रोमां रोलां

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सन् १९१५ में रोमां रोलां

रोमां रोलां (Romain Rolland ; 1866 ई. - 1944 ई.) नोबेल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक और नाटककार थे। उनका जन्म मध्य फ्रांस के एक गांव में हुआ था। उन्होंने पेरिस और रोम में शिक्षा पाई थी। वे सूरबन विश्वविद्यालय पेरिस में प्रोफेसर नियुक्त हुए। उन्होंने लिओ तालस्तोय, महात्मा गांधी, माइकल एंजेलो, आदि महत्वपूर्ण सख्सियतों की जीवनियाँ भी लिखी। वे समाजवाद के समर्थक थे। उन्हें 1915 ई. में साहित्य का नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

परिचय[संपादित करें]

रोमें रोलाँ (Romain Rolland) यूरोप में भारतीय ज्ञान को प्रोत्साहित करने में रोमें रोलाँ के सदृश कम लेखकों का योगदान रहा है। उसका जन्म २९ जनवरी सन्‌ १८६६ को क्लेमेंसी में हुआ था। वह एक ठेकेदार का पुत्र था। छह वर्ष बाद उसकी बहन मैडेलीन का जन्म हुआ जिसने अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण रोलाँ और उसके भारतीय मित्रों के बीच दुभाषिया का कार्य संपन्न किया। सन्‌ १८८० में यह परिवार पेरिस में बस गया। इकोले नार्मेल सुपीरियर में सन्‌ १८८६ से सन्‌ १८८९ तक के विद्यार्थी जीवन में रोलाँ ने इतिहास का अध्ययन किया तथा भगवद्गीता और उपनिषद् पढ़े जिन्हें उसने प्रेरणादायक बताया। सन्‌ १८८९ में उसने एग्रीगेशन कांपीटीटिव एक्जामिनेशन उत्तीर्ण किया और रोम के फ्रेंच स्कूल का सदस्य बन गया। इटली के प्रवास में उसने अपने उपन्यास "जीन क्रिस्टोफे' की प्रारंभिक रूपरेखा बनाई। सन्‌ १८९७ में रोलाँ ने नाटककार के रूप में जीवन प्रारंभ किया। उसका नाटक "एथर्ट' (Aert) खेला गया। तत्पश्चात्‌ "दी साइकिल ऑव रीवोल्यूशन' के क्रम का प्रथम नाटक दि वुल्ब्स (Wolves) और फिर दाँतों (Doton) का अभिनय हुआ। उसने अपने "लाइफ़ ऑव बीथोवेन' का प्रकाशन किया। सन्‌ १९०३ से सन्‌ १९१२ तक का समय एक काल्पनिक संगीतज्ञ की कथावस्तु पर आधारित अपना महान्‌ महाकाव्य "जीन क्रिस्टोफे' लिखने में व्यतीत किया। यह दस भागों में प्रकाशित हुआ। इस बीच उसने लाइफ ऑव माइकेल एंजिलो (१९०६), "हाएंडेल' (१९१०) तथा "लाइफ ऑव टाल्स्टाय' (१९११) की रचना की। उसने स्विटजरलैंड की यात्रा की तथा "कोला ब्रूगों' नामक उपन्यास लिखा। फ्रेंच एकेडमी द्वारा उसे साहित्य का महान्‌ पुरस्कार दिया गया। सन्‌ १९१४ में जब युद्ध छिड़ा, वह स्विटजरलैंड में था और अपनी उम्र के कारण युद्ध में भाग लेने के लिए फ्रांस नहीं बुलाया गया। सितंबर, सन्‌ १९१९ में "एबल दि बैटिलफील्ड' नामक पहला लेख उसने लिखा। सन्‌ १९२० में उसने "क्लीरेंबाल्ट' (Clerambault) नामक उपन्यास की रचना की। नवंबर सन्‌ १९१६ में उसे साहित्य के नोबेल पुरस्कार से विभूषित किया गया। सन्‌ १९२२ और १९२३ के बीच "दि इंचैटेड सोल' शीर्षक एक बड़े उपन्यास का प्रणयन किया। तत्पश्चात्‌ दो वर्ष तक उसने भारत संबंधी अध्ययन मनन किया और महात्मा गांधी पर एक लेख लिखा। मई, सन्‌ १९२६ में उसने नेहरू और टैगोर का स्वागत किया। सन्‌ १९२७ और १९३१ के बीच उसने "मिस्टिसिज्म ऐंड ऐक्शन ऑव लिविंग इंडिया', "लाइफ ऑव रामकृष्ण', "लाइफ ऑव विवेकानंद ऐंड दि युनिवर्सल गास्पेल' नामक ग्रंथ लिखे। सन्‌ १९३१ में स्विटजरलैंड के "विलेनयोबे' नामक स्थान में गांधी जी से रोलाँ की भेंट हुई। एक युवा रूसी महिला से विवाह के उपरांत रोलाँ ने सोवियत रूस की यात्रा की और गोर्की सदृश कई महापुरुषों से भेंट की। २६ वर्ष तक स्विटजरलैंड में रहने के बाद सन्‌ १९३७ में वह फ्रांस लौट आया और "वेजले' (Vezelay) में उसने एक मकान खरीदा जहाँ ३० दिसम्बर सन्‌ १९४४ को उसकी मृत्यु हुई। मृत्यु के बाद के उसके प्रकाशन अनेक हैं - "ले पेरिपुल' Le Periple (१९४६) "मेम्वायर्स ऑव यूथ', (१९४७), "इंडिया डायरी', (१९५१) तथा १९५२ में प्रकाशित "डायरी ऑव दि ईयर्स ऑव वार'। उसका बहुत सा पत्राचार अब भी अप्रकाशित है।

