है।
मानव जीनोम परियोजना के अनुप्रयोग
[संपादित करें]इसके कई अनुप्रयोग हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:-
- आयुर्विज्ञान
- डी एन ए द्वारा जाँच
- जोखिम आकलन (रिस्क मैनेजमेंट)
आयुर्विज्ञान
[संपादित करें]जीनोम परियोजना का सर्वाधिक लाभ चिकित्सा क्षेत्र में होगा। पहले किसी रोग से जुड़ी हुई एक जीन की खोज करने में कई वर्ष लग जाते थे, व सैंकड़ों वैज्ञानिकों को इसके लिए प्रयत्न करने पड़ते थे। जीनोम अनुक्रमण की जानकारी से ऐसी जीन के पता लगाने का कार्य अब कुछ महीनों में वैज्ञानिकों का एक छोटा समूह भी कर सकेगा। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जीनोम अनुक्रमण के प्रत्यक्ष उपयोग से अब तक तीस रोगों के जीनों का पता लग चुका है। इसमें टार-साक्स सिंड्रोम, सिस्टिक्स फाइब्रॉरिस, हैरिंगटन रोग आदि प्रमुख हैं। इस आण्विक चिकित्सा से निम्न उद्देश्यों की प्राप्ति होगी:-
- रोगों की उच्च जाँच
- अनुवांशिक रोगों का पूर्व आकलन
- जीन चिकित्सा पद्धति एवं औषध नियंत्रण के तरीके
- जिज्ञासा जनित औषध निर्माण आरेख
डी एन ए द्वारा जाँच
[संपादित करें]मानव जीनोम परियोजना से प्राप्त डाटा बेस के आधार पर विशिष्ट मामलों में व्यक्ति की पहचान सरल एवं तीव्र गति से संभव होगी। ऐसा उन मामलों में लाभदायक सिद्ध हो सकता है, जहां संदिग्ध अपराधी को उसके डी एन ए के आधार पर पकड़ा जा सकता है। यह भिन्नता एवं पारिवारिक संबंधों के मामलों में भी सहायक सिद्ध हो सकता है। तथा इससे अपराधों में लिप्त व्यक्ति को पकड़ने में पैतृक झगड़ों व पारिवारिक मामलों को सुलझाने में भी सहायता मिलेगी। इनसे ऐसे सूक्ष्म जीवों व अन्य जीवों की पहचान में सहायता मिलेगी, जो कि वायु, मृदा प्रदूषण के कारक व निवारक हैं।
जोखिम आकलन
[संपादित करें]इसके द्वारा स्वास्थ्य संबंधी खतरे व नुकसान का विशेषतः कम मात्रा में परंतु दीर्घकालीन विकिरण आपावस्था में स्वास्थ्य पर पड़े प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उत्परिवर्तजनी रासायनों व कैंसर उत्पन्न करने वाले विषाक्त कारकों का (कार्सेनोजेनिक) स्वास्थ्य पर प्रभाव देखा जा सकता है। आज से लगभग सौ साल बाद चिकित्सा का स्वरूप क्या होगा? निरंतर प्रगति कर रहे जैवप्रौद्योगिकी को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है, कि जो आज असंभव है, वह कल की औषध व निदान की वास्तविकता बन जायेगी।
विवाद
[संपादित करें]मानव जीनोम की गुत्थी सुलझाने वाले सरकारी और निजी वैज्ञानिक आपसी मतभेदों को अभी तक सुलझा नहीं पाए हैं जिससे उनके परस्पर सहयोग में बाधाएं आ रही हैं।[4]
मानव जीवन की किताब को पढ़ने की यह परियोजना कई बार विवादों और आरोप-प्रत्यारोपों के घेरे में फंसती रही है। यहां तक कि मानव डीएनए की संरचना का प्रकाशन भी दो अलग-अलग विज्ञान पत्रिकाओं में करना पड़ा क्योंकि आंकड़ों को लेकर भारी विवाद था।
इस परियोजना उपरांत
[संपादित करें]मानव जीनोम द्वारा एक लाख से डेड़ लाख तक बनने वाले प्रोटीनों के कार्यों का पता लगाने से निम्नांकित समस्याओं का निदान संभव हो जाएगा:
