रावण
रावण | |
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दशानन रावण | |
संबंध | भगवान विष्णु के पार्षद जय-विजय में से जय का दूसरा जन्म |
निवासस्थान | लंका |
अस्त्र | चंद्रहास , गदा , धनुष बाण |
जीवनसाथी | मंदोदरी , धम्यमालिनी |
माता-पिता |
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भाई-बहन | विभीषण, शूर्पणखा,कुंभकर्ण , सहस्त्रानन , अहिरावण , महिरावण आदि |
संतान | इंद्रजीत, अक्षय कुमार , त्रिशरा , देवांतक , नरांतक , प्रहस्त , अतिकाय आदि पुत्र |
सवारी | पुष्पक विमान |
रावण रामायण का एक प्रमुख प्रतिचरित्र है। लंका[1]। रावण श्री राम ब्राह्मण के परम शत्रु बनाय गये थे, अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था, जिसके कारण उसका नाम दशानन (दश = दस + आनन = मुख) | किसी भी कृति के लिये नायक के साथ ही सशक्त खलनायक बनाया गया है। किंचित मान्यतानुसार रावण में अनेक गुण भी थे। सारस्वत ब्राह्मण महर्षि पुलस्त्य ऋषि [2] का पौत्र और विश्रवा का पुत्र रावण एक परम भगवान शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ, महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा, अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकाण्ड विद्वान, पण्डित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था और उसने अपना महल पूरी तरह स्वर्ण रजित बनाया था, इसलिए उसकी लंकानगरी को सोने की लंका अथवा सोने की नगरी भी कहा जाता है। रावण का विवाह मन्दोदरी से हुआ । मान्यता है कि मन्दोदरी का जन्म मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में हुआ था । वहां पर आज भी महाराजा रावणजी को पुजा जाता है वहा आज भी रावण की चावरी है, जिस जगह पर रावण का विवाह हुआ था ।[3][a][4][5] रावण के तीन भाई थे जो एक ही माता की सन्तान थे वे हैं कुम्भकर्ण और विभीषण हालाँकि पाराशर संहिता और अद्भुत रामायण के अनुसार रावण का शतानन रावण या सहस्त्रानन नाम का एक बड़ा भाई और कुम्भकर्ण और विभीषण नामक दो छोटे भाई थे।पाराशर संहिता और अद्भुत रामायण के अनुसार सहस्त्रानन का वध भद्रकाली रूप में माता सीता द्वारा किया गया था।
इनकी पराजय श्रीराम, हनुमान और लक्ष्मण के हाथो कइ बार हुई है| ७ और ८ दिन इन्हे राम से जीवनदान मिला था सूर्यास्त होने के कारण| मामुली लुटेरो से भी रावण को पराजय मिली थी| बाली ने अकेले ही इन्हे अपनी पुंछ मे बाँध लिया था|
रावण का उदय
[संपादित करें]पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, रामायण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख हुआ है। रावण के उदय के विषय में भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं।
- पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण के रूप में पैदा हुए।
- वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण पुलस्त्य मुनि का पौत्र था अर्थात् उनके पुत्र विश्रवा का पुत्र था। विश्रवा की वरवर्णिनी, राका और कैकसी नामक तीन पत्नियाँ थी। वरवर्णिनी से कुबेर को जन्म के बाद कैकसी से रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण पैदा हुए तथा कैकसी से एक कन्या का भी जन्म हुआ जिसका नाम शूर्पणखा रखा गया तथा राका से अहिरावण और महिरावण नामक जुड़वाँ पुत्रों का जन्म हुआ।
- एक मान्यता के अनुरुप रावण का जन्म नेपाल के म्याग्दी जिले में हुआ था और उसकी पत्नी राजस्थान के जोधपुर जिले के थकाली समुदाय की बेटी थी।[6][7][8]
- रावण का विवाह मय दानव की पुत्रियों से हुआ था। उनके नाम हैं मन्दोदरी और दम्यमालिनी। मन्दोदरी से उसे मेघनाद और अक्षयकुमार नामक दो पुत्र थे और दम्यमालिनी से उसके अतिकाय, त्रिशरा, नरान्तक और देवान्तक नामक चार पुत्र थे। इनमें से अक्षयकुमार , त्रिशरा और नरान्तक का वध भगवान शिव के अवतार हनुमान जी ने किया। मेघनाद और अतिकाय का वध नागराज अनन्त के अवतार लक्ष्मण जी ने किया था और देवान्तक का वध इन्द्र और ऋक्षराज के पौत्र वानर राज बालि के बलशाली पुत्र अन्गद था।
रावण के जन्म की कथा
[संपादित करें]देव और दैत्य आपस में सौतेले भाई थे और निरन्तर झगड़ते आ रहे थे। महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति से देव और दिति से दैत्य जन्म लिये। दिति की गलत शिक्षाओं का नतीजा और अदिति के पुत्रों से अपने सन्तान को आगे बनाने की होड़ में दैत्य गलत दिशा में चले गये और देवताओं के कट्टर शत्रु बन गये। युगों तक लडते रहे, कभी दैत्य तो कभी देवताओं का पलड़ा भारी रहता था। दोनों देव और दानव तपस्या करते थे, दान पुण्य आदि श्रेष्ठ कर्म करते थे। कभी ब्रह्मा जी से तो कभी महादेव से वर प्राप्त करते थे और फिर एक ही काम एक दूसरे को नीचा दिखाना। निरंतर लड़ाई-झगड़े से देवता दुखी हो गये ।
तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की, कि वो कुछ करें। ब्रह्मा जी ने देवताओं को सागर मन्थन की बात कह और उससे अमृत प्राप्त होने की बात बतलाई जिसे देवता पी लें, तो वो दानवों के हाथ मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे। और साथ में यह भी कहा कि सागर मंथन आसान नहीं है उसमें दानवों को भी शामिल करो और युक्ति पूर्वक अमृत को प्राप्त करो। दानवों को सम्मिलित करने के कारण हैं, एक तो इतना बडा काम अकेले और गुप्त तरीके से कर नहीं सकोगे, क्योंकि दानवों को पता चल जाएगा और दूसरा इसमें श्रम बहुत लगेगा। ब्रह्मा जी की बात पर तब युक्ति पूर्वक देवताओं ने दानवों को सागर मंथन मिलकर करने की बात के लिये राजी किया और दानवों को सागर से बहुत से रत्न निकलने की बात कही, लेकिन अमृत की बात नहीं बतलाई ।
दानव सहमत हो गये और फिर उन्होंने कहा भाई पहले ही इस बात को तय कर लो कि पहला रत्न निकला तो कौन लेगा, दूसरा किसका होगा, ताकि बाद में वाद-विवाद न हो। देवता थोड़़े घबराये कि, कहीं पहली बार में अमृत निकल गया और दानवों के हाथ लगा गया तो ? लेकिन फिर भगवान को मन-ही-मन नमस्कार कर उन्होंने विश्वास किया कि भगवान उनका कल्याण अवश्य करेंगे। और तय हो गया कि पहला रत्न निकलेगा, वो दानवों को, दूसरा देवताओं को और फिर इसी प्रकार से क्रम चलता रहेगा।
मन्थन के लिये रस्सी का काम करने के लिये देवताओं ने सर्पों के राजा वासुकी से प्रार्थना की और उसे भी रत्नों में भाग देने की बात कही गई। वासुकी नहीं माना। उसने कहा कि रत्न लेकर वो क्या करेगा ? फिर देवताओं ने अलग से उसे समझाया और अमृत में हिस्सा देने कि बात कही, तब वो तैयार हुआ। सुमेरु पर्वत से प्रार्थना की गई। उसको को मथनी बनने के लिये मनाया गया।
सब तैयारी पूर्ण होने के बाद तय किये मापदण्डों पर नियत दिन में सागर मन्थन हुआ। लेकिन जैसे ही मन्दराचल पर्वत को समुद्र में उतारा गया, वो अपने भार के बल से सीधा सागर की गहराइयों में डूब गया और अपना घमण्ड प्रदर्शित किया। तब असुरों में बाणासुर इतना शक्तिशाली था कि उसने मंदराचल पर्वत को अकेले ही अपनी एक हजार भुजाओं में उठा लिया और सागर से बाहर ले आया। इससे मंदराचल का अभिमान नष्ट हो गया। देव और दानवों के पराक्रम से खुश हो और ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर, भगवान श्री नारायण ने कच्छ्प अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर रखा। सागर मन्थन शुरु हुआ।
सागर-मन्थन और देव-दानवों का पराक्रम देखने स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सप्त ऋषि, आदि अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। सागर-मन्थन शुरु होने के बहुत दिनों के बाद सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसके जहर से देव, दानव और तीनों लोकों के प्राणी, वनस्पति आदि मूर्छित होने लगे। तब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की।
