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बोरोबुदुर

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बोरोबुदूर

यूनेस्को विश्व धरोहर बोरोबुदूर
बोरोबुदुर is located in जावा
बोरोबुदुर
जावा का मानचित्र
सामान्य विवरण
वास्तुकला शैली स्तूप और चण्डी
शहर मगेलांग के निकट, मध्य जावा
राष्ट्र इंडोनेशिया
निर्देशांक 7°36′29″S 110°12′14″E / 7.608°S 110.204°E / -7.608; 110.204निर्देशांक: 7°36′29″S 110°12′14″E / 7.608°S 110.204°E / -7.608; 110.204
निर्माण सम्पन्न c. AD 825
ग्राहक शैलेन्द्र
योजना एवं निर्माण
वास्तुकार गुनाधर्मा
आधिकारिक नाम: बोरोबुदुर टेम्पल कंपाउंड्स
प्रकार: सांस्कृतिक
मापदंड: i, ii, vi
अभिहीत: १९९१ (१५वें सत्र में)
सन्दर्भ क्रमांक ५९२
राज्य पार्टी: इंडोनेशिया
क्षेत्र: एशिया-प्रशांत

बोरोबुदूर विहार अथवा बरबुदूर इंडोनेशिया के मध्य जावा प्रान्त के मगेलांग नगर में स्थित 750-850 ईसवी के मध्य का महायान बौद्ध विहार है। यह आज भी संसार में सबसे बड़ा बौद्ध विहार है। छः वर्गाकार चबूतरों पर बना हुआ है जिसमें से तीन का उपरी भाग वृत्ताकार है। यह 2,679 उच्चावचो और 504 बुद्ध प्रतिमाओं से सुसज्जित है।[1] इसके केन्द्र में स्थित प्रमुख गुंबद के चारों और स्तूप वाली 72 बुद्ध प्रतिमायें हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा[2][3] और विश्व के महानतम बौद्ध मन्दिरों में से एक है।[4]

इसका निर्माण ९वीं सदी में शैलेन्द्र राजवंश के कार्यकाल में हुआ। विहार की बनावट जावाई बुद्ध स्थापत्यकला के अनुरूप है जो इंडोनेशियाई स्थानीय पंथ की पूर्वज पूजा और बौद्ध अवधारणा निर्वाण का मिश्रित रूप है।[4] विहार में गुप्त कला का प्रभाव भी दिखाई देता है जो इसमें भारत के क्षेत्रिय प्रभाव को दर्शाता है मगर विहार में स्थानीय कला के दृश्य और तत्व पर्याप्त मात्रा में सम्मिलित हैं जो बोरोबुदुर को अद्वितीय रूप से इंडोनेशियाई निगमित करते हैं।[5][6] स्मारक गौतम बुद्ध का एक पूजास्थल और बौद्ध तीर्थस्थल है। तीर्थस्थल की यात्रा इस स्मारक के नीचे से आरम्भ होती है और स्मारक के चारों ओर बौद्ध ब्रह्माडिकी के तीन प्रतीकात्मक स्तरों कामधातु (इच्छा की दुनिया), रूपध्यान (रूपों की दुनिया) और अरूपध्यान (निराकार दुनिया) से होते हुये शीर्ष पर पहुँचता है। स्मारक में सीढ़ियों की विस्तृत व्यवस्था और गलियारों के साथ 1460 कथा उच्चावचों और स्तम्भवेष्टनों से तीर्थयात्रियों का मार्गदर्शन होता है। बोरोबुदुर विश्व में बौद्ध कला का सबसे विशाल और पूर्ण स्थापत्य कलाओं में से एक है।[4]

साक्ष्यों के अनुसार बोरोबुदूर का निर्माण कार्य ९वीं सदी में आरम्भ हुआ और 14वीं सदी में जावा में हिन्दू राजवंश के पतन और जावाई लोगों द्वारा इस्लाम अपनाने के बाद इसका निर्माण कार्य बन्द हुआ।[7] इसके अस्तित्व का विश्वस्तर पर ज्ञान 1814 में सर थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स द्वारा लाया गया और इसके इसके बाद जावा के ब्रितानी शासक ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। बोरोबुदुर को उसके बाद कई बार मरम्मत करके संरक्षित रखा गया। इसकी सबसे अधिक मरम्मत, यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में सूचीबद्द करने के बाद 1975 से 1982 के मध्य इंडोनेशिया सरकार और यूनेस्को द्वारा की गई।[4]

बोरोबुदूर अभी भी तीर्थयात्रियों के लिए खुला है और वर्ष में एक बार वैशाख पूर्णिमा के दिन इंडोनेशिया में बौद्ध धर्मावलम्बी स्मारक में उत्सव मनाते हैं। बोरोबुदूूर इंडोनेशिया का सबसे अधिक दौरा किया जाने वाला पर्यटन स्थल है।[8][9][10]

शब्द व्युत्पत्ति

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उत्तर-पश्चिम से चण्डी बोरोबुदुर का दृश्य, स्मारक का कायुमवुंगान और त्रितेपुसन शिलालेखों में उल्लेख मिलता है।

इंडोनेशिया में प्राचीन मंदिरों को चण्डी के नाम से पुकारा जाता है अतः "बोरोबुदुर मंदिर" को कई बार चण्डी बोरोबुदुर भी कहा जाता है। चण्डी शब्द भी शिथिलतः प्राचीन बनावटों जैसे द्वार और स्नान से सम्बंधित रचनाओं के लिए प्रयुक्त होता है।[11] यद्यपि बोरोबुदुर शब्द का मूल अस्पष्ट है तथा इंडोनेशिया के प्रमुख प्राचीन मंदिर ज्ञात नहीं हैं। बोरोबुदुर शब्द सर्वप्रथम सर थॉमस रैफल्स की पुस्तक जावा का इतिहास में प्रयुक्त हुआ था।[12] रैफल्स ने बोरोबुदुर नामक एक स्मारक के बारे में लिखा लेकिन इस नाम का इससे पुराना कोई दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है।[11] केवल प्राचीन जावा तालपत्र ही इस ओर संकेत करते हैं कि स्मारक का नाम बुदुर पवित्र बौद्ध पूजास्थल नगरकरेतागमा को कहा जाता है। यह तालपत्र मजापहित राजदरबारी एवं बौद्ध विद्वान मपु प्रपंचा द्वारा सन् १३६५ में लिखा गया था।[13]

कुछ मतों के अनुसार बोरोबुदुर, नाम बोरे-बुदुर का अपभ्रंश रूप है जो रैफल्स ने अंग्रेज़ी व्याकरण में लिखा था जिसका अर्थ "''बोरे गाँव के निकटवर्ती बुदुर का मंदिर" था; अधिकांश चण्डियों का नामकरण निकटम गाँवों के नाम पर हुआ है। यदि इसे जावा भाषा के अनुरूप समझा जाये तो स्मारक का नाम "बुदुरबोरो" होना चाहिए/ रैफल्स ने यह भी सुझाव दिया कि बुदुर सम्भवतः आधुनिक जावा भाषा के शब्द बुद्ध से बना है ― "प्राचीन बोरो"।[11] हालांकि अन्य पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार नाम (बुदुर) का दूसरा घटक जावा भाषा जे शब्द भुधारा ("पहाड़") से बना है।[14]

