आन्रि बर्गसां
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आन्रि बर्गसां | |
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जन्म |
18 अक्टूबर 1859[1][2][3][4][5][6][7][8][9][10][11][12][13][14][15][16] पैरिस[17][18][19] |
मौत |
4 जनवरी 1941[1][20][2][4][5][21][8][9][10][12][13][16] पैरिस[22][18][19] |
मौत की वजह | श्वसनीशोथ |
नागरिकता | फ़्रान्स |
शिक्षा | पैरिस विश्वविद्यालय |
पेशा | दार्शनिक,[23][24] प्रोफ़ेसर,[25] समाजशास्त्री, लेखक[26] |
धर्म | यहूदी धर्म |
पुरस्कार | साहित्य में नोबेल पुरस्कार[27][28] |
हस्ताक्षर |
हेनरी वर्गसाँ (१८५९ - १९४१) फ्रांस के प्रतिभावान् यहूदी दार्शनिक, अध्यापक, लेखक तथा वक्ता थे। उन्हें १९२७ का साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। १९३० में फ्रांस ने उन्हें अपना सर्वोच्च पुरस्कार (Grand-Croix de la Legion d'honneur) प्रदान किया।
परिचय
[संपादित करें]आन्री बर्गसाँ पेरिस के 'रूये लामार्तिन' नामक स्थान पर, १८ अक्टूबर १८५९ ई. को पैदा हुए थे। नौ वर्ष की उम्र में, अपने घर के समीप, 'लिकी कांदाँर्चेत' नामक विद्यालय में पढ़ने गया। १८ वर्ष की उम्र तक वहाँ उसने विज्ञान, गणित और साहित्य का अध्ययन कर 'बचलर' की उपाधि प्राप्त की। उसकी प्रतिभा के लक्षण यहीं से प्रकट होने लगे थे। विद्यालय छोड़ने के वर्ष उसने गणित प्रतियोगिता में भाग लेकर, किसी समस्या का इतना अच्छा हल दिया था कि उसके अध्यापकों ने उसे 'एनल्स द मैथमेतिक' में प्रकाशित किया।
उक्त विद्यालय छोड़ने पर, वह उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए, 'इकोले नार्मेल सुपीरियोर' में भर्ती हुआ। साहित्य और विज्ञान में समान रुचि के कारण, वहाँ उसने दर्शन विषय लिया। इससे उसे फ्रांस के तीन जाने माने दार्शनिकों से शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग मिला। ये दर्शन के इतिहास में प्रसिद्ध आदर्शवादी रैवायज़ाँ, बोत्रों तथा जूल्स लैकेलिए थे। इनके संपर्क से उसे पदार्थवाद के विरुद्ध आदर्शवादी अथवा प्रत्ययवादी तर्कों का ज्ञान हुआ। इसी समय उसने यूनानी दार्शनिकों का अध्ययन किया, जिससे उसे पता चला कि दर्शन का द्वंद्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। हेराक्लाइटस (५३५-४७५ ई. पू.) तथा ज़ीनो (जन्म, ४८९ ई. पू.) ने उसका ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। हैराक्लाइटस गति को संसार का मौलिक नियम मानता था। ज़ीनो वही स्थान स्थिरता को देता है। हेराक्लाहटस की नदी निरंतर बहती रहती है; उसमें कोई दो बार पैर नहीं डाल सकता। ज़ीनो के लिए उसके गुरु पार्मेंनाइडीज़ की बताई हुई सत्ता एक सी रहती है; न कुछ बदलता है, न पैदा होता है, न नष्ट होता है। यहीं से हेनरी बर्गसाँ का माथा ठनका और उसने दर्शन तथा विज्ञान का गहन अध्ययन जारी रखने का संकल्प किया।