- एक कोशिका से किस प्रकार संपूर्ण मानव बनता है
- मस्तिष्क किस प्रकार कार्य करता है
- एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से इतना भिन्न क्यों है
- किस खास जीन की विभिन्नता और विशेष वातावरण के प्रभाव से विभिन्न लोगों में विभिन्न रोगों के होने की आशंका बढ़ जाती है
मानव जीनोम का पूरा होना हमारे लिए उस पुस्तकालय के प्रवेशद्वार पर पहुंचने के समान है, जिसकी विभिन्न पुस्तकों में तीन सौ करोड़ अक्षर बिखरे पड़े हैं। इन पुस्तकों को पढ़ने के लिए सर्वप्रथम हमें उन अक्षरों को मिलाकर शब्दों को पहचानना होगा, अल्प विराम, अर्ध विराम व पूर्ण विराम लगाकर वाक्य बनाने होंगे, अर्थात जीनों का पता लगाना होगा। दूसरा महत्वपूर्ण कदम होगा, सभी जीनों के कार्यों का पता लगाना। अभी तक मुश्किल से एक हज़ार जीन के कार्यों का पता लगाया जा चुका है। तीसरा कदम है, उस 97% जंक डी एन ए के कार्य का पता लगाना।
जैव सूचना विज्ञान
[संपादित करें]बायोइंफॉर्मैटिक्स या जैव सूचना विज्ञान, जीव विज्ञान का एक नया क्षेत्र है, जिसके अन्तर्गत जैव सूचना का अर्जन, भंडारन, संसाधन, विश्लेषण, वितरण, व्याख्याआदि कार्य आते हैं। इस कार्य में जीव विज्ञान सूचना तकनीक तथा गणित की तकनीकें उपयोग में लाई जातीं हैं।
- अपेक्षित साधन
बायोइन्फॉर्मैटिक्स में निम्न साधन अपेक्षित हैं:
- कम्प्यूटर एवं अन्य हार्ड्वेयर
- इंटरनेट कनेक्शन
- वर्ल्ड-वाइड-वेब
- डाटाबेस
- उपयुक्त सॉफ्टवेयर
प्रोटियोमिक्स
[संपादित करें]मानव शरीर में अनेक प्रकार के प्रोटीन होते हैं। प्रोटीनों में अमीनो अम्लों की लम्बी शृंखलाएं होतीं हैं, तथा वे २० विभिन्न अमीनो अम्लों द्वारा निर्मित होतीं हैं। प्रत्येक अमीनो अम्ल के रासायनिक गुण भिन्न होते हैं, तथा उनका विभिन्न प्रोटीनों में होने वाला अनुक्रम भी भिन्न होता है। इसके कारण प्रत्येक प्रोटीन एक विशेष रूप से संरचित होता है और यह संरचना उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य के लिए हर प्रकार से उपयुक्त होती है। प्रोटीण किसी जीव की जीवन क्षमता और कोशिकीय क्रियाविधि के लिए सीधे सीधे उत्तरदायी होते हैं।
प्रोटीनोमिक्स एक ऐसा विज्ञान है, जिससे हम मानव शरीर की कोशिका में पाए जाने वालेप्रोटीनों की विभिन्न अवस्थाओं में, एक ही समय में, तथातीव्र गति से विश्लेषण कर सकते हैं। और इससे कोशिका में प्रोटीनों की अंतःस्थिओति का मानचित्र तैयार कर सकते हैं।
संरचना जीनोमिक्स
[संपादित करें]अंग्रेज़ी में इसे स्ट्रक्चरल जीनोमिक्स कहते हैं। जीनोम अनुक्रमण परियोजनाओं की सफलता तथा प्रोटीन संरचनाओं को सुलझाने के अनेक प्रयासों ने संरचना जैव वैज्ञानिकों को संरचना जीनोमिक्स के विकास के लिए प्रोत्साहित किया है। यह क्षेत्र भी विस्तृत रूप से विकसित हो गया है, जिसके अन्तर्गत मानव के सभी प्रोटीनों की संरचना की गुत्थी सुलझाने का प्रयोजन है।