अन्य सम्भावित शब्द-व्युत्पतियों के अनुसार बोरोबुदुर संस्कृत शब्द विहार बुद्ध उहर के लिखे हुये रूप बियरा बेदुहुर का स्थानीय जावा सरलीकृत अपभ्रष्ट उच्चारण है। शब्द बुद्ध-उहर का अर्थ "बुद्ध का नगर" हो सकता है जबकि अन्य सम्भावित शब्द बेदुहुर प्राचीन जावा भाषा का शब्द है जो आजतक बली शब्दावली में मौजूद है जिसका अर्थ एक "उच्च स्थान" होता है जो स्तंभ शब्द धुहुर अथवा लुहुर (उच्च) से बना है। इसके अनुसार बोरोबुदुर का अर्थ उच्च स्थान अथवा पहाड़ी इलाके में बुद्ध के विहार (मट्ठ) से है।[15]

धार्मिक बौद्ध इमारत का निर्माण और उद्घाटन—सम्भवतः बोरोबुदुर के सम्बंध में—दो शिलालेखों में उल्लिखीत है। दोनों केदु, तमांगगंग रीजेंसी में मिले। सन् ८२४ से दिनांकित कायुमवुंगान शिलालेख के अनुसार समरतुंग की पुत्री प्रमोदवर्धिनी ने जिनालया (उन लोगों का क्षेत्र जिन्होंने सांसारिक इच्छा और और अपने आत्मज्ञान पर विजय प्राप्त कर ली) नामक धार्मिक इमारत का उद्घाटन किया। सन् ८४२ से दिनांकित त्रितेपुसन शिलालेख के सिमा में उल्लिखीत है कि क्री कहुलुन्नण (प्रमोदवर्धिनी) द्वारा भूमिसम्भार नामक कमूलान को धन और रखरखाव सुनिश्चित करने के लिए भूमि (कर-रहित) प्रदान की।[16] कमूलान, मुला शब्द के रूप में है जिसका अर्थ "उद्गम स्थल" होता है, पूर्वजों की याद में एक धार्मिक स्थल जो सम्भवतः शैलेन्द्र राजंवश से सम्बंधित है। कसपरिस के अनुसार बोरोबुदूर का मूल नाम भूमि सम्भार भुधार है जो एक संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ "बोधिसत्व के दस चरणों के संयुक्त गुणों का पहाड़" है।[17]

तीन मंदिर

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एक सीधी रेखा में स्थित तीन बौद्ध मंदिर – बोरोबुदुर, पावोन और मेंदुत।

बोरोबुदुर योग्यकर्ता से लगभग 40 किलोमीटर (25 मील) दूर, एवं सुरकर्ता से 86 किलोमीटर (53 मील) दूर स्थित है। यह दो जुड़वां ज्वालामुखियों, सुंदोरो-सुम्बिंग और मेर्बाबू-मेरापी एवं दो नदियों प्रोगो और एलो के बीच एक ऊंचा क्षेत्र पर स्थित है। स्थानीय मिथक के अनुसार, केडू मैदान के रूप में जाना जाने वाला यह क्षेत्र जावा के "पवित्र" स्थलों में से एक है और इस क्षेत्र की उच्च कृषि उर्वरता के कारण इसे "द गार्डन ऑफ़ जावा" यानी "जावा का बगीचा" भी कहा जाता है।[18] 20वीं सदी में मरम्मत कार्य के दौरान यह पाया गया कि इस क्षेत्र के तीनो बौद्ध मंदिर, बोरोबुदुर, पावोन और मेंदुत, एक सीधी रेखा में स्थित हैं। [19] ऐसा माना जाता है कि तीनों मंदिर किसी रस्म प्रक्रिया से जुड़े थे, हालांकि प्रक्रिया क्या थी, यह अज्ञात है। [13]

प्राचीन झील

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बोरोबुदुर का निर्माण समुद्र तल से 265 मी॰ (869 फीट) की ऊंचाई पर एक चट्टान पर, एक सूखे झील की सतह से 15 मी॰ (49 फीट) ऊपर किया गया था।[20] इस प्राचीन झील के अस्तित्व का मुद्दा 20वीं सदी में पुरातत्वविदों के बीच गहन चर्चा का विषय था। 1931 में, एक डच कलाकार एवं हिंदू और बौद्ध वास्तुकला विद्वान, डब्ल्यू॰ ओ॰ जे॰ नियूवेनकैम्प द्वारा विकसित सिद्धांत के अनुसार केडू प्लेन प्राचीन काल में एक झील हुआ करता था और बोरोबुदुर शुरू में इसी झील पर तैरते एक कमल के फूल की अभिवेदना थी। [14]

निर्माण

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जी॰बी॰ हुइगर की चित्रकारी (c. १९१६—१९१९) जिसमें बोरोबुदुर के उमंग के समय का दृश्य बनाया गया है।

इसका कोई लिखित अभिलेख नहीं है जो बोरोबुदुर के निर्माता अथवा इसके प्रयोजन को स्पष्ट करे।[21] इसके निर्माण का समय मंदिर में उत्कीर्णित उच्चावचों और ८वीं तथा ९वीं सदी के दौरान शाही पात्रों सामान्य रूप से प्रयुक्त अभिलेखों की तुलना से प्राकल्लित किया जाता है। बोरोबुदुर सम्भवतः ८०० ई॰ के लगभग स्थापित हुआ।[21] यह मध्य जावा में शैलेन्द्र राजवंश के शिखर काल ७६० से ८३० ई॰ से मेल खाता है।[22] इस समय यह श्रीविजय राजवंश के प्रभाव में था। इसके निर्माण का अनुमानित समय ७५ वर्ष है और निर्माण कार्य सन् ८२५ के लगभग समरतुंग के कार्यकाल में पूर्ण हुआ।[23][24]

जावा में हिन्दू और बौद्ध शासकों के समय में भ्रम की स्थिति है। शैलेन्द्र राजवंश को बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी माना जाता है यद्यपि सोजोमेर्टो में प्राप्त पत्थर शिलालेखों के अनुसार वो हिन्दू थे।[23] यह वो समय था जब विभिन्न हिन्दू और बौद्ध स्मारकों का केदु मैदानी इलाके के निकट मैदानी और पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण हुआ। बोरोबुदुर सहित बौद्ध स्मारकों की स्थापना लगभग उसी समय हुई जब हिन्दू शिव प्रमबनन मंदिर का निर्माण हुआ। ७२० ई॰ में शैव राजा संजय ने बोरोबुदुर से केवल 10 कि॰मी॰ (6.2 मील) पूर्व में वुकिर पहाड़ी पर शिवलिंग देवालय को शुरू किया।[25]

