जार्ज बर्कली
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व्यक्तिगत जानकारी | |
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जन्म | 12 मार्च 1685 County Kilkenny, Ireland |
मृत्यु | 14 जनवरी 1753 Oxford, England | (उम्र 67 वर्ष)
वृत्तिक जानकारी | |
युग | 18th century philosophy |
क्षेत्र | Western Philosophy |
विचार सम्प्रदाय (स्कूल) | Idealism Empiricism |
मुख्य विचार | Christianity, metaphysics, epistemology, language, mathematics, perception |
प्रमुख विचार | Subjective idealism, master argument |
प्रभाव
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जार्ज बर्कली (George Berkeley ; /ˈbɑrklɵɪ/; १६८५-१७५३) एक अंग्रेज-आयरी दार्शनिक थे जिन्होने 'इम्मैटेरिअलिज्म' (immaterialism) का सिद्धान्त दिया जिसे बाद में आत्मनिष्ठ आदर्शवाद (subjective idealism) कहा गया।
परिचय
[संपादित करें]बर्कली का जन्म १२ मार्च १६८५ को डाइसर्ट, फिलकैनी (आयरलैंड) में हुआ था। ११ वर्ष की उम्र में इन्होंने फिलकैनी स्कूल में प्रवेश किया और चार वर्ष उपरांत ये ट्रिनिटी कालेज (डबलिन) चले गए। वहाँ अंडरग्रेजुएट, ग्रेजुएट, फेलो और ट्यूटर रहे। सन् १७१३ में लंदन चले गए। वहाँ स्विफ्ट, स्टील, एडीसन और पोप से उनका परिचय हुआ। उन्होंने आठ वर्ष इंग्लैंड और यूरोप का भ्रमण करने में व्यतीत किए। भ्रमण से लौटने पर वह पहले ड्रोमोर और फिर डेरी के डीन पद पर प्रतिष्ठित हुए। सेवा और परोपकार की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और अमरीका चले गए। किंतु इंग्लैंड की सरकार से स्वीकृत धन भी न मिलने पर वह निराश होकर अपने देश लौट आए। १७३४ में उन्होंने क्लोन का बिशप बनना स्वीकार कर लिया और उसी साधारण पद पर रहकर दार्शनिक चिंतन करते रहे। समय समय पर उन्होंने लेख और पुस्तकें लिखीं और उन्हें प्रकाशित कराया। वृद्धावस्था में बर्कली विश्राम हेतु आक्सफोर्ड चले गए और कुछ महीनों बाद वहीं उनकी मृत्यु हो गई।
बर्कली ने अपनी मुख्य रचनाएँ जीवन के प्रारंभिक काल में ही की थीं। 'ऐन एसे टुवर्ड्स ए न्यू थ्योरी ऑव विज़न' (१७०९), 'ट्रीटीज कन्सर्निंग दि प्रिंसिपल्स ऑव ह्यूमन नॉलेज' (१७१०), 'थ्री डायलॉग्स बिटवीन हेलस ऐंड फिलोनस' (१७१३), 'डी मोटू' (१७२०) 'अल्सफ्रीोन' अथवा 'मायनूट फिलासफर' (१७३२) और सीरिम : 'ए चेन ऑव फिलासोफिकल रिफ्लेक्शंस' (१७४४) नामक ग्रंथ लिखे।
ज्ञानमीमांसा पर विचार करते हुए बर्कली इस निर्णय पर पहुंचे कि अमूर्त प्रत्यय का कोई अस्तित्व नहीं है। अनुभव में आनेवाली वस्तुओं के सामान्य गुणों का संकेत करनेवाले शब्द केवल नाम हैं। उनके किसी वास्तविक सत्ता का बोध नहीं होता है। हमारे अनुभव में जो ज्ञान आता है वह विशेष का ही होता है। शब्द तो प्रत्ययों के प्रतीक मात्र हैं। शब्द को ही प्रत्यय मान लेना भारी मूल है। बर्कली के मत में अमूर्त प्रत्यय या सामान्य केवल नाम हैं।
बर्कली ने अपने पूर्वगामी दार्शनिक जॉन लॉक के अनुभववाद को अधिक प्रकर्ष प्रदान किया। लॉक ने एक ऐसे आधार की सत्ता मानी थी जिसमें भौतिक वस्तुओं के गुण अवस्थित रहते हैं। उसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता, फिर भी उसका अस्तित्व अवश्य है। बर्कली ने इसे स्वीकार नहीं किया। लॉक का विश्वास था कि मूल या मुख्य गुणों की सत्ता द्रष्टा से स्वतंत्र और भिन्न है, इसलिए उन गुणों का अवलंब द्रव भी बाहर होना चाहिए। बर्कली ने युक्ति द्वारा प्राथमिक और द्वितीयक गुणों के भेद का खंडन किया और सभी गुणों को मनस्-अवलंबित सिद्ध करने का प्रयत्न किया। अत: उन्होंने पदार्थ या वस्तु का भी स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया।
बर्कली का यह कथन प्रसिद्ध है कि 'अस्तित्व का अर्थ है प्रतीति का विषय होना।' कोई वस्तु है, इसका यही आशय है कि कोई व्यक्ति (आत्मा या परमात्मा) उसे देखता, सुनता या अन्य रूप से उसका अनुभव करता है। जो वस्तु अनुभव में नहीं आती उसकी सत्ता का कोई प्रमाण नहीं है। यदि अनुभव का परीक्षण किया जाए तो ज्ञात होगा कि हमारे प्रत्यय ही अनुभव के विषय हैं। इसलिए प्रत्यय और प्रत्यय का अधिष्ठान दो का ही अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता है। लॉक के विपरीत बर्कली प्रत्यय को वस्तु जगत् की प्रतिलिपि नहीं मानते हैं।
निष्क्रिय प्रत्ययों के अतिरिक्त बर्कली एक क्रियाशील पदार्थ अर्थात् आत्मा के अस्तित्व को भी स्वीकार करते हैं। आत्मा के द्वारा अनुभव ग्रहण किए जाते हैं और वेदनाओं की प्रतीति होती है। आत्मा का विशेष प्रकार से अंतर्बोध प्राप्त होता है।
यद्यपि संसार की वस्तुओं की भाँति ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव नहीं होता है तथापि बिशप होने के नाते बर्कली ईश्वर की सत्ता मानते हैं। हमारे मनस् में प्रत्ययों का एक विशेष क्रम से उत्पन्न होने का कारण ईश्वर ही है। ईश्वर आत्मरूप है। वह हमारी आत्मा में प्रत्यय उत्पन्न करता है। ईश्वर की सत्ता को मानकर बर्कली ने अपनी दार्शनिक पद्धति को सर्वाहंवाद के गद्ढे में गिरने से बचा लिया है।
सन्दर्भ
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