श्री विष्णु ने कहा कि इससे रुद्र ही बचा सकते हैं। तब भगवान रुद्र ने वो जहर पी लिया। लेकिन गले से नीचे नहीं उतरने दिया। हलाहल विष से उनका कंठ नीला हो गया, जिसके बाद से ही वे देवाधिदेव महादेव कहलाए और गला नीला पड़ जाने के कारण नीलकंठ नाम से जाने और पूजे गये।
पुन: मन्थन शुरु हुआ। भगवान शंकर के मस्तक पर विष के प्रभाव से गर्मी होने लगी। तब मन्थन के समय ही चन्द्रमा ने अपने एक अंश से सागर में प्रवेश किया और साथ में शीतलता लिये हुए बाल रूप में प्रकट होकर महादेव की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान शिव उसके इस भक्ति-भाव पर बहुत प्रसन्न हुए और उसे हमेशा के लिये अपने मस्तक पर बाल चन्द्र के रूप में शीतलता प्रदान करने के लिये सुशोभित कर दिया।
फिर रत्न रूप में कामधेनु गाय निकली, जो दानवों के भाग की थी। इसे उन्होंने बिना गुण विचारे सोचा कि गाय का हम क्या करेंगे और उस गाय को सप्त्ऋषीयों को दान में दे दिया। अब बारी थी, देवताओं की। लेकिन रत्न में प्रकट हुई महालक्ष्मी। देवताओं और दानवों ने उनकी स्तुति की और सागर ने अपने एक अंश से प्रकट होकर महालक्ष्मी जी को भगवान विष्णु को कन्यादान किया और वो श्री विष्णु के वाम भाग में विराजमान हो गईं।
फिर ऐरावत हाथी देवताओं के भाग में आया। इसके बाद कौस्तुभ मणी और अन्य रत्न निकले। तब दानवों के भाग में उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा आया, जो वेद मन्त्रों से भगवान की स्तुति करने लगा। इसे दानवों ने अभिमान पूर्वक देवताओं को दे दिया। वे बोले - "रख लो, वेद बोलने वाला तुम्हारे ही काम आएगा। हमें इसकी जरुरत नहीं है।" फिर मदिरा निकली, जो दानवों के भाग की थी और वो उसे पा के और पी के बहुत प्रसन्न हो गये। दानव मदिरा पान से बहुत आनन्दित हो गये थे और जब नशा थोड़ा कम हुआ तो पुन: मन्थन शुरु किया।
इसके बाद देवताओं की बारी थी। और अमृत कलश के साथ भगवान के अंशावतार श्री धनवन्तरि अवतरित हुए। लेकिन दानवों को लगा शायद इसमें भी मदिरा हो तो वो बलपूर्वक उस कलश को लेने की कोशिश करने लगे। बढ़ते झगड़े को निपटाने के लिये श्री नारायण ने पुन: समुद्र से ही मोहिनी रूप में अंशावतार लिया। सभी देव और दानवों ने मोहिनी को रत्नरुपी देवी जानकर प्रणाम किया।
तब मोहिनी ने कहा कि, "आप लोग झगड़ा क्युँ कर रहे हैं ?" और जब कारण जाना तो उसने कहा कि "आप लोगों द्वारा ही तय नियमानुसार, यह कलश तो वैसे देवताओं को मिलना चाहिये, लेकिन फिर भी यदि तुम चाहो तो मैं आप सभी में कलश के द्रव्य को बाँट कर आपका विवाद समाप्त कर देती हूँ।" देवता समझ गये कि भगवान हैं और उनकी सहायता के लिये आए हैं। अत: सबने मोहिनी के मीठे वचनों को मान लिया।
मोहिनी ने सभी को कहा कि वो पंक्ति में बैठ जाएं। तब देव दानवों को अलग पंक्ति में बैठाकर, कलश के द्रव्य को, जो अमृत था पर दानव उसे मदिरा समझ रहे थे, मोहिनि ने कहा "देवताओं की पंक्ति से आरम्भ करुंगी, क्योंकि आप लोग एक बार द्रव्य का पान कर ही चुके हो।" और यह कह कर देवताओं को बाँटना शुरु किया।
दानवों में एक को नशा कुछ कम सा हो गया तो वो फिर से मदिरा पीने की चाहत में चुपके से देवताओं की पंक्ति में अंतिम स्थान पर बैठ गया और उसे भी अमृत मिल गया। सूर्य और चन्द्रमा ने इस बात की शिकायत भगवान विष्णु से कर दी। तब उन्होनें उस दानव पर छ्ल करने का दण्ड देने के लिये चक्र से प्रहार कर दिया और उस दानव का सर कटते ही भगदड़ मच गई लेकिन वो दानव अमृत पान के बाद भी जिवित रहा।
सभी दानव बोले "क्या हुआ ? क्युँ हुआ ? कैसे हो गया ?" श्री हरि का चक्र प्रहार दानवों को यह बतलाने के लिये था कि धोखे से इस दानव ने अनाधिकार पूर्वक द्रव्य पान किया था। जब मोहिनी बाण्ट रही थी तो धैर्य रखना चाहिये था। तथा अमृत पान के बाद देवता अब दानवों से ज्यादा शक्तिशाली हो गये है, अत: अब दानव ईर्ष्या वश देवताओं से अकारण झगड़ा न करें। जिस दानव ने वेश बदलकर अमृत पान किया, वो गलत था ।
क्यूँकि तय मापदण्डों के आधार पर अमृत पर देवताओं का अधिकार था। उसके बाद भी मोहिनी अमृत सब को बांट ही तो रही थी पंक्ति में एक तरफ से। दानवों को अब पता चला कि कलश में मदिरा नहीं, बल्कि अमृत है। तब कुछ दानव मोहिनी से कलश छिन लेने के प्रयास में आगे आये। मोहिनी बचा हुआ अमृत कलश देवराज इन्द्र को दे कर चली गई। और कहा तुम लोग ही आपस में निपटारा कर लो। इधर उस दानव ने, जिसने अमृत पी लिया था, उसका सर राहु और धड़ केतु नाम से जीवित रहा और बाद में उसे छाया ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया।
अमृत प्राप्ति के बाद वर्षों तक देवताओं का पलड़ा भारी रहा और वो दानवों पर भारी पड़ गये. इस बीच देवताओं ने पुन: तपबल से शक्ति अर्जित की तब दानव परेशान हो गये और उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि, गुरुवर हम कैसे देवताओं को हरा सकते हैं तब उनके गुरु ने कहा देवता अमृत पान कर चुके हैं उन्हें हराना बहुत कठिन है, और एक ही उपाय है अगर श्रेष्ठ ब्राह्मण का तेजस्वी पुत्र आपको सहायता करे तो देवताओं को हराया जा सकता है.
उपाय जान कर दानवों ने सोचा ब्राह्मण पुत्र भला हमारा काम क्यों करेगा, उसके लिये हमारा साथ देना उसका अधर्म होगा और इस कार्य के लिये कोई भी तेजस्वी तो क्या पृथ्वी लोक का साधारण ब्राह्मण भी तैयार नहीं होगा. अगर हम बलपूर्वक कुछ करंगे तो श्रेष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण हमारा ही विनाश कर डालेगा और कमजोर ब्राह्मण के पास हम गये तो, देवता भी हँसी करंगे और हमारी किर्ति को भी धब्बा लगेगा.
मन्थन और चिन्तन के दौर शुरु हुए दानवों के और वे सब एक निर्णय पर पहुँचे कि अगर हम अपनी कन्या का दान किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को दें तो, ब्राह्मण को अवश्य स्वीकार करना ही पडेगा क्युँकि ब्राह्मण श्रेष्ठ मर्यादा का पालन करने को बाध्य है उसका पुत्र होगा, वो हमारा भांजा होगा और ब्राह्मण भी, उसे हम पालंगे क्षिक्षा दिक्षा देंगे, हमारे अनुसार चलेगा और जब मर्जी देवताओं से भिडा देंगे. तब एक दानव बोला कन्या दान वाली बात ठीक है पर दान कैसे दोगे? ये रीति तो हम दानवों की है नहीं, ब्राह्मण कन्यादान कैसे और क्यों स्वीकार करेगा. देवताओं वाले रिवाज हम कर नहीं सकते, क्युँकि वो हमारे अनुकुल नहीं रहे हैं.
अन्य दानवों ने कहा बात तो सही है और निर्णय को सोच समझ कर के लेने के लिये मीटींग को दूसरे दिन तक के लिये टाल दिया. रात को एक दानव अपने घर में बहुत परेशान और उधेड्बुन में था कि इस बात का हल कैसे दिया जाए. वो अपने परिवार में बैठा था उसकी पत्नी और पुत्री ने चिन्ता का कारण पूछा, तब उसने उनको बात बतलाई.
उसकी पुत्री का नाम था केशिनी उसने कहा पिता जी दानव कन्या का विवाह श्रेष्ठ ब्राह्मण के साथ इसकी आप चिन्ता ना करें, मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण विश्रवा को जानती हूँ जो आर्यावृत प्रदेश के पास के जंगल में ही अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहते हैं. वे अपने शिष्यों को बहुत स्वयं और शान्ति के साथ अध्ययन कराते हैं, मैंने उनको देखा है उनका ज्ञान भी बहुत श्रेष्ठ है, ऐसा मुझे लगता है क्योंकि मैं कई बार छुप छुप के उनको सुन चुकी हूँ.
अगर पिताजी आपकी आज्ञाँ हो तो मैं उनके पास जाऊँगी और उनसे प्रार्थना करूँगी कि वो मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें. मुझे पूर्ण विश्वास है वे मुझे अवश्य अपनाएंगे, मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ. पुत्री केशिनी की बात सुन, उसके माता पिता बहुत प्रसन्न हुए, पिता ने अपनी पुत्री को कहा कि पुत्री तु इस दानव कुल की रक्षा और भलाई के लिये सोचा, तु भाग्यशाली और धन्य है, कल मैं सभी से इस बारे में चर्चा करुंगा और तब तुम्हें अपना निर्णय दुँगा.
