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पाश्चात्य दर्शन

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अध्ययन की दृष्टि से पश्चिमी दर्शन को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-

(१) प्राचीन दर्शन
(२) मध्यकालीन दर्शन
(३) आधुनिक दर्शन
(4) समकालीन दर्शन

मध्यकालीन दर्शन

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प्राचीन दर्शन में मनुष्य की बुद्धि को प्रत्येक विषय पर सोचने का अधिकार था। मध्यकाल में ईसाइयत की ओर से इस अधिकार को ललकारा गया। मध्यकालीन दर्शन का मुख्य काम विश्वास (faith) और बुद्धि (reason) के दावों की जाँच करना था। विश्वास का दावा था कि सत्य का महत्वपूर्ण भाग दैवी आविष्कार है, वह बुद्धि की समझ में आए या न आए इसे तो मानना ही होगा। आरंभ में ईसाई विचारकों ने विश्वास और बुद्धि की धारणाओं को अभिन्न स्वीकार किया। इसके बाद दर्शन को धर्म की अपेक्षा गौण पद दिया और बुद्धि को विश्वास की दासी बनाया; अन्त में बुद्धि ने अपने अधिकार पर बल दिया और विश्वास तथा बुद्धि के क्षेत्र पृथक् हो गए। विलियम ड्युरंड्स ने कहा कि सत्य दो प्रकार का होता है- एक ही सिद्धांत एक दृष्टि से सत्य और दूसरी दृष्टि से असत्य हो सकता है।

मध्यकाल का दर्शन प्रमुख रूप में विद्वन्मण्डल (scholasticism) का दर्शन है। आठवीं शती में इसका आरम्भ हुआ; 11वीं और 12वीं शतियों में इसका विकास हुआ; 13वीं शती इसका यौवन काल था, 14वीं और 15वीं शतियों में आंतरिक विरोधों तथा कुछ बाहरी कारणों ने इसे समाप्त कर दिया।

जो विचारविषय तीव्र मतभेद का कारण बन गए उनमें दार्शनिक दृष्टिकोण के यथार्थवाद और नामवाद का संघर्ष प्रमुख था। वैयक्तिक स्थिति में हम अनेक मनुष्यों को देखते हैं, इसके अतिरिक्त मनुष्य का प्रत्यय भी हमारा एक विचार है। इस प्रत्यय की स्थिति सत्ता में क्या है? यथार्थवाद के अनुसार यह प्रत्यय विशेष मनुष्यों से अलग अस्तित्व रखता है; विशेष मनुष्य तो इसकी अपूर्ण नकलें या इसके उदाहरण मात्र हैं। नामवाद के अनुसार वास्तविक सत्ता विशेष मनुष्यों की है, "मनुष्य" केवल एक नाम है, जो कुछ समानताओं के आधार पर हम कुछ व्यक्तियों में से हर एक को दे देते हैं। वास्तव में यह यथार्थवाद और आभासवाद का झगड़ा था। इसी से मिलता हुआ विवेकवाद और अनुभववाद का मतभेद था। जो लोग सामान्य को मानते ही न थे, उनके लिए सारा ज्ञान इंद्रियदत्त ज्ञान था। इस दार्शनिक मतभेद ने धर्म में कई सिद्धांतों का भेद खड़ा कर दिया। विवाद के प्रमुख विषय ये थे-

  • (१) त्रिमूर्ति का सिद्धान्त - परमात्मा एक है और इसके साथ ही वह "पिता", "पुत्र" तथा "पवित्र आत्मा", तीन स्वाधीन सत्ताओं का संयोग भी है (देखिए, "त्रित्व")। अवेलार्ड (1039-1122) ने "त्रिमूर्ति" पर निबंध लिखा। एक परिषद् ने उसे सुने बिना उसे अपराधी ठहराया और आदेश दिया कि वह अपने हाथों से निबन्ध को जलाए।
  • (२) पाप का प्रायश्चित्त - सारे मनुष्य जन्म से पायी है। न्याय की माँग यह है कि पापी को पाप का दण्ड मिले। कोई मनुष्य पर्याप्त दंड को सह नहीं सकता है। क्या एक मनुष्य के पाप का दंड दूसरे को देना न्याय के अनुकूल है? क्या श्री यीशु की मृत्यु सभी मनुष्यों के पाप का पर्याप्त प्रायश्चित्त है?
  • (३) मोक्ष मनुष्य के कर्मों का फल है या परमात्मा के अनुग्रह से मिलता है? वह अनुग्रह किसी नियम पर आधारित होता है या परमात्मा की अविहित इच्छा पर?
  • (४) मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, या सब कुछ पहले से ही भाग्य के रूप में निर्णीत है?
  • (५) मौलिक पाप निरपेक्ष रूप में तथ्य है, या श्री यीशु की माता इससे विमुक्त थीं?