प्रोटीन ही हर जीव की संरचना करते हैं। केवल यही नहीं, पाचन रोग अवरोधन, शारिरिक रासायनिक्जैसी सभी गतिविधियों का निर्धारण भी करते हैं। संक्षेप में हर प्राणी का प्राण प्रोटीन ही है। यही प्रोटीन किसी गलत तरीके से वलित हो या उसके कुछ अंश लुप्त हों तो रोगोत्पत्ति की संभावना रहती है। इसको जानने के लिए प्रोटीन संरचना का ज्ञान होना आवश्यक है।
डी एन ए अंगुल छापन
[संपादित करें]मानव की पहचान उसके गुणों तथा नाम से की जाती है। दो व्यक्ति सभी गुणों में समान नहीं होते। जुडअवां भी चाहे कितने भी समान क्यों ना हों, फिर भी उनमें भिन्नता पायीं जातीं हैं। त्वचा का रंग, बालों का रंग, आंखों की पुतलियों का रंग, लंबाई, आवाज़, चलने, उठने बैठने का ढंग, बात करने का तरीका, रहन-सहन आदि ऐसे लक्षण हैं, जिनसे मनुष्यों में अंतर और पहचान की जा सकती है।
मानव की व्यक्तिगत पहचान और अंतर को कानूनी रूप देने की आवश्यकता पड़ी। प्रत्येक मानव के अंगुलियों के निशान भिन्न होते हैं। उनमें उभार भिन्न स्थानों पर होते हैं। इस कारण जो चित्र बनता है, उसे अंगुल छाप या फिंगर प्रिंट कहते हैं। वस्तुतः यह कानूनी रूप से मानव की पहचान का तरीका है, जो बहुत पहले फ्रांसिस-गॉल्टन ने निकाला था और आज भी प्रचलित है। यह प्रकृति की देन है।
जीवन सूत्र यानि डी एन ए संसार के सभी जीवधारियों में, मानवों की तरह वंशानुक्रम पर आधारित होता है। यह किसी भी जीव की हर सूक्ष्म इकाई में पाया जाता है। अपने जैविक माता-पिता से प्राप्त इस जीवन सूत्र में छिपी हुई सूक्ष्म विभिन्नताओं के आधार पर प्रत्येक जीव को किसी भी अन्य जीव से अलग पहचाना जा सकता है।
उपयोग
[संपादित करें]डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग एक नूतन एवं सशक्त तकनीक है, जो निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रयोग में लायी जा सकती है:-
- अपराधों एवं पारिवारिक मामलों की जाँच,
- प्रतिरक्षा प्रलेख,
- आयुर्विज्ञान एवं स्वास्थ्य जाँच,
- वंशावली विश्लेषण
- कृषि एवं बागवानी,
- शोध एवं उद्योग।
भारत में डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग
[संपादित करें]1988 में भारत में हैदराबाद में स्थित कोशिकीय व आण्विक जीवविज्ञान केंद्र (सी सी एम बी) के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ॰ लाल जी सिंह के शोध समूह ने इस विधि के लिये बी.के.एम. (ब्रैंडेड क्रेट माइनर) नामक रोग को विकसित किया। इस प्रकार डॉ॰लाल जी सिंह के प्रयासों से आज भारत विश्व का तीसरा देश है, जहां पूर्णतया स्वदेशी डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग प्रोब को विकसित किया गया है।
अपराधों एवं पारिवारिक मामलों की जाँच
[संपादित करें]डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग के द्वारा रक्त वीर्य, बाल, विक्षत मृत शरीर के अवशेष, दांत या हड्डी के टुकड़े आदि के माध्यम से वैयक्तिक स्तर पर सकारात्मक पहचान की जा सकती है। अतः यह विधि हत्या, बलात्कार, अमानुशःइक कृत्यों तथा जघन्य अपराधों, प्रवस-पत्र प्राप्ति, सम्पत्ति उत्तराधिकार, विवाह विच्छेद एवं दीवानी मुकदमों में माता-पिता की सकारात्मक पहचान इत्यादि मामलों में अत्यंत आवश्यक मानी जाने लगी है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में माता-पिता –दोनों ही के डी एन ए होते हैं, अतः डी एन ए की छाप के आधार पर इस बात की पुष्टि की जा सकती है।