दूसरे दिन केशिनी के पिता ने अन्य सभी दानवों को अपनी पुत्री केशिनी द्वारा दिया गया सुझाव बतलाया और सभी बहुत खुश हुए केशिनी को आज्ञाँ दे दी गई. केशिनी अपने कार्य में सफल रही. शक्तिशाली दानव की पुत्री होने के बाद भी उसने नम्रता पूर्वक अपने माता पिता की चिंता दूर करने का प्रयास किया और ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में आश्रम में स्वीकार कर लिया.
एक अच्छी पत्नी के रूप में केशिनी अपने पति की कई वर्षों तक बहुत सेवा की और एक दिन उसके पति ऋषी विश्रवा ने प्रसन्न हो कर केशिनी से वर माँगने को कहा. केशिनी ने अद्भुत और तेजस्वी पुत्रों की माँ होने का वरदान माँगा, जो देवताओं को भी पराजित करने की ताकत रखता हो. केशिनी ने एक पुत्री, पत्नी और माँ के रूप मे अपनी मर्यादा का पालन करने में पूर्णरुप से सफल रही.
अपने माता पिता की चिंता को दूर ही नहीं किया अपितु उसके बाद पति सेवा का तप भी किया समय आने पर उसने एक अद्भुत बालक को जन्म दिया जो दस सिर और बीस हाथों वाला अत्यंत तेजस्वी और बहुत सुंदर बालक था। केशिनी ने ऋषि से पूछा यह तो इतने हाथ और सर लेके पैदा हुआ है ऋषि ने कहा कि तुमने अद्भुत पुत्र की माँग की थी इसलिये अद्भुत अर्थात इस जैसा कोई और न हो, ठीक वैसा ही पुत्र हुआ है.
उसके पिता ने ग्यारहवें दिन अद्भुत बालक का नामकर्ण संस्कार किया और नाम दिया रावण. रावण अपने पिता के आश्रम में बडा हुआ और बाद में उसके दो भाई कुम्भकर्ण तथा विभीषण और एक अत्यन्त रुपवती बहन सूर्पनखा हुई.
रावण जन्म का सयोंग
पूर्वकाल की बात है वैकुण्ठ लोक में जय-विजय नामक दो द्वारपाल थे. एक बार उन्होंने शौनकादि बालक ऋषियों को वैकुण्ठ में जाने से रोक दिया था, उन्हें लगा कि बालकों को भला भगवान के पास क्या काम है. तब शौनकादि ऋषियों में से एक बालक ऋषि ने जय विजय को श्राप दे दिया कि तुम दोनों ने वैकुण्ठ लोक में मृत्युलोक जैसा नियम का पालन किया और स्वयं श्री हरि के द्वार पर सेवा में रहते हुये इतना ज्ञान भी नहीं है अत: तुम मृत्युलोक को प्राप्त हो जाओगे. दुसरे बालक ऋषि ने कहा तुम्हें इस बात का भान भी नहीं कि श्री विष्णु लोक में यह परम्परा नहीं हो सकती.
इसी बीच आवाज सुन कर स्वयं भगवान विष्णु उन शौनकादि ऋषियों को लेने आ गये. उन्होंने तथा जय-विजय ने ऋषियों से क्षमा माँगी. इस पर ऋषियों ने कहा कि श्राप वापस नहीं हो सकता, समय आने पर तुम्हें मृत्युलोक जाना ही होगा, पर जैसे स्वयं श्री हरि हमें लेने आये है वैसे ही वो तुम्हें भी वापस वैकुं ण् लोक लाने के लिये मृत्युलोक में आयेंगे.
दुसरा कारण यह था कि एक बार नारदजी को अपनी भक्ति पर अभिमान आ गया और वो हर लोक में जा जा के अपनी भक्ति और तपस्या का बखान करते थे. नारद ने अपने पिता ब्रह्मदेव को बतलाया तब उन्होंने कहा ने नारद अपनी भक्ति का बखान मत करना यह अच्छा नहीं है. नारद कैलाश में गये और वहाँ भोलेनाथ को बताया उन्होंने भी कहा नारद आप हर जगह इस बात को कह रहे हो अच्छा नहीं है. लेकिन नारद अभिमान में थे कि समस्त लोकों में उन जैसा कोई नारायण भक्त नहीं है.
कैलाश से लौटते हुये नारद वैकुंठ की ओर चले तब नारद के अभिमान को नष्ट करने के लिये भगवान विष्णु ने एक माया नगरी का निर्माण किया. नारद जहाँ से निकले तब मार्ग में उन्हें एक सुंदर नगर दिखाई दिया. नारद ने सोचा मैं सभी लोकों और नगर में गया हूँ पर यह इस नगर में नहीं गया अत: यहाँ जा के देखता हूँ कौन सा नगर है. नारद वहाँ पहुँचे, बहुत सुंदर नगर था इंद्र्लोक से भी सुंदर वहाँ के राजा ने नारदजी का सम्मान किया, महल में बैठाया और स्वयँ सपरिवार नारद जी को नमस्कार किया.
जलपान आदि के बाद कहा, महर्षि आप तो चिरिंजीवी, त्रिकालदर्शी महात्मा हैं मेरी पुत्री का स्वयँवर दो दिनों के बाद रखा है वैसे तो मैंने समस्त तीनों लोकों में खुला आमंत्रण दिया है कि जिसे भी मेरी पुत्री चाहेगी उसी से विवाह किया जायेगा परंतु यदि आप मुझे बता दें कि दामाद कैसा होगा तो मुझे आत्म संतोष हो जायेगा.
नारद जी ने उनकी पुत्री के हस्तरेखा देख कर कहा कि आपकी पुत्री बहुत भाग्यशाली है, इसे चिरिंजीवी, अजर अमर, सुंदर और शतोगुणी प्रधान वर मिलेगा. जिसकी किर्ति समस्त लोकों में हो और नारद जी उस कन्या के रूप को देख कर मोहित हो गये उन्हें अपने आप में भी वो सब गुण नजर आये जो उसकी हस्तरेखा बता रही थी. इसके बाद नारद जी ने बिदा ली और वैकुंठ लोक को अपनी भक्ति का बखान करने निकल पढे.
रास्ते में विचार किया की मुझ मे सारे गुण है लेकिन मैं संन्यासी हूँ. अब मुझे भी सप्तऋषियोँ की तरह अपनी ग्रहस्थी बसा लेनी चाहिये. विवाह के लिये अभी जिस कन्या को देखा वो उपयुक्त है. लेकिन एक कमी है वो है मेरा रूप पर उसकि चिंता की कोई बात नहीं क्युँकि मैं भगवान का भक्त हूँ और अभी जा के भगवान विष्णु से उनका रूप माँग लुंगा और उन्हें अपने भक्त को देना ही पडेगा.
नारद थोडे समय बाद वैकुंठ पहुँचे भगवान ने स्वागत किया पूछा बहुत जल्दी में हो क्या बात है. नारद ने कहा भगवन एसे ही बहुत दिन हो गये आप से मिले हुये, भगवान भोलेनाथ से मिलकर आ रहा हूँ और अब आप से मिलने चला आया. अब वैसे भी मेरे पास समय है क्युँकि तपस्या और भक्ति मार्ग की उच्च अवस्था भी प्राप्त कर ली है, ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड और भक्ति में भी अब मैं चरम सीमा पर पहुँच चुका हूँ.
माया को भी जीत चुका हूँ अब सोच रहा हूँ मैं भी ग्रहस्थी बन जाऊँ. रास्ते में एक कन्या को देख कर आ रहा हूँ जो सभी गुणों से युक्त है आपसे क्या कहुँ भगवन आप तो सर्वज्ञ हैं और मैं तो आपका सब से बडा भक्त भी हूँ अत: आप मेरी सहायता किजिये.
भगवान ने मुस्कुराते हुये कहा नारद तुम ग्रहस्थ बनने की चाह में लगता है कन्या के सुंदर रूप पर रोगग्रस्थ हो गये हो अत: मैं अवश्य तुम्हारे इस रोग को दूर कर दुंगा तुम चिंता मत करो. तुम मेरे सबसे बडे भक्त हो तो मुझे भी एक चिकित्सक की तरह से ही अपने भक्त के रोग को दूर करना होगा.
नारद भगवान के इन वाक्यों को नहीं समझ पाये और बोले प्रभु मेरा रोग दूर करने का उपाय है आप मुझे अपना ही रूप दे दीजिये ताकि मैं सुंदरता में बिल्कुल आप जैसा ही दिखुं ताकि वो कन्या मुझे वरण कर ले. भगवान ने कहा नारद मैं तुम्हारा चिकित्सक हूँ इसलिये मैं रोग को ठीक करुंगा तुम चिंता मत करो. नारद ने कहा प्रभु मुझे आज्ञाँ दिजिये अब मैं चलता हूँ. नारद जी खुश थे की अब वो भी भगवान विष्णु जैसे ही हो गये हैं और स्वयंवर के दिन पहुँचे. वहाँ तीनों लोक से बहुतसे लोग आये थे, राजा ने सभी को बैठने को आसन दिये.
नारद जी ने अनुमान लगाया पिछली बार राजा ने मुझे महर्षि कह कर चरण धोये पर, आज सिर्फ सामान्य तरीके से प्रणाम करके आसन दिया, इसका मतलब भगवान ने मुझे अपना रूप दे दिया तभी तो ये राजा आज मुझे नहीं पहचान सका.