विद्वन्मण्डल के प्रमुख विचारक

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एन्सैल्म (Anselm 1033-1109) विद्वत् सिद्धान्त का स्थापक समझा जाता है। दर्शन के इतिहास में उस युक्ति का विशेष स्थान है, जो एन्सैल्म ने ईश्वर के अस्तित्व के पक्ष में दी। कांट ने इस युक्ति को माना नहीं, परंतु कहा कि जो अन्य युक्तियाँ दी जाती हैं, वे एन्सैल्म की युक्ति की रूपांतर ही हैं। मध्यकाल के दर्शन में टामस एक्विनस और डंस स्कोट्स के नाम विशेष महत्व के हैं। यथार्थवाद और नामवाद के तीव्र विवाद में वे दोनों पक्षों के प्रमुख प्रवक्ता थे। टामस एक्विनस की धारणा थी कि ज्ञान के कुछ क्षेत्र विश्वास के ही विषय हैं; इसपर भी इंद्रियदत्त ज्ञान उन मूल नियमों की सहायता से, जो प्रत्येक की सक्रिय बुद्धि में विद्यमान हैं, विश्व और परमात्मा के स्वरूप के विषय में कुछ बता सकता है। डंस स्कोटस का विचार था कि सारा ज्ञान विशेषों तक सीमित है; सामान्य प्रत्ययों का अस्तित्व नाम मात्र है। डंस स्कोट्स के योग्य शिष्य ओखम ने नामवाद के प्रसार में सफल यत्न किया। विद्वद्वाद तर्क में इतना उलझ गया कि धर्म से इसका सम्बन्ध टूट सा गया। धार्मिक वृत्ति के लोगों को "संशोधन" ने अपनी ओर खींच लिया। धर्म (रेलिजन) और दर्शन के पार्थक्य ने आधुनिक दर्शन के लिए मार्ग खोल दिया।

आधुनिक दर्शन

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आधुनिक दर्शन के प्रमुख झुकाव

आधुनिक काल में मनुष्य की बुद्धि ने फिर स्वाधीन विवेचन का काम उत्सुकता के साथ आरम्भ कर दिया। कुछ लोगों के विचार में बेकन ने इसका मार्गसंकेत किया, परन्तु बहुमत डेकार्ट को इसका स्थापक मानता है। दार्शनिकों के सफल और विफल विवाद ने देकार्त को प्रेरणा दी कि हो सके तो दर्शन में गणित की निश्चितता प्रविष्ट करे। उसके बाद स्पिनोजा और लाइबनिज़ की भी यही भावना रही। इंग्लैंड में विचारक मनोविज्ञान की ओर झुके ओर उन्होंने मानव बुद्धि को अनुसन्धान का विषय बनाया। अनुभववाद को लॉक, वर्कली और ह्यूम जैसे प्रथम श्रेणी के विचारक मिल गए। (यूरोप) महाद्वीपीय विचारकों का विवेकवाद और इंग्लैंड का अनुभववाद दो विपरीत दिशाओं में जहाँ तक जा सकते थे, जा पहुँचे। अब जर्मनी दार्शनिक विवेचन का केन्द्र बना। कांट ने विवेकवाद और अनुभववाद को आलोचनावाद (क्रिटिकल फ़िलॉसफ़ी) में समन्वित करने का यत्न किया। हेगल और शापेनहावर ने प्रत्ययवाद (आइडिअलिज्म) को आगे बढ़ाया। इस आधुनिक दर्शन की तीन प्रमुख शाखाएँ ये हैं-

  • 1. महाद्वीपीय दार्शनिकों का विवेकवाद (Rationalism) - देकार्त, स्पिनोजा, लाइबनीज

इसके अतिरिक्त विशेष विषयों पर भी पर्याप्त विचार हुआ।

देकार्त (1596-1650) ने सामयिक सन्देह से आरम्भ किया। तुरन्त ही उसे पता लगा कि यह संदेह स्वयं संदेह का विषय नहीं हो सकता। उसका पहला संदिग्ध बोध यह था-

