"दलित": अवतरणों में अंतर
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'''दलित''' हजारों वर्षों तक अस्पृश्य या अछूत समझी जाने वाली उन तमाम शोषित जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है जो [[हिंदू धर्म]] शास्त्रों द्वारा हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित है। संवैधानिक भाषा में इन्हें ही [[अनुसूचित जाति]] कहां गया है। भारतीय जनगनणा 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है।<ref>http://m.timesofindia.com/india/Half-of-Indias-dalit-population-lives-in-4-states/articleshow/19827757.cms</ref> आज अधिकांश हिंदू दलित [[बौद्ध धर्म]] के तरफ आकर्षित हुए है और हो रहे है, क्योंकी बौद्ध बनने से हिंदू दलितों का विकास हुआ हैं।<ref>http://www.bbc.com/hindi/india/2016/04/160414_dalit_vote_politician_rd</ref> |
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"दलित" शब्द की व्याखा, अर्थ तुलनात्मक दृष्टी से देखे तो इसका विरुद्ध विषलेशण इस प्रकार है । |
"दलित" शब्द की व्याखा, अर्थ तुलनात्मक दृष्टी से देखे तो इसका विरुद्ध विषलेशण इस प्रकार है । |
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05:18, 16 दिसम्बर 2016 का अवतरण
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विशेष निवासक्षेत्र | |
---|---|
भारत | 20.14 करोड़[1] (2011) |
बांग्लादेश | 65 लाख[2] (2010) |
नेपाल | 50 लाख[3] (2011) |
श्रीलंका | 50 लाख[4] (2011) |
पाकिस्तान | 30 लाख (2011) |
ग्रेट ब्रिटेन | 5 लाख (लगभग)[5] (2013) |
संयुक्त राज्य | अज्ञात (2013) |
कनाडा | 2.5 लाख[6] (2013) |
मलेशिया | अज्ञात (2013) |
सिंगापुर | अज्ञात (2013) |
भाषाएँ | |
दक्षिण एशियाई भाषा | |
धर्म | |
हिन्दू · सिक्ख · बौद्ध · ईसाई · इस्लाम | |
सम्बन्धित सजातीय समूह | |
इंडो आर्यन, द्रविड़, मुंडा |
दलित हजारों वर्षों तक अस्पृश्य या अछूत समझी जाने वाली उन तमाम शोषित जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है जो हिंदू धर्म शास्त्रों द्वारा हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित है। संवैधानिक भाषा में इन्हें ही अनुसूचित जाति कहां गया है। भारतीय जनगनणा 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है।[7] आज अधिकांश हिंदू दलित बौद्ध धर्म के तरफ आकर्षित हुए है और हो रहे है, क्योंकी बौद्ध बनने से हिंदू दलितों का विकास हुआ हैं।[8]
"दलित" शब्द की व्याखा, अर्थ तुलनात्मक दृष्टी से देखे तो इसका विरुद्ध विषलेशण इस प्रकार है ।
"दलित" - : पिडीत, शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकडा, खंडित, तोडना, कुचलना, दला हुआ, पीसा हुआ, मसला हुआ, रौंदाहुआ, विनष्ट
"फलित" - : पिडामुक्त, उच्च, प्रसन्न, खुशहाल, अखंड, अखंडित, जोडना, समानता, एकरुप, पूर्णरूप, संपूर्ण
अर्थ व अवधारणा
दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है- दलन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्यक्ति आ जाता है जिसका शोषण-उत्पीडन हुआ है। रामचंद्र वर्मा ने अपने शब्दकोश में दलित का अर्थ लिखा है, मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्ट किया हुआ।[9] पिछले छह-सात दशकों में 'दलित' पद का अर्थ काफी बदल गया है। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर के आंदोलन के बाद यह शब्द हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से अस्पृश्य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग होता है। अब दलित पद अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों की आंदोलनधर्मिता का परिचायक बन गया है। भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से जाना जाता है। भारतीय समाज में वाल्मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और उसका पारंपरिक पेशा मानव मल की सफाई करना रहा है। परन्तु आज के समय में इस स्तिथि में बहुत बदलाव आया है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से संबध रखते थे जिन्हे उच्च जाति के समान अधिकार नहीं प्राप्त थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फूले ने हमेशा ही तथाकथित 'नीची' जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे दलितों की शिक्षा का प्रयास था। ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंन दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ ही ज्योति ने महिलाओं के शिक्षा के लिए सहारनीय कदम उठाए। भारतीय इतिहास में ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। ज्योति में भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लडी। यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर ने किया। एक बात और जिसका जिक्र किए बिना दलित आंदोलन की बात बेमानी होगी वो है बौद्ध धर्म। ईसा पूर्व 600 ईसवी में ही बौद्ध धर्म ने हिंदू समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। भगवान गौतम बुद्ध ने इसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रांति कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय की जाती थी। ऐसे में समाज के निचले तलबे को क्रांति की जो दिशा भगवान बुद्ध ने दिखाई वो आज भी प्रासांगिक है। भारत में चार्वाक के बाद भगवान बुद्ध ही पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद, जातीवाद और अंधविश्वास के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि एक दर्शन भी दिया। जिससे कि समाज के लोग बौद्धिक दास्यता की जंजीरों से मुक्त हो सकें।
यदि समाज के निचले तबकों के आदोलनों का आदिकाल से इतिहास देखा जाए तो चार्वाक को नकारना भी संभव नहीं होगा। यद्यपि चार्वाक पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं इसके बावजूद चार्वाक वो पहला शख्स था जिसने लोगों को भगवान के भय से मुक्त होने सिखाया। भारतीय दर्शन में चार्वाक ने ही बिना धर्म और ईश्वर के सुख की कल्पना की। इस तर्ज पर देखने पर चार्वाक भी दलितों की आवाज़ उठाता नज़र आता है।....खैर बात को लौटाते हैं उस वक्त जिस वक्त दलितों के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारत रत्न बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने लड़ाई शुरू कर दी थी।..वक्त था जब हमारा देश भारत ब्रिटिश उपनिवेश की श्रेणी में आता था। लोगों के ये दासता का समय रहा हो लेकिन दलितों के लिए कई मायनों में स्वर्णकाल था।
आधुनिक भारत व दलित अधिकार
आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले हैं उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थी। यूरोप में हुए पुर्नजागरण और ज्ञानोदय आंदोलनों के बाद मानवीय मूल्यों का महिमा मंडन हुआ। यही मानवीय मूल्य यूरोप की क्रांति के आर्दश बने। इन आर्दशों की जरिए ही यूरोप में एक ऐसे समाज की रचना की गई जिसमें मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता दी गई। ये अलग बाद है कि औद्योगिकीकरण के चलते इन मूल्यों की जगह सबसे पहले पूंजी ने भी यूरोप में ली...लेकिन इसके बावजूद यूरोप में ही सबसे पहले मानवीय अधिकारों को कानूनी मान्यता दी गई। इसका सीधा असर भारत पर पड़ना लाजमी था और पड़ा भी। इसका सीधा सा असर हम भारत के संविधान में देख सकते हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना से लेकर सभी अनुच्छेद इन्ही मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नज़र आते हैं। भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ॰ अम्बेडकर ने उठाया। डॉ अम्बेडकर दलित समाज के प्रणेता हैं। बाबा साहब अंबेडकर ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ दौर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछडे़ और तिरस्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। राजनीतिक और सामाजिक हर रूप में इसका विरोध स्वाभाविक था। यहां