स्वयँवर आरम्भ हुआ कन्या अपने लिये वर का चयन करने के लिये एक तरफ से आगे बढी और नारद जी एक दो बार अपनी जगह से खडे हुये कन्या का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये और जैसे ही वो पास से निकली तो नारद जी अपनी गर्दन को आगे की तरफ झुका के खडे हो गये. लेकिन कन्या आगे बढ गई और एक अन्य दिव्य पुरुष के गले में जयमाला डाल दी. कन्या का विवाह उनसे संमपन्न हुआ विवाह के बाद दो शिव गण जो वहाँ आये थे, वो नारद जी को देख कर बोले आप क्युँ बार–बार ऊछल रहे थे.
नारद को उनकी बात पर बहुत गुस्सा आया और बोले मूर्खो हँस क्युँ रहे हो जानते नहीं मैं कौन हूँ? वो ये तो पता नहीं कौन हो पर देखने पर लगते एकदम बंदर हो, वो बंदर जो मृत्युलोक पर पाये जाते हैं. नारद ने अपना मुँह जल में देखा तो वानर का सा मुँह का नजर आया. शिव गण फिर बोले क्युँ लग रहे हो ना मृत्युलोक के बंदर और पुन: जोर से हँसें तो नारद जी को और अधिक क्रोध आ गया और उन्हें श्राप दे दिया कि तुम दोनों शिव गण हो कैलाश में रहते हो और मेरा उपहास करते हो, नारद का उपहास करके कहते हो मृत्युलोक का बंदर इसलिये तुम्हें श्राप देता हूँ तुम मृत्युलोक में जाओगे और वो भी राक्षस कुल में, और फिर बंदर ही तुमको पीटेंगे.
इसके बाद नारद जी गुस्से से वैकुंठ लोक की ओर तेजी से बडे, उन्हें भगवान विष्णु पर बहुत गुस्सा आ रहा था। रास्ते में वही कन्या और वर भी विवाह के बाद जा रहे थे. जैसे ही नारद ने बारात क्रोस करते हुये आगे निकले वर ने पूछ लिया अरे नारद जी कहाँ को चले? इस प्रश्न से ही नारद को गुस्सा आ गया और थोडा रुक के बोले ओह तो आप हैं अब मैंने पहचान लिया है आप को.
आप विष्णु भगवान हैं. इतना बडा खेल वो भी मेरे साथ मैंने आपको इस कन्या के बारे में बतलाया, जानकारी दी और आपने इस कन्या के रूप गुणों की चर्चा मुझ से ही सुनकर मुझे ही छला, और खुद रूप बदल कर दुसरा विवाह इस कन्या से किया.
इसके बाद नारद जी ने श्री हरि को भी श्राप दे दिया, जैसे मैं पत्नी के वियोग में हूँ वैसे ही आप को भी श्राप देता हूँ कि आप भी पत्नी के वियोग में दुखी रहेंगे वो भी मृत्युलोक में क्युँकि असली वियोग तो क्या होता है वहीं पता चलेगा और आप पत्नी के वियोग में मेरी तरह ही भटकेंगें. भगवान ने कहा नारद आपने श्राप दिया इसे स्वीकार करता हूँ और फिर अपनी माया हटा दी तब नारद ने देखा कुछ भी नहीं था ना वो नगर, न वो कन्या.
नारद ने कहा यह क्या हुआ? भगवान ने कहा तुमने ही कहा था नारद की माया को जीत चुके हो इसलिये तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। नारद ने श्री हरि से क्षमा माँगी और भगवान विष्णु अदृश्य हो गये. इसी बीच वहाँ शिव गण भी आये और उन्होनें नारद जी से अपराध क्षमा करने को कहा. नारद ने कहा श्राप मिथ्या तो नहीं होगा, अत: राक्षस तो तुम होओगे ही लेकिन इतना और कर देता हूँ कि तुम इतने प्राक्रमी राक्षस होओगे कि स्वयं भगवान श्री हरि ही तुम्हारे उद्धार के लिये आएँगे.
इसके अतिरिक्त तीसरा योग था प्रतापभानु जो चक्रवर्ति राजा होने के लिये लालच में ब्राह्मणों के श्राप का शिकार हो जाता है जिसकी कथा आगे आयेगी, जो सीताजी के जन्म से भी जुडी है.
इन तीनों श्राप (जय-विजय, शिव गण और प्रतापभानु) से और इन सभी के अंश के रूप में प्रकट हुआ रावण। प्रतापभानु का राजसी गुण, शिव गणों का तामसी गुण और जय–विजय का भक्ति का गुण, इन तीनों व्यक्तियों के गुणों की प्रधानता लिये जन्म लिया रावण ने. बाल्यकाल में ही रावण ने चारों वेद पर अपनी कुशाग्र बुद्धी से पकड बना ली, उसे ज्योतिषि का इतना अच्छा ज्ञान था कि, उसकी रावण संहिता आज भी ज्योतिषी में श्रेष्ठ मानी जाती है.
युवावस्था में ही रावण तपस्या करने निकल गया उसे पता था कि ब्रह्मा जी उसके परदादा हैं, इसलिये उसने पहले उनकी घोर तपस्या की और कई वर्षों की तपस्या से प्रसन्न होके ब्रह्मा जी ने उसे वरदान माँग़ने को कहा, तब रावण ने अजर–अमर होने का वरदान माँगा. ब्रह्मा जी ने कहा मैं अजर अमर होने का वरदान नहीं दे सकता हूँ तुम ज्ञानी हो इसलिये समझने का प्रयास करो. मैं तुम्हें वो नहीं दे सकता हूँ लेकिन बदले मैं अन्य शक्तियां देता हूँ.
रावण तपस्या से शक्ति प्राप्त करके आया माता-पिता से मिला वे बहुत प्रसन्न हुए. अब थोडा अभिमान मन में आ गया और एक दिन, दो चार साथियों को लेके रावण अपनी युवावस्था में सहस्त्रबाहु अर्जुन के राज्य की सीमा में गया, वहाँ नर्मदा नदी के किनारे उसने देखा नदी की चौडाई बहुत होने के बाद भी उसमें जल बहुत कम था।
रावण ने अपने साथीयों से कहा ये नदी का जल इतना कम कैसे है पहले तो इसमें बहुत जल भरा हुआ करता था। तब साथियों ने थोडा आगे बढकर देखा एक बाँध नजर आया जिसमें नदी का समस्त जल रोका गया था और बांध को बाणों से बनाया था। तब रावण के साथियों ने उसको बताया कि, किसी ने अपनी अद्भुत धनुर्विद्या के प्रयोग द्वारा बाणों से बाँधकर जल को रोका है.
वो सब आगे बढे उन्हें कुछ शस्त्रधारी सुरक्षा में लगे सैनिक दिखे रावण ने पूछा कौन हो और ये बांध किसने बनाया है. उन लोगों ने कहा हमारे महराज सहस्त्रबाहु अर्जुन ने वो इस समय अपनी पत्नीयों के साथ विहार करने (पिकनिक मनाने) आये हैं. रावण ने कहा अच्छा तो अब मेरा कौशल देखो और एक ही बाण से उसने बांध तोड दिया. सहस्त्रबाहु की पत्नीयां जो स्नान करने के लिए गई थी बह गई काफी प्रयास करने के बाद उन्हें निकाला गया.
रावण ने बांध तोडा जब इस बात की सूचना सहस्त्रबाहु को उसके सैनिकों ने दी तब इस बात पर सहस्त्रबाहु और रावण का युद्ध हो गया और रावण हार गया उसको बंदी बना लिया और जेल डाल दिया. उसके साथी भाग गये और रावण के दादा जी मुनि पुलस्त्य को बताया गया तब उन्होंने सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास संदेश भेजा कि रावण युवक है और युवावस्था में गलती की सम्भावना हो जाती है इसलिये उसे छोड दो. अर्जुन ने उसे छोड दिया और चेतावनी दी कि दुबारा इस तरह की गलती न हो नहीं तो एक भी सर धड पर नहीं दिखाई देगा.
रावण को बहुत ग्लानि महसुस हुई और उसने वर्षो तक पुन: ब्रह्मा जी के लिये तप किया. और ब्रह्मदेव के पृकट होने पर उसने फिर से अमर होने का वरदान माँगा. लेकिन इस बार भी उसे अमर होने का वरदान नहीं मिला लेकिन और ज्यादा मायावी शक्ति प्राप्त हुई. मायावी शक्तियां पा कर एक बार घुमते हुए वानरों के क्षेत्र में प्रवेश किया.