रोलाँ के लिए देश की सीमा भी उतनी ही कृत्रिम है जितनी समय की। इतिहासकार के रूप में वह फ्रांसीसी क्रांति के वीरों तथा बीथोवेन, हैडेल और माइकेल ऐजिलो सदृश प्रतिभावान्‌ कलाकारों के प्रति आकृष्ट था। राष्ट्रीय आक्रोश की चरम सीमा के समय शत्रु में भी बंधुत्व ढूढ़ँने में वह कभी नहीं चूका।

राजनीति में वह सदैव दुर्बलों के साथ था और उसने विकास संबंधी नीति तथा समाजवाद का समर्थन किया। वह वामपंथी तथा ऐसा योद्धा था जो "कला कला के लिए' का सिद्धांत गर्हणीय मानता था। कलाकार बनकर एकांत निर्जन कक्ष में एकाकी बंदी रहना उसने अस्वीकार कर दिया और अनेक संघर्षों में उसने भाग लिया। उसने दलों का संकुचित बंधन अस्वीकार कर दिया तथा गांधी जी की भाँति सदैव आत्मा की पुकार सुनता रहा। रोलाँ कभी भारत नहीं आया, इस तथ्य पर विचार करते हुए उसकी अंतर्दृष्टि पर आश्चर्यचकित न होना कठिन है। आध्यात्मिक भारत की महत्ता को उससे अधिक अच्छी तरह केवल कुछ लोगों ने ही समझा है। इने गिने लोगों ने ही भारत की अमर आत्मा से पश्चिम को परिचित कराने का यत्न किया है। फिर भी रोलाँ कभी भी अंधप्रशंसक नहीं रहा और न उसने अपनी तार्किक शक्ति ही कभी छोड़ी। पूर्व को यथेष्ट सम्मान देने के प्रयत्न में उसने पश्चिम का तिरस्कार नहीं किया। उसकी मान्यता थी कि आत्मा के ये दोनों क्षेत्र मानवता के विकास के लिए अनिवार्य और महत्वपूर्ण है। यह यूरोप को भारतीय स्वातंत््रयसंघर्ष से परिचित कराने के लिए सदैव सचेष्ट था और एशिया की राजनीतिक घटनाआें में रुचि लेता रहा। उसने अनेक बड़े छोटे, ज्ञात अज्ञात भारतीयों का स्वागत किया।

लेखक के रूप फ्रांस में उसकी महत्ता विवादग्रस्त रही है। किंतु यूरोप के दूसरे देशों में उसकी कृतियों का अपेक्षाकृत अधिक समादर हुआ है। अपने देश में उसके कुछ ही शिष्य थे। परंतु मनुष्य के रूप में वह एक महत्वपूर्ण मानवतावादी परंपरा का प्रतिनिधित्व करता था, जो उसकी मृत्य के बाद समाप्त सी हो गई।

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