अपने इसी संकल्प के अनुरूप, 'इकोले नार्मेंल' की शिक्षा समाप्त कर, वह अध्यापक के रूप में, 'लिकी ऐंजर्स' गया, जहाँ वह दो वर्ष रहा। फिर 'क्लेयरमांट' में अध्यापनकार्य करने चला गया। अब उसके विचारों में प्रौढ़ता आने लगी थी और 'क्लेरमांट' के विद्यार्थी उसके सुबोध एवं सरस व्याख्यानों से बहुत प्रभावित थे। हसँने के कारणों पर उसका वह सार्वजनिक भाषण, जो १९०० में 'हास्य' (ले रायर) शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ, 'क्लेयरमांट' के अध्यापनकाल में ही दिया गया था। यहीं उसने ल्यूक्रेटियस के ग्रंथ का संपादन करते हुए, भूमिका में काव्य और दर्शन के संबंधों पर समुचित विचार प्रस्तुत कर यह स्पष्ट कर दिया था कि वह केवल कक्षा के दायरे में घिरा हुआ दार्शनिक न था।
सन् १८८९ में, उसने अपना शोध लेख 'लेस दॉन्नीज इमीजिएत्स् दे ला कांशियंस' प्रस्तुत किया और 'दॉक्तियर-एस्-लेतर्स' की उपाधि प्राप्त की। ग्रंथ के रूप में, उसका उक्त लेख, १८९६ में प्रकाशित हुआ। १९१० में 'टाइम ऐंड फ्री विल' नाम से प्रकाशित पुस्तक इसी का अनुवाद है। इसी ग्रंथ से बर्गसाँ का दृष्टिकोण दर्शन जिज्ञासुओं एवं सामान्य पाठकों के सामने आने लगा। उसने अनेकता (मल्टिप्लिसिटी), सत्ताकाल (ड्यूरेशन) तथा चेतना (कांशसनेस) के दो दो पहलू प्रस्तुत किए। सामान्यत:, अनेकता संख्यात्मक प्रतीत होती है, किंतु बर्गसाँ ने बताया कि आंतरिक अनुभवों की अनेकता संख्यात्मक या परिमाणात्मक न होकर गुणात्मक ही हो सकती है। इसी प्रकार, सत्ताकाल अथवा वह समय जिसमें घटनाएँ घटित होती हैं निरवयव, अथवा एकरस (होमोजीनियस) मालूम होता है, किंतु वह सावयव है। प्रतीत निरवयवता का कारण बुद्धि है, जो घुले मिले अवयवों को अलग करके देखती है। चेतना की व्याख्या करते हुए उसने कहा कि वह चेतना, जो पृथक् अवस्थाओं में विभाजित रहती है, सतही चेतना है। सत्य चेतना उससे नीचे रहती है। उसे क्षणों में नहीं बाँटा जा सकता।
उक्त ग्रंथ के प्रकाशन से, हेनरी बर्गसाँ की ओर तत्कालीन विचारकों का ध्यान आकृष्ट हुआ। उन्हें लगा कि कांट के बाद, वह दर्शन की मौलिक समस्याओं पर एक नवीन दृष्टि डालने जा रहा था। इसी प्रभाव के फलस्वरूप, १८९८ में उसे 'इकोले नार्मेल' में स्थान मिला। उसी वर्ष, 'मैतियर एत मेम्वायर' प्रकाशित कर उसने अपनी नियुक्ति को उचित सिद्ध किया। बर्गसाँ का यह ग्रंथ १९११ में 'मैटर ऐंड मेमोरी' नाम से अंग्रेजी में छपा। इसमें स्मृतिदोषों के अध्ययन के आधार पर, उसने 'मन और पदार्थ' के द्वैत की समस्या सरल करने का प्रयत्न किया। आधुनिक दर्शन की यह गहन समस्या थी। रीने द कार्ते (१५९६-१६५०) से लेकर इमैनुएल कांट (१७२४-१८०४) तक सभी दार्शनिक माथापच्ची करते चले आ रहे थे, किंतु विवाद का अंत कांट के इस कथन से हुआ था कि मन और पदार्थ, अथवा प्रकृति में ज्ञाता-ज्ञेय संबंध है, किंतु मन बुद्धि के द्वारा जानता है और बुद्धि के जानने के कुछ बँधे हुए तरीके हैं। इसलिए, वह अपनी ज्ञेय वस्तुओं को विद्रूप कर देती है। इससे व्यवहार और परमार्थ का भेद बराबर बना रहता है।