शाम का समय था वानरों का राजा बालि उस वक्त एक वृक्ष के नीचे संध्या जप कर रहा था। रावण उसे देख कर हँसा और फिर उसे छेडने लगा ऐ मर्कट, ऐ बंदर बोल उसका उपहास करने लगा और युद्ध करने के लिये उकसाने लगा. रावण को अपनी मायावी शक्ति पर घमंड आ गया था वो बालि से कहा अरे मर्कट मैंने सुना है तु बहुत शक्तिशाली है आ जरा मुझसे युद्द कर के देख तेरा अभिमान मैं कैसे ढीला करता हूँ. लेकिन बालि ध्यान में था इसलिये उसने इसकी बात को सुना ही नहीं. इसके बाद रावण ने उसको जोर से लात मारी और बोला पाखंडी मेरे ललकारने के बाद मेरे डर से ध्यान में बैठा है, सीधे-सीधे बोल कि मैं नहीं लड सकता. बालि क्रोध से ऊबल पडा उसने रावण को पटक-पटक कर इतनी मार मारी बस वो सिर्फ मरने से ही बचा और फिर उसे अपनी पूँछ में बाँध कर लपेट लिया, पुन: संध्या वंदन समाप्त करके उसने रावण के गर्व को चूर-चूर कर दिया. छ: महीने तक बालि ने उसे अपनी कैद में रखा एक दिन उसे अपने बाँए हाथ से उसको अपनी काँख में दबाकर बालि जा रहा था तभी उसके हाथ की पकड ढीली हो गयी और रावण भाग निकला ऐसा भागा की दिखाई नहीं दिया. अब रावण को पता चला कि उससे भी बलशाली लोग हैं मुझे ही पितामह की वजह से अभिमान ज्यादा था।
इसके बाद वो फिर से घोर तपस्या करने निकल पडा और फिर से उसने अमर होने का वरदान माँगा. ब्रह्मा जी ने कहा पुत्र मेरे अधिकार मे वो वरदान नहीं है और इस बार उसने ब्रह्मा जी से प्रचंड शक्तियां और ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया. एक दिन देवताओं से किसी बात पर नाराज हो गया और उसने स्वर्ग में अकेले ही चढाई कर दी और घोर युद्ध में उसने अकेले ही सभी देवताओं को परास्त कर डाला. इंद्र, यम, वरूण अन्य सभी दिकपाल और प्रजापतियों को बंधक बना लिया अन्य सभी देवता स्वर्ग से भाग निकले, उसने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया और बाद में उसे देवताओं को लौटा दिया, लेकिन देवताओं का मान भंग हो गया वो चुपचाप हो गये. दानवों को पता चला कि उनका भांजा रावण अकेले ही स्वर्ग में सभी देवताओं को परास्त कर दिया तीनो लोकों में इस बात का पता चला और इस बात से दानव बहुत खुश हो गये उनकी वर्षो की मनोकामना पूर्ण हो गयी और दानवों ने रावण की जय जयकार की और रावण को अपना राजा बनने कि प्रार्थना की. रावण के तेज और उसके भव्य स्वरूप और नेतृत्व (डायनामिक लीडरशिप) से मय दानव ने प्रसन्न हो के अपनी अत्यंत सुंदर और मर्यादा का पालन करने वाली पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण के साथ किया और रावण पत्नी रूप में मंदोदरी को पा के प्रसन्न हुआ. पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है.
रावण राजा के रूप में राक्षसों द्वारा प्रतिष्ठित हो गया तो फिर उसने अपने लिये राजधानी का निर्माण करने की सोची, वो फिर से स्वर्ग गया शायद राजधानी बनाने के लिये ये ठीक रहे, सभी देवता इंद्र, यम, वरुण उसे देख भाग लिये, वो खुस हुआ लेकिन उसे स्वर्ग पसंद नहीं आया वापसी में लौटते वक्त उसे समुद्र में त्रिकूट पर्वत पर सुंदर नगर नजर आया. वो सीधे उधर गया वहाँ उसने देखा उसका ही सौतेला भाई कुबेर यक्षों के साथ रहता है उसने कुबेर को उस नगर को यक्षों सहित खाली करने को कहा. कुबेर अपने पिताजी के पास गया और कहा पिताजी रावण जबरन लंका खाली करने को कह रहा है तब उन्होंने कहा पुत्र रावण इस वक्त मानने वालों में नहीं है अत: तुम उसे वो स्थान दे दो. तुम उत्तर दिशा में सुरक्षित स्थान में चले जाओ वहाँ तुम्हें कोई तंग नही करेगा. अपने पिता के आदेशानुसार कुबेर ने हिमालय क्षेत्र में अल्कापुरी नाम से नगर का निर्माण मानसरोवर झील के पास कर लिया और यक्षों सहित लंका से धन दौलत के साथ चला गया. ईधर रावण ने त्रिकूटपर्वत पर लंका को बहुत सुंदर बनवाया. उसके ससुर मय नामक दानव ने जो मायवी विद्याओं में अत्यंत निपुण (मास्टर माइंड) था, उसने लंका को तीनों लोकों मे सबसे सुंदर नगर बना दिया, सोने की पन्नी (फोइल) से और हीरे जवाहारात, मणिया से लंका के सभी दिवारें, खंम्भे आदि को मड दिया और जब इन की कमी महसुस हुई तो रावण, कुबेर से छीन कर ले आया. रावण ने सभी राक्षसों को लंका में रहने का निर्देश दिया और सभी को एक से एक सुंदर घर और महल दिये, फिर एक दिन कुबेर से पुष्पक विमान भी छीन लिया.
राज्य स्थापना और सुंदर राजधानी बसा कर सभी असुरों को अच्छी तरह से सब सुख सुविधाएं उपलब्ध करा कर और उन्हें पूर्ण रूप से सुरक्षित कर रावण फिर से ब्रह्मदेव की तपस्या में लग गया, उसे देख बाद में उसके भाई कुम्भकर्ण और विभीषण भी उसके साथ तपस्या में आ गये. ब्रह्मा जी फिर रावण के पास आये रावण ने कहा पितामह मुझे अमरता का वरदान चाहिये. ब्रह्मदेव ने कहा वो मेरे लिये देना सम्भव ही नहीं है लेकिन रावण नहीं माना ब्रह्मा जी चले गये. रावण पुन: तप में लगा रहा और वर्षों बाद घोर तपस्या से ब्रह्मा जी फिर रावण के पास आये उसको समझाया कि, अजर–अमरता वाला वरदान मत माँगो तुम ज्ञानी हो, संसार के नियम को फेरने की शक्ति मुझ में नहीं, मैं मर्यादा में ही काम कर सकने की शक्ति रखता हूँ, पुत्र तुम मेरी तपस्या बार–बार कर रहे हो और मुझे व्यवधान (डीस्टर्ब) हो रहा है इसलिये जितना हो सकता है मैं ऊतना तुम्हें आज दे देता हूँ. तुम्हारी नाभि में, मैं एक अमृत कुंड प्रदान करता हूँ और जब तक यह अमृत कुंड तुम्हारी नाभी में रहेगा तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी. अगर तुम इस पर भी संतुष्ट नहीं हो और अजर-अमर होना चाहते हो, तो बेहतर है तुम महादेव की शरण में जाओ. महादेव की मैं नहीं जानता वो अमर होने का वरदान देंगे या नहीं, किंतु मेरे वश में तो नहीं है. रावण ने फिर ब्रह्मा जी से पूछा कि पितामह यह अमृत कुंड नाभि में कब तक रहेगा? तब ब्रह्मा जी ने कहा अग्नि बाण के अतिरिक्त इस अमृत कुंड को कोई नहीं सुखा सकता है रावण ने सोचा लगभग अमर होने जैसी बात है, क्युँकि अग्नि बाण का प्रयोग भगवान विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता है इसलिये उसने ब्रह्मा जी से कहा पितामह अब आप अजर अमर होने का वरदान तो नहीं दे रहे हैं इसलिये मैं इसे स्वीकार कर लेता हूँ पर आपको और भी कुछ देना होगा. ब्रह्मा जी ने कहा तुम अमर होने के अतिरिक्त अन्य जो माँगो मैं देने को तैयार हूँ तब रावण ने वरदान ऐसे माँगा कि उसको देव, दनुज, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व कोई भी युद्द में न मार सके. ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया.
इसी समय ब्रह्मा जी की दृष्टी एक अप्सरा पर पडी जो पास में जो छुपके से अपना कान लगा के सुन रही थी कि ब्रह्मदेव रावण को क्या वरदान दे रहे हैं. ब्रह्मा जी समझ गये कौन है किसने भेजा है और वो अप्सरा घबराते हुए ब्रह्मा जी को प्रणाम करती है लेकिन उसका इस तरह छुप कर देखना ब्रह्मा जी को अच्छा नहीं लगा, उन्होंने सिर्फ उस अप्सरा को इतना ही कहा ‘’जब तुमने छुप के सुन ही लिया है तो इतना और भी सुन लो कि, जिस दिन किसी वानर का जोरदार मुक्का तुम्हारे इसी कान पर पडेगा, उस दिन समझ लेना रावण और राक्षसों का अंत आ गया” ब्रह्मा जी चले गये और अप्सरा चुपके से भागने वाली थी कि रावण ने उसे पकड लिया और बोला कौन हो यहाँ क्याकर रही हो? उसने बताया कि युँ ही ब्रह्मदेव क्या कह रहे है वो देखने आई थी. रावण समझ गया कि देवताओं की चाल है इसलिये उसने उस अप्सरा को कहा तुम्हें बहुत ज्यादा कान लगा के सुनने की आदत है इसलिये अब मेरे साथ चल अब लंका के द्वार पर, वहाँ कोई घुसे तब कान लगा के सुनना और रखवाली करना और उसे लंकिनी नाम से मुख्य द्वार पर रखवाली के लिये रख दिया.
रावण अब तपस्या जनित अपनी शक्ति की लगभग चरम सीमा पर पहुँच गया था इसलिये अभिमान भी स्वाभाविक था। सभी राक्षस उसकी छत्र छाया में सुरक्षित थे उनमें से कई राक्षस वो पहले देवताओं के भय से तपस्या नहीं कर पा रहे थे, वो तपस्या करने लगे शक्ति प्राप्त करने के लिये और अन्य सभी राक्षस लंका में आनंद और एश्वर्य का भोग करने लगे.
