दधवाड़िया

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दधवाड़िया राजस्थान के चारणों का एक वंश है। इसका प्रयोग उपनाम के रूप में भी किया जाता है। [1]

इतिहास[संपादित करें]

दधवाड़िया देवल-चारणों की एक उप-शाखा है, जो मेड़ता तहसील के दधवाड़ा सांसण में निवास करते थे। प्रारंभ में, दधवाड़ा के देवल-चारण रूण के सांखला राजवंश के प्रोळपात थे। लेकिन 15वीं सदी में, राव जोधा ने सांखलो को पराजित कर रूण पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके पश्चात, राजनीतिक उथल-पुथल के कारण, देवल-चारणों ने मारवाड़, मेवाड़, बीकानेर और जयपुर जैसे अन्य क्षेत्रों और राज्यों में पलायन करना शुरू कर दिया, जहां वे दधवाड़िया के नाम से जाने गए। वे इन राज्यों की राजनीति में कवि, इतिहासकार, प्रशासक और योद्धा के रूप में योगदान देते रहे।[2]

दधवाड़िया कुल के प्रमुख उप-वंशों में मधोदासोत, मुकंदासोत, द्वारकादासोत, प्रयागदासोत, हरभांणोत, वेणीदासोत, और मोकमदासोत दधवाड़िया शामिल हैं।[3]

मेवाड़[संपादित करें]

एक दधवाड़िया परिवार सांखलों के साथ मेवाड़ चला गया, जहां के तत्कालीन शासक महाराणा कुम्भा सांखलों के भाणेज थे। वहाँ कुंभा के दरबार में विद्वान कवि दधवाड़िया जैतसिंह को धारता और गोटिपा (नाहरमगरा परगना) की जागीर प्रदान की गई।[2] उनके पुत्र महिपाल (मेहपा) राणा सांगा के दरबार में एक प्रसिद्ध कवि थे, जिन्हें 1496 (संवत 1553) में ढोकलिया की जागीर प्रदान की थी।[4]

महिपाल के अनुज माण्डण एक भक्त-कवि थे और उन्होंने कृष्ण भक्त होने के साथ ही राम और कृष्ण सम्बन्धी काव्य की रचना कर भक्ति साहित्य की धारा में अपना योगदान दिया। उन्होंने राणा साँगा से सांसण में शावर की जागीर प्राप्त की। उन्होंनें 1527 में बाबर और महाराणा सांगा के बीच लड़े खानवा के युद्ध में प्राणोत्सर्ग किया।[5][2]

17वीं शताब्दी के एक विद्वान-कवि व योद्धा खेमराज दधवाड़िया ने मेवाड़ के राजकुमार जगत सिंह प्रथम के जीवन की रक्षा की थी। जगत सिंह ने अपने राज्याभिषेक के बाद ठीकरिया की जागीर खेमराज को प्रदान की, जिसे अब खेमपुर के नाम से जाना जाता है।[6] अपने साहित्यिक कौशल, चरित्र और कूटनीति के कारण खेमराज को अन्य राज्यों से भी सम्मान और जागीरें प्राप्त हुई। उन्हें मारवाड़ के गज सिंह प्रथम से राजकियावास (1637 ई.) और सिरोही के अखेराज द्वितीय से कसांद्रा की जागीरें प्राप्त हुईं।[7]

मारवाड़[संपादित करें]

चूण्डाजी (माण्डण दधवाड़िया के पौत्र) एक भक्त-कवि थे और उन्होंने कई ग्रंथ लिखे (अब मौजूद नहीं हैं) - रामलीला, चाणक्य-वेल, और निमंधबंध। उन्हें मेड़ता के चारभुजा मंदिर के निर्माण के लिए भी जाना जाता है। मेड़ता के राव वीरमदेव और अचलदास रायमलोत मेड़तिया जैसे समकालीन शासकों ने उन्हें सम्मानित किया।[8] बलूंदा के राव चांदा ने चूण्डाजी को बलूंदा-का-वास प्रदान किया। चूण्डाजी 1585 में नागौर के हसन अली के विरुद्ध लड़ते हुए काम आए।[5]

माधोदासोत-दधवाड़ियों के पूर्वज माधवदास ने अपने पिता चूण्डाजी के संरक्षण में रहकर विद्योपार्जन किया। वह एक भक्त-कवि-विद्वान व योद्धा के रूप में प्रसिद्ध थे और उनके साहित्यिक कौशल के लिए मारवाड़ के सूर सिंह ने उन्हें सम्मानित किया था। सूर सिंह ने उन्हें नापावास (पाली परगना) और जालोरा (मेड़ता परगना) की जागीरें प्रदान कीं। पृथ्वीराज कृत ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ पर सम्मति देने वाले चार चारण विद्वानों में से एक ये भी थे। इन्होंने उस ग्रंथ की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। माधवदास ने राम रासो, निसाणी गजमोख और भाषा दशम स्कंध सहित कई ग्रंथ लिखे। उन्होंनें 1633 में मुसलमानों के विरुद्ध गौरक्षा हेतु लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।[8]