बर्गसाँ ने कांट के मत को आंशिक रूप से स्वीकार किया। उसने यह माना कि बुद्धि आंतरिक सत्य को देश में रखकर ही जानती है। वह वस्तुओं का चारों ओर से निरीक्षण करती है और उनके विविध पक्षों का, एक एक कर परिगणन करती है। ज्ञान की यह विधि पर्याप्त नहीं है, क्योंकि प्रकृति का सत्य स्थिर नहीं, प्रवहमान सत्य है। वह एक निरंतर परिवर्तन है, जो प्रति क्षण नवीनताएँ उद्घाटित करता रहता है। प्रकृति निर्जीव पदार्थ नहीं, वह जीवन से ओतप्रोत है। पदार्थ वह लावा है, जिसे उफनती हुई जीवनशक्ति बाहर फेंक देती है। प्रकृति का सार यही जीवनशक्ति है, जो एक निरंतरता है। स्मृति के छिछले अध्ययन से भूत ओर वर्तमान का अंतर सिद्ध होता है, किंतु सक्ष्म अध्ययन से मालूम होता है कि स्मृति भूत के केवल उन अंशों को ही प्रस्तुत करती है, जो वर्तमान क्रिया के लिए आवश्यक हैं। संपूर्ण सत्य का ज्ञान अंतर्दृष्टि से होता है, जो जीवन की धारा की ही भाँति प्रवहमान अनुभव है, अपरोक्षानुभूति है, सहानुभूतिक ज्ञान है।
बर्गसाँ की ख्याति और बढ़ी। कांट के मत से उत्पन्न अज्ञेयता को उसने अवास्तविक सिद्ध करने का प्रयत्न किया था। सन् १९०० ई. में, उसे 'कालेज द फ्रांस' में यूनानी दर्शन का अध्यापक नियुक्त किया गया। वहीं कुछ समय बाद, वह प्रसिद्ध दार्शनिक एवं समाजशास्त्री, टार्डी के स्थान पर, आधुनिक दर्शन का अध्यापक हुआ। अब, वह एक नवीन जीवनदर्शन का प्रणेता समझा जाने लगा था। उसके दार्शनिक लेख फ्रांस से बाहर भी छप रहे थे। पूरे यूरोप की शिक्षित जनता उन्हें पढ़ रही थी।
सात वर्ष बाद, १९०७ में बर्गसाँ की अति प्रसिद्ध पुस्तक 'एल एबोल्यूशन क्रियेत्रिस' छपी। इसका अंग्रेजी अनुवाद, 'क्रिएटिव एबोल्यूशन' १९११ में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में, उसने उस दशर्न को जिसे वह समय एवं स्मृति सबंधी समस्याओं के विवेचन से पिछले ग्रंथों में प्रतिपादित कर चुका था, जैविक विकास के विस्तृत अध्ययन के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया। निष्कर्ष नवीन न होने पर भी, पुस्तक बहुत रुचिकर है, जीव जंतुओं के प्रचुर उदाहरण पुस्तक को मानव मन के बहुत समीप ला देते हैं।
इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद, १४ वर्ष बर्गसाँ अध्यापन के अतिरिक्त, यूरोप और अमरीका के विभिन्न नगरों में, समय समय पर भाषण देता रहा। सन् १९२१ में, उसने काॅलेज से इस्तीफ़ा दे दिया। किंतु 'आनरेरी अध्यापक के रूप में काॅलेज से उसका सबंध सन् १९४० तक बना रहा। वह अब सर्वजनिकहित के कार्यों में अधिक रुचि लेने लगा था। कई अंतरराष्ट्रीय सहयोग समितियों में उसने काम किया। सन् १९२७ में उसे साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। किंतु इसके बाद, कुछ वर्षों तक वह ऐसी चुप्पी साध गया कि लोगों ने समझा वह अपना काम समाप्त कर चुका था।