एक दिन रावण अपने अभिमान और ऐश्वर्य के बल पर अकेले ही त्रिलोक में विजय के लिये निकला और सुतल लोक में गया. वहाँ सुतल लोक में राजा बलि राजमहल में थे और रावण बडे अभिमान और गरजना के साथ उनके द्वार पर गया और द्वार पाल को बोला “ बलि को बोलो रावण युद्ध के लिये आया है” द्वारपाल के भेष में कोई और नहीं वल्कि स्वयं नारायण थे उन्होंने बलि को वरदान दिया था, कि उसके द्वार पर पहरा वो देंगे.
रावण ने जब द्वार पाल को जबरन धमकाकर बोला, तो द्वारपाल ने कहा “हे लंकापति रावण, महाराज बलि इस वक्त पूजा में है और पूजा की समाप्ति के बाद वो तुमसे अवश्य लडगें, चिंता मत करो धैर्य रखो, वो भगवान भक्त हैं इसलिये पहले वो उस काम को ही पूरा करंगे उसके बाद वो अपना ये सामने रखा कवच पहनने को यहाँ आएंगे तब तुम्हारा संदेश उन्हें हम यहीं तुम्हारे सामने ही दे देंगे”. रावण अभिमान में चूर था और बोला “अच्छा इस कवच को पहनेगा वो मैं इसे अभी तोड देता हूँ.” रावण आगे बडा और उस कवच को उठाने की कोशिस करने लगा, लेकिन वो इतना भारी था कि रावण को उठाने में पसीना आ गया. द्वारपाल ने कटाक्ष किया लंकापति रावण, हमारे महाराज बलि का कवच तक उठाने में आपके माथे पर पसीना निकल आया है मुझे संदेह हो रहा है कि तुम महाराज बलि से कैसे लड पाओगे कोई बात नहीं कुछ ही समय की बात है और आप धैर्य रखें.
रावण मन में डर गया और बाद आता हूँ कहकर भाग निकला, वापस नहीं आया. रावण ने सभी देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि को युद्द में परास्त करके राक्षसों को अभय कर दिया और मानवों को वो पहले से ही सोचता था कि, वो क्या लडगें बेचारे सीधे साधे लोग है इसलिये पृथ्वी के अन्य भू भागों पर उसके राक्षस अपनी चला ही रहे थे.
यद्यपि शक्तिशाली राज्यों, जिनमें अयोध्या, मिथिला, कौशल जैसे अन्य राजा थे, वो बहुत उच्च कोटी के प्रतापी और सक्षम राज्य थे और कभी सीमा विस्तार के लिये युद्ध नहीं करते थे, ये राजा सन्मार्गी और नारायण भक्त थे, उनकी प्रजा भी सुखी संपन्न और उच्च कोटी की थी. महाराजा दशरथ तो इतने प्राक्रमी थे कि, देवराज इंद्र ने तक उनसे युद्ध में सहायता माँगी थी. राजा जनक इतने श्रेष्ठ राजा थे कि उन्हें प्रजा के, हित के कार्यो और संत सेवा में अपनी देह की सुध तक नहीं होती थी और इसलिये उनका नाम विदेह भी पड गया था। एक से बढकर एक ऋषी, महर्षी, मुनि जिनमें परशुराम, विस्वामित्र, बामदेव जैसे लोग इन राजाओं के दरबार में आते थे और इसी वजह से इनके राज्य को टेडी आँख देखने का साहस तीनों लोकों में स्वत: ही कोई नहीं कर सका.
एक प्रश्न उठता है कि रावण, सहस्त्रबाहु अर्जुन से, फिर बालि से मार खाया, फिर सुतल लोक में बलि के डर से भाग गया, अयोध्या, मिथिला, कौशल, वानरों के प्रदेश आदि उसके अधीन नहीं थे, फिर रावण त्रिलोक विजेता कैसे मान लिया गया? रावण ने ब्रह्मा जी से नाभी कुंड मे अमृत पाया इससे उसकी मृत्यु सिर्फ भगवान नारायण के अतिरिक्त किसी और से नहीं हो सकती है इस बात का उसको ज्ञान था, मन में ग्लानि थी कि, अगर-अमर हो जाता तो कितना अच्छा रहता क्युँकि उसका लक्ष वही था और उसके लिये वो प्रयत्नशील था। लेकिन सिर्फ अमर रहने से कोई बात नहीं बनती है बल, कौशल और शस्त्र भी चाहिये उसके लिये उसने तपस्या से बहुत कुछ पाया भी. उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, राजा बलि, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि. रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के रहेगा. रावण ने भगवान भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की,
एक प्रश्न उठता है कि रावण, सहस्त्रबाहु अर्जुन से, फिर बालि से मार खाया, फिर सुतल लोक में बलि के डर से भाग गया, अयोध्या, मिथिला, कौशल, वानरों के प्रदेश आदि उसके अधीन नहीं थे, फिर रावण त्रिलोक विजेता कैसे मान लिया गया? रावण ने ब्रह्मा जी से नाभी कुंड मे अमृत पाया इससे उसकी मृत्यु सिर्फ भगवान नारायण के अतिरिक्त किसी और से नहीं हो सकती है इस बात का उसको ज्ञान था, मन में ग्लानि थी कि, अगर-अमर हो जाता तो कितना अच्छा रहता क्युँकि उसका लक्ष वही था और उसके लिये वो प्रयत्नशील था। लेकिन सिर्फ अमर रहने से कोई बात नहीं बनती है बल, कौशल और शस्त्र भी चाहिये उसके लिये उसने तपस्या से बहुत कुछ पाया भी. उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, राजा बलि, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि. रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के रहेगा. रावण ने भगवान भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की, भोले नाथ प्रकट नहीं हुये, रावण ने सोचा भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले महादेव हैं और मुझसे ही लगता है अप्रसन्न हैं ये सोच कर उसने और कठोर तपस्या करना शुरु कर दिया, कभी निराहार रह कर तो कभी भगवान भोलेनाथ की सुदंर स्त्रोतों से वीणा वादन कर, लेकिन प्रभु पृकट नहीं हुए. रावण ने सोचा उसका जीवन ही बेकार है अगर वो महादेव को प्रसन्न न कर सका, महादेव जो शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं अपने भक्तों पर, और मैं ही उनको प्रसन्न न कर सका ये सोच कर आत्मग्लानि से भर गया. एक दिन वो पूजा में जब पुष्प चढाने लगा तो पुष्प कम पड गये, तब उसने पूजा को पूर्ण करने के लिये उसने एक-एक कर अपना मस्तक काट कर पुष्प की जगह चढाना शुरु कर दिया, ये सोच के कि जो अपने जीवन में महादेव को प्रसन्न नहीं कर सका तो उस जीने वाले को धिक्कार है.
आज पुष्प की जगह महादेव को मेरे शीश अर्पण हैं. दर्द से रावण बेसुध सा हो गया लेकिन मुँह से हर हर महादेव कहना नहीं छोडा. अंतिम सिर से झुक कर महादेव को अंतिम प्रणाम कर जैसे ही खड्ग प्रहार किया अपनी गर्दन पर महादेव ने प्रकट हो उसका हाथ पकड लिया, बोले रावण मुझे बहुत प्रसन्नता हुई, तुमने मेरे लिये अपने प्राण संकट में डाल दिये, माँगो क्या चाहिये.
रावण दर्द को सहता हुआ महादेव के चरणों में प्रणाम करता हुआ, अति विनम्र होके बोला “हे देवाधिदेव महादेव मुझे आपके दर्शन हो गये, आप मुझ से प्रसन्न हैं मुझे अब और कुछ नहीं चाहिये, मैं माँगने की ईच्छा से ही तप कर रहा था, लेकिन आप के इस सुंदर स्वरूप को देखकर ही मैं धन्य हो गया, आप प्रसन्न हो गये मुझे इस बात से पूर्ण संतोष है प्रभु और मुझे कूछ नहीं चाहिये, आपने मुझे दर्शन दे दिये, मेरे लिये इससे बडा वरदान कुछ नहीं, अत: मुझे कुछ नहीं चाहिये. महादेव ने कहा रावण मैं तो तुम्हारे संकल्प से ही वरदान देने के लिए आया हूँ अत: ऐसे तो जा ही नहीं सकता हूँ. अत: तुम नि:संकोच होके माँगो, तुम्हें जो चाहिये तुम माँग लो. रावण ने कहा “हे महादेव, हे देवाधिदेव, हे भक्तवत्सल यदि आप देना ही चाहते हैं, तो मुझे आपकी अटुट भक्ति दे दीजिये और मैं हमेशा आपके “नम: शिवाय” रुपी मंत्र का जप करता रहूँ, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये. महादेव उसकी बात सुन अत्यंत प्रसन्न हुये, जिसका लक्ष था अमरता प्राप्त करना और वो प्रभु भक्ति माँग रहा है इससे बढा ज्ञानी और कौन हो सकता है.