फॉरेंसिक जैव प्रौद्योगिकी अभी एक नया क्षेत्र है, जो जंगलों में होने वाले अपराधों को सुलझाएन के लिये एक हथियार की तरह प्रयोग किया जा सकता है। भारतीय न्याय व्यवस्था ने डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग को ठोस साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया है। मृतक के शरीर के बिखरे हुए टुकड़ों की पहचान करने के लिये भी इस तकनीक का प्रयोग किया गया है। पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गाँधी एवं पंजाब के पूर्व मुख्य मंत्री बेअंत सिंह के लिये इसी तकनीक का उपयोग हुआ था। इनके अतिरिक्त अनेक अपराधों के मामले इस तकनीक द्वारा सुलझाए गए हैं।
प्रतिरक्षा प्रलेख में
[संपादित करें]प्रतिरक्षा कर्मियों के जीवन सूत्र पैच्छेदिका में संकलित व्यक्ति विशेष क्रमादेशों की दुर्घटनाओं –जैसे युद्ध काल, या जहाज नष्ट होने के समय मृत रक्षाकर्मियों के शरीर के अवशेषों से डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग द्वारा प्राप्त क्रमादेशों की तुलना रक्षाकर्मियों की पहचान के लिये एक बहुत ही अर्थपूर्ण विधि सिद्ध हो सकती है।
आयुर्विज्ञान एवं स्वास्थ्य जाँच
[संपादित करें]गर्भ-धारण से पूर्व या गर्भ के दौरान ही, इस विधि द्वारा आनिवांशिक रोगों एवं अंतर्जात त्रुटियों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है और इन विकारों की आवृत्ति को एक सीमा तक नियंत्रित करके समस्त मानव जाति की इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
वंशावली विश्लेषण
[संपादित करें]डी एन ए फिंगर प्रिंट
कृषि एवं बागवानी
[संपादित करें]कृषि एवं बागवानी के क्षेत्र में बीजों की सही जाति का परीक्षण डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग के द्वारा किया जा सकता है। यह अधिक उत्तम और वांछित जातियों के विकास में सहायक सिद्ध हो सकता है। यह विधि एक ही प्रकार के नर या मादा पौधों के चयन में सहायक सिद्ध हो सकती है। जैसे अमरूद, खजूर आदि, जिनमें मादा पौधे ही वांछित हैं, तथा लिंग का पता एक लंबे समय के बाद ही चलता है। ऐसे मामलों में इस विधि का प्रयोग करके समय, श्रम एवं धन की बचत की जा सकती है।
शोध एवं उद्योग।
[संपादित करें]डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग विधि द्वारा कोशिका की मौलिकता प्रमाणित कर अन्यान्य शोध कार्यों में प्रयुक्त करके शोध एवं उद्योग, या उद्योग मात्र –दोनों क्षेत्रों में उन्नति की अपेक्षा की जा सकती है। जब डी एन ए के बहुत से भागों का अध्ययन एक ही साथ किया जाता है, तो वह डी एन ए फिंगर प्रिटिंग कहलाता है, तथा जब डी एन ए के एक ही भाग का परीक्षण किया जाता है, तो उसे डी एन ए टाइपिंग कहते हैं। जितने अधिक भागों को एक साथ जाँचा जाता है, फिंगर प्रिंट की विश्वसनीयता उतनी ही बढ़ जाती है।