बोरोबुदुर सहित बौद्ध मंदिर का निर्माण उस समय सम्भव था क्योंकि संजय के उत्तराधिकारी रकाई पिकतन ने बौद्ध अनुयायीयों को इस तरह के मंदिरों के निर्माण की अनुमति प्रदान कर दी थी।[26] सन् ७७८ ई॰ से दिनांकित कलसन राज-पत्र में लिखे अनुसार, वास्तव में, उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शन करने के लिए पिकतन ने बौद्ध समुदाय को कलसन नामक गाँव दे दिया।[26] जिस तरह हिन्दी राजा ने बौद्ध स्मारकों की स्थापना में सहायता करना अथवा एक बौद्ध राजा द्वारा ऐसा ही करना, जैसे विचारों से प्रेरित कुछ पुरातत्वविदों का मत है कि जावा में कभी भी बड़ा धार्मिक टकराव नहीं था।[27] हालांकि, यह इस तरह है कि वहाँ पर एक ही समय पर दो विरोधी राजवंश थे—बौद्ध शैलेन्द्र राजवंश और शैव संजय—जिनमें बाद में रतु बोको महालय पर ८५६ ई॰ में युद्ध हुआ।[28] भ्रम की स्थिति प्रमबनन परिसर के लारा जोंग्गरंग मंदिर के बारे में मौजूद है जो संजय राजवंश के बोरोबुदुर के प्रत्युत्तर में शैलेन्द्र राजवंश के विजेता रकाई पिकतान ने स्थापित करवाया।[28] लेकिन अन्य मतों के अनुसार वहाँ पर शान्तिपूर्वक सह-अस्तित्व का वातावरण था जहाँ लारा जोंग्गरंग में शैलेन्द्र राजवंश का की भागीदारी रही।[29]

परित्याग

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पहाड़ी पर अनदेखे बोरोबुदुर स्तूप। सदियों तक ये सुनसान पड़ा रहा।

बोरोबुदुर को कई सदियों तक ज्वालामुखीय राख और जंगल विकास ने छुपाये रखा। इसके परित्याग के पिछे के कारण भी रहस्यमय हैं। यह ज्ञात नहीं है कि स्मारक का उपयोग और तीर्थयात्रियों के लिए इसे कब बन्द किया गया था। सन् ९२८ और १००६ के मध्य शृंखलाबद्ध ज्वालामुखियाँ फुटने के कारण राजा मपु सिनदोक ने माताराम राजवंश की राजधानी को पूर्वी जावा में स्थानान्तरित कर दिया; यह निश्चित नहीं है कि इससे परित्याग प्रभावित है लेकिन विभिन्न स्रोतों के अनुसार यह परित्याग का सबसे उपयुक्त समय था।[7][20] स्मारक का अस्पष्ट उल्लेख मध्यकाल में १३६५ के लगभग मपु प्रपंचा की पुस्तक नगरकरेतागमा में मिलता है जो मजापहित काल में लिखी गई तथा इसमें "बुदुर में विहार" का उल्लेख है।[30] सोेक्मोनो (१९७६) ने भी लौकिक मत का उल्लेख किया है जिसके अनुसार १५वीं सदी में जब लोगों ने इस्लाम में धर्मान्तरित करना आरम्भ किया तो मंदिर को उजाड़ना आरम्भ कर दिया।[7]

स्मारक को पूर्णतया नहीं भूलाया जा सका, क्योंकि लोक कथायें इसके महिमापूर्ण इतिहास से असफलता और दुर्गति के साथ अंधविश्वासों से जुड़ गयी। १८वीं सदी के दो प्राचीन जावाई वृत्तांतों (बाबाद) में स्मारक के साथ जुड़ी नाकामयाबियों की कथा का उल्लेख मिलता है। बाबाद तनाह जावी (अथवा जावा का इतिहास) के अनुसार १७०९ में माताराम साम्राज्य के राजा पकुबुवोनो प्रथम के प्रति विद्रोह करना मास डाना के लिए घातक कारक सिद्ध हुआ।[7] उसमें उल्लिखीत है कि "रेडी बोरोबुदुर" पहाड़ी की घेराबंदी की गई और विद्रोहियों की इसमें पराजय हुई तथा राजा ने उन्हें मौत की सजा सुनायी। बाबाद माताराम (अथवा माताराम साम्राज्य का इतिहास) में, स्मारक को सन् १७५७ में योग्यकर्ता सल्तनत के युवराज राजा मोंचोनागोरो के दुर्भाग्य से जोड़ा गया है।[31] इसमें लिखे हुये के अनुसार स्मारक में प्रवेश निषेध होने के बावजूद "वो एक छिद्रित स्तूप (कैद में डाला हुआ एक शूरवीर) लेकर गये"। अपने महल में वापस आने के बाद वो बिमार हो गये और अगले दिन उनका निधन हो गया।

पुनराविष्कार

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१९वीं सदी के मध्य में बोरोबुदुर के मुख्य स्तूप पर काष्ठचत्वर लगाया गया।

जाव को अधिकृत करने के बाद १८११ से १८१६ के मध्य यह ब्रितानी प्रशासन के अधीन रहा। यहाँ का कार्यभार लेफ्टिनेंट गवर्नर-जनरल थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स को सौंपा गया। उन्होंने जावा के इतिहास में गहरी रूचि ली। उन्होंने जावा की प्राचीन वस्तुओं को लिया और द्वीप पर अपने दौरे के दौरान वहाँ के स्थानीय निवासीयों के साथ सम्पर्क के माध्यम से सामग्री तैयार की। सन् १८१४ में सेमारंग के निरीक्षण दौर पर, बुमिसेगोरो के गाँव के पास एक जंगल के खाफी अन्दर एक बड़े स्मारक के बारे में जानकारी प्राप्त की।[31] वो इसकी खोज करने में स्वयं असमर्थ थे अतः उन्होंने डच अभियंता एच॰सी॰ कॉर्नेलियस को अन्वेषण के लिए भेजा। दो माह बाद कॉर्नेलियस और उनके २०० लोगों ने पेड़ों को काट दिया, नीचे की घास को जला दिया और जमीन को खोदकर स्मारक को बाहर निकाला। स्मारक के ढ़हने के खतरे को देखते हुये वो सभी वीथिकाओं का पता लगाने में असमर्थ रहे। यद्यपि यह खोज कुछ वाक्यों में ही उल्लिखीत है, रैफल्स को स्मारक के पुनरुद्धार का श्रेय दिया जाता है क्योंकि वो स्मारक को दुनिया के सामने रखने वालों में से एक थे।[12]