एकाएक, सन् १९३२ में 'लेस् दिअक्स् सोर्सेज़ द ला मोरेल एत द ला रेलीजन' पुस्तक प्रकाशित हुई और तब पता चला कि व मौन साधक धर्म और नैतिकता की समस्याओं पर विचार कर रहा था। इस प्रसंग में भी उसने दिखाया कि दो तरह के धर्म हैं, दो तरह की नैतिकता है। 'बंद' समाजों में धर्म और नैतिकता एक बाहरी दबाव है, किंतु 'खुले' समाजों में, वह स्वतंत्र मानव का आचरण है, रचनात्मक सहजता है।
लगभग सन् १९३३ से वर्गसाँ का कैथलिक धर्म की ओर झुकाव जाहिर होने लगा था। फ्रांस के धर्माधिकारी उसे हेय दृष्टि से देखते थे। फ्रांस की सरकार यहूदियों के प्रति द्वेषपूर्ण नीति से काम लेने लगी थी। बर्गसाँ चाहता तो वह फ्रांसीसी-यहूदी समस्या से अलग बना रहता, क्योंकि उसके सम्मान के अनुरूप, सरकार उसके प्रति अपनी नीति शिथिल करने के लिए तैयार थी। किंतु बर्गसाँ ने अत्याचारियों का साथ देने के बजाय उत्पीड़ितों में रहना पसंद किया। सन् १९४० में जब 'विशी' सरकार ने यहूदियों को अपने पद त्याग देने का आदेश दिया, तो बर्गसाँ ने भी 'कालेज द फ्रांस' से अपने नाममात्र के सबंध को तोड़ लिया। फिर उसी वर्ष, दिसबर में, जब यहूदियों को अपने नाम पंजीकृत कराने का आदेश दिया गया, तो वह भी, एक साधारण यहूदी की भाँति, रजिस्ट्रेशन आफिस के सामने कई घंटे तक अपनी पारी आने की प्रतीक्षा करता रहा। बर्गसाँ की आयु इस समय ८१ वर्ष थी। वह दिसंबर की कड़ी सर्दी बर्दाश्त न कर सका। कई दिन तक वह चारपाई पर पड़ा रहा और ४ जनवरी सन् १९४१ को उसका देहावसान हो गया। किंतु उसका दर्शन यूरोपीय कहानियों और उपन्यासों में अब भी जीवित है और अग्रेजी के माध्यम से उसे हम भी जानते हैं।
वह किसी नवीन संप्रदाय का जन्मदाता न था। प्रचलित व्याख्याओं को एकांगी और अपर्याप्त दिखाकर उसने भावी चिंतन का मार्ग प्रशस्त करने की चेष्टा कर बहुत बड़ा काम किया था। बुद्धिवादियों को उसने बताया कि उनके विश्लेषण मात्र व्यावहारिक एवं सतही थे। उन्हें अपरोक्षानुभव, अंतर्दृष्टि, अथवा सहानुभूतिक ज्ञान से काम लेने की आवश्यकता थी। यथार्थवादियों को बताया कि उन्हें बाह्य पदार्थ ही नहीं, प्रकृति की जीवनीशक्ति या अपने आंतरिक अनुभवों को भी महत्त्व देना चाहिए और अधिक महत्त्व देना चाहिए। हेराक्लाइटस् और विलियम जेम्स को एक साथ रखकर, उसने बाह्य और आंतरिक प्रवाह की एकता स्थापित करते हुए अपने निरंतरता के सिद्धांत से, जीवनधारा या चेतना की धारा के क्षणों को विलग होने से बचा लिया। सचमुच उसने इतना ही कहा कि एक जीवन क्षण निरंतर नवीन होता रहता है और उसे हम आंतरिक अनुभव में पा सकते हैं। उसके दर्शन का सार 'इंट्रोडक्शन टु मेटाफिजिक्स' से ग्रहण किया जा सकता है। यह उसके एक लेख का अनुवाद है, जो १९०३ में 'रिव्यू द मेताफ़िज़िक' में छपा था।
सन्दर्भ
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दिए जाने पर|url= भी दिया जाना चाहिए
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(मदद)