स्टेम कोशिका
[संपादित करें]क्लोनन के साथ जैव प्रौद्योगिकी ने एक और क्षेत्र को जन्म दिया है, जिसका नाम है –कोशिका चिकित्सा। इसके अंतर्गत ऐसी कोशिकाओं का अध्ययन किया जाता है, जिसमें वृद्धि, विभाजन और विभेदन कर नए ऊतक बनाने की क्षमता हो। सर्वप्रथम रक्त बनाने वाले ऊतकों से इस चिकित्सा का विचार व प्रयोग शूरु हुआ था। अस्थि-मज्जा से प्राप्त ये कोशिकाएं, आजीवन शरीर में रक्त का उत्पादन करतीं हैं और कैंसर आदि रोगों में इनका प्रत्यारोपण कर पूरी रक्त प्रणाली को, पुनर्संचित किया जा सकता है। ऐसी कोशिकाओं को स्टेम कोशिका या स्टेम सेल कहते हैं।
हृदय रोग तथा मधुमेह के निदान में, विभेदित कोशिकाओं का बड़ा महत्व है। न्यूरोलॉजिकल रोगों में भी विशेषतः तंत्रिकाओं का प्रत्यारोपण इनकी अवस्थाओं में सुधार लाने की क्षमता रखता है। क्षतिग्रस्त अंगों की मरम्मत भी इनसे की जा सकती है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- मलेरिया का मानव जीनोम पर प्रभाव
- आनुवांशिक कोड पढ़ने की विधि
- मानवनुमा (Hominid)
- बोनोबो
- मनुष्य
- आस्ट्रेलोपिथिक्स
- गोरिल्ला
- ओरंगउटान
- चिंपैंजी
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ ग्रेगोर मैन्डल (1865). "एक्स्पैरिमेंट्स इन द प्लांट हाइब्रिडाइज़ेशन". मूल से 13 जनवरी 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 नवंबर 2008.
- ↑ हेनिग, रॉबिन मैरान्ट्ज़ (2000). थे माँक इन द गार्डन: द लॉस्ट एण्ड फाउण्ड जीनियस ऑफ ग्रेगोर जॉन मैन्डल, द फादर ऑ जैनेटिक्स. हॉफ्टन मिफ्लिन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-395-97765-7.
The article, written by a monk named Gregor Mendel...
- ↑ "मानव जीनोम परियोजना सूचना". मूल से 15 मार्च 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 अक्तूबर 2008.
- ↑ "बीबीसी हिन्दी पर जीनोम पर वाद-विवाद". मूल से 10 अप्रैल 2005 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 अक्तूबर 2008.
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- GOLD:जीनोमिक्स ऑनलाइन डाटाबेस
- जीनोम परियोजना डाटाबेस
- BFAB नए एन्नोनेशन तरीके विकरित करने हेतु मार्गदर्शन
- FUNAT वीवाण्विक श्रेणियों का स्वचालित प्रकार्यशील एनोनेशन जो MIPS फनकैट श्रेणियों के अनुसार
- SEED SEED डाटाबेस, जीनोम एनोनेशन हेतु एक मुक्त स्रोत
- IMG एकीकृत सूक्ष्मजैविक जीनोम प्रणाली
- IMG/M एकीकृत सूक्ष्मजैविक जीनोम प्रणाली, DOE-JGI द्वारा मेटा झीनोम एनालसिस हेतु
- CAMERA मेटाजीनोमिक्स हेतु सायबर मूलावसंरचना, मेटाजीनोमिक्स शोध हेतु डाटा रिपोज़ीटरी एवं जैवसूचना उपकरण
- PUMA2 जीनोम एवं उपपाचयिक पुनर्निर्माण के तुलनात्मक एनालिसिस हेतु एकीकृत ग्रिड धारित प्रणाली
- SUPERFAMILY सभी सीक्वेंस्ड जीवों के लिए, प्रोटीन सुपरफैमिली एवं फैमिली एनोनेशन डाटाबेस
- SIMAP प्रोटीन वितरित कम्प्यूटिंग परियोजना की सिमिलैरिटी मैट्रिक्स
- GDB मानव जीनोम डाटाबेस