केदु क्षेत्र के डच प्रशासक हार्टमान ने कॉर्नेलियस के कार्य को लगाता आगे बढ़ाया और १८३५ में पूरे परिसर को भूमि से बाहर निकाला। उनकी बोरोबुदुर में आधिकारिक से भी अधिक व्यक्तिगत दिलचस्पी थी। उन्होंने इस बारे में कोई लेखन कार्य नहीं किया। विशेष रूप से कथित कहानियों के अनुसार उन्होंने मुख्य स्तूप में बुद्ध की बड़ी मूर्ति को खोजा।[32] सन् १८४२ में हार्टमान ने मुख्य गुम्बद का अन्वेषण किया, हालांकि उनके द्वारा खोजा गया कार्य अज्ञात है और मुख्य स्तूप खाली है।

सन् १८७२ में बोरोबुदुर

डच ईस्ट इंडीज सरकार ने एक डच आधिकारिक अभियंता एफ॰सी॰ विल्सन यह कार्य सौंपा। उन्होंने स्मारक का अध्ययन किया और उच्चावचों के सैकड़ों रेखा-चित्र बनाये। जे॰एफ॰जी॰ ब्रुमुण्ड को भी स्मारक का अध्ययन करने के लिए नियुक्त किया गया और उन्होंने अपना कार्य १८५९ में पूर्ण किया। सरकार ने विल्सन के रेखाचित्रों को साथ जोड़कर ब्रुमुण्ड के कार्य पर आधारित लेख प्रकाशित करना चाहती थी लेकिन ब्रुमुण्ड ने सहयोग नहीं किया। सरकार ने बाद में एक अन्य शोधार्थी सी॰ लीमान्स को यह कार्य सौंपा। उन्होंने विल्सन के स्रोतों और ब्रुमुण्ड के कार्य पर आधारित विनिबंध संकलित किये। सन् १८७३ में बोरोबुदुर के अध्ययन का विनिबंधात्मक अध्ययन उनका अंग्रेज़ी में प्रकाशन हुआ और उसके एक वर्ष बाद इसे फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित किया गया।[32] स्मारक का प्रथम चित्र १८७३ में डच-फ्लेमिश तक्षणकार इसिडोर वैन किंस्बेर्गन ने लिया।[33]

धीरे-धीरे इस स्थान का गुणविवेचन होने लगा और यह व्यापक रूप में यादगार के रूप में और चोरों तथा स्मारिका खोजियों के लिए आय का साधन बना रहा। सन् १८८२ में सांस्कृतिक कलाकृतियों के मुख्य निरीक्षक ने स्मारक की अस्थायी स्थिति के कारण उच्चावचों को किसी अन्य स्थान पर संग्राहलय में स्थानान्तरित करने का अनुग्रह किया।[33] इसके परिणामस्वरूप सरकार ने पुरातत्वविद् ग्रोयनवेल्ड्ट को स्थान का अन्वेषण करने और परिसर की वास्तविक स्थिति ज्ञात करने के लिए नियुक्त किया; अपने प्रतिवेदन में उन्होंने पाया कि इस तरह के डर अनुचित हैं और इसे उसी स्थिति में बरकरार रखने का अनुग्रह किया।

बोरोबुदुर स्मृति चिह्नों के स्रोत के रूप में जाना जाने लगा और इसकी मूर्तियों के भागों को लूट लिया गया। इनमें से कुछ भाग तो औपनिवेशिक सरकार सहमति से भी लूटे गये। सन् १८९६ में श्यामदेश के राजा चुलालोंगकॉर्न ने जावा की यात्रा की और बोरोबुदुर से मूर्तियाँ ले जाने का आग्रह किया। उन्हें मूर्तियों के आठ छकड़ा भर लाने की अनुमति मिल गई। इसमें विभिन्न स्तंभों से लिए गये तीस उच्चावच, पाँच बुद्ध के चित्र, दो शेर की मूर्तियाँ, एक व्यालमुख प्रणाल, सीढ़ियों और दरवाजों से कुछ काला अनुकल्प और द्वारपाल की प्रतिमा सम्मिलित हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कलाकृतियाँ, जैसे शेर, द्वारपाल, काला, मकर और विशाल जलस्थल (नाले) आदि, बैंकॉक राष्ट्रीय संग्रहालय के जावा कला कक्ष में प्रदर्शित की जाती हैं।[34]

पुनःस्थापन

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१९११ में वैन एर्प के पुनःस्थापन के बाद बोरोबुदुर। इसके मुख्य स्तूप के शीर्ष शीखर पर छत्र बनाया गया था (अब ध्वस्त)।

बोरोबुदुर ने सन् १८८५ में उस समय ध्यान आकर्षित किया योग्यकर्ता में पुरातत्व समुदाय के अध्यक्ष यजेर्मन ने एक छुपे हुये पैर को खोज निकाला।[35] उच्चावचों के छुपे हुये पैर व्यक्त करने वाले चित्र १८९०–१८९१ में बने थे।[36] डच ईस्ट इंडीज़ सरकार ने इस खोज के बाद स्मारक की रक्षा के लिए कदम उठाये। सन् १९९० में सरकार ने स्मारक के उपयोग के लिए तीन अधिकारियों का एक आयोग बनाया। इनमें कला इतिहासकार ब्रांडेस, डच सेना के अभियंता अधिकारी थियोडोर वैन एर्प और लोक निर्माण विभाग के निर्माण अभियंता वैन डी कमर शामिल थे।

सन् १९०२ में आयोग ने सरकार के सामने तीन प्रस्तावों वाली योजना रखी। इसमें पहले प्रस्ताव में कोनों को पुनः स्थापित करने, ठीक से नहीं लगे पत्थरों को हटाना, वेदिकाओं का सुदृढ़ीकरण और झरोखे, महिराब (तोरण), स्तूप और मुख्य गुम्बद को पुनः स्थापित करना शामिल था जिससे तत्काल हो सकने वाले दुर्घटनाओं को रोका जा सके। दूसरे प्रस्ताव में प्रकोष्ठ को हटाना, उचित रखरखाव उपलब्ध कराना, तलों (छतों) और स्तूपों की मरम्मत करके जल की निकासी में सुधार करना शामिल था। उस समय इस कार्य की कुल अनुमानित लागत लगभग ४८,८०० डच गिल्डर थी।

उसके बाद १९०७ से १९११ के मध्य थियोडोर वैन एर्प और पुरातत्व विभाग के नियमों के अनुसार मरम्मत का कार्य किया गया।[37] इसकी मरम्मत के प्रथम सात माह तक बुद्ध की मूर्तियों के सिर और स्तम्भों के पत्थर खोजने के लिए स्मारक के आसपास खुदाई में लग गये। वैन एर्प ने तीनों उपरी वृत्ताकार चबूतरे और स्तूपों को ध्वस्थ करके पुनः निर्मित किया। इसी बीच, वैन एर्प ने स्मारक में सुधारने हेतु अन्य विषयों की खोज की; उन्होंने के और प्रस्ताव रखा जो अतिरिक्त ३४,६०० गिल्डर की लागत के साथ स्वीकृत हो गया। पहली नज़र में बोरोबुदुर अपनी पुरानी महिमा के साथ स्थापित हो गया। वैन एर्प ने सावधानीपूर्वक मुख्य स्तूप के शिखर पर छत्र (तीन स्तरीय छतरी) पुनर्निर्माण का कार्य आरम्भ करवाया। हालांकि बाद में उन्होंने छत्र को पुनः हटा दिया क्योंकि शिखर के निर्माण में मूल पत्थर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं थे। अर्थात बोरोबुदुर के शिखर की मूल बनावट ज्ञात नहीं है। हटाया गया छत्र अब बोरोबुदुर से कुछ सैकड़ों मीटर उत्तर में स्थित कर्मविभांगगा संग्राहलय में रखा गया है।

