बोधगया
बोधगया, बिहार का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है जहां गौतम बुद्ध ने अपने बोध की प्राप्ति की थी। यह स्थान बौद्ध धर्म के लिए पवित्र माना जाता है और यहां के महाबोधि मंदिर ने एक महत्वपूर्ण धार्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में पहचान प्राप्त की है। यह स्थान बौद्ध यात्रा का महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और भूतपूर्व में मागध नामक राज्य की राजधानी था।[1]
बोधगया Bodh Gaya | |
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महाबोधि मंदिर | |
निर्देशांक: 24°41′42″N 84°59′28″E / 24.695°N 84.991°Eनिर्देशांक: 24°41′42″N 84°59′28″E / 24.695°N 84.991°E | |
ज़िला | गया ज़िला |
प्रान्त | बिहार |
देश | भारत |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 38,439 |
भाषा | |
• प्रचलित | हिन्दी, मगही |
बोधगया (Bodh Gaya) बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है, जिसका गहरा ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। यहाँ भगवान बुद्ध को बोधि वृक्ष के तले ज्ञान प्राप्त हुआ था। बोध गया में प्रति वर्ष प्रबुद्ध सोसाइटी द्बारा ज्ञान एवं सम्मान समारोह किया जाता है ! बोधगया राष्ट्रीय राजमार्ग 83 पर स्थित है।[2][3]
यहाँ, 2500 साल पहले, युवा राजकुमार सिद्धार्थ गौतम को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था, जिससे उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा।
विवरण
[संपादित करें]बिहार की राजधानी पटना के दक्षिणपूर्व में लगभग 101 किलोमीटर दूर स्थित बोधगया गया जिले से सटा एक छोटा शहर है। बोधगया में बोधि पेड़़ के नीचे तपस्या कर रहे भगवान गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तभी से यह स्थल बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। वर्ष २००२ में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया।
इतिहास
[संपादित करें]करीब ५०० ई॰पू. में गौतम बुद्ध फाल्गु नदी के तट पर पहुंचे और बोधि पेड़ के नीचे तपस्या कर्ने बैठे। तीन दिन और रात के तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिस्के बाद से वे बुद्ध के नाम से जाने गए। इसके बाद उन्होंने वहां ७ हफ्ते अलग अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जा कर धर्म का प्रचार शुरू किया। बुद्ध के अनुयायिओं ने बाद में उस जगह पर जाना शुरू किया जहां बुद्ध ने वैशाख महीने में पुर्णिमा के दिन ज्ञान की प्रप्ति की थी। धीरे धीरे ये जगह बोध्गया के नाम से जाना गया और ये दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया।
लगभग 528 ई॰ पू. के वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया। गौतम ज्ञान की खोज में निरंजना नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव उरुवेला आ गए। वह इसी गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे। एक दिन वह ध्यान में लीन थे कि गांव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई। इस भोजन को करने के बाद गौतम पुन: ध्यान में लीन हो गए। इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छट गया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ित हुई। अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्वी गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे। बुद्ध जिसे सारी दुनिया को ज्ञान प्रदान करना था। ज्ञान प्राप्ित के बाद वे अगले सात सप्ताह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहां उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्ित की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद उरुवेला का नाम इतिहास के पन्नों में खो जाता है। इसके बाद यह गांव सम्बोधि, वैजरसना या महाबोधि नामों से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख 18 वीं शताब्दी से मिलने लगता है।
विश्वास किया जाता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध की मूर्त्ति संबंध स्वयं बुद्ध से है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो इसमें बुद्ध की एक मूर्त्ति स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया था। लेकिन लंबे समय तक किसी ऐसे शिल्पकार को खोजा नहीं जा सका जो बुद्ध की आकर्षक मूर्त्ति बना सके। सहसा एक दिन एक व्यक्ित आया और उसे मूर्त्ति बनाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन इसके लिए उसने कुछ शर्त्तें भी रखीं। उसकी शर्त्त थी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ तथा एक लैम्प दिया जाए। उसकी एक और शर्त्त यह भी थी इसके लिए उसे छ: महीने का समय दिया जाए तथा समय से पहले कोई मंदिर का दरवाजा न खोले। सभी शर्त्तें मान ली गई लेकिन व्यग्र गांववासियों ने तय समय से चार दिन पहले ही मंदिर के दरवाजे को खोल दिया। मंदिर के अंदर एक बहुत ही सुंदर मूर्त्ति थी जिसका हर अंग आकर्षक था सिवाय छाती के। मूर्त्ति का छाती वाला भाग अभी पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर रहने लगा। एक बार बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही मूर्त्ति का निर्माण किया था। बुद्ध की यह मूर्त्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्त्ति है। नालन्दा और विक्रमशिला के मंदिरों में भी इसी मूर्त्ति की प्रतिकृति को स्थापित किया गया है।
