स्वामी स्वरूपदास

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स्वामी स्वरूपदास (1801–1863) राजस्थान और मालवा में एक दादूपंथी संत-कवि एंव धार्मिक गुरु थे। [1] वे प्रसिद्ध कवि और इतिहासकार, महाकवि सूर्यमल्ल के व रतलाम, सैलाना और सीतामऊ राज्यों के शासकों के गुरु थे और उन्हें 'अन्नदाता' शब्द से संबोधित किया जाता था । [2] [3] उन्होंने दर्शनशास्त्र, भक्ति, नैतिकता विषयित 12 प्रमुख ग्रंथ लिखे; जिनमें से उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति 'पांडव यशेन्दु चंद्रिका' है। [4]

जीवनी[संपादित करें]

प्रारंभिक जीवन[संपादित करें]

स्वामी स्वरूपदास का बाल्यकाल में नाम शंकरदान था। उनके पिता का नाम मिश्रीदानजी और चाचा का नाम परमानंदजी था। उनके पूर्वजों का गांव खारोड़ा, धाट क्षेत्र ( सिंध ) के उमरकोट जिले में स्थित था। उनके पिता और चाचा दोनों खारोड़ा में निवास करते थे। [4] कहा जाता है कि एक बार सराई मुस्लिम हमलावरों ने खारोड़ा गाँव को लूटा और बहुत कष्ट पहुँचाया, जिसके कारण मिश्रीदानजी और परमानंदजी ने गाँव त्यागने का निर्णय किया और राजस्थान के अजमेर क्षेत्र के एक कस्बे बड़ली चले गए। परमानंदजी ब्रह्मचारी, विद्वान, कवि और ईश्वर-भक्त थे। बड़ली के ठाकुर दुल्हेसिंह ने परमानंदजी का सत्कार व सम्मान किया और आग्रहपूर्वक दोनों भाइयों को बड़ली में बसाया। शंकरदान (स्वरूपदासजी) का जन्म यहीं बड़ली में हुआ। [3]

संभवतया, यह परिवार बड़ली के पास बसे अपने स्वगौत्रीय देथा भाइयों के गाँव दौलतगढ़ में बसने के इरादे से इस क्षेत्र में आया था। परमानंदजी दौलतगढ़ गए भी थे, कदाचित वे वहाँ से अपने ही किसी गोत्रीय भाई की सन्तान को गोद लेना चाहते थे। यह भी बहुत प्रचलित है कि स्वामी स्वरूपदासजी ने अपने वंशजों के बारे में भविष्यवाणी की थी कि मेरे आशीर्वाद से प्रत्येक तीसरी पीढ़ी में एक संत होगा और अनपढ़ होते हुए भी एक विद्वान कवि होगा। ऐसा कहते हैं कि उनका आशीर्वाद आज तक फलता जा रहा है। पीढ़ियों के क्रम में और स्वामीजी की परम्परा में अब तक सरजूदासजी, सुन्दरदासजी संत हो चुके और वर्तमान में मनोहरदासजी संत हैं। [3]

उस समय महाराजा मान सिंह जोधपुर में शासन करते थे, जो अपनी उदारता में अद्वितीय माने जाते थे और विद्वान चारणों की भक्ति और विद्वता के गुणों से मोहित थे। जब वह जोधपुर राज्य के शासन पर आसीन हुए, तो जालौर की घेराबंदी के दौरान उनकी सहायता के लिए उनके साथ रहे 17 चारणों विद्वानों को, सांसण में गांव-जागीर आदि प्रदान कर तुष्ट किया। [3]

परमानन्दजी को स्वयं किसी का याचक होना स्वीकार नहीं था और उनके अग्रज मिश्रीदानजी कोई विद्वान अथवा कवि नहीं थे। अपने भाई के साथ मिलकर उन्होंने विचार किया कि यदि उनका भतीजा शंकरदान एक विद्वान और कवि बन जाता है, तो वह अपनी विद्वता से मान सिंह या अन्य किसी शासक से जागीर प्राप्त करने के योग्य हो सकता है। [3]