परिमित बजट के कारण पुनःस्थापन के कार्य को प्राथमिक रूप से मूर्तियों की सफाई पर केन्द्रित रखा गया तथा वैन एर्प ने जलनिकासी की समस्या का समाधान नहीं किया। पन्द्रह वर्षो में गलियारे की दिवारे झुकने लगी और उच्चावचों में दरार तथा ह्रास दिखायी देने लग गया।[37] वैन एर्प ने कंकरीट काम में लिया था जिससे क्षारीय लवण तथा कैल्शियम हाइड्रोक्साइड का घोल बाहर आने लगा जिसका अपवाहन बाकी निर्माण में भी होने अगा। इसके कारण कुछ समस्यायें आने लगी और इसके पूरी तरह से नवीकरण की तत्काल आवश्यकता पड़ी।

१९७३ में की गई मरम्मत के दौरान बोरोबुदुर की जलनिकासी में सुधार के लिए पीवीसी नाले और कंकरीट का अंतःस्थापन

तत्काल कुछ लघु मरम्मत का कार्य किया गया लेकिन वो पूर्ण सुरक्षा के लिए पर्याप्त नहीं था। द्वितीय विश्वयुद्ध और १९४५ से १९४९ में इंडोनेशियाई राष्ट्रीय क्रांति के दौरान, बोरोबुदुर के पुनःस्थापन के प्रयासों को रोकना पड़ा। इस समय स्मारक मौसम तथा जलनिकासी की समस्या का सामना करना पड़ा जिसके कारण पत्थरों की मूल बनावट में परिवर्तन तथा दीवारों के जमीन में धँसनें जैसी समस्या उत्पन्न हो गई। १९५० के दशक तक बोरोबुदुर के ढ़हने की कगार पर पहुँच गया था। सन् १९६५ में इंडोनेशिया ने यूनेस्को से बोरोबुदुर सहित अन्य स्मारकों के अपक्षय को रोकने के लिए सहायता मांगी। सन् १९६८ में इंडोनेशिया के पुरातत्व सेवा के प्रमुख प्रोफेसर सोेक्मोनो ने "बोरोबुदुर सरंक्षण" अभियान आरम्भ किया और बड़े पैमाने पर मरम्मत की परियोजना आरम्भ की।[38]

१९६० के दशक के उत्तरार्द्ध में इंडोनेशिया सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने स्मारक को बचाने के लिए बड़ा नवीनीकरण कराने का अनुरोध किया। सन् १९७३ में बोरोबुदुर के जीर्णोद्धार का महाअभियान चालु किया गया।[39] इसके बाद इंडोनेशिया सरकार और यूनेस्को ने १९७५ से १९८२ तक एक बड़ी नवीनीकरण परियोजना में स्मारक का जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण किया।[37] सन् १९७५ में वास्तविक कार्य आरम्भ हुआ। नवीनीकरण के दौरान दस लाख से भी अधिक पत्थर हटाये गये और उन्हें एक तरफ आरा रूप में रखा गया जिससे उन्हें अलग-अलग पहचाना जा सके तथा सूचीबद्ध रूप से सफैइ और परिरक्षण के लिए काम में लिए जा सकें। बोरोबुदुर नवीन सरंक्षण तकनीक का परीक्षण मैदान बन गया जहाँ पत्थरों के सूक्ष्मजीवों से क्षय की नवीन प्रक्रिया विकसित हो सके।[38] इस प्रक्रिया की नींव रखते हुए सभी १४६० स्तम्भों की सफ़ाई की गई। पुनःस्थापन में पाँच वर्गाकार चबूतरों को हटाकर स्मारक में जलनिकासी में सुधार का कार्य भी शामिल था। अपारगम्य और निस्यंदी दोनों परतें बनायी गई। इस विशाल परियोजना में स्मारक लगभग ६०० लोगों ने कार्य किया और कुल मिलाकर यूएस $६,९०१,२४३ की लागत आयी।[40]

नवीनीकरण समाप्त होने के बाद यूनेस्को ने १९९१ में बोरोबुदुर को विश्व विरासत स्थलों में सूचीबद्ध किया।[4] इसे सांस्कृतिक मानदंड (i) "मानव रचित उत्कृष्ट कृति", (ii) "समयान्तराल में मानव मूल्यों का एक महत्वपूर्ण विनिमय प्रदर्शन अथवा विश्व के सांस्कृतिक क्षेत्र में स्थापत्य कला अथवा तकनीकी, स्मारक कला, नगर-योजना अथवा परिदृश्य बनावट में विकास और (vi) "जीवित परम्पराओं, विचारों, विश्वासों और उत्कृष्ठ सार्वभौमिक महत्व के साहित्यिक कार्यों से सीधे अथवा मूर्त रूप से जुड़े हों; के अन्तर्गत सूचिबद्ध किया ग्या।[4]

समकालीन घटनायें

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शीर्ष चबूतरे पर ध्यान करते बौद्ध तीर्थयात्री

धार्मिक समारोह

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सन् १९७३ में यूनेस्को द्वारा विशाल नवीनीकरण के बाद,[39] बोरोबुदुर को पुनः तीर्थयात्रा और पूजास्थल के रूप में काम में लिया जाने लगा। वर्ष में एक बार, मई या जून माह में पूर्णिमा के दिन इंडोनेशिया में बौद्ध धर्म के लोग सिद्धार्थ गौतम के जन्म, निधन और बुद्ध शाक्यमुनि के रूप में ज्ञान प्राप्त करने के उपलक्ष में वैशाख मनाते हैं। वैसाख का यह दिन इंडोनेशिया में राष्ट्रीय छुट्टी के रूप में मनाया जाता है[41] तथा तीन बौद्ध मंदिरों मेदुत से पावोन होते हुये बोरोबुदुर तक समारोह मनाया जाता है।[42]

