मलेरिया का मानव जीनोम पर प्रभाव
मलेरिया हाल के इतिहास में मानव जीनोम पर सबसे अधिक प्रभाव डालने वाला रोग रहा है। इसी कारण मलेरिया से बड़ी मात्रा में लोगों की मृत्यु होती है| यह मानव जीनोम पर अनेक प्रकार से प्रभाव डालता है।
हंसिया-कोशिका रोग
[संपादित करें]मानव जीनोम पर मलेरिया के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन किया गया है हंसिया-कोशिका रोग के संबंध में। इस रोग में हीमोग्लोबिन के बीटा-ग्लोबिन खंड को बनाने वाली जीन एच.बी.बी. मे उत्परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतया बीटा ग्लोबिन प्रोटीन के छठे स्थान पर एक ग्लूटामेट अमीनो अम्ल होता है, जबकि हंसिया-कोशिका रोग में इसकी जगह वैलीन अम्ल आ जाता है। इस बदलाव से एक जलसह अमीनो अम्ल के स्थान पर जल-विरोधी अम्ल आ जाता है जिससे हीमोग्लोबिन के अणु परस्पर बंध जाने को प्रोत्साहित होते हैं। हीमोग्लोबिन अणुओं की लड़ियाँ बन जाने से विकृत लाल रक्त कोशिका हंसिया का आकार ग्रहण कर लेती हैं। इस तरह से विकृत हुई रक्त कोशिकाएँ रक्त से हटा ली जाती हैं और विनष्ट कर दी जाती हैं, मुख्यतया तिल्ली में।
मलेरिया परजीवी जब अपनी अंशाणु अवस्था में लाल रक्त कोशिका में रहता है तो अपने उपाचय से ये लाल रक्त कोशिका की आंतरिक रसायन संरचना बदल देता है। ये कोशिकाएं तब तक बची रहती है जब तक परजीवी बहुगुणित नहीं होते, किंतु यदि लाल रक्त कोशिका में हंसिया तथा सामान्य प्रकार का हीमोग्लोबिन मिले जुले रूप में होता है तो यह विकृत रूप ले लेती है तथा परजीवी का प्रजनन होने के पहले ही नष्ट कर दी जाती है। इस प्रकार जिन लोगों में हंसिया-कोशिका की केवल एक जीन होती है, उनमें सीमित मात्रा में हंसिया-कोशिका रोग के रहते वे हल्के एनीमिया से तो ग्रस्त रहते हैं किंतु उन्हें अधिक घातक रोग मलेरिया से बहुत बेहतर स्तर का प्रतिरोध मिल जाता है।
जिन लोगों में पूर्णतया विकसित हंसिया-कोशिका रोग होता है वे साधारणतया युवा अवस्था से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। जिन क्षेत्रों में मलेरिया महामारी रूप में फैलता है वहाँ लगभग 10% लोगों में हंसिया-कोशिका जीन पाई जाती है। इस प्रकार के हीमोग्लोबिन के चार उपप्रकार जनसंख्या में मिलने से लगता है कि मलेरिया से बचने हेतु 4 बार अलग-अलग समय में हीमोग्लोबिन में उत्परिवर्तन हुआ था। इसके अलावा एच.बी.बी. जीन के अन्य उत्परिवर्तित रूप भी हैं जो मलेरिया के प्रति प्रतिरोधक क्षमता देते हैं। इनके प्रभाव से एच.बी.ई. तथा एच.बी.सी. प्रकार का हीमोग्लोबिन पैदा होता है जो कि क्रमशः दक्षिण पूर्व एशिया तथा पश्चिमी अफ्रीका में मिलता है।
थैलैसीमिया
[संपादित करें]मलेरिया द्वारा जो अन्य उत्परिवर्तन मानव जीनोम में हुए हैं उनमें थैलैसीमिया नामक रक्त रोग भी प्रमुख है। सार्डीनिया तथा पापुआ न्यू गिनी में किये अध्ययन बताते हैं कि बीटा-थैलैसीमिया नामक जीन के वितरण का सीधा संबंध मलेरिया से पीड़ित होने की दर से होता है। लाइबेरिया में किया गया अध्ययन बताता है कि जिन बच्चों मे बीटा-थैलैसीमिया नामक जीन मौजूद था उनमे मलेरिया होने की संभावना 50% कम थी। इसी प्रकार एल्फा धनात्मक प्रकार के एल्फा-थैलैसीमिया मामलों में भी मलेरिया की दर कम पायी जाती है। संभवत ये सभी जीन मानव विकास के दौरान मलेरिया से प्रतिरोधक क्षमता देने के कारण चयनित हुई हैं।
