करौली जिला

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जादौन राजपूत की रियासत जो की यदुवंशी यादव थे जिसकी स्थापना महाराजा विजयपाल यादव जादौन ने की थी

करौली ज़िला
karauli जिला

राजस्थान में करौली ज़िले की अवस्थिति
राज्य राजस्थान
 भारत
प्रभाग भरतपुर प्रभाग
मुख्यालय करौली
जनसंख्या 14,58,248[1] (2011)
शहरी जनसंख्या 2,18,105
साक्षरता 66.22
लिंगानुपात 861
तहसीलें 7[2]
ज़िलाधिकारी Dr. Mohan Lal Yadav, IASIAS
विधानसभा सीटें 4[3]
राजमार्ग 11B
औसत वार्षिक वर्षण 80 मिमी
आधिकारिक जालस्थल

करौली ज़िला भारत के राजस्थान राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय करौली है।[4][5][6][7]

विवरण[संपादित करें]

यह जादौन राजपूत यदुवंशियों की रियासत थी जिसकी स्थापना महाराजा विजयपाल यादव जादौन ने की थी उसके बाद से यादवों को जादौन कहा जाने लगा।करौली जिला राजस्थान के पूर्वी भाग में है। 19 जुलाई, 1997 को 32 वें जिले के रूप में गठित इस भू-भाग में अनेक विभिन्नताएं पाई जाती हैं। जिले को प्राशासनिक दृष्टि से 6 उपखण्डों में विभाजित किया गया है तो भौगोलिक दृष्टि से भी इस भू भाग को तीन क्षेत्रों क्रमशः डांग क्षेत्र, पहाडी एवं सममतल भू भाग में विभाजित किया जा सकता है।

सांस्कृतिक दृष्टि से भी करौली जिले में अनेक विभिन्नताएं पाई जाती हैं। माड क्षेत्र, जगरोटी के नाम से सांस्कृतिक दृष्टि से विभाजित किया गया है। करौली जिले में सम्पूर्ण रूप बृज संस्कृति का प्रभाव देखने का मिलता है। यहां के मेले, त्यौहार सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक रहे है।

जिले के भू गर्भ में पाए जाने वाला खनिज से भी करौली जिले की पहचान देश-विदेश में है। मंडरायल, मासलपुर, सपोटरा, टोडाभीम एवं हिण्डौन क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार के खनिज पदार्थों के भंडार पाए जाते है। यहां का सिलिका स्टोन से वाहनों के सीसे बनाने का कार्य बडे रूप से किया जा रहा है तो सेण्ड स्टोन से निर्मित अनेक ऐतिहासिक एवं आधुनिक इमारतें इसके महत्व को बयां करती है। करौली जिले में पर्वतीय हरियाली का वैभव है तो यहां स्थित सजलतामूलक झरनों, तालाब, जोहड, बांधों में पक्षियों की कलकलाहट सुरम्य वातावरण प्रदान करती है। यहां के भव्य राजप्रसादों के दरो-दीवार जहां इतिहास के उतार-चढाव की गाथा का बखान करते हैं वहीं आकृर्षित छतरियों, एतिहासिक किलों एवं स्मारकों में छुपा यहां का गौरवशाली अतीत अपने आप में अविस्मणीय दस्तावेज के समान परिलक्षित होता है।

यहां के साहित्यकारों और कलाकारों ने इस माटी की सुगंध को परवान चढाने और यहां के आचार-विचार एवं संस्कारों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में अपना प्रशंसनीय योगदान दिया है तो ग्रामीण परिवेश में पल-बढकर यहां के खिलाडियों एवं देश सेवा में सम्मिलित सैनिकों ने इस धरती का मान बढाया है। धार्मिक और साम्प्रदायिक सदभाव की अनूठी मिषाल पेश करते हुए नयनप्रिय पर्यटकीय वैभव से अंलकृत इस धरा पर चार धाम होना ईष्वरीय देन है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि[संपादित करें]

जिला करौली का क्षेत्र पुराने करौली राज्य तथा जयपुर राज्य की गंगापुर एवं हिण्डौन निजामतों में आता है। कल्याणपुरी नामक इस क्षेत्र को वर्तमान स्वरूप प्रदान करने का श्रेय राजाओं को जाता है। कार्ल मार्क्स और कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक में भी इसका वर्णन किया है। करौली राज्य अप्रैल 1949 को मत्स्य संघ में सम्मिलित हुआ बाद में जयपुर राज्य के साथ मिलकर वृहत संयुक्त राज्य राजस्थान का भाग बना। राजस्थान सरकार द्वारा 1 मार्च 1997 को [सवाई माधोपुर] जिले की पांच तहसीलों को मिलाकर एक अलग जिला करौली का गठन किया। 15 जुलाई 1997 को करौली जिला निर्माण की अधिसूचना जारी करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह शेखावत ने 19 जुलाई 1997 को इस जिले का उद्धाटन किया। 2011 की जनगणना के अनुसार जिले की जनसंख्या 1458459 तथा क्षेत्रफल 5043 वर्ग किलोमीटर है। राज्य की प्रमुख नदी [चम्बल] इस जिले को मध्यप्रदेश राज्य से अलग करती है। इस जिले में बहुसंख्या में पाये जाने वाले किले एवं गढ इसके पुराने गौरव की ओर संकेत करते है। इनमें से तिमनगढ, उॅटगिरी, मण्डरायल के किलों का देश के मध्यकालीन इतिहास में प्रमुख स्थान रहा है। तिमनगढ के किले पर [यदुवंश] की प्रमुखता रही है। सन् 1093 से 1159 में राजा तिमनपाल इस वंश का शक्तिशाली राजा था, जिसने अपनी शक्ति को बढ़ाकर तिमनगढ का निर्माण कराया। ऐतिहासिक महापुरूषों के नाम की अनेक छतरियां इस क्षेत्र में आज भी मौजूद है। तिमनगढ, करौली, हिण्डौन आदि स्थानों में पाये गये प्रारम्भिक तथा मध्ययुग के मूर्तिकला एवं वास्तुकला के नमूने पुराने समय में भव्य मंदिरों का होना सि़द्ध करते है। राजा मोरध्वज की नगरी गढमोरा करौली जिले में है, जहां आज भी पुराने अवशेष मौजूद है।

प्रशासनिक व्यवस्था[संपादित करें]

प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत जिला कलेक्टर जिले का सर्वोच्च अधिकारी होने के साथ-साथ समस्त प्रशासनिक एवं कानून व्यवस्थाओं के लिए उत्तरदायी है। जिले को छः उपखण्डो करौली, हिण्डौन, सपोटरा, मण्डरायल, टोडाभीम एवं नादौती में विभाजित किया हुआ है। इन उपखण्डों को 5 पंचायत समिति एवं 7 तहसीलों में विभाजित कर क्षेत्राधिकारी निर्धारण किया हुआ है। जिलें में करौली व हिण्डौन दो नगर परिषद  एवं टोडाभीम नगरपालिका हैं। जिले के प्रशासनिक स्वरूप में जनभागीदारी के रूप में एक लोकसभा सदस्य तथा चार विधानसभा सदस्य है।

ब्लॉक पंचायत समिति तहसील ग्राम पंचायत
करौली करौली करौली,

मासलपुर

  • तुलसीपुरा
  • अतेवा
  • बीजलपुर
  • भावली
  • चैनपुर बर्रिया
  • चैनपुरगाधोली
  • डांडा
  • डुकावली
  • फतेहपुर
  • गेरई
  • गुवरेडा
  • गुडला
  • गुनेसरा
  • हरनगर
  • जहागीर पुर
  • जमूरा
  • कंचनपुर
  • करसाई
  • काशीपुरा
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  • खोहरी
  • खूब नगर
  • खुंडा
  • कोंडर
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  • कोटामामचारी
  • लौहरा
  • महोली
  • मामचारी
  • माँची
  • माशलपुर
  • नारायणा
  • परीता
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  • रघुवंशी
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  • रोंड कलां
  • रतिया पूरा
  • रूंध पूरा
  • सैंगरपुरा
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  • ससेरी
  • सीलोती
  • सेमरदा
हिण्डौन हिण्डौन हिण्डौन
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  • अलीपुरा
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  • गांवडी मीना
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  • गुनसार
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  • इरनिया
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  • कांचरौली
  • करसौली
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  • खरैटा
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  • खैडीहैवत
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  • कोटरी
  • क्यारदाखुर्द
  • लहचौडा
  • महूइब्राहिमपुर
  • महूखास
  • मण्डावरा
  • मोठियापुरा
  • नंगलामीना
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  • पटौंदा
  • फुलवाडा
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  • सनेट
  • शेरपुर
  • श्रीमहावीरजी
  • सिकरौदामीना
  • सोमला रात्रा
  • सूरौठ
  • टोडूपुरा
  • बझेडा
  • बाजना कंला
  • बनकी
  • विजयपुरा
  • वाईजटट ]
सपोटरा सपोटरा सपोटरा
  • अमरवाड
  • अमरगढ
  • औडच
  • बदौडा
  • बगीदा
  • बाजना
  • बालौती
  • बापौती
  • भरतून
  • बूकना
  • चौडागांव
  • डाबरा
  • दौलतपुरा
  • डीकोली कलां
  • एकट
  • गज्जुपूरा
  • गोठरा
  • हाडौती
  • हरिया का मंदिर
  • इनायती
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  • जिरौता
  • जोडली
  • कालागुडा
  • कांचरौदा
  • खेडला
  • कुडगांव
  • लेदिया
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  • महमदपुर
  • नारौली डांग
  • निभेरा
  • सलेमपुर
  • सपोटरा
नादौती नादौती नादौती
  • बागोर
  • बाड़ा
  • बड़ागॉव
  • बरदाला
  • भीलापाडा
  • चिरावडा
  • दलपुरा
  • दलपुरा
  • दलपुरा
  • दलपुरा
  • ढहरिया
  • ढहरिया
  • धौलेटा
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  • गढमोरा
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  • जीतकीपुर
  • कैमा
  • कैमरी
  • केमला
  • कुंजेला
  • मेंढे का पुरा
  • नादौती
  • पाल
  • रायसना
  • राजाहेडा
  • रौंसी
  • सलावद
  • शहर
  • सोप
  • तालचिड़ा
  • तेसगॉव
  • तिमावा
टोडाभीम टोडाभीम टोडाभीम
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  • उरदेन
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  • मातासूला
  • मान्‍नौज
  • मुडिया
  • मोरडा
  • रानोली
  • लपावली
  • शहराकर
  • शेखपुरा
  • सिंघनिया
  • सॉकरबाड़ा
मंडरायल मंडरायल मंडरायल
  • बहादरपुर
  • भाँकरी
  • बुगडार
  • चंन्देलीपुरा
  • दरगमा
  • धौरेटा
  • गढी गाँव
  • गुरदह
  • करणपुर
  • कसेड
  • लांगरा
  • महाराजपुरा
  • मंडरायल
  • मौगेपुुरा
  • नानपुर
  • नीदर
  • औड
  • पांचौली
  • राहिर
  • रानीपुरा
  • रौधई
  • टाडा
  • वाटदा