"मैं चिन्तन करता हूँ, इसलिए मैं हूँ।" (अंग्रेजी : I think, therefore I am; या, I am thinking, therefore I exist)

अधिक विचार से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि परमात्मा और भौतिक जगत् का अस्तित्व भी विमल और स्पष्ट चिंतन का फल है और इसलिए असंदिग्ध तथ्य हैं। सारी सत्ता दो प्रकार की है - पुरुष और प्रकृति। ये दोनों द्रव्य हैं - सर्वथा एक दूसरे से भिन्न। पुरुष का गुण चेतना है, प्रकृति का गुण विस्तार या फैलाव है। इन दोनों का भेद भेद की पराकाष्ठा है।

बारूथ स्पिनोज़ा (1632-1677) ने कहा कि द्रव्य के प्रत्यय में अनंतता निहित है। अनंत एक ही हो सकता है, समग्र ही अकेला द्रव्य है। अनन्त (द्रव्य) के अनन्त गुण हैं, परन्तु मनुष्य केवल दो गुणों, चिन्तन और विस्तार, के विषय में जान सकता है। चिंतन के विविध आकार आत्मा या जीव कहलाते हैं; विस्तार के आकार भौतिक पदार्थ हैं। इन दोनों में कारण-कार्य का संबंध नहीं, केवल समानांतरता है। एकमात्र कारण तो समग्र या ईश्वर ही है; मनुष्य अनिवार्यता के अधीन हैं। अनिवार्यता की स्वीकृति ही स्वधीनता है। उद्वेगों को समझना, उन्हें आनंद और प्रेम के शासन में करना यही मनुष्य का लक्ष्य है, इसी को ईश्वरप्रेम कहते हैं।

लाइबनिज़ (1646-1716) ने कहा कि द्रव्य एक नहीं, परन्तु एक प्रकार के हैं। उसने मौलिक द्रव्य को चिद् बिंदु का स्पष्ट सम्पर्क किसी दूसरे चिद् बिंदु से नहीं होता। आरम्भ में ही परमात्मा ने उनमें ऐसा सामंजस्य उत्पन्न कर दिया कि प्रत्येक का आत्मबोध उसे बता देता है कि दूसरों की आत्माओं में क्या हो रहा है। एक निपुण घड़ी बनाने वाले की बनाई हुई घड़ियाँ एक दूसरे को प्रभावित नहीं करतीं, परन्तु सभी एक ही समय दिखाती हैं।

देकार्त ने द्वैतवाद को, स्पिनोजा ने अद्वैतवाद का और लाइबनिज़ ने आध्यात्मिक अनेकवाद को अपनाया।

जान लॉक (1632-1704) ने अपनी विख्यात पुस्तक "मानव बुद्धि पर निबंध" को सहज, अप्राप्त प्रत्ययों की अस्वीकृति से आरंभ किया। उसने कहा कि मनुष्य का मन आरंभ में एक कोरी तख्ती सा होता है, अनुभव उसपर अनेक प्रकार के विचार अंकित करता है। इन विचारों में कुछ संवेद के रूप में होते हैं, कुछ मन के चिंतन का फल होते हैं। द्रव्य का प्रत्यक्ष दूसरे प्रकार का विचार है। मन कुछ गुणों को संयुक्त पाता है और उनके संयोग के आधार की कल्पना करता है, ऐसे आधर को द्रव्य समझा जाता है। भौतिक द्रव्य में कुछ गुण विद्यमान होते हैं, कुछ, भ्रम में उसमें स्थित समझ लिए जाते हैं। आकृति, परिमाण, ठोसपन, गति पहले प्रकार के गुण हैं; रूप, रंग, रस, गंध, शब्द हमारे बाहर नहीं, अपितु हमारे अंदर हैं ये क्रमश: प्रधान (प्राइमरी) और अप्रधान (सेकंडरी) गुण कहलाते हैं। बाह्य द्रव्य का जो प्रत्यय हम बनाते हैं, वह स्पष्ट नहीं होता। यह नहीं जानते कि विभिन्न गुण कैसे संयुक्त होते हैं, न यह जानते हैं कि गुणों के समूह के विशेष गुण कैसे बाहर बह आते हैं।