बोरोबुदुर में वैशाक उत्सव

स्मारक इंडोनेशिया में पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। सन् १९७४ में स्मारक को देखने २६०,००० पर्यटक आये जिनमें से ३६,००० विदेशी पर्यटक थे।[9] देश में अर्थव्यवस्था संकट से पूर्व १९९० के दशक के मध्य तक यह संख्या बढ़कर २५ लाख वार्षिक तक पहुँच गई (जिनमें से ८०% घरेलू पर्यटक थे)।[10] हालांकि पर्यटन विकास को स्थानीय समुदाय को शामिल नहीं करने के कारण हुये आकस्मिक विवाद के कारण आलोचनायें झेलनी पड़ी।[9] वर्ष २००३ में बोरोबुदुर के छोटे व्यवसायियों और निवासियों ने प्रांतीय सरकार की तीनमंजिला मॉल परिसर बनाने और "जावा दुनिया" को संवारने की योजना के विरोध में विभिन्न बैठकें आयोजित की तथा काव्यात्मक विरोध किया।[43]

पाटा ग्राण्ड पेसिफिल पुरस्कार २००४, पाटा गोल्ड अवार्ड २०११ और पाटा गोल्ड अवार्ड २०१२ जैसे अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार भी बोरोबुदुर पुरातत्व उद्यान को मिले। जून २०१२ में बोरोबुदुर को विश्व के सबसे बड़े पुरातत्व स्थल के रूप में गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया।[44]

बोरोबुदुर में पर्यटन

संरक्षण

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यूनेस्को ने वर्तमान संरक्षण की स्थिति में तीन विशिष्ट क्षेत्रों को चिह्नित किया है: (i) आगंतुकों द्वारा बर्बरता; (ii) स्थल के के दक्षिण-पूर्वी भाग में मिट्टी का कटाव; और (iii) लापता तत्वों का विश्लेषण और बहाली।[45] नरम मिट्टी, अनेकों भूकम्प और भारी बारिश के कारण बनावट में अस्थिरता आने लगी। भूकम्प इसमें सबसे बड़े कारक रहे जिससे पत्थर गिरने लग गये और मेहराब उखड़ने लग गये लेकिन पृथ्वी भी अपने आप में तरंग गति करती है जिससे इसकी सरंचना में और अधिक विध्वंस हुआ।[45] इसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता ने इसमें और अधिक यात्रियों को आकर्षित किया जिनमें से अधिकतर इंडोनेशिया से थे। किसी भी जगह से न छुने चेतावनियाँ लिखने, ध्वनि-विस्तारक यंत्रों से नियमित तौर पर चेतावनी जारी करने और पहरेदारों की उपस्थिति के बावजूद उच्चावचों और मूर्तियों में बर्बरता सामान्य घटना एवं समस्या बनी रही और लगातार इसका ह्रास होता रहा। वर्ष २००९ तक, उस स्थान पर प्रतिदिन यात्रियों की संख्या को निश्चित करने अथवा अनिवार्य पर्यटन निर्देशित करने वाली कोई प्रणाली नहीं है।[45]

अगस्त २०१४ में, बोरोबुदुर के सरंक्षण प्राधिकरण ने यात्रियों के जूतों से सीढ़ियों के पत्थर के गम्भीर रूप से घिसाई प्रतिवेदित की। सरंक्षण प्राधिकरण ने पत्थर की सीढ़ियों को सुरक्षित रखने के लिए उनके ऊपर लकड़ी का आवरण लगाने की योजना तैयार की, जैसा अंकोरवाट में है।[46]

पुनर्वासन

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मेरापी पर्वत और योग्यकर्ता के सापेक्ष बोरोबुदुर की स्थिति।

बोरोबुदुर अक्टूबर और नवम्बर २०१० में मेरापी पर्वत में भारी ज्वालामुखी विस्फोट से भारी मात्रा में प्रभावित हुआ। मंदिर परिसर से लगभग 28 किलोमीटर (17 मील) दक्षिण-पश्चिम में स्थित ज्वालामुखी खड्ड की ज्वालामुखीय राख मंदिर परिसर में भी गिरी। ३ से ५ नवम्बर तक ज्वालामुखी विस्फोट के समय मंदिर की मूर्तियों पर 2.5 सेन्टीमीटर (1 इंच) की राख की परत चढ़ गयी।[47] इससे आस-पास के पेड़-पौधों को भी नुकसान हुआ और विशेषज्ञों ने इस ऐतिहासिक स्थल को नुकसान की आशंका व्यक्त की। ५ से ९ नवम्बर तक मंदिर परिसर को राख की सफाई करने के लिए बन्द रखा गया।[48][49]

यूनेस्को ने २०१० में मेरापी पर्वत से ज्वालामुखी विस्फोट के बाद बोरोबुदुर के पुनःस्थापन की लागत के रूप में यूएस$३० लाख दान दिया।[50] ५५,००० से अधिक पत्थरों की सिल्लियाँ बारिस के कारण किचड़ से बन्द हुई जलनिकासी प्रणाली की सफ़ाई के लिए हटाये गये। पुनःस्थापन नवम्बर २०११ तक समाप्त हुआ।[51]

जनवरी २०१२ में दो जर्मन पत्थर सरंक्षण विशेषज्ञों ने उस स्थान पर मन्दिर का विश्लेषण करने तथा पत्थरों का दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए १० दिन व्यय किये।[52] जून में जर्मनी द्वितीय चरण के पुनःस्थापन के लिए यूनेस्को को $१३०,००० देने के लिए सहमत हो गई जिसके अनुसार पत्थर सरंक्षण, सूक्ष्मजैविकी, सरंचना अभियांत्रिकी और रासायनिक अभियान्त्रिकी के छः विशेषज्ञ वहाँ पर जून में एक सप्ताह रहेंगे तथा सितम्बर अथवा अक्टूबर में इसका पुनः निरीक्षण करेंगे। इस तरह के प्रेरित कार्यों में संरक्षण गतिविधियों का शुभारम्भ हुआ। इसके अलावा इससे सरकारी कर्मचारियों के संरक्षण क्षमताओं तथा युवा सरंक्षण विशेषज्ञों को नया शुभारम्भ प्राप्त हुआ।[53]

फ़रवरी २०१४ में योगकर्ता से २०० किलोमीटर पूर्व में स्थित पूर्वी जावा में केलुड ज्वालामुखी में हुये विस्फोट से निकली ज्वालामुखी राख से प्रभावित होने के बाद बोरोबुदुर, प्रमबनन और रतु बोको सहित योग्यकर्ता और मध्य जावा के बड़े पर्यटन आकर्षण यात्रियों के लिए बन्द कर दिये गये। कामगारों ने ज्वालामुखीय राख से बोरोबुदुर की सरंचना को बचाने के लिए प्रतिष्ठित स्तूप और मूर्तियों को आवरित कर दिया। १३ फ़रवरी २०१४ को केलुड ज्वालामुखी में विस्फोट हुआ जो योग्यकर्ता तक सुनायी दिया।[54]

सुरक्षा खतरे

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२१ जनवरी १९८५ को नौ बम विस्फोटो से नौ स्तूप बूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गये।[55][56] सन् १९९१ में एक मुस्लिम धर्मोपदेशक हुसैन अली अल हब्स्याई को १९८० के दशक के मध्य में मंदिर पर हमले सहित शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों की नीति तैयार करने के लिए आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी।[57] बम ले जाने वाले दक्षिणपंथी उग्रवादी समूह के दो अन्य सदस्यों को १९८६ में २० वर्ष की कारावास की सजा सुनाई गयी थी एवं एक अन्य व्यक्ति को १३-वर्ष कारावास की सजा मिली।