वनस्पति, वन सम्पदा[संपादित करें]

Maheshvara ki kho

जिले मे पाये जाने वाले महत्वपूर्ण पेड़ नीम बबूल ,बेरी, धौंक, रोंझ,तेन्दु, सालर, खैर, सनथा, जामुन, आम, घनेरी, बॉस, खेजडा, बरगद, पीपल आदि है। इस क्षेत्र में पाई जाने वाली प्रमुख जडी बूटियॉ ओधीझाडा, चीचड़ा, पोलर, कालीलम्प, लपला, कैंच, गूगल आदि है। जिले में स्थित वनों से इमारती लकड़ी, ईधन, लकड़ी का कोयला, पशुओं के लिए चारा, घास-फूस, तेन्दूपत्ता, गोंद, धौक के पत्ते, शहद, मोम, जड़ी बूटियॉ फल, कत्था, कंरज तथा दूसरी अन्य उपयोगी वस्तुए  प्राप्त होती है।

जीव जन्तु[संपादित करें]

जिला करौली  वन्य प्राणियों के मामले में सम्पन्न है इसमें विभिन्न प्रकार के वन्य जीव पाये जाते है जिनमें तेन्दुए , जंगली कुत्ता, सांभर, नील गाय, चीतल, चिंकारा, जंगली सुअर, रीछ प्रमुख हैं। जिलें में कैलादेवी वन्य अभ्यारण्य सन 1983 में स्थापित किया गया था, जिसको सन 1991 में रणथम्भौर रिजर्व के नजदीक मानते हुए संरक्षित वन क्षेत्र एवं वन्य जीव अभ्यारण्य घोषित किया गया है जिसमे यदा कदा बाघ देखे जा सकते है। अभ्यारण्य का क्षेत्रफल 674 वर्ग कि.मी. है।

फसल[संपादित करें]

जिले मे तीनों  मौसमों में फसल की बुबाई का कार्य होता है खरीफ वर्षा पर आधारित है। जो जुलाई  माह में प्रारम्भ होता है। इसमें बोई जाने वाली मुख्य फसलें बाजरा, मक्का, तिल, ज्वार, ग्वार आदि हैं। रबी की बुवाई अक्टूबर से प्रारम्भ होती है, जिसमें मुख्यतया जौ, चना, गेहू , सरसों की बुवाई होती है। यहॉ के लोगो का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं खनन कार्य है। भूमिगत पानी की कमी एवं सिंचाई सुविधा की कमी के कारण कृषि मुख्यतया वर्षा पर निर्भर है। कृषि विपणन के लिए जिले में हिण्डौन में कृषि उपज मण्डी एवं करौली, टोडाभीम में गौण मंडी हैं।

हस्तकला[संपादित करें]

करौली की हस्तकला में प्रमुख स्थान लाख की चूडियों का है लगभग एक लाख रूपये की चूडियों का प्रतिवर्ष अन्य प्रांतों में निर्यात किया जाता है। चूडियों बनाने का कारोबार जिले में हिण्डौन एवं करौली शहरों में स्थानीय लखेरा एवं मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाता है। इस कार्य में करीब पांच सौ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इसके अलावा करौली जिले में लकडी के खिलौने, घरेलू उपयोग की सामग्रियों में चकला-बेलन,  दही बिलौने की रई,  लकडी के चम्मच एवं चारपाई व दीवान आदि भी बनाएं जाते हैं। वर्तमान में पत्थर तराषी कर मूर्तियों एवं जाली झरोखे बनाने का कार्य भी रीको क्षेत्र हिण्डौन व करौली में किये जाने लगा है।

ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल[संपादित करें]

Rajvilas karauli

जादौन यदुवंशियों की नगरी करौली थे यहाँ जादौन राजपूत का राज था जो की विजयपाल यादव द्वारा जादौन वंश की स्थापना की थी तथा करोली रियासत थी जो राजपूतानें की प्राचीन रियासतों में से एक प्रमुख रियासत थी। यहां के शासकों का सन 1100 से लेकर सन 1947 तक का गौरवशाली इतिहास रहा है। रियासत के यदुवंशी राजाओं ने अपनी गरिमा की सुरक्षा, प्रजा के संरक्षण व प्राकृतिक आपदाओं के संधारण हेतु अनेक महल, किले व गढियों का निर्माण कराया। इन महलों किलों व गढियों में वास्तु विशेषज्ञता, स्थापत्य कला और चित्रकारी के दुर्लभ नमूने देखने को मिलते है। एक प्राचीन राज्य होने के कारण करौली में ऐतिहासिक, धार्मिक व पर्यटक महत्व के स्थानों की बहुलता के साथ क्षेत्र में पुरा वैभव विखरा पडा है।

करौली शहर[संपादित करें]

करौली जिला मुख्यालय पूर्व में करौली राज्य की राजधानी थी। करौली कस्बे की स्थापना 1348 में यादववंश के राजा अर्जुनपाल ने की थी। इसका मूलतः नाम कल्याणपुरी था जो कल्याणजी के मन्दिर के कारण प्रसिद्ध था। इसको भद्रावती नदी के किनारे होने के कारण भद्रावती नगरी भी कहा जाता था। करौली कस्बा चारों तरफ से लाल स्टोन से निर्मित है, जिसकी परिधि 3.7 कि0मी0 है जिसमें 6 दरवाजे 12 खिडकियॉ है। महाराज गोपालसिंह के समय का एक खूबसूरत महल है जिसके रंगमहल एवं दीवाने आम को शीशाओं से बडी खूबसूरती से बनाया गया है। इस कस्बे में काफी संख्या में मन्दिर है जिसमें प्रमुख मन्दिर मदनमोहनजी का है। यह मन्दिर सेन्दर बरामदे एवं सुसज्जित पेन्टिंग से निर्मित है तथा महाराजा गोपालसिंह जी के द्वारा जयपुर से लायी गयी काले मार्बल से निर्मित मदनमोहनजी की मूर्ति है। प्रत्येक अमावस्या को मेला लगता है, जिसमें हजारो की संख्या में लोग दर्शनार्थ आते है करौली मे जैन मन्दिर, जामा मस्जिद, ईदगाह अंजनी माता मन्दिर,गोविन्द देव जी मन्दिर आदि भी धार्मिक आस्था के स्थान है।

हिण्डौन सिटी[संपादित करें]

हिण्डौन नगर करौली जिले की सबसे बडी नगरी है। इस पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर की स्थापना किसने की इसके सम्बन्ध में इतिहासकार एकमत नही हैं। सम्भवतः यह भूमि हिरण्यकश्यप व भक्त प्रहलाद की कर्म भूमि रही है। यहां पर आज भी नृसिंह मन्दिर, प्रहलाद कुण्ड, हिरण्यकश्यप के महल, बावड़ियों के अवशेष हैं। यहां से कुछ दूरी पर कुण्डेवा, जगर, दानघाटी पौराणिक स्थान है। जनश्रुतियो के अनुसार महाभारत कालीन हिडिम्बा नामक राक्षसी की कर्मस्थली भी यही क्षेत्र रहा था। हिण्डौन वर्तमान में जिले का प्रमुख औद्योगिक वाणिज्यिक नगर है यहां से उत्तर-मध्य रेलवे का दिल्ली मुम्बई मार्ग गुजरता है साथ ही राष्ट्रीय राजमार्ग 11 से दूरी 41 कि0मी0 है। यहां पर पत्थर तरासी, स्लेट उद्योग का करोबार बडे स्तर पर किया जाता है। 

तिमनगढ का किला[संपादित करें]

तिमंगढ़ किला करौली राजस्थान

यह किला जिला मुख्यालय करौली से 42 किलोमीटर दूर मासलपुर कस्बे के पास स्थित है। यहां बेजोड़ पुरातत्व संबंधी मूर्तियॉ हैं। प्रचलित मान्यता के अनुसार संवत् 1244 में यदुवंशी शासक तिमनपाल ने इस किले का निर्माण कराया थां। कुछ इतिहासकार इस किले को 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन बताते है किले के अन्दर कई शिलालेखो, उपलब्ध प्राचीन कृतियों से पता चलता है कि इसे किसी शिल्पी व कलाप्रेमी ने बसाया था, जो बाद में शासकों के कब्जे मे चला गया। किले के चारों ओर पांच फीट मोटा तथा करीब 30 फीट ऊंचा परकोटा स्थापत्य कला का अनूठा नमूना है। किले के भीतर बाजार, फर्श, बगीची, मन्दिर, कुंए कि अवशेष आज भी मौजूद हैं। पूरा किला अपने अन्दर एक पूरा नगर समेटे हुए हैं। प्रवेश द्वार पर अक्सर ब्रह्मा, गणेश की मूर्तिया नजर आती है, लेकिन यहॉ प्रेत व राक्षसों के चित्र देखने को मिलते है। किले मे जगह -जगह खण्डित मूर्तियो को देखने से ऐसा लगता है कि यहा मूर्तियों की बहुत बडी मण्डी थी। दुर्ग मे छोटे - छोटे कमरे भी हैं, जो संभवतः स्नानघर के काम आते होंगे।