जार्ज बर्कली (1684-1753) ने कहा कि प्रधान गुण भी अप्रधान गुणों की तरह मानसिक रूपांतर ही हैं। दोनों प्रकार के गुणों को छोड़ दें तो शेष अस्थूल विचार ही रह जाता है और ऐसे विचारों का कोई अस्तित्व नहीं। इस तरह बर्कले ने अभौतिकवाद का समर्थन किया। सारी सत्ता चेतनों और उनके विचारों की है। हमारा बोध, अधिक मात्रा में, हमपर थोपा जाता है; आँख खोलने पर मैं निश्चय नहीं करता कि मुझे क्या दिखाई देगा। इस बोध का कारण परमात्मा की क्रिया है। यह क्रिया निश्चित नियमों के अनुसार होती है; इन नियमों का ही प्राकृत नियम का नाम दिया जाता है। सारी सत्ता चेतनों और उनकी चेतनावस्थाओं से ही बनी है।

अनुभववाद में एक पग उठाना बाकी था, वह डेविड ह्यूम (1711-1776) ने उठाया। ह्यूम ने कहा कि अनुभव जो बोध हमें देता है, वे सब एक दूसरे से पृथक् होते हैं, परंतु उनमें किसी प्रकार का संबंध नहीं होता। जिन गुणों को हम एक साथ देखते रहे हैं, उनके समूह को एक पदार्थ समझ लेते हैं। यही ज्ञाता की स्थिति है, वह भी चेतन अवस्थाओं का समूह ही है। ह्यूम ने द्रव्य के प्रत्यय को भाव और कल्पना की रचना बताया और आभासवाद का समर्थन किया। विज्ञान की नींव कारण-कार्य संबंध पर है, ह्यूम ने अन्य संबंधों की तरह, इस संबंध को कल्पित बताया और अनुभववाद को संदेहवाद में परिणत कर दिया। अनुभववाद ने इस धारणा के साथ आरंभ किया था कि हमारा सारा ज्ञान बाहर से प्राप्त होता है, ह्यूम ने कहा कि अनुभववाद में निश्चित ज्ञान की संभावना ही नहीं।

इमानुएल कांट (1722-1804) ने विवेकवाद और अनुभववाद की पृथक् धाराओं को मिलाकर उन्हें एक नदीतल पर बहाने का यत्न किया। उसने कहा कि ज्ञान की कच्ची सामग्री बाहर से प्राप्त होती है, मन इसे अनिवार्य आकृति देता है। कांट का प्रत्ययवाद अभौतिकवाद न था, उसकी धारणा थी कि ज्ञान के निर्माण में मन का योगदान अनिवार्य अंश है। संवेदन बाहर से प्राप्त होते हैं, परंतु इन्हें देश और काल के साँचों से गुजरना होता है और तब ये संयुक्त हाकर वस्तु-ज्ञान बनते हैं। देश और काल मानसिक आकृतियाँ हैं। प्रत्ययों की समानता और असमानता के आधार पर जो निर्णय बनते हैं, उनके बनाने में मन उन्हें गुण, परिमाण, संबंध और आकार के सूत्रों में बाँधता है। कांट का प्रथम उद्देश्य विज्ञान को ह्यम के आक्रमण से बचाना था। कुछ समय के लिए उसने ह्यूम के कारणता के सिद्धांत को स्वीकार किया। पीछे इसी की आलोचना को अपना लक्ष्य बनाया। कारण-कार्य-संबंध का अस्तित्व तो असंदिग्ध है: प्रश्न यह है कि इसका आधार क्या है। कांट इस विचार में ह्यूम से सहमत है कि बाह्य घटनाओं में इसका स्रोत नहीं। वह कहता है कि बुद्धि इसे उन घटनाओं पर अपनी ओर से लागू करती है और निरे बहुत्व की व्यवस्था में बदल देती है। ज्ञान ग्रहण करना ही नहीं, यह निर्माण है - मन की कृति इसका मौलिक चिन्ह है। "विशुद्ध बुद्धि" आभासों की दुनिया से परे नहीं जा सकती; जब जाने का यत्न करती है तो विरोधों में उलझ जाती है। परोक्ष का ज्ञान, जैसा भी यह हो, व्यावहारिक बुद्धि की देन है। मनुष्य अनिवार्य रूप से नैतिक प्राणी है। कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है कि कत्र्ता में स्वाधीन कर्म की क्षमता हो। हमारा लक्ष्य पूर्ण सिद्धि है। इस अनंत लक्ष्य की सिद्धि के लिए अनंत काल की आवश्यकता है। शुभ और अशुभ का फल अवश्य मिलना चाहिए, यह नैतिक भावना की माँग है। इसके लिए पर्याप्त शक्ति का शासक होना चाहिए। व्यावहारिक बुद्धि स्वाधीनता, अमरत्व और आस्तिकवाद को मान्यता देती है।