इसी विचार को मन में रखकर स्वयं परमानन्द ने बाल्यकाल से ही शंकरदान को विद्याभ्यास कराया और उसे संस्कृत भाषा में निष्णात किया। हालाँकि, चूँकि परमानंद स्वयं हरिभक्त थे और संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होने के साथ-साथ वेदांत के प्रखर ज्ञाता थे, इसलिए बालक शंकरदान पर भी वेदान्त का प्रबल प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप, शंकरदान ने अपनी शिक्षा पूरी होते-होते ही देवलिया के एक दादूपंथी साधु के शिष्य बन कर शंकरदान ने सिर-मुंडवा लिया और अपना नाम स्वरूपदास रख लिया। [3]

अपनी धारणा को इस प्रकार निष्फल होती देखकर परमानंदजी बहुत दुखी हुए और उन्होंने शंकरदान को कई पत्र लिखे। वे खुद उन्हें वापस लौटने के लिए मनाने गए लेकिन सफल नहीं हुए क्योंकि शंकरदान में वैराग्य की भावना प्रबल हो गई थी। अपने प्रयासों में असफल रहने के बाद, कुछ दिनों बाद, परमानंदजी का निधन हो गया। [3]

साधु जीवन[संपादित करें]

साधु बनने के बाद स्वरूपदास मुख्य रूप से मालवा में रहने लगे, हालांकि वे कुछ समय अजमेर में भी रहे। रतलाम के महाराजा बलवंत सिंह (1882-1914) उन्हें अपना गुरु के मानते थे इसलिए स्वामी जी रतलाम में भी प्राय निवास करते थे। [3]

रतलाम के अतिरिक्त सीतामऊ और सैलाना रियासतों में भी स्वरूपदास का बहुत आदर था। सीतामऊ के महाराजा-कुमार रतन सिंह 'नटनागर' (1865-1920), जो स्वयं एक अच्छे कवि थे, स्वामी जी को अपना गुरु मानते थे। रतन सिंह के मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी और वे उन्हें ईश्वर का अवतार मानते थे। यहां तक कि राजकाज में भी वे स्वामीजी को बराबर का आसन देते थे और इनकी चरण-रज मस्तक पर धारण करते थे। इन महाराज-कुमार के सम्पूर्ण जीवन पर स्वरूपदासजी का बहुत प्रभाव था। जब स्वामीजी सीतामऊ से बाहर प्रवास पर होते तब भी दोनों के बीच पत्र-व्यवहार बराबर जारी रहता। अधिकांश पत्र-व्यवहार दोनों ओर से पद्यमय होता। अपने ग्रंथ 'नटनागरविनोद' में, रतन सिंह ने मंगलाचरण में भगवान की स्तुति नहीं की, बल्कि अपने गुरु स्वरूपदास की ही वन्दना की है, क्योंकि वे उन्हें एक सिद्ध पुरूष और ईश्वर का अवतार समझते थे। [3]

वंश भास्कर के 'गुरु-वंदना' अध्याय में, सूर्यमल ने अपने गुरु स्वरूपदास का वर्णन किया है, जिनसे उन्होंने योग, मम्मट की अत्यंत कठिन काव्य शैली, विभिन्न अद्वैतवादी वेदांत ग्रंथों के साथ-साथ न्याय और वैशेषिक दर्शन ग्रंथों का बाल्यकाल में ज्ञान प्राप्त किया था। सूर्यमल ने जीवन भर स्वामीजी का बहुत सम्मान किया। स्वरूपदास बड़े उदार-चित्त थे व ज्ञान के मर्म को समझते थे। उन्होंने देखा कि उनके विद्वान शिष्य सूर्यमल ने अपनी असाधारण प्रतिभा से उन्हें पीछे छोड़ दिया है । 1846 में सूर्यमल को लिखे अपने एक पत्र में, स्वरूपदास ने अपना गर्व व्यक्त किया और सूर्यमल को 'विद्वानों में सर्वोच्च' कहा। [3]