मण्डरायल दुर्ग[संपादित करें]

करौली के दक्षिण में 40 किलोमीटर दूर चम्बल नदी के किनारे पर्वत श्रंृखलाओं के बीच एक छोटी सी पहाडी पर लाल पत्थरो से बना यह दुर्ग ग्वालियर राज्य के निकट होने के कारण सामरिक दृष्टि से महत्वर्पूण रहा है। दुर्ग के सूरज पोल में सूर्योदय से सूर्यास्त तक प्रकाश की किरणें रहती है। सन् 1327 में महाराजा अर्जुन देव ने इस किले पर कब्जा किया था जो अन्त तक करौली राजवंश के अन्तर्गत रहा।

उंट गिरि दुर्ग[संपादित करें]

15 वी शताब्दी में स्थापित यह दुर्ग करणपुर के कल्याण पुरा गांव की ऊंची पर्वत श्रृंखला की सुरंगनुमा पहाडी पर स्थित है। लगभग 4 कि.मी. क्षेत्र में फेले इस दुर्ग में 100 फुट की ऊंचाई से नीचे शिवलिंगों पर पानी गिरता है। इस पानी में बडी मात्रा में शिलाजीत मिलता है। यह दुर्ग लोधा राजपूतों द्वारा बनवाया गया था और यह दुर्ग सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है। 1506-07 ई. में सिकन्दर लोदी ने इस पर आक्रमण किया था उस समय इसे ग्वालियर किले की कुंजी कहा जाता था। अंतिम मुगल सल्तनत तक इस किले पर यदुवंशीयों का ही आधिपत्य रहा।

देव गिरि[संपादित करें]

उंट गिरि के पूर्व में चम्बल नदी के किनारे स्थित यह किला खण्डहर होते हुए भी अतीत की अनेक घटनाओं का साक्षी है। परकोटे के नाम पर आज कुछ भी नही मिलता साथ ही अन्दर के सभी आवासीय भागों को नष्ट किया जा चुका है। सन् 1506-07 ई. में सिकन्दर लोदी के आक्रमण के समय इस किले को सबसे अधिक नुकसान पहुचाया गया। वर्तमान में यहां एक बावडी, जर्जर होता शिलालेख तथा कुछ हवेलियों के अवशेश है।

बहादुरपुर का किला[संपादित करें]

करौली जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर मण्डरायल मार्ग पर ससेड़ी गांव के पास जंगल और सुनसान वातावरण में अटल योद्वा सा खडा बहादुरपुर का किला मुगलकालीन स्थापत्य कला का बेजोड नमूना है। दो मंजिला नृप गोपाल भवन, सहेली की बावडी कलात्मक झरोखे 18 फीट लम्बी चीरियों की आमखास कचहरी, पंचवीर, मगधराय की छतरी दर्शनिय है। यदुवंशी राजा तिमनपाल के पुत्र नागराज द्वारा निर्मित इस किले का विस्तार सन 1566 से 1644 तक होता रहा। जयपुर के राजा सवाई जयंसिंह ने इस किले में तीन माह तक प्रवास किया था। 

शहर किला एवं छतरी[संपादित करें]

नादौती तहसील के ग्राम शहर में यह किला उंची पहाडी पर बना हुआ है तथा आज भी सुरक्षित एवं आबाद है। यहॉ के ठिकानेदार आमेर के राजा पृथ्वीराज के पुत्र पच्चाण के वंशज है। इसमें देवी का प्राचीन मंदिर है।

फतेहपुर किला[संपादित करें]

करौली जिला मुख्यालय से लगभग 30 कि.मी. दूर कंचनपुर जाने वाले मार्ग पर स्थित यह किला यदु शासकों के एक बडे जागीरदार हरनगर के ठाकुर घासीराम द्वारा 1702 ई. में निर्मित किया गया। यह किला सुरक्षित अवस्था में है।

किला नारौली डांग[संपादित करें]

सपोटरा उपखण्ड मुख्यालय से 12 दूरी पर स्थित यह किला  पहाडी के ऊपर बना हुआ है। तत्कालीन करौली एवं जयपुर रियासतों की सीमा पर स्थित नारौली डांग गांव में स्थानीय जागीरदार द्वारा इसका निर्माण कराया गया था।

भँवरविलास पैलेस[संपादित करें]

करौली के पूर्व शासक रहे राजा भँवर पाल के नाम से पूर्व नरेशो का यह आवास उत्कृष्ट वास्तु एवं शिल्प समेटे हुए नगर के दक्षिण में मंडरायल रोड पर स्थित है। वर्तमान में इसे होटल का रूप दिया हुआ है।

रामठरा किला[संपादित करें]

भारत के प्रमुख वन्य जीव अभ्यारण रणथम्भोर एवं घना पक्षी बिहार भरतपुर के बीच करौली जिले के सपोटरा उपखण्ड में स्थित रामठरा फोर्ट कैलादेवी राष्ट्रीय अम्भारण्य से मात्र 15 किलोमीटर दूर है।

हरसुख विलास[संपादित करें]

सर्किट हाउस हरसुखविलास

इसका निर्माण भंवरपाल ने करवाया

करौली में आने वाला प्रत्येक अतिथि हरसुख विलास की वास्तु एवं शिल्प से प्रभावित हुए बिना नही रह सकता इसमें वर्तमान में सर्किट हाउस स्थित है।

सुख विलास बाग एवं शाही कुण्ड[संपादित करें]

 जिला मुख्यालय स्थित भ्रदावती नदी के किनारे एक सुन्दर महलनुमा चारदिवारी के अन्दर बाग लगाया गया था जिसका उपयोग रानियॉ अपने आमोद-प्रमोद के लिए करती थी इसे सुख विलास बाग कहते है। शहर के पर कोटे के बहार सुखविलास के पास भव्य शाही कुण्ड बना हुआ है तीन मंजिला बावडीनुमा इस कुण्ड की बनावट अद्वितीय है इसमें प्रत्येक मंजिल पर बरामदे एवं उतरने हेतू चारो तरफ सिढियां बनी है। रियासत काल में इस कुण्ड का उपयोग शहर में पेयजल सप्लाई के लिए किया जाता था।

दरगाह कबीरशाह[संपादित करें]

Kabir shah ki Majar

करौली पश्चिमम द्वार पर वजीरपुर गेट एवं सायनाथ खिडकियां के मध्य आज से लगभग 120 वर्ष पूर्व बनाई गई एक सूफी संत की दरगाह उत्कृष्ट शिल्प का नमूना है। इसकी खासियत यह है कि इसमें दरवाजे भी पत्थर के बनाये हुए है। पत्थर पर की गई नक्कासी बरबस ही दर्शको का मन मोह लेती है।

कबीर शाह की दरगाह करौली

कबीर शाह का जन्म 13 वी शताब्दी में हुआ और वे अल्लाह के बन्दे थे| वे कहतें थे कि हम सभी अल्लाह के बंदे हैं |                                                                   

कबीर शाह की दरगाह पत्थर की बनी हुई है और इसके दरवाजे पत्थर के बने हुए है और ऐसी  संसार में  कही भी नहीं है |इसका निर्माण 14 वी शताब्दी में हुआ, इसमें चार दरवाजे पत्थर के बने हुए है और दरवाजे पर नक्काशी हो रही है जिसके कारण लोगो को बहुत पसंद आती है और इसमें दरगाह के उपर पर सात धातुओ का गुम्बद बना हुआ है| इस दरगाह को बनवाने के लिए जयपुर से पत्थर मंगवाये थे और करौली  के ही कारीगरो ने ही इसे बनाया था, इसमें विभिन्न प्रकार की कला आकृति बनी हुई है| इसमें बहुत सी कला आकृति की खिड़किया बनी हुई है और साथ में उनके शिष्य की भी कब्र बनी हुई है कुछ लोग बताते है की कबीर शाह फकीर थे और वे लोगो को अल्लाह के बारे में बताते थे | कबीर शाह की मृत्यु हुई तब उनकी कब्र को उसमे ही दफना दिया |       

यह करौली के पश्चिम गेट पर वजीरपुर गेट एवम सायनाथ खिडकिया के पास बनी हुई है |

 रावल पैलेस (राजमहल)[संपादित करें]

तेरहवी शताब्दी में स्थापित राजमहल (रावल पैलेस) लाल व सफेद पत्थर के शिल्प का बेजोड नमूना है। नक्काशी व कलात्मक चितराम से सुसज्जित विशाल द्वार, जालीदार झरोखे, तोपखाना, नाहर कटहरा, सुर्री गुर्ज, गोपालसिंह अखाडा, भॅवर बैंक, नजर बगीची, मानिक महल, फब्बारा कण्ड, बारह दरी, गोपाल मन्दिर, दीवान ए आम, फौज कचहरी, किरकिरी खाना, ज्ञान बॅगला, शीश महल, मोतीमहल, हरविलास, रंगलाल, गेंदघर, टेडा कुआ, जनानी ड्यौढी आदि कुशल स्थापत्य के साथ-साथ यहां की सभ्यता व संस्कृति के परिचायक है। 