कांट ने कहा था कि बुद्धि की खोज आभास की दुनिया में सीमित है, इसे निरपेक्ष के सबंध में व्यर्थं चिंतन नहीं करना चाहिए। उसके पीछे आनेवालों ने उसका परामर्श नहीं माना और निरपेक्ष को ही अपने विवेचन का विषय बनाया। हेगेल (1770-1831) ने कहा कि मौलिक सत्ता "मन" है। विकास में जो क्रम बाह्य जगत् में होता है, वही चिंतन में होता है - तर्क और तत्वज्ञान एक प्रकार के ही अध्ययन हैं। जा कुछ विवेकात्मक है वह सत्य है, जो सत्य है, वह विवेकात्मक है। विकास का मौलिक तथ्य "विरोध" है। जगत् में प्रत्येक स्थिति में उसका विरोध निहित होता है। इस विरोध के प्रकट होने के बाद, दोनों स्थितियों में समन्वय होता है। चूँकि मन इस परिवर्तन का आधार होता है, सामान्य रूप में गति प्रगति होती है। चिंतन में प्रत्येक धारणा (thesis) प्रतिधारणा (antithesis) को जन्म देती है और फिर दोनों का समन्वय (synthesis) हो जाता है। इस समन्वय में ऊँचे स्तर से दिखाई देता है कि धारणा और प्रतिधारणा दोनों में सत्य था, यद्यपि आंशिक सत्य था। दार्शनिक विवेचन में इस क्रम के कई उदाहरण मिलते हैं। विवेकवाद एक धारणा थी, इसने अनुभववाद के रूप में प्रतिधारणा को जन्म दिया। कांट ने अपने आलोचनवाद में दोनों का समन्वय किया और बताया कि दोनों पक्षों में आंशिक सत्य है। प्रत्येक समन्वय नई धारणा बनता है और नई प्रतिधारणा को जन्म देता है। यह क्रम लगातार जारी रहता है। राजनीति के संबध में हेगेल इस व्यापक नियम को भूल गया और उसने कहा कि प्रशा में राष्ट्र ने अपने अंतिम आकार को प्राप्त कर लिया है। परंतु यहाँ वक्ता दार्शनिक हेगेल नहीं, अपितु स्वदेशाभिमानी हेगेल था।

आर्थर शोपेनहावर (1797-1860) ने भी मौलिक तत्व की खोज को अपना लक्ष्य बनाया। हेगेल की तरह उसने भी मन को ऐसा तत्व माना, परंतु विवेक या बुद्धि के स्थान में उसने संकल्प को यह गौरव का पद दिया- मेरे या अपने संकल्प को नहीं, अपितु व्यापक संकल्प को। जड़ जगत् में ये संकल्प प्राकृत शक्ति के विविध रूपों में व्यक्त होता है, जैसे आकर्षण, गर्मी, प्रकाश, बिजली आदि। वनस्पति और पशु-पक्षियों के जीवन में ये व्यवस्थापिका शक्ति के रूप में व्यक्त होता है और मनुष्य में आत्मचेतना का रूप ग्रहण करता है। मनुष्य स्वभाव से सुख का उत्पादन करना चाहता है, परंतु जिस स्थिति में वह पड़ा है, उसमें उसका यत्न विफल होता है। जीवन का संघर्ष ही अपरिमित दु:ख को पैदा कर देता है। मनुष्य के लिए उचित नहीं है कि हर प्रकार की इच्छा या आकांक्षा को छोड़कर तपस्वी जीवन व्यतीत करे और वस्तुओं की व्यापक असारता पर मनन करे। हेगेल ने विवेक को मूलतत्व माना; उसे आशावादी होना ही था। अंधे संकल्प का मूलतत्व माननेवाला शापेनहावर आधुनिक काल का सबसे बड़ा अभद्रवादी था।

विशेष विषयों पर विचार

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19वीं शती के मध्य काल के बाद जो विवेचन हुआ, वह प्राय: विशेष विषयों के सबंध में हुआ। प्रस्तुत विषय की चर्चा यहाँ सांकेतिक रूप से की जा रही है।

1. फ्रेड्रिक नीत्शे - नैतिक मूल्यों का प्रतिमूल्यांकन (Revaluation of All Values)

