"मोड़ी लिपि": अवतरणों में अंतर
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'''मोड़ी''' या '''मोडी''' उस [[लिपि]] का नाम है जिसका प्रयोग सन १९५० तक [[महाराष्ट्र]] की प्रमुख भाषा [[मराठी]] को लिखने के लिये किया जाता था। 'मोड़ी' शब्द का उद्गम [[फारसी]] के शब्द शिकस्त के अनुवाद से हुआ है, जिसका अर्थ होता है 'तोड़ना' या 'मोड़ना' है। |
'''मोड़ी''' या '''मोडी''' उस [[लिपि]] का नाम है जिसका प्रयोग सन १९५० तक [[महाराष्ट्र]] की प्रमुख भाषा [[मराठी भाषा|मराठी]] को लिखने के लिये किया जाता था। 'मोड़ी' शब्द का उद्गम [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] के शब्द शिकस्त के अनुवाद से हुआ है, जिसका अर्थ होता है 'तोड़ना' या 'मोड़ना' है। |
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इस लिपि के विकास के संबंध मे कई सिद्धान्त प्रचलित हैं। उनमें से सिद्धांत है कि इसे [[हेमादपंत]] (या हेमाद्री पंडित) ने महादेव यादव और रामदेव यादव के शासन के दौरान (1260-1309) विकसित किया था। एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार हेमादपंत इसे [[श्रीलंका]] से लाये थे। किन्तु [[शिवाजी]] के पहले इसके प्रचार का कोई पता नहीं चलता । शिवाजी द्वारा राजकीय लिपि के रूप में स्वीकृत नागरी लिपि को त्वरा के साथ लिखने योग्य बनाने के विचार से शिबाजी के 'चिटनिस' (मंत्री, सरिश्तेदार) [[बालाजी अबाजी]] ने इसके अक्षरों को मोड़ ( तोड़ मरोड़) कर एक नई लिपि तैयार की । जिसे 'मोड़ी' कहते हैं (देखिए,भारत की प्राचीन लिपियाँ पृ॰ १३१-१३२) । |
इस लिपि के विकास के संबंध मे कई सिद्धान्त प्रचलित हैं। उनमें से सिद्धांत है कि इसे [[हेमाद्रिपंत|हेमादपंत]] (या हेमाद्री पंडित) ने महादेव यादव और रामदेव यादव के शासन के दौरान (1260-1309) विकसित किया था। एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार हेमादपंत इसे [[श्रीलंका]] से लाये थे। किन्तु [[शिवाजी]] के पहले इसके प्रचार का कोई पता नहीं चलता । शिवाजी द्वारा राजकीय लिपि के रूप में स्वीकृत नागरी लिपि को त्वरा के साथ लिखने योग्य बनाने के विचार से शिबाजी के 'चिटनिस' (मंत्री, सरिश्तेदार) [[बालाजी अबाजी]] ने इसके अक्षरों को मोड़ ( तोड़ मरोड़) कर एक नई लिपि तैयार की । जिसे 'मोड़ी' कहते हैं (देखिए,भारत की प्राचीन लिपियाँ पृ॰ १३१-१३२) । |
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मोड़ी लिपि का मुद्रण देवनागरी लिपि की तुलना में अधिक जटिल है। इसलिए इसका प्रयोग १९५० मे आधिकारिक रूप से बंद कर दिया गया और तब से आज तक मराठी भाषा के मुद्रण के लिए केवल देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया जाता है। |
मोड़ी लिपि का मुद्रण देवनागरी लिपि की तुलना में अधिक जटिल है। इसलिए इसका प्रयोग १९५० मे आधिकारिक रूप से बंद कर दिया गया और तब से आज तक मराठी भाषा के मुद्रण के लिए केवल देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया जाता है। |
05:49, 5 मार्च 2020 का अवतरण
ब्राह्मी |
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ब्राह्मी तथा उससे व्युत्पन्न लिपियाँ |
मोड़ी या मोडी उस लिपि का नाम है जिसका प्रयोग सन १९५० तक महाराष्ट्र की प्रमुख भाषा मराठी को लिखने के लिये किया जाता था। 'मोड़ी' शब्द का उद्गम फारसी के शब्द शिकस्त के अनुवाद से हुआ है, जिसका अर्थ होता है 'तोड़ना' या 'मोड़ना' है।
इस लिपि के विकास के संबंध मे कई सिद्धान्त प्रचलित हैं। उनमें से सिद्धांत है कि इसे हेमादपंत (या हेमाद्री पंडित) ने महादेव यादव और रामदेव यादव के शासन के दौरान (1260-1309) विकसित किया था। एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार हेमादपंत इसे श्रीलंका से लाये थे। किन्तु शिवाजी के पहले इसके प्रचार का कोई पता नहीं चलता । शिवाजी द्वारा राजकीय लिपि के रूप में स्वीकृत नागरी लिपि को त्वरा के साथ लिखने योग्य बनाने के विचार से शिबाजी के 'चिटनिस' (मंत्री, सरिश्तेदार) बालाजी अबाजी ने इसके अक्षरों को मोड़ ( तोड़ मरोड़) कर एक नई लिपि तैयार की । जिसे 'मोड़ी' कहते हैं (देखिए,भारत की प्राचीन लिपियाँ पृ॰ १३१-१३२) ।
मोड़ी लिपि का मुद्रण देवनागरी लिपि की तुलना में अधिक जटिल है। इसलिए इसका प्रयोग १९५० मे आधिकारिक रूप से बंद कर दिया गया और तब से आज तक मराठी भाषा के मुद्रण के लिए केवल देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया जाता है।
कुछ भाषाविदों ने हाल ही में पुणे में इस लिपि को पुनर्जीवित करने की कोशिश की शुरुआत की है।