अन्य[संपादित करें]

करौली में महाराजा गोपालसिंहजी की छतरी, रणगमा तालाब, सुख विलास कुण्ड, एवं शिकारगंज आदि करौली के पुरा वैभव प्रतीक है। साथ ही जिले के सपोटरा में नारौली डांग का किला, गढमोरा (नादौती) में राजा मोरध्वज का महल व मन्दिर, शहर सोप का ऊची पहाडी पर निर्मित किला, हिण्डौन की पुरानी कचहरी व प्रहलाद कुण्ड जैसे दर्शनिय ऐतिहासिक स्थल हमारी संस्कृति की पहचान है। 

धार्मिक स्थल[संपादित करें]

महावीर जी[संपादित करें]

Shri Mahavirji - left view

महावीर जी जैन धर्म का एक प्रमुख स्थान है। यहा पर भगवान महावीर की 400 वर्ष पुरानी मूर्ति है।जोधराज दीवान पल्लीवाल महावीर स्वामी भगवान के चमत्कार से प्रभावित होकर त्रि शिखरीय जिनालय का निर्माण करवाया और जैनाचार्य महानंद सागर सूरीश्वरजी जी महाराज से प्रतिष्ठा करवाई| महावीर जी में निर्मित मन्दिर आधुनिक एवं प्राचीन शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है। मन्दिर को एक बहुत बडे प्लेटफार्म पर सफेद मार्बल से बनाया गया है। इसकी छतरी दूर से दिखायी देती है, जो लाल बलुआ पत्थर की है। मन्दिर पर नक्काशी का कार्य भी अति सुन्दर है। मन्दिर के ठीक सामने मान स्तम्भ बना हुआ है। जिसमें जैन तीर्थकर की प्रतिमा है। मन्दिर के पीछ कटला एवं चरण मन्दिर है, जहां पर दर्शनार्थी श्रद्वापूर्वक दर्शन को जाते है। प्रतिवर्ष चैत्र सुदी 11 से बैशाख सुदी 2 तक (मार्च-अप्रैल) मेला लगता है, जिसमें लाखों लोग विभिन्न क्षेत्रों से यहां आते हैं। मेले के अन्त में रथया़त्रा का आयोजन किया जाता है।

कैलादेवी मन्दिर[संपादित करें]

करौली से 24 कि.मी. दूर कालिसिल नदी के किनारे स्थित यह प्रसिद्व धार्मिक स्थल है। जहां प्रतिवर्ष मार्च-अप्रैल माह में एक बहुत बडा मेला लगता है। इस मेले में राजस्थान के अलावा दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश के तीर्थ यात्री आते हैं। मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है जिसमें कैला(महालक्ष्मी) एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमाऐं हैं। कैलादेवी की आठ भुजाओं एवं सिंह पर सवारी करते हुए बताया हैं यहां क्षेत्रीय लांगुरियॉ के गीत विशेष रूप से गाये जाते है। जिसमें लांगुरियाँँ के माध्यम से कैलादेवी को अपनी भक्ति - भाव प्रदर्शित करते है।

मेंहदीपुरबालाजी[संपादित करें]

दौसा करौली के माध्य करौली टोडाभीम तहसील एवं दौसा जिले कि सिकराय तहसील के मध्य स्थित है । टोडाभीम तहसील से 5 कि.मी. दूर है तथा जयपुर आगरा राष्ट्रीय राज्य मार्ग से जुडा हुआ है। हिन्दुों की आस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां पर पहाडी की तलहटी में निर्मित हनुमानजी का बहुत पुराना मन्दिर है। लोग काफी दूर-दूर से यहां आते है। ऐसी मान्यता है कि हिस्टीरिया एवं डिलेरियम के रोगी दर्शन लाभ से स्वस्थ होकर लौटते है। होली एवं दीपावली के त्यौहार पर काफी संख्या में लोग यहां दर्शन के लिए आते है।

मदनमोहन जी[संपादित करें]

Madanmohan-ji

श्री मदन मोहन देवालय मुख्यालय के आंचल से महलों के पास वृहद भव्य परिसर के घेरे में स्थित है जहां भगवान राधा मदन मोहन के साथ श्री गोपालजी की मनमोहनी प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है। जिनकी सेवा गौड सम्प्रदायी गुसाईयों के माध्यम से बहुत सुन्दर तरीकों से होती आ रही है। मंगला से शयन तक हजारों भक्तों का समूह प्रत्येक झांकी पर उपस्थित रहता है। मदनमोहनजी की कुल आठ झांकी सकल मनोरथ पूर्ण करने वाली है।

शिल्प एवं उद्योग[संपादित करें]

करौली जिले में शिल्प के उत्कृष्ट नमूने पाये जाते है। वास्तुशिल्प के रूप में महाराजा गोपाल सिंह के शासन काल में शिल्प के क्षेत्र में भारी विकास हुआ है। जिसका साक्षात प्रमाण करौली राजमहल के रूप में है। 14वीं शताब्दी में निर्मित यह महल जहां साधारण दिखाई देते है। वहीं इस किले का बाहरी हिस्सा जो 17वीं शताब्दी में बनाया गया था, शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है। बैहरदह में बौहरों की हवेली एवं करौली नगर के कई कलापूर्ण एवं भवनों का शिल्प दर्शन अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इनके अतिरिक्त मां साहब का मंदिर, दीवान साहब की हवेली, पदम तालाब की हवेलियां एवं रतियापुरा एवं कसारा की परेंडी विशेष शिल्पकला के नमूने है।

पर्यटन[संपादित करें]

Crocodile senture in chamble devghat

पर्यटन के क्षेत्र में करौली सुनहरे भविष्य की ओर इंगित करता है यहां पाए जाने वाले ऐतिहासिक, पुरातात्विक महत्व के किले, स्मारक, यहां की संस्कृति, कैलादेवी अभ्यारण्य क्षेत्र पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षिक करने के लिए पर्याप्त है। पर्यटन उद्योग को बिना लागत का उद्योग माना जाता है। इससे प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से स्थानीय नागरिक बडी संख्या में लाभान्वित होते है। यहां के मेले, चार प्रमुख आस्था स्थल बरवस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आने वाले समय में स्थानीय नागरिकों, जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों को मिलकर एक नई सोच के साथ कार्य कर इस दिशा में आगे बढना होगा। जिले से लगती चम्बल नदी, पांचना बांध में नौका विहार, ग्रामीण पर्यटन, चम्बल रेवाइंस भ्रमण जैसे कार्यक्रम तैयार किए जा सकते है। करौली को पर्यटन मानचित्र पर लाने के लिए यहां एक प्रमुख पर्यटन मेले की भी आवश्यकता है। इसके साथ ही ऐतिहासिक शिवरात्रि पशु मेले को नागौर पशु मेले की तर्ज पर विकसित कर पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकता है।

त्यौहार एवं मेला=[संपादित करें]

करौली जिले में सभी प्रमुख त्यौहार मनाते हैं जैसे होली दिवाली रक्षा बंधन मकरसक्रांति आदि।


शक्तिपीठ कैलादेवी[संपादित करें]

कैला देवी मंदिर

 उत्तर भारत का प्रमुख शक्ति पीठ कैलादेवी इन दिनों श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। पूर्वी राजस्थान के करौली जनपद में स्थित कैलादेवी में यू तो वर्ष पर्यन्त देवी भक्तों का आना जाना बना रहता है. लेकिन शरदीय नवरा़त्रा के दौरान लगने वाला परम्परागत धार्मिक मेला विषेश महत्वपूर्ण है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, गुजरात एवं दिल्ली के आने वाले भक्तों की आस्था का यह स्थान चैत्र मास में तो जन सैलाब के कारण पूरी तौर से अटा रहता हैै।

राजस्थान, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश की संस्कृति से ओत-प्रोत कैलादेवी के भक्तों के स्वरों से गॅूजती लांगुरिया गीतों की ध्वनि मेले के दौरान जन-जन को शक्ति एवं आसक्ति की ओर ले जाती है। बृजभाषा एवं खडी बोली में मुखरित लांगुरिया गीत इस मेले की पहचान कहे जा सकते है। होलिका दहन एवं शीतला माता के पूजन के बाद देवी भक्तों द्वारा लांगुरिया गीतों का गायन घर-बाहर शुरू हो जाता है। जो मेले के दौरान प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। नृत्य के साथ लोक संगीत का आनन्द लेने के लिए मेले में पंहुचने वाले लोग सम्पूर्ण रात्रि जागरण में निकाल देते है। मेला अवधि में रात एवं दिन का अन्तर भी काफूर हो जाता है तथा लोगों के सैलाब एवं हलचल में कोई कमी नहीं आती है।

पुरानी देशी रियासत करौली से 23 किलोमीटर दक्षिण में अरावली पर्वत श्रृंखला के त्रिकूट पर्वत की चोटी पर बने कैलादेवी मंदिर का इतिहास भी पुराना है। गोस्वामी केदारगिरी द्वारा 1114 ई0 में कैलादेवी की प्रतिमा की स्थापना किए जाने के बाद इस क्षेत्र के तत्कालीन खीचीं राजा रधुनाथदास ने कैलादेवी के साथ इसी मंदिर में प्रति स्थापित किया। 1348 ई0 में करौली की स्थापना के बाद मंदिर की सार-संभाल करौली के यदुवंशी नरेशों द्वारा की जाने लगी। अकबर के दौलतवाद विजय अभियान पर करौली नरेश गोपालदास के साथ जाने से पूर्व कैलादेवी की मनौती मानने पर विजयी होने का प्रसंग मॉ पर अटूट श्रद्वा से जुडा हुआ है। कैलादेवी जहाँ शक्तिस्वरूपा है, वहीं उसका गण लांगुरिया भैरव स्वरूप है। इसकी प्रतिभा देवी मंदिर के सामने बनी हुई है। मेले के अवसर पर गाये जाने वाले लोक गीत लांगुरिया को ही सम्बोधित करके गाये जाते है।