बोधगया को बौद्ध धर्म में सबसे पवित्र स्थल माना जाता है।[4] बुद्ध के समय में इसे उरुवेला के नाम से जाना जाता था, यह लीलाजन नदी के किनारे स्थित है। इस स्थल पर पहला मंदिर मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था।[5]
महाबोधि विहार बोधगया (उरुवेला) में उस स्थान पर मुख्य बौद्ध मंदिर को संदर्भित करता है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। विहार में प्रसिद्ध बोधि वृक्ष (फ़िकस रिलिजियोसा या पीपल का पेड़) और वज्रासन (हीरा सिंहासन) शामिल हैं। मूल मंदिर तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित रेलिंग वाले वृक्ष मंदिर (बोधि-घर) के रूप में मौजूद था। इसका सबसे पहला चित्रण भरहुत और साँची स्तूप की नक्काशियों पर मिलता है। सम्राट अशोक ने ध्यान आसन के सटीक स्थान को चिह्नित करने के लिए तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां रेलिंग के साथ एक लाल बलुआ पत्थर की संरचना बनवाई थी।[6] बोधगया में पाए गए चीनी और बर्मी शिलालेख स्पष्ट रूप से बुद्धगया मंदिर को 84,000 मंदिरों में से एक मानते हैं, जिनके बारे में उन अभिलेखों में कहा गया है कि इसे राजा धर्मशोक(सम्राट अशोक) ने बनवाया था आगे विवरण है की जो जम्बूद्वीप के शासक, बुद्ध के निर्वाण के दो सौ अठारह वर्ष बाद पैदा हुवे।[7]
महाबोधि मन्दिर
[संपादित करें]बिहार में इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है। इस गांव के लोगों की किस्मत उस दिन बदल गई जिस दिन एक राजकुमार ने सत्य की खोज के लिए अपने राजसिहासन को ठुकरा दिया। बुद्ध के ज्ञान की यह भूमि आज बौद्धों के सबसे बड़े तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। आज विश्व के हर धर्म के लोग यहां घूमने आते हैं। पक्षियों की चहचहाट के बीच बुद्धम्-शरनम्-गच्छामि की हल्की ध्वनि अनोखी शांति प्रदान करती है। यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर महाबोधि मंदिर है। विभिन्न धर्म तथा सम्प्रदाय के व्यक्ित इस मंदिर में आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। इस मंदिर को यूनेस्को ने २००२ में वर्ल्ड हेरिटेज साइट घोषित किया था। बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के २५० साल बाद राजा अशोक बोध्गया गए। माना जाता है कि उन्होंने महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पह्ली शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण कराया गया या उस्की मरम्मत कराई गई। हिन्दुस्तान में बौद्ध धर्म के पतन के साथ साथ इस मन्दिर को लोग भूल गए थे और ये मन्दिर धूल और मिट्टी में दब गया था। १९वीं सदी में अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई। १८८३ में उन्होंने इस जगह की खुदाई की और काफी मरम्मत के बाद बोधगया को अपने पुराने शानदार अवस्था में लाया गया।
मुख्य आकर्षण
[संपादित करें]बोध-गया घूमने के लिए दो दिन का समय पर्याप्त है। अगर आप एक रात वहां रूकते हैं तो एक दिन का समय भी प्रर्याप्त है। बोध-गया के पास ही एक शहर है गया। यहां भी कुछ पवित्र मंदिर हैं जिसे जरुर देखना चाहिए। इन दोनों गया को देखने के लिए कम से कम एक-एक दिन का समय देना चाहिए। एक अतिरिक्त एक दिन नालन्दा और राजगीर को देखने के लिए रखना चाहिए। बोधगया घूमने का सबसे बढिया समय बुद्ध जयंती (अप्रैल-मई) है जिसे राजकुमार सिद्धार्थ के जंमदिवस के रूप में मनाया जाता है। इस समय यहां होटलों में कमरा मिलना काफी मुश्किल होता है। इस दौरान महाबोधि मंदिर को हजारों कैंडिलों की सहायता से सजाया जाता है। यह दृश्य देखना अपने आप में अनोखा अनुभव होता है। इस दृश्य की यादें आपके जेहन में हमेशा बसी रहती है। बोधगया में ही मगध विश्वविद्यालय का कैंपस है। इसके नजदीक एक सैनिक छावनी है तथा करीब सात किलोमीटर दूर अन्तरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है जहाँ से थाईलैंड, श्रीलंका बर्मा इत्यादि के लिए नियमित साप्ताहिक उड़ानें उपलब्ध हैं।
महाबोधि-महावीर-मंदिर समूह
[संपादित करें]महाबोधि मंदिर
[संपादित करें]यह मंदिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।
इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। यह मूर्त्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है। इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।
मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।
महाबोधि मंदिर के पश्चिमोत्तर भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।
माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ित के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूर्त्ति स्थापित है। इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की।
इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रूप में बुद्धमं शरणम गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हू) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।
तिब्बतियन मठ
[संपादित करें](महाबोधि मंदिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) जोकि बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है 1934 ई॰ में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई॰ में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। इससे सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि मंदिर परिसर से 1किलोमीटर पश्िचम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिण-पश्िचम में स्थित) का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस मंदिर का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी मंदिरों के आधार पर किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्िचम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई॰ में हुआ था। इस मंदिर में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1997 ई॰ किया गया था। जापानी मंदिर के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना मंदिर वियतनामी मंदिर है। यह मंदिर महाबोधि मंदिर के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 2002 ई॰ में किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूर्त्ति स्थापित है।