तब महादेव ने उसे अपनी भक्ति प्रदान की और वरदान दिया कि, तुम्हारे शीश पुन:आ जाएंगे इसके अलावा जब भी कोई अंग कट जाएगा उस के स्थान पर पुन: नया अंग़ स्वत: ही उग आएगा. महादेव जानते थे कि रावण को बालि और अन्य लोगों से युद्ध में हार जाने की ग्लानि मन में है कि वो ऊतना शक्तिशाली नहीं है इसलिये महादेव ने भक्ति के अतिरिक्त उसे बहुत अपार बल दे दिया और साथ में पाशुपत नामक अस्त्र दिया. महादेव से बल पाकर जब वह जैसे ही अपने स्थान से ऊठा और वापस चलने के लिये कदम आगे रखा तो तो पृथ्वी डगमगा गई और रावण बहुत आनंदित हो गया और पुन: महादेव को मन में प्रणाम कर वो लौट के लंका में आ गया.
महादेव का रावण प्रिय भक्त बन गया, लंका से प्रतिदिन पुष्पक विमान से कैलाश जाता था और वहाँ भगवान महादेव की पूजा और अराधना करता था। रावण ने तीनों लोकों को अपनी गति से चलाने वाले नौ ग्रहों को जब अपने अधीन कर लिया, और दिगपालों से उसने अपने लंका के मार्गो मे जल छिड्काव के काम में लगा दिया तब उसे एक तरह से त्रिलोक विजेता माना गया, क्युँकी त्रिलोक का संचालन करने वाले सभी देवता, नौ ग्रह उसके अधीन थे और अब उसे भी पराजित करने वाला त्रिलोक में कोई नहीं था उसने तीनों लोकों में रहने वाले अधिकांश भागों को अपने अधीन कर लिया था।
एक बार नारद जी फिर से लंका आये, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा “सुना है महादेव से बल पाए हो रावण ने कहा हाँ आपकी बात सही है. नारद ने कहा कितना बल पाए. रावण ने कहा यह तो नहीं पता परंतु अगर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला डुला सकता हूँ. नारद ने कहा तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिये क्युँकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिये. रावण को नारद की बात ठीक लगी और सोच के बोला महर्षि अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित ऊठा के लंका में ही ले आता हूँ ये कैसा रहेगा? इससे ही मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है. नारद जी ने कहा विचार बुरा तो नहीं है और उसके बाद चले गये.
एक दिन रावण भक्ति और शक्ति के बल पर कैलाश समेत महादेव को लंका में ले जाने का प्रयास किया. जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो देवि सती फिसलने लगी, वो जोर से बोली ठहरो-ठहरो ! इसके उन्होंने महादेव से पूछा कि भगवन ये कैलाश क्युँ हिल रहा है महादेव ने बताया रावण हमें लंका ले जाने की कोशिस में है. रावण ने जब महादेव समेत कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो उसे बहुत अभिमान भी आ गया कि अगर वो महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो अब उसके लिये कोई अन्य असम्भव भी नहीं और रावण जैसे ही एक कदम आगे रखा तो उसका संतुलन डगमगाया लेकिन इसके बाद भी वो अपनी कोशिस में लगा रहा और इतने में देवि सती एक बार फिर फिसल गई उन्हें क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि “अरे अभिमानी रावण तु आज से राक्षसों में गिना जाएगा क्युँकि तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है और तु अभिमानी हो गया है.
रावण ने देवि सती के शब्दों पर फिर भी ध्यान नहीं दिया तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया और उस भार से रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया और भार से उसका एक हाथ दब गया और वो दर्द से चिल्लाया उसके चिल्लाने की आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी और वो कुछ देर तक मूर्छित हो गया और फिर होश आने पर उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्... भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया. रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध मे होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई युद्द में नहीं हरा सकता था. देवि सती के श्राप के बाद से ही रावण की गिनती राक्षसों में होने लगी और राक्षसों की संगति तो थी ही, इसलिये राक्षसी संगति में अभिमान, गलत कार्य और भी बढते चले गये, श्राप के पहले वो ब्राह्मण था और सात्विक तपस्या करता था.
ब्रह्मदेव और महादेव की पूजा का जल लाने का कार्य भी देवताओं को दिया था. लेकिन बाद में वो सात्विक से तामसी प्रवर्त्ति में पड गया अभिमान और असुरों की संगति इन दो कारणों से रावण पतन को प्राप्त हुआ. रावण से ज्यादा रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्द, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा. राक्षसों ने देवताओं से अपना बैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को (पृथ्वी समझ कर कि ब्रह्मा जी के पास गयी थी, इसका भेद पूछने के लिये) और ब्राह्मणों इसलिये कि, स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये है शायद ये रूप बदल कर देवता ही ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं राक्षस जहाँ तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे.
रावण और राक्षस कुल
[संपादित करें]रामायण के अनुसार रावण के पिता विश्रवा थे तो ऋषि पुलत्स्य के पुत्र थे। रावण की माता कैकसी थी जो राक्षस कुल[उद्धरण चाहिए] की थी इसलिए रावण ब्राह्मण पिता और राक्षसी माता का संतान था और रावण कई विद्याएं, वेद, पुराण, नीति, दर्शनशास्त्र, इंद्रजाल आदि में पारंगत होने के बावजूद भी उनकी प्रवृत्तियां राक्षसी थी और पूरे संसार में आतंक मचाता था। रावण का बड़ा भाई वैश्रावण था।
रावण का विवाह
[संपादित करें]दानवों को पता चला कि उनके भांजा रावण ने अकेले ही स्वर्ग में सभी देवताओं को परास्त कर दिया है। तीनो लोकों में इस बात का पता चला और इस बात से दानव बहुत खुश हो गये उनकी वर्षो की मनोकामना पूर्ण हो गयी और दानवों ने रावण की जय जयकार की और रावण को अपना राजा बनने कि प्रार्थना की. रावण के तेज और उसके भव्य स्वरूप और नेतृत्व (डायनामिक लीडरशिप) से मय दानव ने प्रसन्न हो के अपनी अत्यंत सुंदर और मर्यादा का पालन करने वाली पुत्रियों मंदोदरी और दम्यमालिनी का विवाह रावण के साथ किया और रावण पत्नी रूप में मंदोदरी और दम्यमालिनी को पा के प्रसन्न हुआ. पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है
रावण द्वारा भगवान शिव (shankar defferent) की स्तुति
[संपादित करें]एक बार नारद जी फिर से लंका आये, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा “सुना है महादेव से बल पाए हो रावण ने कहा हाँ आपकी बात सही है. नारद ने कहा कितना बल पाए. रावण ने कहा यह तो नहीं पता परंतु अगर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला डुला सकता हूँ. नारद ने कहा तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिये क्युँकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिये. रावण को नारद की बात ठीक लगी और सोच के बोला महर्षि अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित ऊठा के लंका में ही ले आता हूँ ये कैसा रहेगा? इससे ही मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है.
नारद जी ने कहा विचार बुरा तो नहीं है और उसके बाद चले गये. एक दिन रावण भक्ति और शक्ति के बल पर कैलाश समेत महादेव को लंका में ले जाने का प्रयास किया. जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो देवि सती फिसलने लगी, वो जोर से बोली ठहरो-ठहरो !
इसके उन्होंने महादेव से पूछा कि भगवन ये कैलाश क्युँ हिल रहा है महादेव ने बताया रावण हमें लंका ले जाने की कोशिस में है. रावण ने जब महादेव समेत कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो उसे बहुत अभिमान भी आ गया कि अगर वो महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो अब उसके लिये कोई अन्य असम्भव भी नहीं और रावण जैसे ही एक कदम आगे रखा तो उसका बैलेंस डगमगाया लेकिन इसके बाद भी वो अपनी कोशिस में लगा रहा और इतने में देवि स रावण को श्राप दे दिया कि “अरे अभिमानी रावण तु आज से राक्षसों में गिना जाएगा क्युँकि तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है और तु अभिमानी हो गया है.
रावण ने देवि सती के शब्दों पर फिर भी ध्यान नहीं दिया तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया और उस भार से रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया और भार से उसका एक हाथ दब गया और वो दर्द से चिल्लाया उसके चिल्लाने की आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी और वो कुछ देर तक मूर्छित हो गया और फिर होश आने पर उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की
”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्...
भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया.
रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध मे होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई युद्द में नहीं हरा सकता था।
रावण का अहम
[संपादित करें]रावण सर्व ज्ञानी था उसे हर एक चीज का अहसास होता था क्योंकि वह तंत्र विद्या का ज्ञाता था। रावण ने सिर्फ अपनी शक्ती एवम स्वय को सर्वश्रेष्ट साबित करने में सीता का अपहरण अपनी मर्यादा में रह कर किया। अपनी छाया तक उस पर नही पड़ने दी।
राजा अनरण्य का रावण को शाप
[संपादित करें]अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथ-नन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कह कर राजा स्वर्ग सिधार गये।
बालि से विवशतापूर्ण मैत्री
रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धा पुरी का राजा बालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। बालि की पत्नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय बालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे बालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। बालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पी कर आये होंगे तो भी जिस क्षण बालि से टक्कर लेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको बालि के दर्शन हो जायेंगे।
सुग्रीव के वचन सुन कर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां बालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप बालि पर आक्रमण कर दूँगा। बालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क बालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार बालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु बालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मन्त्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुए दौड़े परन्तु वे बालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार बालि रावण को लेकर पश्चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकाल कर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?
रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। मैंने आपका अद्भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।
रावण के गुण
[संपादित करें]रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों विस्मृत नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता हैं कि रावण शंकर भगवान का बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था।
वाल्मीकि उसके गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकार करते हुये उसे चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं। वे अपने रामायण में हनुमान का रावण के दरबार में प्रवेश के समय लिखते हैं
- अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
- अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
आगे वे लिखते हैं "रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।"
रावण दुष्ट था और पापी था | शास्त्रों के अनुसार वह किसी भी स्त्री को स्पर्श नहीं कर सकता बगैर उसकी इच्छा के, अगर वह ऐसा करेगा तो वह जल कर भस्म हो जाएगा | इसी कारण वह सीताजी को छू तक नहीं पाया |
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं।
बौद्धिक संपदा का संरक्षणदाता : रावण
[संपादित करें]रावण के ही प्रसंग में श्रीकृष्ण जुगनू का अभिमत है- ".....लंकापति रावण पर विजय का पर्व अकसर यह याद दिलाता है कि रावण की सभा बौद्धिक संपदा के संरक्षण की केंद्र थी। उस काल में जितने भी श्रेष्ठजन थे, बुद्धिजीवी और कौशलकर्ता थे, रावण ने उनको अपने आश्रय में रखा था। रावण ने सीता के सामने अपना जो परिचय दिया, वह उसके इसी वैभव का विवेचन है। अरण्यकाण्ड का 48वां सर्ग इस प्रसंग में द्रष्टव्य है।
उस काल का श्रेष्ठ शिल्पी मय, जिसने स्वयं को विश्वकर्मा भी कहा, उसके दरबार में रहा। उसकाल की श्रेष्ठ पुरियों में रावण की राजधानी लंका की गणना होती थी - यथेन्द्रस्यामरावती। मय के साथ रावण ने वैवाहिक संबंध भी स्थापित किया। मय को विमान रचना का भी ज्ञान था। कुशल आयुर्वेदशास्त्री सुषेण उसके ही दरबार में था जो युद्धजन्य मूर्च्छा के उपचार में दक्ष था और भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली सभी ओषधियों को उनके गुणधर्म तथा उपलब्धि स्थान सहित जानता था। शिशु रोग निवारण के लिए उसने पुख्ता प्रबंध किया था। स्वयं इस विषय पर ग्रंथों का प्रणयन भी किया।
श्रेष्ठ वृक्षायुर्वेद शास्त्री उसके यहां थे जो समस्त कामनाओं को पूरी करने वाली पर्यावरण की जनक वाटिकाओं का संरक्षण करते थे - सर्वकाफलैर्वृक्षै: संकुलोद्यान भूषिता। इस कार्य पर स्वयं उसने अपने पुत्र को तैनात किया था। उसके यहां रत्न के रूप में श्रेष्ठ गुप्तचर, श्रेष्ठ परामर्शद और कुलश संगीतज्ञ भी तैनात थे। अंतपुर में सैकड़ों औरतें भी वाद्यों से स्नेह रखती थीं।
उसके यहां श्रेष्ठ सड़क प्रबंधन था और इस कार्य पर दक्ष लोग तैनात थे तथा हाथी, घोड़े, रथों के संचालन को नियमित करते थे। वह प्रथमत: भोगों, संसाधनों के संग्रह और उनके प्रबंधन पर ध्यान देता था। इसी कारण नरवाहन कुबेर को कैलास की शरण लेनी पड़ी थी। उसका पुष्पक नामक विमान रावण के अधिकार में था और इसी कारण वह वायु या आकाशमार्ग उसकी सत्ता में था : यस्य तत् पुष्पकं नाम विमानं कामगं शुभम्। वीर्यावर्जितं भद्रे येन यामि विहायसम्।
उसने जल प्रबंधन पर पूरा ध्यान दिया, वह जहां भी जाता, नदियों के पानी को बांधने के उपक्रम में लगा रहता था : नद्यश्च स्तिमतोदका:, भवन्ति यत्र तत्राहं तिष्ठामि चरामि च। कैलास पर्वतोत्थान के उसके बल के प्रदर्शन का परिचायक है, वह 'माउंट लिफ्ट' प्रणाली का कदाचित प्रथम उदाहरण है। भारतीय मूर्तिकला में उसका यह स्वरूप बहुत लोकप्रिय रहा है। बस.... उसका अभिमान ही उसके पतन का कारण बना। वरना नीतिज्ञ ऐसा कि राम ने लक्ष्मण को उसके पास नीति ग्रहण के लिए भेजा था, विष्णुधर्मोत्तरपुराण में इसके संदर्भ विद्यमान हैं।"
रावण के अवगुण
[संपादित करें]वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके रामायण में रावण के वध होने पर मन्दोदरी विलाप करते हुए कहती है, "अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।" तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जा कर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा।
रावण के दस सिर
[संपादित करें]रावण के दस सिर होने की चर्चा रामायण में आती है। वह कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिये चला था तथा एक-एक दिन क्रमशः एक-एक सिर कटते हैं। इस तरह दसवें दिन अर्थात् शुक्लपक्ष की दशमी को रावण का वध होता है। रामचरितमानस में यह भी वर्णन आता है कि जिस सिर को राम अपने बाण से काट देते हैं पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहाँ पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे - आसुरी माया से बने हुये। मारीच का चाँदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष राम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के दस सिर और बीस हाथों को भी कृत्रिम माना जा सकता है। लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं कि रावण के दस सिरों की बात प्रतीकात्मक है- उसमें दस मनुष्यों की जितनी बुद्धि थी और दस आदमियों का बल था!
आदिवासी मान्यता के अनुसार वह लोग रावण को अपना पूर्वज मानते हैं और उनके कई तथ्य भी सही है क्योंकि पूरे देश में जहां सारे धर्म के लोग यहां तक कि ब्राह्मण और तमिल दशहरे के दिन रावण दहन करते हैं वही पूरे हिंदुस्तान के आदिवासी ज्यादातर गोंड उस दिन को अपने वीर राजा रावण मंडावी की मृत्यु का शोक मनाते है वह पूजा गोंगो करते हैं| आदिवासी के इसमें दशानन मतलब राजा कहा गया है और आदिवासियों के पूर्वज वाह महापुरुष भी राजा रावण को अपना पूर्वज मानते हैं और उन्हें आदिवासी समुदाय की गोंड जनजाति के सदस्य मानते हैं और उनको सात गोत्र धारी मानते हैं और उन्हें राजा रावण मंडावी कहते हैं
उल्लेखनीय स्थल
[संपादित करें]उत्तर प्रदेश के जिला जालौन स्थित kalpi नामके शहर मे २१० फीट ऊंची वर्ष १८७५[9] में बनी ‘लंका मीनार’ है। इसके अंदर रावण के पूरे परिवार का चित्रण किया गया है। जिसे मथुरा प्रसाद,जो रामलीला में रावण का पात्र निभाते थे, ने बनवाया था।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Miśrā, V. (1963). Vālmīki Rāmāyaṇa. Seṭha Bholārāma Sekasariyā-smāraka granthamālā (लातवियाई में). Viśvavidyālaya Hindī Prakāśana, Lakhanaū Viśvavidyālaya. अभिगमन तिथि 9 जनवरी 2018.
- ↑ Joshī, D. (2011). Ramayan Ke Patra (इंडोनेशियाई में). Grantha Akādamī. पृ॰ 72. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-81063-06-4. अभिगमन तिथि 9 जनवरी 2018.
- ↑ "Ravana" Archived 2016-03-04 at the वेबैक मशीन. Random House Webster's Unabridged Dictionary.
- ↑ Mani, Vettam (1975). Puranic Encyclopaedia: A Comprehensive Dictionary With Special Reference to the Epic and Puranic Literature. Delhi: Motilal Banarsidass. पृ॰ 354. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8426-0822-0. मूल से 9 मई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 अप्रैल 2020.
- ↑ Merriam-Webster's Encyclopedia of World Religions (अंग्रेज़ी में). Merriam-Webster. 1999. पृ॰ 909. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780877790440. मूल से 13 अप्रैल 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 अप्रैल 2020.
- ↑ "Only the elderly come to mourn Ravana in 'birthplace' Bisrakh". The Indian Express. 4 October 2014. मूल से 8 जून 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 June 2016.
- ↑ "Ravana in Noida: A book on Greater Noida". hindustantimes.com. 15 March 2014. मूल से 21 अगस्त 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 June 2016.
- ↑ "Bisrakh seeks funds for Ravan temple - Times of India". The Times of India. मूल से 10 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 June 2016.
- ↑ "'लंका मीनार' में भाई-बहन की एंट्री बंद! जानिए इसके पीछे की कहानी". Read UP News in Hindi. 9 जनवरी 2018. मूल से 9 जनवरी 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 जनवरी 2018.
सन्दर्भ ग्रन्थ
[संपादित करें]- श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (प्रथम एवं द्वितीय खंड), सचित्र, हिंदी अनुवाद सहित, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर
- वाल्मीकीय रामायण, प्रकाशक: देहाती पुस्तक भंडार, दिल्ली
- आचार्य चतुरसेन का उपन्यास : 'वयं रक्षाम:' ("Vayam Rakshamah" ) SBN-10:8121608775 / ISBN 9788121608770
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें].
[1]भारत के ऐसे अनोखे मंदिर जहाँ राम नहीं रावण की आराधना होती है
- ↑ singh, ravana (29/6/2020). "भारत के ऐसे अनोखे मंदिर जहाँ राम नहीं रावण की आराधना होती है". liveakhbar. मूल से 29 जून 2020 को पुरालेखित.
|date=
में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)