मंदिर का प्रबन्ध एक ट्रस्ट द्वारा होता है, जिसके अध्यक्ष राजपरिवार के कृष्णचन्द्र पाल है। मेला अवसर पर मंदिर ट्रस्ट, जिला प्रशासन एवं स्थानीय ग्राम पंचायत की संयुक्त व्यवस्था के तहत यात्रियों को आवश्यक सुविधाऐं मुहैया कराई जाती है। कैला ग्राम मेंं करीब 170 धर्मशालाऐं यात्रियों के ठहरने के लिए उपलब्ध है।

कैलादेवी से दो किलोमीटर दूर देवी के मूल प्राकृतिक स्थल केदार गिरि की गुफा पर भी नवरात्रा साधना चलती है। लगभग 900 वर्ष पुराना यह आस्था केन्द्र वन्य जीव अभयारण्य क्षेत्र  घोषित होने के बाद भक्तों के साथ-साथ पर्यटकों का पहुँचाना भी शुरू हो गया है। कैलादेवी अब उत्तर भारत का प्रमुख धार्मिक पर्यटन स्थल बन चुका है।

जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र श्री महावीरजी[संपादित करें]

श्री महावीरजी

सम्पूर्ण भारत के जैन मतावलम्बियों का आस्था केन्द्र श्रीमहावीरजी करौली जिले का प्रमुख धार्मिक पर्यटन स्थल है। यहां यात्रियों को ठहरने एवं भोजन की अच्छी व्यवस्था होने के कारण भक्तों का वर्ष पर्यन्त आना-जाना बना ही रहता है। राज्य एवं जिला स्तर के अनेक सरकारी सम्मेलन एवं गोष्ठियां भी यहां धार्मिक आकर्षण एवं आने-जाने की सुगम व्यवस्था के कारण आयोजित होते है।

लगभग 400 वर्ष पूर्व भूगर्भ से निकालकर भगवान महावीर की मूंगावर्णी पद्मासन प्रतिमा को मुख्य मंदिर में स्थापित किया गया था। पुरातत्ववेत्ता इस प्रतिमा को एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी मानते है।जोधराज दीवान पल्लीवाल महावीर स्वामी भगवान के चमत्कार से प्रभावित होकर त्रि शिखरीय जिनालय का निर्माण करवाया और जैनाचार्य महानंद सागर सूरीश्वरजी जी महाराज से प्रतिष्ठा करवाई|

श्रीमहावीरजी का मंदिर संगमरमर का बना हुआ है। मंदिर के अन्दर विराजमान मुख्य प्रतिमा के अलावा 12 अन्य प्रतिमाऐं है, जिन्हें समय-समय पर बाद में स्थापित किया गया है। मंदिर की दीवारों पर सुनहरी चित्रकारी है तथा परिक्रमा में भित्ति चित्रों पर जैन कलाओं को उकेरा गया है। दर्शन पूरे दिन रात्रि 10 बजे तक किये जा सकते है। सायंकाल की आरती का दृष्य बडा मनोहारी होता है।

श्रीमहावीरजी मंदिर एवं अतिषय क्षेत्र के विकास के लिए एक ट्रस्ट प्रतिमा एवं चौबीसा मंदिर है ब्रह्मचारिणी कमलाबाई द्वारा स्थापित आदर्ष महिला विद्यालय परिसर में पार्शवनाथ का कांच का जिनालय है। कमलावाई द्वारा संचालित महिला शिक्षण संस्था द्वारा महिलाओं के लिए आवासीय संस्कृत महाविद्यालय एवं विद्यालय, बी.एड.कालेज तथा एस.टी.सी. संचालित है। संस्कृत शिक्षा प्रसार की दृष्टि से यह शिक्षण संस्था राजस्थान में अपना स्थान बनायें हुए हैं।

चैत शुक्ला त्रयोदशी से वैशाख कृष्णा प्रतिपदा तक यहां विशाल मेला लगता है। मेले के अवसर पर आयोजित रथ यात्रा में उप जिला कलेक्टर, हिण्डोन राज्य के प्रतिनिधि के रूप में रथ के सारथी का स्थान ग्रहण करते है। मेले में जैन धर्मावलम्बियों के साथ-साथ क्षेत्रीय लोग भारी संख्या मे सम्मिलित होते हैं। सरकार के पर्यटन एवं देवस्थान विभागों ने इस धार्मिक स्थल के विकास के लिए विशेष वित्तिय प्रावधान किया है।

श्रद्धा के पर्याय मेंहदीपुर बालाजी[संपादित करें]

महेन्दीपुर बालाजी

घाटा मेंहदीपुर बालाजी जिला मुख्यालय करौली से उत्तर पश्चिम की ओर 75 कि.मी. दूर एवं राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 11 से दक्षिण दिशा की ओर तीन किमी तथा उपखण्ड मुख्यालय टोडाभीम से 5 कि.मी. दूर स्थित है। वर्तमान में यह धार्मिक स्थल उत्तर भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत के भक्तों का भी आस्था केन्द्र बना हुआ है। मंदिर में हनुमानजी की विशाल प्रतिमा है तथा इस प्रमुख मंदिर के इतिहास के विषय में किवदंती है कि प्राचीन काल में श्रीहनुमानजी महाराज ने बालरूप में जब सूर्य को खाने की वस्तु समझ अपने मुख मे रख लिया था, तब राजा इंद्र ने उन्हें छुडाने के लिए अपने वज्र से हनुमानजी पर प्रहार किया, तो वे भीषण गर्जना करते हुए माता अंजनी की गोद में जा गिरे। बताया जाता है कि इस भीषण गर्जना का प्रभाव करौली जिले की सीमा पर स्थित ग्राम मेंहदीपुर की घाटियों में पाषाण शिलाओं पर हुआ और उनका रूप का आकार एक पवित्र शिला पर उभर गया।

करीब डेढ सौ वर्ष पूर्व एक तपस्वी ऋषि इस स्थान से भ्रमण करते निकले, तो उन्हें अपने अलौकिक ज्ञान से ज्ञात हुआ कि यहां हनुमानजी का पवित्र स्थान है। उन्होने बरसों तक इस स्थान पर तप साधना की ओर भगवान की सेवा करने लगें। धीरे-धीरे यहां अनेक ज्ञानी ऋषि-मुनी आने लगे और इस स्थान की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। बाद में गोस्वामी वंश के पूर्वजों ने यहां सेवा-पूजा की और वे इस मंदिर के महंत कहलाने लगे। अभी तक बीस मंहत इस स्थान की सेवा - पूजा कर चुके है। देश के हर कोने से श्रृद्धालु यहां आते है, इनके ठहरने के लिए करीब ढाई सौ धर्मशालाएं बनी हुई है। भगवान श्रीराम का मंदिर भी यहां बनाया हुआ है। मंदिर की देखरेख के लिए श्रीबालाजी महाराज घाटा मेहंदीपुर ट्रस्ट का गठन किया हुआ है, जिसके अध्यक्ष महंत किशोरपुरी है। प्रत्येक पूर्णिमा पर मंदिर में छप्पन भोग की झांकी लगाई जाती है। ट्रस्ट द्वारा 300 बिस्तरों का चिकित्सालय, विकलांग आश्रम एवं महिला शिक्षा के प्रसार के लिए महाविद्यालय संचालित है।

लोक आस्था केन्द्र कैमरी का जगदीशजी मंदिर[संपादित करें]

जगदीश जी का मंदिर

करौली जिले की नादौती तहसील के कैमरी ग्राम में स्थित जगदीशजी का मंदिर क्षेत्रीय नागरिकों के श्रद्धा एवं भक्ति का प्रमुख केन्द्र है। वैसे तो यहां दर्शनार्थियों का आना-जाना वर्ष पर्यन्त रहता है, किन्तु बंसत पंचमी के अवसर पर विशेष मेले का आयोजन किया जाता है। मेले के अवसर पर गांव में जगदीशजी की शोभा यात्रा बैंड बाजे के साथ निकाली जाती हैं। शोभा यात्रा भगवान राधाकृष्ण की मूर्ति रथ पर आरूढ की जाती है तथा मंदिर के महंत सारथी के रूप में सवार रथ का संचालन करते है। परंपरागत तरीके के रथ को बारह गांवों के गुर्जर समाज के पटेल खींचते हैं। रथ यात्रा में भक्त गण बैण्डबाजे  की धुन पर नाचते  एंव  गुलाल उडाते हुए आगे बढते हैं । रथ यात्रा का समापन जनकपुरी  पहुंचने  पर होता है। जहां एक सभा  आयोजित की जाती है, सभा  में जगदीश जी की माला की बोली  लगाई  जाती है माला की बोली अनेक बार एक लाख रूपये से भी अधिक की लगती है। मेले में राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश एवं मध्यप्रदेष के भक्त भी दर्षन लाभ लेने आते हैं।

कृषि[संपादित करें]

कृषि के क्षेत्र में करौली जिले में बागवानी एवं औषधीय फसलों की प्रबल संभावनाएं हैं। डांग क्षेत्र में आंवला, आम, नीबू एवं औषधीय फसलें व पषुपालन से दुग्ध उत्पादन तथा हिण्डौन, टोडाभीम, नादौती, सपोटरा क्षेत्र में परम्परागत खेती के साथ-साथ वैज्ञानिक तकनीकी का सहारा लेकर नए प्रयोग किए जा सकते है। जिले में मध्यम जोत का आकार होने से निजी एवं सहकारिता के रूप में कार्य कर प्रसंस्करण उद्योग भी स्थापित करने की प्रबल संभावनाएं है। जिले का नादौती क्षेत्र जिसे स्थानीय भाषा में ’माड’ कहते है यहां दलहनी एवं तिलहनी फसलों के उत्पादन की अपार संभावनाएं है। फार्म पौण्ड के क्षेत्र में किए गए प्रयासों से आज यह उपखण्ड प्रदेश भर में जल संरक्षण के क्षेत्र में मॉडल के रूप में उभर कर सामने आया है। जिले की मासलपुर तहसील मे पान की खेती भी की जाती है