२७ मई २००६ को मध्य जावा के दक्षिणी तट पर रिक्टर पैमाने पर ६.२ तीव्रता के भूकम्प टकराया। इस घटना से योग्यकर्ता नगर के निकट के क्षेत्रों में गंभीर क्षति के साथ बहुत से लोग हताहत हुये लेकिन बोरोबुदुर को इससे अप्रभावित रहा।[58]

अगस्त २०१४ में आईएसआईएस की इंडोनेशियाई शाखा ने सोशल मीडिया पर स्व-उद्धोषित किया कि वो बोरोबुदुर सहित इंडोनेशिया के अन्य प्रतिमा परियोजनाओं को ध्वस्त करने की योजना बना रहे हैं। इसके बाद इंडोनेशिया की पुलिस और सुरक्षा बलों ने बोरोबुदुर की सुरक्षा बढ़ा दी।[59] सुरक्षा सुधारों में मंदिर परिसर में सीसीटीवी निगरानी की मरम्मत, विस्तार और संस्थापन सहित रात का पहरा लगाना भी शामिल है। जिहादी समूह इस्लाम के कट्टर रूप का अनुसरण करते हैं जो मूर्ति-पूजा, मुर्तियाँ जैसे किसी भी नृरूपी निरूपण का विरोध करते हैं।

स्थापत्यकला

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पुनर्निर्माण के दौरान बोरोबुदुर में पुरातात्विक उत्खनन ने सुझाव दिया कि बौद्ध अनुयायीओं के स्वामित्व से पूर्व बोरोबुदुर पहाड़ी पर प्राचीन भारतीय आस्था अथवा हिन्दू अनुयायियों द्वारा बड़ी मात्रा में निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया था। संस्थान को इसके विपरीत कोई भी हिन्दू अथवा बौद्ध पुण्यस्थान संरचना नहीं मिली और इसी कारण से इसकी प्रारंभिक संरचना हिन्दू अथवा बौद्ध के स्थान पर स्थानीय जावा संस्कृति के अनुरूप मानी जाती है।[60]

रूपांकन

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मंडल रूप में बोरोबुदुर की भू-योजना।

बोरोबुदुर को एक बड़े स्तूप के रूप में निर्मित किया गया और जब इसे ऊपर से देखा जाये तो यह विशाल तांत्रिक बौद्ध मंडल का रूप प्राप्त करता है इसके साथ ही यह बौद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और मन के स्वभाव को निरूपित करता है।[61] इसका मूल आधार वर्गाकार है जिसकी प्रत्येक भुजा 118 मीटर (387 फीट) है।[62] इसमें नौ मंजिलें हैं जिनमें से नीचली छः वर्गाकार हैं तथा उपरी तीन वृत्ताकार हैं। उपरी मंजिल पर मध्य में एक बड़े स्तूप के चारों ओर बहत्तर छोटे स्तूप हैं। प्रत्येक स्तूप घण्टी के आकार का है जो कई सजावटी छिद्रों से सहित है। बुद्ध की मूर्तियाँ इन छिद्रयुक्त सहपात्रों के अन्दर स्थापित हैं।

बोरोबुदुर का स्वरूप सोपान-पिरामिड से ली गयी है। इससे पहले इंडोनेशिया में प्रागैतिहासिक ऑस्ट्रोनेशियाई महापाषाण संस्कृति में पुंडेन बेरुंडक नामक विभिन्न जमीनी दुर्ग और पत्थरों से सोपान-पिरामिड संरचना पायी गयी जिसकी खोज पंग्गुयांगां, किसोलोक और गुनुंग पडंग, पश्चिम जावा में हुई। पत्थर से बने पिरामिडों के निर्माण निर्माण के पिछे स्थानीय विश्वास यह है कि पर्वतों और ऊँचे स्थानों पर पैतृक आत्माओं अथवा ह्यांग का निवास होता है। पुंडेन बेरुंडक सोपान-पिरमिड बोरोबुदुर की आधारभूत बनावट को महायान बौद्ध विचारों और प्रतीकों के साथ निगमित पाषाण परंपरा का विस्तार माना जाता है।[63]

बोरोबुदुर का स्थापत्य मॉडल

स्मारक के तीन भाग प्रतीकात्मक रूप से तीन लोकों को निरूपित करते हैं। ये तीन लोक क्रमशः कामधातु (इच्छाओं की दुनिया), रूपधातु (रूपों की दुनिया) और अरूपधातु (रूपरहित दुनिया) हैं। साधारण बौधगम्य अपना जीवन इनमें से निम्नतर जीवन स्तर इच्छाओं की दुनिया में रहता है। जो लोग अपनी इच्छाओं पर काबू प्राप्त कर लेते हैं वो प्रथम स्तर से ऊपर उठ जाते हैं और उस जगह पहुँच जाते हैं जहाँ से रूपों को देख तो सकते हैं लेकिन उनकी इच्छा नहीं होती। अन्त में पूर्ण बुद्ध व्यवहारिक वास्तविकता के जीवनस्तर से ऊपर उठ जाते हैं और यह सबसे मूलभूत तथा विशुद्ध स्तर माना जाता है। इसमें वो रूपरहित निर्वाण को प्राप्त होते हैं।[64] संसार के जीवन चक्र से उपरी रूप जहाँ प्रबुद्ध आत्मा शून्यता के समान, सांसारिक रूप के साथ संलग्न नहीं होती, उसे पूर्ण खालीपन अथवा अपने आप अस्तित्वहीन रखना आता है। कामधातु को आधार से निरूपित किया गया है, रूपधातु को पाँच वर्गाकार मंजिलों (सरंचना) से और अरूपधातु को तीन वृत्ताकार मंजिलों तथा विशाल शिखर स्तूप से निरूपित किया गया है। इन तीन स्तरों के स्थापत्य गुणों में लाक्षणिक अन्तर हैं। उदाहरण के लिए रूपधातु में मिलने वाले वर्ग और विस्तृत अलंकरण अरूपधातु के सरल वृत्ताकार मंजिल में लुप्त हो जाते हैं, जिससे रूपों की दुनिया को निरूपित किया जाता है–जहाँ लोग नाम और रूप से जुड़े रहते हैं—रूपहीन दुनिया में परिवर्तित हो जाते हैं।[65]

बोरोबुदुर में सामूहिक पूजा घूमते हुये तीर्थ के रूप में की जाती है। तीर्थयात्रियों का शिखर मंजिल तक जाने के लिए सीढ़ियां और गलियारा मार्गदर्शन करते हैं। प्रत्येक मंजिल आत्मज्ञान के एक स्तर को निरूपित करती है। तीर्थयात्रियों का मार्गदर्शन करने वाला पथ बौद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान को प्रतीकात्मक रूप में परिकल्पित करता है।[66]