महाराजा जसवंतसिंह (प्रथम) द्वारा लाहोर प्रवास के समय सम्मानित किये गये आठ चारण विद्वानों में माधवदास के पुत्र सुंदरदास भी थे। मुकंदासोत-दधवाड़ियों के पूर्वज मुकंददास 1730 में सरबुलंद खान के विरुद्ध अहमदाबाद की लड़ाई में बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। वे मारवाड़ के महाराजा अभयसिंह के घनिष्ठ मित्र थे जिन्होंनें उनकी याद में मर्सियों की रचना की व उनके वंशजों को बिलाड़ा परगने का कूंपाड़ावास सांसण में प्रदान किया।[5]

द्वारकादासोत-दधवाड़ियों के पूर्वज, द्वारिकादास, जो अहमदाबाद की लड़ाई के योद्धा थे,[6] एक सम्मानित कवि-विद्वान थे और उन्हें मारवाड़ के अभय सिंह ने बासनी-दधवाड़ियान (पाली परगना में) का सांसण प्रदान किया था। द्वारिकादास ने मारवाड़, मेवाड़ और जयपुर के बीच श्रेष्ठता की बहस में मारवाड़ का प्रतिनिधित्व किया।[9] उनकी उल्लेखनीय कृतियों में से एक है ‘महाराज अजीतसिंहजी री दवावैत' (द्वारिकादास दधवाड़िया री दवावैत)।[10]

बीकानेर[संपादित करें]

बीकानेर राज्य के चूरू क्षेत्र में, प्रयागदासोत-दधवाड़ियों के पूर्वज प्रयागदास दधवाड़िया को छापर-द्रोणपुर के एक सरदार सुरा मोहिल द्वारा सुरावास का सांसण प्रदान किया गया था।[11][12]

उल्लेखनीय लोग[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Datta, Amaresh (1987). Encyclopaedia of Indian Literature: A-Devo (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1803-1. A few of the prominent sub-castes which have produced good poets, are- Asiya, Adha, Kaviya, Vithu, Dadhawadiya, Gadana, Lalasa, and others.
  2. Mevaṛa itihāsa ke katipaya pahalū. Pratāpa Śodha Pratishṭhāṇa. 1995. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":0" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  3. Sāmaura, Bhaṃvara Siṃha (1995). Śaṅkaradāna Sāmaura. Sāhitya Akādemī. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7201-867-2.
  4. Swami, Narottam Das (1956). Bankidas-ri-Khyat. Jaipur: Rajasthan Oriental Research Institute.
  5. Bhāṭī, Hukamasiṃha (2021). Rajasthan main bhoomidaan pranali. Rājasthānī Granthāgāra. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-91446-21-5. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":1" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  6. Qanungo, Kalika Ranjan (1960). Studies in Rajput History (अंग्रेज़ी में). S. Chand. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":2" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  7. Ram, Lala Sita (1920). History of Sirohi Raj, from the Earliest Times to the Present Day (अंग्रेज़ी में). Pioneer Press.
  8. Jigyasu, Mohan Lal (1968). "4". Charan Sahitya ka Itihas - Volume 1. Jain Bros. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":3" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  9. Śekhāvata, Saubhāgyasiṃha (1980). Īsaradāsa nāmaka vibhinna Cāraṇa kavi. Rājasthāna Sāhitya Samiti.
  10. Jigyasu, Mohan Lal (1968). "5". Charan Sahitya ka Itihas - Volume 1. Jain Bros.
  11. Siṃha, Rājendra (1988). Bīdāvata Rāṭhaudoṃ kā itihāsa. Yūnika Treḍarsa.
  12. Agravāla, Govinda (1974). Cūrū Maṇḍala kā śodhapūrṇa itihāsa. Loka Saṃskr̥ti Śodha Saṃsthāna.
  13. Seva, Samachar (2018-08-10). "अखिल भारतीय चारण समाज के अध्यक्ष सी.डी. देवल की अध्‍यक्षता में गांव चम्‍पानगर में 22 अगस्‍त को होगा धाटपारकर चारण समाज का प्रतिभा सम्मान समारोह". Samachar Seva (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2024-03-07.