अरब देशों तक पहुंच है मासलपुर के पान की[संपादित करें]

पान की खेती मासलपुर

पान का नाम आते ही मुँह में पानी आ जाता है। भारत में पान खाने की परम्परा मुगल काल में बडे़ पैमाने पर देखने को मिलती है। राजस्थान के करौली जिले के मासलपुर का पान अपनी मिठास व लालिमा के कारण पान के शौकीनों के लिए अलग पहचान रखता आया है।

करौली शहर से 27 किमी दूर उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित मासलपुर में तमोली जाति द्वारा परम्परागत रूप से आज भी पान की खेती की जाती है। यहां उत्पादित किये जाने वाला पान वाया दिल्ली अरब देशों तक पहुंचता है। विपरीत परिस्थतियों में भी पान की खेती के लिए आज मासलपुर अपनी विशिष्ठ पहचान बनाए हुए हैं।

तमोली जाति के स्थानीय निवासी बताते हैं कि यहां पर शादी विवाह लेन देन के हिसाब से नहीं बल्कि पान के खेतों के हिसाब से किया जाता है। एक व्यक्ति के पास करीब चार-पांच पान के खेत होते हैं। पान के उत्पादन की प्रक्रिया बहुत ही जटिल मानी गई है। पान की फसल की बुवाई चैत्रा माह में की जाती है। पान के खेत को बेरजा कहा जाता हैं जो करीब एक से पांच बीघा क्षेत्रा में फैला होता है।

फसल पकाई तक इसे अनेक प्राकृतिक बाधाओं से बचाने हेतु जतन करना पडता है। फसल बुवाई से पूर्व बेरजा में पारी बनाई जाती है। इसमें प्रत्येक पारी में लोहे के दस हैंगल खडे कर घास फूंस से छप्पर का एक आवरण बनाया जाता हैं जिसका उद्देश्य पान को धूप और छांव का संतुलित पोषण प्रदान करना है।

आषाढ मास तक फसल में मटकों की सहायता से दिन में पांच बार पानी दिया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान निकलने वाले अंकुर को ’’नागरबेल’’ कहते हैं। जो सरकंडे के सहारे बंधी होती है। यह नागरवेल एक मापदण्ड होती है। सर्दी पडने तक किसान नागरवेल के   पासे को तोडकर उसके नीचे के बडे हिस्से को सरकंडे में लपेट देते हैं। एक वर्ष होने पर नगरबेल के दो पान के पत्ते छोंडकर अन्य पान बिक्री के लिए भेज दिए जाते हैं।

इसमें ओलावृष्टि व पाला प्राकृतिक कारक तो फसल में लगने वाला गिदलीपका व पर्रा नामक रोग अवरोधक का काम करते हैं। वर्तमान में पानी की समस्या भूमि की उपजाऊपन कम होना भी मासलपुर की पान की खेती को प्रभावित नहीं कर पाये हैं।

मासलपुर का पान आमतौर पर अरब देशों में व पाकिस्तान में ही निर्यात किया जाता है। लेकिन पाकिस्तान में ही बेहद प्रसिद्ध है। इसे बडी टोकरियों में भरकर मासलपुर से दिल्ली तक बसों द्वारा पहुंचाया जाता है और वहां से वायुयान द्वारा पाकिस्तान निर्यात किया जाता है। मासलपुर का पान बाजार में थोडा महंगा जरूर मिलता है लेकिन लोग चाव से खाते हैं। भारत में उत्तर प्रदेश में बनारस का पान प्रसिद्ध है उसी तरह राजस्थान में मासलपुर का पान प्रसिद्ध है लेकिन मासलपुर के ग्रामीण क्षेत्रा होने की वजह से यह क्षेत्रा इतना विकसित नहीं हो सका है जितना कि बनारस शहर। मासलपुर भी पान के उत्पादन में  बनारस की तरह प्रसिद्व हो सकता है। सरकारी स्तर पर पान की खेती करने वाले कृषकों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि यहां का पान ख्याति प्राप्त कर सकें और खेती करने वाले भी आगे बढें।

सिंचाई[संपादित करें]

जिले में वर्तमान में सिंचाई के स्त्रोतों में पांचना, कालीसिल, नींदर व जगर बांध बृहद स्रोत माने जा सकते हैं। आने वाले समय में चम्बल-पांचना जगर लिफ्ट परियोजना, गुडला-पांचना लिफ्ट परियोजना के पूरा हो जाने से करौली, हिण्डौन क्षेत्र का भू भाग भी सोना उगलने लगेगा। वर्तमान में सिंचाई के लिए ड्रिप एवं फब्वारा सिंचाई पद्धति अपनाकर भूजल उपलब्धता के अनुसार फसलों का चयन कर कृषि के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए जा सकते है।

उर्जा[संपादित करें]

उर्जा के क्षेत्र में करौली जिला सूर्य के प्रकाष की भांति उदीयमान होने जा रहा है जिले में गुढाचंदीला में 440 केवी विद्युत सबस्टेषन से करौली, दौसा, सवाईमाधोपुर, भरतपुर जिले  रोषन होंगे। करौली में राज्य सरकार की नीति के अनुसार 132 केवी सब स्टेषनों तथा प्रत्येक दो ग्राम पंचायतों के बाद बनने वाले 33 केवी सबस्टेषनों से कृषि, उद्योग एवं घरेलू क्षेत्र में निर्वाध विद्युत आपूर्ति मिलेगी। आने वाले समय में रहूघाट में पन बिजली परियोजना तथा डांग क्षेत्र में पवन ऊर्जा के उत्पादन की प्रबल संभावना है।

शिक्षा[संपादित करें]

शिक्षा को समाज के विकास की धुरी माना जाता है। करौली की प्रतिभाओं ने समय-समय पर देष की प्रशसनिक, इंजीनियरिंग एवं अन्य राजकीय सेवाओं में अपना परचम लहराकर इस जिले का नाम रोषन किया है। आने वाले समय में यहां प्रत्येक उपखण्ड स्तर पर राजकीय महाविद्यालयों, कन्या महाविद्यालयों, इंजीनियरिंग, पोलीटैक्निक महाविद्यालयों की स्थापना से स्थानीय स्तर पर ग्रामीण बालक-बालिकाओं को उच्च अध्ययन की सुविधा मिलेगी। चिकित्सा के क्षेत्र में जिला चिकित्सालय के नवीन भवन के साथ शैक्षणिक सुविधाएं भी विकसित की जाएंगी।

उद्योग[संपादित करें]

औद्योगिक विकास की दृष्टि से करौली जिले को अभी उदीयमान नहीं कहा जा सकता लेकिन जो प्रयास किए जा रहे हैं अथवा खनिज सम्पदा को देखते हुए आने वाले समय में यह जिला औद्योगिक विकास का केन्द्र बनने की पूरी संभावनाएं रखता है। जिले में हिण्डौन एवं करौली रीको क्षेत्र औद्योगिक विकास की दृष्टि से निरन्तर गतिशील हैं। जिले में पत्थर तराषी के साथ.साथ सिकन्दरा की तर्ज पर मूर्ति निर्माणए कलाकृतियों का निर्माण हिण्डौन में स्लेट उद्य़ोगए प्लास्टिक पाईप उद्योगए दुग्ध उत्पादन एवं संग्रहण इकाईए कृषि.प्रसंस्करण उद्योगए लाख की चूडी उद्योग यहां के परम्परागत उ़द्योगों की श्रेणी में माने जाते हैं। आने वाले समय में करौली के हिण्डौन उपखण्ड में प्रस्तावित इफको का संयंत्रए मंडरायल क्षेत्र में सीमेन्ट उद्योग भविष्य के सुनहरे सपने की ओर इंगित करते हैं।

खनिज[संपादित करें]

पूर्वी राजस्थान के करौली जिले में भू-गर्भ में इमारती, सिलीका एवं धीया पत्थर के असीम भण्डार समाए हुए है, भवन निर्माण के काम आने वाले पत्थरों की खदाने तो यहां बहुसंख्य मात्रा में है। जिले के करौली, सपोटरा, मंडरायल एवं हिण्डौन उपखण्ड क्षेत्रों  में लाल-गुलाबी रंग के इमारती पत्थर के असीम भण्डार है। यह पत्थर आदिकाल से भवन निर्माण के लिए देश भर में विख्यात है। यहां के पत्थर का उपयोग देश की नामचीन इमारतों में किया गया है, जिनमें दिल्ली का लाल किला, आगरा फतेहपुर के किले, देश का संसद भवन  उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते है।

स्थानीय रियासत द्वारा निर्मित किले, महलों में लाल पत्थर का बडे स्तर पर उपयोग किया गया है। गांवों में बने पुराने भवनों में भी दीवार निर्माण से लेकर छत-फर्स निर्माण में बडे-बडे कातलों का उपयोग आज भी इन्हें मजबूती प्रदान किए हुए है। जिला मुख्यालय पर सुखविलास गार्डन जो कि आज सर्किट हाउस के रूप में उपयोग लिया जा रहा है सफेद व लाल पत्थर से निर्मित है। इस ऐतिहासिक इमारत में फल-पत्तियों, पक्षियों की आकृति तराशने का कार्य इतनी कारीगरी से किया है कि देखने वाले की नजरें ठहर जाए इसमें कहीं भी चूना या बजरी का उपयोग नहीं किया गया है।