तक की महात्मा गांधी भी इन मांगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने मांग की दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए यह दलित राजनीति में आज तक की सबसे सशक्त और प्रबल मांग थी। देश की स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कंधे पर मानने वाली कांग्रेस की सांसें भी इस मांग पर थम गई थीं। कारण साफ था समाज के ताने बाने में लोगों का सीधा स्वार्थ निहित था और कोई भी इस ताने बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहता था। महात्मा गांधी जी को इसके विरोध की लाठी बनाया गई और बैठा दिया गया आमरण अनशन पर। आमरण अनशन वैसे ही देश के महात्मा के सबसे प्रबल हथियार था और वो इस हथियार को आये दिन अपनी बातों को मनाने के लिए प्रयोग करते रहते थे। बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस मांग से पीछे नहीं हटना चाहते थे वो जानते थे कि इस मांग से पीछे हटने का सीधा सा मतलब था दलितों के लिए उठाई गई सबसे महत्वपूर्ण मांग के खिलाफ में हामी भरना। लेकिन उन पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा.और अंततः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की मांग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ॰अंबेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई जारी रखी। अंबेडकर की प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।
दलित समाज के प्रेरणास्रोत व्यक्ति
- भीमराव अम्बेडकर
- संत कबीर
- ज्योतिबा फुले
- पेरियार
- गाडगे बाबा
- गुरू रविदास
- जगजीवन राम
- के. आर. नारायणन
- कांशीराम
- मायावती
- अवनीश राही
दलित साहित्य
हालांकि साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है किंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में दलित साहित्य मुख्यतः बीसवीं सदी की देन है।[10]रवीन्द्र प्रभात ने अपने उपन्यास ताकि बचा रहे लोकतन्त्र में दलितों की सामाजिक स्थिति की वृहद चर्चा की है[11]वहीं डॉ॰एन.सिंह ने अपनीं पुस्तक "दलित साहित्य के प्रतिमान " में हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास कों बहुत ही विस्तार से लिखा है।[12]
सन्दर्भ
- ↑ http://m.timesofindia.com/india/Half-of-Indias-dalit-population-lives-in-4-states/articleshow/19827757.cms
- ↑ Dalits in Bangadesh [1]
- ↑ http://idsn.org/countries/nepal/
- ↑ http://idsn.org/countries/sri-lanka/
- ↑ http://www.bbc.co.uk/news/uk-22166044
- ↑ http://dalitfreedom.ca/about/
- ↑ http://m.timesofindia.com/india/Half-of-Indias-dalit-population-lives-in-4-states/articleshow/19827757.cms
- ↑ http://www.bbc.com/hindi/india/2016/04/160414_dalit_vote_politician_rd
- ↑ संक्षिप्त शब्द सागर -रामचंद्र वर्मा (संपादक), नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, नवम संस्करण, 1987, पृष्ठ 468
- ↑ भारतीय दलित आंदोलन : एक संक्षिप्त इतिहास, लेखक : मोहनदास नैमिशराय, बुक्स फॉर चेन्ज, आई॰एस॰बी॰एन॰ : ८१-८७८३०-५१-१
- ↑ ताकि बचा रहे लोकतन्त्र, लेखक - रवीन्द्र प्रभात, प्रकाशक-हिन्द युग्म, 1, जिया सराय, हौज खास, नई दिल्ली-110016, भारत, वर्ष- 2011, आई एस बी एन 8191038587, आई एस बी एन 9788191038583
- ↑ दलित साहित्य के प्रतिमान : डॉ॰ एन० सिंह, प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली -११०००२, संस्करण: २०१२
शीर्षक
बाहरी कड़ियाँ
- जाति- ब्रिटिश कुचेष्टा की उपज
- ईसाई हो गये, पर रह गये दलित के दलित
- जाति का प्रश्न : औपनिवैशिक उत्तरभारतीय परिदृश्य (1880-1930)
- रावत, रामनरायन एस.. (2011). Reconsidering Untouchability: Chamars and Dalit History in North India. इंडियन यूनिवर्सिटी प्रेस. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780253222626.
- A Bibliographic Essay on Hindu and Christian Dalit Religiosity