2. हर्बर्ट स्पेंसर और बर्गसाँ- विकासवाद (evolution)

3. पीअर्स और विलियम जेम्स- व्यवहारवाद (pragmatism)

नीत्शे- शापेनहावर ने कहा था कि संसार में अंधे संकल्प का शासन व्यापक है। नीत्शे (1844-1900) ने कहा कि मनुष्य के लिए सर्वोच्च आकांक्षा 'शक्ति की आकांक्षा' (will to power) है। योद्धा युद्ध में विश्वास करता है; हर एक युद्ध को साहस से लड़ा जाए, अपने उद्देश्य को अच्छा बना देता है। स्वाधीन पुरुष की नीति दासों की नीति से बहुत भिन्न है। ईसाइयत ने नम्रता, करुणा, सहानुभूति, बराबरी को सदाचार के अंश बताकर दास नीति का प्रचार किया है। नैतिक मूल्यों का फिर से मूल्यांकन होना चाहिए। बलवान व्यक्तियों और जातियों का काम आगे बढ़ना है; जो रुकावट मार्ग में आए, उसे ठोकर लगाकर परे कर देना है। निर्बलों का भला भी इसी में है कि बलवानों को अधिक बलवान बनने में सहायता दें। बकरी के लिए इससे अधिक भाग्य की वस्तु क्या है कि वह शेर के शरीर का अंश बन जाए?

हरबर्ट स्पेंसर और बर्गसां - हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903) ने प्राकृतिक विकासवाद (natural evolution) का प्रसार किया। प्रकृति और गति का पुन: वितरण निरंतर होता रहता है, एक मंजिल पर जीवन व्यक्त हो जाता है और इसके बाद उचित समय पर चेतना प्रकट हो जाती है। बर्गसां (1859-1941) ने कहा कि गति तो केवल स्थानपरिवर्तन है, इसमें जीवन उत्पन्न करने की क्षमता नहीं। प्रकृति की गति में आवृत्ति होती है, नूतनता नहीं होती और नूतनता जीवन का प्रमुख चिन्ह है। प्रकृति तो जीवन की राख है, जीवन-सत्ता का मूल तत्व है। बर्गसाँ जीवन और चेतना को संयुक्त करता है, कहीं-कहीं तो इन्हें अभिन्न मानता प्रतीत होता है। बर्गसां ने अपनी प्रमुख पुस्तक को "उत्पादक विकास" का नाम दिया। इस नाम से ही पता लगता है कि प्राकृतिक विकासवाद से उसका दृष्टिकोण कैसे भिन्न है। जीवन निरंतर प्रवाह है। बुद्धि का काम व्यवहार की सुविधा के लिए वस्तुओं का तोड़ना फोड़ना है; यह जीवन को उसके वास्तविक रूप में देख नहीं सकती। अंतज्र्योति जीवनप्रवाह को साक्षात देखती है। कांट ने कहा था कि बुद्धि आभास की दुनिया से परे नहीं जा सकती। बर्गसाँ ने इस दुनिया के सबंध में भी उसके क्षेत्र को सीमित कर दिया।

विलियम जेम्स - अमरीका के विचारकों ने 'सत्य के स्वरूप' को विवेचन का प्रमुख विषय बनाया। चार्ल्स पीअर्स ने "व्यवहारवाद" (प्रैग्मैटिज्म) की नीवं रखीं; जेम्स (1842-1910) ने इस नींव पर भवन खड़ा किया। "सत्य" के दो समाधान प्रसिद्ध थे- अनुरूपतावाद और अविरोधवाद। जेम्स के मतानुसार जो विश्वास जीवनव्यवहार में सहायक सिद्ध हो, वे सत्य है, जो बाधक हों, वे असत्य हैं। आचरण की तरह ज्ञान में भी सत्य और उपयोगिता एक ही हैं। अनुरूपतावाद के अनुसार सत्य ज्ञान में ज्ञाता के विचार और वास्तविक स्थिति में समानता हाती है। अविरोधवाद के अनुसार हमारा ज्ञान हमारे विचारों से परे जा नहीं सकता; जो विचार शेष ज्ञान हमारे विचारों से परे जा नहीं सकता; जो विचार शेष ज्ञान से संयुक्त हो सकता है, वह सत्य है। व्यवहारवाद के अनुसार जो विचार सफल क्रिया में परिणत हो सकता है, वह सत्य है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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