यद्यपि करौली से निकलने वाला लाल-गुलाबी रंग का पत्थर स्थानीय स्तर पर भवन निर्माण की सामग्री में लिया जाता रहा है लेकिन अब गैंगसा यूनिटों में पोलिसिंग कर इसे आकर्षक बनाया जाने लगा है। यहीं से खनन किए गए पत्थर से दौसा जिले के सिकन्दरा-मानपुर क्षेत्रा में पत्थर तरासी का काम बडे स्तर पर किया जाता है जहां से आकर्षक मूर्तियों के निर्माण, पशु-पक्षियों की कला-कृतियां, जाली-झरोखों का निर्माण कर विदेशों तक में निर्यात किया जाने लगा है। करौली में प्रद्यान-अप्रद्यान दोनों ही प्रकार के खनिज पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। अप्ऱद्यान खनिज का उत्पादन तो यहां कब से किया जा रहा है इसका अनुमान लगाना कठिन है। प्रद्यान खनिज का उत्पादन यहां 19 वीं सदी से किया जाने लगा है। जिले में प्रद्यान खनिज में घीया पत्थर ( सोप स्टोन ), सिलिका सेण्ड, चाइना क्ले, व्हाइट क्ले, कोलाइडल सिलिका, लाइम स्टोम प्रमुख मात्रा में पाया जाता है।

करौली की लगभग एक चौथाई आबादी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से खनन कार्य पर ही निर्भर है। यहां के मंडरायल क्षेत्रा में अधिकतर लोग खनिज उत्पादन के कार्य में लगे  हुए है।  इमारती पत्थर के रूप में यहां हिण्डौन सबसे बडा केन्द्र है, वर्षों से हिण्डौन की गहरे लाल रंग की पट्टियां भवनों की छत निर्माण में प्रसिद्ध रही है। हिण्डौन उत्तर-पश्चिम रेलवे मार्ग पर स्थित होने के कारण यहां पत्थर तराशने की सैंकडों इकाईयां वर्तमान में कार्यरत है जिन पर विभिन्न प्रकार के आकारों में पत्थर तराशने के बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों में रेल व सडक मार्ग द्वारा पहुंचाया जाता है। करौली का परिवहन व्यवसाय तो पूरी तरह खनिज उत्पादन पर ही निर्भर है।

सिलिका पत्थर-[संपादित करें]

सिलिका

      करौली एवं सपोटरा तहसीलों में सिलिका के पर्याप्त भण्डारण मौजूद हैं। इस पत्थर का उपयोग मुख्यतः कांच उद्योग में लिया जाता है। इसका कांच में 85 से 90 प्रतिशत तथा 10 से 15 प्रतिशत सेल्सवार व लाइम स्टोन काम में लिया जाताह ै।  यहां पत्थर सफेद एवं हलका भूरा रंग का पाया जाता है जिससे कांच की चूडियां, कला-कृतियां बनाने के काम आता है। स्थानीय स्तर पर इसका उपयोग नहीं लिया जाता है इसको खनन के बाद दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश उत्तरांचल राज्यों में भेजा जाता है। जिले में इसकी कुल 34 खानों के पट्टे खनिज विभाग द्वारा दिए हुए है जिनमें 500 के लगभग श्रमिकों को प्रतिदिन रोजगार मिलता है। जिले में सिलिका की रामापुर, अटलपुरा, रीछोटी, खिरखिडा, गैरई, धौरेटा, धौरेटी, काढई, गोठरा मिझौरा गांवों में खाने मौजूद है। खिरखिडा गांव में असाही इण्डिया लिमिटेड कम्पनी द्वारा एवं  मिझौरा में राजस्थान सेन्डस एवं क्लेज प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बडे स्तर पर खनन कार्य किया जाता है। सिलिका पत्थर को क्रेशर के माध्यम से बारीक पिसाई के उपरांत कांच फैक्ट्रियों में गलाया जाता है। जहां विभिन्न आकारों में ढाल कर इसको उपयोग में लिया जाता है। कोलाइडल सिलिका का उपयोग पोलिस में लिया जाता है नेल पोलिस, बूट पोलिस में उपयोग हेतु इसे राज्य के विभिन्न शहरों में भेजा जाता है।

सेण्ड स्टोन-[संपादित करें]

      इसे इमारती पत्थर भी कहते है, यह मुख्यत भवन निर्माण में उपयोग लिया जाता है। करौली में सैण्ड स्टोन करौली, सपोटरा, मण्डरायल एवं हिण्डौन क्षेत्रा में पाया जाता है सपाट पहाडियों में यह ब्लाकों के रूप में मिलता है मण्डरायल क्षेत्रा में कही कही यह सफेद एवं गुलाबी रंग का पाया जाता है। बाकी स्थानों  पर गहरे लाल रंग का होता है ब्लाकों को तोडकर पत्थर को उपयोग के अनुसार आकार देकर निकाल जाता है। यह खनन कार्य पूरी तरह मानव श्रम पर निर्भर है। वर्तमान में बडे- बडे ब्लाकों के रूप में  मशीनों द्वारा निकालकर इसको गैंगसा यूनिटों तक पहुंचाया जाता है जहां कटिंग एवं पॉलिसिंग का कार्य एवं कुशल कारीगरों द्वारा मूर्तियां निर्माण, विभिन्न आकृतियां, जाली-झरोखे निर्माण पर किया जाता है। जिले में खनिज विभाग द्वारा सेण्ड स्टोन के 155 खनिज पट्टे जारी किए हुए है जिन पर लगभग 20 हजार श्रमिकों को प्रतिदिन का रोजगार उपलब्ध होता है।

मैसेनरीज स्टोन-[संपादित करें]

      यह खनिज भवन निर्माण, चार दीवारी निर्माण में काम लेने के लिए छोटे-छोटे खण्डों के रूप में निकाला जाता है। इसकी खपत स्थानीय स्तर पर है, मैसेनरीज स्टोन को स्थानीय भाषा में खण्डा की खान कहते हैं। करौली जिले में यह खनिज मुख्यतः गहरे लाल एवं क्रीम कलर का पाया जाता है इससे बनी हुई भवनों की दीवारें मजबूत होती है तथा इसके उपयोग से सीमेन्ट व चूने की खपत भी कम होती है। खनिज विभाग द्वारा जिले में मैसेनरीज स्टोन के 107 खनन पट्टे जारी किए हुए हैं जिनमें एक हजार के लगभग लोगों को प्रतिदिन रोजगार उपलब्ध होता है।

घीया पत्थर-[संपादित करें]

      सफेद, हल्का हरा व भूरे रंग का पाए जाने वाला घीया पत्थर मुख्यतः सौन्दर्य प्रसाधनों में काम लिया जाता है। करौली जिले में नादौती एवं टोडाभीम तहसीलों में इसकी अनेक खाने है। इसे सोप स्टोन भी कहते है। इसका उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग के अलावा पेपर एवं रबर उद्योग में फीलर के रूप में लिया जाता है। करौली में इसकी खाने मोरा, घाट, धवान, धौलेटा, रैवाली, पाल व जीतकी गांवों में स्थित है। यह खनिज जिले में खनन के उपरान्त मूल रूप में एवं क्रेसरों पर पिसाई के बाद राज्य के अन्य शहरों एवं प्रान्तों में भेजा जाता है। खासकर दिल्ली व हरियाणा प्रान्त में इसकी सप्लाई बडे स्तर पर की जाती है। जिले में खनिज विभाग द्वारा सोप स्टोन के 11 खनन पट्टे जारी किए हुए है जिनमें 100 के लगभग श्रमिकों को प्रतिदिन रोजगार मिलता है।

क्ले-[संपादित करें]

      करौली में क्ले दो प्रकार का पाया जाता है चाइना क्ले एवं सफेद क्ले। इस खनिज का उपयोग सिरेमिक इन्डस्ट्रीज एवं पाटर््ीज इन्डस्ट्रीज में लिया जाता है जिनसे वर्तन, विद्युत रोधी उपकरण एवं खिलौने बनाएं जाते है। जिले में चाइना क्ले व सफेद क्ल सपोटरा क्षेत्रा में पाया जाता है। खनिज विभाग द्वारा 9 स्थानों पर इसके खनन पट्टे जारी किए हुए है जिसके तहत नारौली डांग भोलूपुरा, पदमपुरा, बापोती, कावटीपुरा के क्षेत्रों मंे खनन कार्य किया जाता है इसके खनन से 300 लोगों को प्रतिदिन रोजगार मिलता है।

हैण्डमील स्टोन-[संपादित करें]

      आदिकाल से आटा पीसने के लिए काम आने वाली हाथ चक्की के पाट कठोर व मजबूत पत्थर से बनाएं जाते थे यह पत्थर वजन में हल्का होता है। करौली जिले में मासलपुर क्षेत्रा के ताली गांव के चक्की के पाट आस-पास ही नहीं वरन् अन्य प्रदेशों में भी प्रसिद्ध है। गहरे गेरूए रंग का यह पत्थर अपनी मजबूती के लिए जाना जाता है। खनिज विभाग द्वारा मासलपुर क्षेत्रा में इसके 5 खनन पट्टे जारी किए हुए है जिनमें 50 लोगों को प्रत्यक्ष तथा 100 लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलता है।

      इसके अलावा करौली में वैरायटीज जैसे महत्वपूर्ण खनिज के भी भण्डार है। इस खनिज का उपयोग पैट्रोलियम कुए खोदने, रंग-रोगन तथा वौरियम कैमिक्लस बनाने में होता है। इस खनिज के भण्डार सपोटरा क्षेत्रा में पाए जाते है। जिले में साधा खडिया के भी भण्डार पाए जाते है। खनिज विभाग द्वारा खडिया के 2 खनन पट्टे जारी किए हुए है जिसमें 50 व्यक्तियों को प्रतिदिन रोजगार मिलता है। इसका उपयोग भवन पुताई, चाक निर्माण, प्लास्टर ऑफ पेरिस निर्माण में लिया जाता है।