सन् १८८५ में आकस्मिक रूप से आधार में छुपी हुई सरंचना खोजी गयी।[35] "छुपे हुये पाद" में उच्चावच भी शामिल हैं, जिनमें से १६० वास्तविक कामधातु के विवरण की व्याख्य करते हैं। इसके अलावा बच्चे हुये उच्चावच शिलालेखित चौखट हैं जिसमें मूर्तिकार ने नक्काशियों के बारे में कुछ आवश्यक अनुदेश लिखे थे।[67] वास्तविक आधार के ऊपर झालरदार आधार बना हुआ है जिसका उद्देश्य आज भी रहस्य बना हुआ है। प्रारम्भिक विचारों के अनुसार पहाड़ी में विनाशकारी घटाव आने की स्थिति में वास्तविक आधार को आच्छादित करने के लिए हैं।[67] अन्य मतों के अनुसार झालरदार आधार बनाने का कारण नगर नियोजन और स्थापत्य के बारे में प्राचीन भारतीय पुस्तक वास्तु शास्त्र के अनुसार छुपे हुये मूल आधार में बनावट दोष होना है।[35] इसके बावजूद चूँकि इसका निर्माण कार्य आरम्भ हो चुका था अतः झालरदार आधार का निर्माण पूर्ण सौंदर्य और धार्मिक विचारों का सुक्ष्मता से ध्यान रखकर किया गया।

बुद्ध प्रतिमायें

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धर्मचक्र मुद्रा में बुद्ध की एक मूर्ति

बौद्ध ब्रह्माडिकी को पत्थर पर उतारने की कहानी के अतिरिक्त भी बोरोबुदुर में बुद्ध की विभिन्न मूर्तियाँ मौजूद हैं। इसमें पैर पर पैर रखकर पद्मासन स्थिति वाली मूर्तियाँ पाँच वर्गाकार चबूतरों पर (रुपधातु स्तर) के साथ-साथ उपरी चबूतरे (अरुपधातू स्तर) मौजूद हैं।

रुपधातु स्तर पर देवली में बुद्ध की प्रतिमायें स्तंभवेष्टन (वेदिका) के बाहर पंक्तियों में क्रमबद्ध हैं जिसमें उपरी स्तर पर मूर्तियों की संख्या लगातार कम होती है। प्रथम वेदिका में १०४ देवली, दूसरी में ८८, तीसरी में ७२, चौथी में ७२ और पाँचवी में ६४ देवली हैं। कुल मिलाकर रुपधातु स्तर तक ४३२ बुद्ध की मूर्तियाँ हैं।[1] अरुपधातु स्तर (अथवा तीन वृत्ताकार चबूतरों पर) पर बुद्ध की मूर्तियाँ स्तूपों के अन्दर स्थित हैं। इसके प्रथम वृत्ताकार चबूतरे पर ३२ स्तूप, दूसरे पर २४ और तीसरे पर १६ स्तूप हैं जिसका कुल ७२ स्तूप होता है।[1] मूल ५०४ बुद्ध मूर्तियों में से ३०० से अधिक क्षतिग्रस्थ (अधिकतर का सिर गायब है) हो चुकी हैं और ४३ मूर्तियाँ गुम हैं। स्मारक की खोज होने तक मूर्तियों के सिर पाश्चात्य संग्राहलयों द्वारा संग्रह की वस्तु के रूप में चोरी कर लिया।[68] बोरोबुदुर से बुद्ध की मूर्तियों के इन शिर्षमुखों में से कुछ अब ऐम्स्टर्डैम के ट्रोपेन म्यूजियम और लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय सहित विभिन्न संग्राहलयों में देखे जा सकते हैं।[69]

ट्रोपेनमुसुम, एम्स्टर्डम में बोरोबुदुर बुद्ध प्रतिमा का मस्तिष्क।
बोरोबुदुर में मस्तिष्क रहित बुद्ध की मूर्ति, इसकी खोज के बाद कई मूर्तियाँ विदेशों में संग्राहलयों में रखने के लिए चोरी हो गई।
शेर द्वारपाल

पहली नज़र में बुद्ध की सभी मूर्तियाँ समरूप प्रतीत होती हैं लेकिन उन सभी मुर्तियों की मुद्रा अथवा हाथों की स्थिति में अल्प भिन्नता है। इनमें मुद्रा के पाँच समूह हैं: उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और शिरोबिंदु। ये सभी मुद्रायें महायान के अनुसार पाँच क्रममुक्त दिक्सूचक को निरुपित करती हैं। प्रथम चार वेदिकाओं में पहली चार मुद्रायें (उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम) में प्रत्येक मूर्ति कम्पास की एक दिशा को निरुपित करता है। पाँचवी वेदिका में बुद्ध की मूर्ति और उपरी चबूतरे के ७२ स्तूपो में स्थित मूर्तियाँ समान मुद्रा (शिरोबिंदु) में हैं। प्रत्येक मुद्रा में 'पाँच ध्यानी बुद्ध' में से किसी एक को निरूपित करती है जिनमें प्रत्येक का अपना प्रतीकवाद है।[70]

प्रदक्षिणा अथवा दक्षिणावर्त परिक्रमा (घड़ी की दिशा में परिक्रमा) के अनुसार पूर्व से आरम्भ करते हुये बोरोबुदुर में बुद्ध की मुर्तियों की मुद्रा निम्न प्रकार है:

प्रतिमा मुद्रा प्रतीकात्मक अर्थ ध्यानी बुद्ध प्रधान दिग्बिन्दु प्रतिमा की स्थति
भूमिस्पर्श मुद्रा पृथ्वी साक्षी है अक्षोभ्य पूर्व प्रथम चार पूर्वी वेदिकाओं में रूपधातु झरोखे पर
वार मुद्रा परोपकार, दान देने रत्नसम्भव दक्षिण प्रथम चार दक्षिण वेदिकाओं में रूपधातु झरोखे पर
ध्यान मुद्रा एकाग्रता और ध्यान अमिताभ पश्चिम प्रथम चार पश्चिमी वेदिकाओं में रूपधातु झरोखा
अभय मुद्रा साहस, निर्भयता अमोघसिद्धि उत्तर प्रथम चार उत्तरी वेदिकाओं में रूपधातु झरोखा
वितर्क मुद्रा तर्क और पुण्य वैरोचन शिरोबिंदु सभी दिशाओं में पाँचवी (सबसे उपरी) वेदिका के रूपधातु झरोखे
धर्मचक्र मुद्रा घूमता हुआ धर्म (कानून) का पहिया वैरोचन शिरोबिंदु तीन परिक्रमा वाले चबूतरों के छिद्रित ७२ स्तूपों में अरूपधातु

चित्र दीर्घा

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उच्चावचों की चित्र दीर्घा

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बोरोबुदुर दीर्घा

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टिप्पणी

[संपादित करें]
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सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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