डफ़ी एंटीजन
[संपादित करें]डफ़ी एंटीजन वे एंटीजन होते है जो लाल रक्त कोशिका तथा शरीर की अन्य कोशिकाओं पर कीमोकाइन ग्राहक के रूप में काम करते हैं। इनकी अभिव्यक्ति एफ.वाई. जीन के द्वारा होती है। पी. विवैक्स मलेरिया रक्त कोशिका में प्रवेश करने हेतु डफी एंटीजन का प्रयोग करता है। किंतु यदि यह मौजूद ही न हो तो पी. विवैक्स से पूर्ण सुरक्षा मिल जाती है। यह जीनप्रकार यूरोप, एशिया या अमेरिका की आबादियों मे बहुत कम नजर आता है, किंतु पश्चिमी तथा केन्द्रीय अफ्रीका की समस्त मूल निवासी आबादी में नजर आता है।[1] माना जाता है कि इसका कारण है इस क्षेत्र में कई हजार वर्षो से पी. विवैक्स बहुत ज्यादा फैला रहा है।
ग्लूकोज़ 6 फ़ॉस्फ़ेट डीहाइड्रोजनेज़ (अंग्रेजी: glucose-6-phosphate dehydrogenase, जी6पीडी) एक प्रकार का किण्वक (अंग्रेजी: enzyme, एंज़ाइम) है जो लाल रक्त कोशिका को आक्सीकारक दबाव से बचाता है। इस किण्वक के अभाव से भी गंभीर मलेरिया से सुरक्षा मिल जाती है।
एचएलए तथा इंटरल्यूकिन-4
[संपादित करें]एचएलए बी 53 की मौजूदगी से गंभीर मलेरिया की संभावना कम हो जाती है। यह एमएचसी श्रेणी 1 का अणु टी-कोशिकाओं को यकृत की संक्रमित कोशिकाओं और बीजाणुओं के एंटीजन दर्शाता है, जिससे टी-कोशिकाएँ इनके विनाश में सहायक होती हैं। क्रियाशील टी-कोशिकाएँ फिर इंटरल्यूकिन-4 का निर्माण करती हैं, जिसकी सहायता से बी-कोशिकाएँ प्रजनन करके और विविधता प्राप्त करके एंटीबॉडी पैदा करती हैं। बुर्किना फासो के फुलानी समुदाय में मलेरिया के मामले बहुत कम होते हैं, इनका अध्ययन करने पर पता चला कि पड़ोसी समुदायों की तुलना में उनमें कहीं ज्यादा आईएल4-524 जीन मौजूद है जिसका सीधा संबंध है रक्त में एंटीबॉडी की अधिक मात्रा से। यह मलेरिया एंटीजन के विरूद्ध काम करती है और इस के चलते मलेरिया के प्रति प्रतिरोध बढ़ जाता है।[2]
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Carter R, Mendis KN (2002). "Evolutionary and historical aspects of the burden of malaria". Clin. Microbiol. Rev. 15 (4): 564–94. PMID 12364370. डीओआइ:10.1128/CMR.15.4.564-594.2002. मूल से 16 जनवरी 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 अक्तूबर 2008.
- ↑ Verra F, Luoni G, Calissano C, Troye-Blomberg M, Perlmann P, Perlmann H, Arcà B, Sirima B, Konaté A, Coluzzi M, Kwiatkowski D, Modiano D (2004). "IL4-589C/T polymorphism and IgE levels in severe malaria". Acta Trop. 90 (2): 205–9. PMID 15177147. डीओआइ:10.1016/j.actatropica.2003.11.014.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)