स्वामीजी के शिष्यों में से एक कवि शिवराम दाधीच थे, जिन्होंने 1899 में "तखत विलास " नामक एक ग्रंथ लिखा था। इसके मंगलाचरण में उन्होंने अपने गुरु स्वरूपदासजी विषयित स्तोत्रों की रचना की, जिसमें वे बड़ी श्रद्धा से उनका स्मरण और स्तुति करते हैं। [3]

देहावसान[संपादित करें]

रतलाम के बलवंत सिंह के उत्तराधिकारी भैरव सिंह भी स्वरूपदास के शिष्य थे। 1863 में, सीतामऊ के रतन सिंह और रतलाम के भैरव सिंह दोनों का एक ही रात में निधन हो गया। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से स्वरूपदास को बहुत पीड़ा हुई। रतनसिंह का जब स्वर्गवास हुआ उस समय स्वरूपदासजी सीतामऊ में विद्यमान नहीं थे। जब राजकुमार रतन सिंह के पिता राजा राज सिंह ने स्वामीजी को घटना की जानकारी दी, तो स्वामीजी स्तब्ध रह गए और उन्होंने केवल इतना ही उत्तर दिया, "रतना ने बहुत जल्दी की, मैं भी उसके साथ जाने को तैयार था। " कुछ समय बाद, 1864 में, स्वामी स्वरूपदासजी का रतलाम में निधन हो गया। [3]

त्रिपोलिया के पास स्थित रतलाम का दादू-द्वारा स्वामी स्वरूपदास का निवास स्थान था। उनके शिष्य किशनदास ने 1860 में इस भवन का विस्तार किया। यहीं पर स्वामी स्वरूपदास ने अपने अंतिम दिन बिताए थे। 1864 में, उनके स्मारक के रूप में एक छत्री का निर्माण किया गया था, जो आज भी विद्यमान है। [3]

ग्रंथ[संपादित करें]

स्वामी स्वरूपदासजी संस्कृत, पिंगल, डिंगल आदि भाषाओं के उद्भट विद्वान और सनातन धर्म के सिद्धान्तों के बड़े ज्ञाता थे। उनके ग्रंथों में दर्शन, विश्वास, नैतिकता, आत्म-साक्षात्कार आदि शामिल हैं। उनके रचित ग्रंथ हैं: [5]

  • पांडव यशेंदु चंद्रिका (राजस्थानी महाभारत )
  • रस रत्नाकर
  • वर्णार्थ मंजरी
  • वृत्ति बोध
  • हृन्नयनांजन
  • तर्क प्रबंध
  • दृष्टान्त दीपिका
  • साधारणोपदेश
  • सूक्ष्मोपदेश
  • अविवेक-पद्धति
  • पाखंड-खंडन (पखंड-प्रध्वंश)
  • मूर्खांकुश
  • चिज्जड़ बोध-पत्रिका

इन बारह कृतियों के अतिरिक्त 'स्वरूपदास के दोहे', 'नवरस विनोद रत्नाकर' और 'अंग्रेज श्लाघा', इन तीन कृतियों के बारे में भी जानकारी मिलती है कि इनकी पाण्डुलिपियाँ सीतामऊ के ग्रन्थागार में सुरक्षित हैं।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Das, Sisir Kumar (2005). A History of Indian Literature (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7201-006-5.
  2. Paliwal, Devilal (1964). Maharana Pratap Smriti Granth.
  3. Dethā, Svarūpadāsa; Devala, Candraprakāśa (2001). Pāṇḍava Yaśendu Candrikā: Rājasthānī Mahābhārata. Sāhitya Akādemī. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1317-3.
  4. Mukherjee, Sujit (1998). A Dictionary of Indian Literature (अंग्रेज़ी में). Orient Blackswan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-250-1453-9.
  5. Mohan Lal. The Encyclopaedia of Indian literature, Volume 5. Sahitya Akademi.