इन मठों और मंदिरों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां देखने लायक है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूर्त्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूर्त्ति को 80 फीट ऊंचा मानते हैं।
आसपास के दर्शनीय स्थल
[संपादित करें]राजगीर
[संपादित करें]बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क 80 रु. है। इसे आप सुबह 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक देखा जा सकता है।
शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे।
राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। टमटम से आधे दिन घूमने का शुल्क 100 रु. से लेकर 300 रु. तक है। इन सबके अलावा राजगीर में जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है। घूमने का सबसे अच्छा समय: ठंढे के मौसम में
नालन्दा
[संपादित करें]यह स्थान राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है।
नालन्दा से 5 किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए। नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।
आवागमन
[संपादित करें]गया, राजगीर, नालन्दा, पावापुरी तथा बिहार शरीफ जाने के लिए सबसे अच्छा साधन ट्रेन है। इन स्थानों को घूमाने के लिए भारतीय रेलवे द्वारा एक विशेष ट्रेन बौद्ध परिक्रमा चलाई जाती है। इस ट्रेन के अलावे कई अन्य ट्रेन जैसे श्रमजीवी एक्सप्रेस, पटना राजगीर इंटरसीटी एक्सप्रेस तथा पटना राजगीर पसेंजर ट्रेन भी इन स्थानों का जाती है। इसके अलावे सड़क मार्ग द्वारा भी यहां जाया जा सकता है।
- हवाई मार्ग
नजदीकी हवाई अड्डा गया (07 किलोमीटर/ 20 मिनट)। इंडियन, गया से कलकत्ता और बैंकाक के साप्ताहिक उड़ान संचालित करती है। टैक्सी शुल्क: 200 से 250 रु. के लगभग।
- रेल मार्ग
नजदीकी रेलवे स्टेशन गया जंक्शन। गया जंक्शन से बोध गया जाने के लिए टैक्सी (शुल्क 200 से 300 रु.) तथा ऑटो रिक्शा (शुल्क 100 से 150 रु.) मिल जाता है।
- सड़क मार्ग
गया, पटना, नालन्दा, राजगीर, वाराणसी तथा कलकत्ता से बोध गया के लिए बसें चलती है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "बिहार के बोधगया में पर्यटन उद्योग की है खास तैयारी". प्रभात खबर. 30 नवंबर 2023.
- ↑ "Bihar Tourism: Retrospect and Prospect," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999
- ↑ "Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810
- ↑ "Holy Sites of Buddhism: Bodh Gaya – Place of Enlightenment". buddhanet.net. मूल से 1 September 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 December 2019.
- ↑ "Mahabodhi Temple Complex at Bodh Gaya" (अंग्रेज़ी में). UNESCO World Heritage Centre. मूल से 7 December 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 December 2019.
- ↑ " Pg.162 " Mahabodhi Vihar refers to the main Buddhist temple at Bodhgaya (Uruvela) at the spot where Gautam Buddha attained enlightenment. The Vihar includes the famous Bodhi tree (Ficus Religiosa or the peepal Tree) and the Vajrasana (Diamond throne). The original temple existed as tree shrine (bodhi-ghar) with railings constructed by Emperor Ashoka in 3rd century BCE. Its earliest depiction is found on reliefs at Bharahut (c. 80 BCE) and Sanchi (c. 25 BCE) stupas." Pg.154 " Emperor Ashoka built a red sandstone structure with railings here in the 3rd century BCE to mark the exact spot of the meditation seat."India China Encyclopedia Vol 1. पृ॰ 154 & 162.
- ↑ The two foreign inscription discovered at Buddhagayā mentioned Ashoka. Eleventh century Chinese monk Yun-shu inscription and a Burmese inscription categorically state that Asoka was the builder of the Buddhagaya temple . Cunningham's view, based on Hiuen-tsang's description, that the earlier sand-stone enclosure of the Bodhi Tree at Buddhagayā was a railing erected originally by Aśoka. Aśoka's association with Buddhagaya epigraphically connected by his Rock Edict VIII. According to the translation of H.A. Giles, the Chinese inscription contains a reference to king Aśhoka who is building the sambhogakāya of the Buddha , possibly indicating the present Buddhagaya temple itself. The Burmese inscription on the other hand clearly reckons the Buddhagaya temple as one of the 84,000 shrines said to have been erected by king Dharmāśoka, the ruler of Jambudvipa, two hundred and eighteen years after the nirvana of the Buddha." Journal of Ancient Indian History, Vol-3. 1969–70. पृ॰ 91-93.सीएस1 रखरखाव: तिथि प्रारूप (link)