यातायात[संपादित करें]

यातायात की दृष्टि से करौली जिले में अभी बहुत कुछ होना बाकी है। जिला मुख्यालय को रेलवे लाईन से जोडने की परियोजना, चम्बल नदी पर मंडरायल को मध्यप्रदेष से जोडने वाले पुल का निर्माण, राष्ट्रीय राजमार्ग 11 बी, करौली-हिण्डौन-महवा मेगा हाईवे, करौली में वाईपास का निर्माण जैसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्टों के पूरा होने से न केवल यहां बडे स्तर पर लोगो को रोजगार मिलेगा बल्कि एक नए करौली का उदय होगा।

पेयजल[संपादित करें]

पेयजल आपूर्ति की दृष्टि से जिले में वर्तमान में भूगर्भ जल पर आधारित परियोजनाएं ही हैं। गर्मी के मौसम में डांग क्षेत्र एवं पेयजल समस्याग्रस्त गांवों में टेंकरों से पेयजल सप्लाई कर नागरिकों को पेयजल आपूर्ति की जाती है। आने वाले समय में सतही जल पर आधारित परियोजनाएं तैयार करने हेतु नींदर बांध, कालीसिल, पांचना, जगर बांध बेहद उपयोगी सिद्ध होगें   राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत चम्बल लिफ्ट परियोजना से जिले की हिण्डौन, नादौती, टोडाभीम एवं करौली उपखण्ड के सैंकडों गांवों में चम्बल का पानी मिलने से पेयजल समस्या से स्थाई छुटकारा मिल सकेगा। वर्तमान में स्थानीय नागरिकों, स्वायत्तषासी संस्थाओं को पेयजल के दुरूपयोग को रोक कर वर्षा जल के संरक्षण पर अधिक से अधिक ध्यान देना होगा।

नदियां[संपादित करें]

राजस्थान राज्य के पूर्व दिशा में स्थित करौली जिला नदियों के मामले में समृद्वशाली है। इसके दक्षिण-पूरब दिशा में चम्बल नदी बहती है तो गंभीर नदी का उद्गम स्थल भी करौली है। यहां भद्रावती, भैसावट, मॉची, बरखेडा एवं अटा पांच नदियों का पानी रोक कर पांचना बांध बनाया गया है जो जिले का सबसे बडा बांध है। जिले में 55 बांध है जिसमें से 42 बांध पंचायत समितियों के अधीन, 13 बांध जल संसाधन विभाग के अधीन है। तीन बांध मध्यम श्रेणी के व 10 बांध लघु स्तर के है। जिले में वृहद सिंचाई परियोजना नहीं है। जल संसाधन विभाग के बांधों में 6637.03 एमसीएफटी पानी का संग्रह किया जाता है। जिले में चम्बल को छोडकर किसी भी नदी में वर्षभर पानी नही बहता है।

1.चम्बल-[संपादित करें]

करौली जिले की मध्यप्रदेश राज्य से अन्तरराज्यीय सीमा का निर्धारण चम्बल नदी द्वारा किया गया है। जिले के मण्रायल व सपोटरा उपखण्ड की सीमा में होकर चम्बल नदी बहती है। करौली जिले की सीमा में ऐतिहासिक रहुघाट का मनोरम दृश्य हर किसी को लुभाता है तो करणपुर में ऐतिहासिक देवगिरी व उंटगिरी किलो के पास घडियालों की अटखेलियां हर किसी एडवेंचर प्रमी को अपनी ओर खिचती है। रहुघाट पर पन बिजली परियोजना प्रस्तावित की गई है। 

2.गम्भीर -[संपादित करें]

पांचना बांध

इस नदी का उद्गम करौली जिले से ही होता है। गम्भीर नदी पांच प्रमुख नदियों के संगम से बनी है जिस पर पांचना बांध बनाया गया है। यह करौली व हिण्डौन तहसील क्षेत्रा से गुजरते हुए भरतपुर जिले के बयाना उपखण्ड में प्रवेश करती है। यह नदी भरतपुर जिले से उत्तरप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर यमुना नदी में मिल जाती है। गम्भीर नदी से ही विश्व प्रसिद्व घना पक्षी अभ्यारण को पानी मिलता है। स्थानीय लोगों के अनुसार कभी यह नदी वर्ष भर बहती थी वर्तमान में यह नदी वर्षाती नदी है।

3.कालीसिल-[संपादित करें]

इस नदी का उद्गम व समापन भी करौली जिले में हैं, जिले के प्रसिद्व धार्मिक स्थल  कैलादेवी की पहाडियों से शुरू होकर यह नदी सपोटरा तहसील के रामठरा क्षेत्रा तक पहुचती है। कालीसिल नदी पर कैलादेवी में श्रद्धालुओं के स्नान व पूजा अर्चना के लिए एनीकट तथा सपोटरा के पास कालीसिल बांध बना रखा है। जिससे हजारों हैक्टेयर क्षेत्रा में नहरो द्वारा सिचाई की जाती है। यह नदी वर्षाती नदी है।

4.भ्रद्रावती-[संपादित करें]

इस नदी का उद्गम चुलीदह की पहाडियों से होता है, यह नदी करौली शहर के परकाटे से गुजरती हुई पांचना बांध में जाकर मिलती है। रियासत काल में इस नदी का विशेष महत्व रहा है। इसके किनारे करौली का महल व शाही कुण्ड दर्शनीय हैं अब यह नदी वर्षाती है।

5.भैसावट- [संपादित करें]

यह नदी नाले के रूप में भैंसावट क्षेत्रा से निकलती है, इसमें वर्षा के समय छोटे-छोटे नाले मिलकर नदी का रूप धारण करते है यह नदी पांचना बांध में जाकर मिलती है वर्तमान में यह नदी वर्षाती  है।

6.मांची-[संपादित करें]

इस नदी का उद्गम स्थल भैसावट की पहाडियां ही है यह पांचना में मिलने से पूर्व भैसावट नदी में मिल जाती है। यह नदी वर्षाती भी है।

7.बरखेडा-[संपादित करें]

इस नदी का उद्गम कैला देवी मार्ग की पहाडियों से होता है यह करौली शहर के पश्चिम से गुजरती हुई पांचना बांध में जाकर मिलती है यह नदी वर्षाती नदी है।

8.अटा-[संपादित करें]

यह नदी गंगापुर मार्ग पर स्थित चैनपुर क्षेत्रा की पहाडियों से निकलती है तथा बरखेडा नदी में मिलकर पांचना बांध में समाहित हो जाती है, यह नदी वर्षाती है।

9.जगर-[संपादित करें]

इस नदी का उद्गम स्थल हिण्डौन उपखण्ड के पूर्व दिशा में स्थित डांग क्षेत्रा की पहाडिया है, इस नदी पर हिण्डौन से 7 किमी दूरी पर जगर बांध बनाया गया है जिससे कृषि क्षेत्रा की सिचाई के साथ - साथ इैन्टक वैल बनाकर हिण्डौन में पेयजल सप्लाई भी होती है। यह नदी भी पूर्णतः वर्षा पर ही निर्भर है।

करौली जिला एक ऐतिहासिक स्थान है। यह पाल राज्वन्श की राजधानी थी। श्री गोपाल सिंह जी यहाँ के पहले राजा थे। करौली रियासत के चार गावँ खास है जो राज दरबार से करीब है। मनोहरपुरा, खुवपुरा, इनायती और राम पुर। मनोहरपुरा, करौली जिले से 25 किलोमीटर दूर्, कैला देवी के मन्दिर के पास स्थित है। राजस्थान सरकार द्वारा 1 मार्च 1997 को सवाईमाधोपुर जिले की पांच तहसीलों को मिलाकर नविन जिले करौली का गठन किया गया|19 जुलाई 1997 को इस जिले का विधिवत उद्घाटन किया गया | जिले के गठन के बाद दो अन्य तहसील मंडरायल व मासलपुर, दो अन्य उपखंड नादौती एवं मंडरायल और एक पंचायत समिति मंडरायल का सृजन हो चुका है| इस प्रकार जिले मे अब कुल 6 उपखंड, 7 तहसील तथा 6 विकास खंड है|

करौली में दो प्राचीन मन्दिर है। कैला देवी और मदनमोहन जी के मन्दिर। कैला देवी का मन्दिर कालीसिल नदी के किनारे स्थित है। कैला देवी मन्दिर से 1 किलोमीटर कि दूरी पर केदार बाबा की गुफा है, यात्री यहाँ भी जाते हैं | कैला देवी मन्दिर मे लक्ष्मी जी, व कालीजी के दर्शन होते हैं और मन की मुराद पूरी होती है करौली में तीन प्राचीन मन्दिर ओर है। नंदे भोमिया,महावीर जैन मंदिर ओर मेहंदीपुर बालाजी मंदिर ओर करौली में मिट्टी से बना एक बिसाल पाचना बाध है नंदे भोमिया की जात पर लक्खी मेला भी भरता है और मंदिर पर आने से मन की मुराद पूरी होती है मंदिर करौली से 7 किलोमीटर दूर है

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Name Census 2011, Rajasthan data" (PDF). censusindia.gov.in. 2012. मूल से 31 दिसंबर 2016 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 28-Feb-2012. |accessdate= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
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  3. "Rajasthan Vidhansabha" [राजस्थान विधानसभा क्षेत्र एवं विधायक]. राजस्थान विधानसभा. मूल से 17 जून 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 जून 2017.
  4. "Lonely Planet Rajasthan, Delhi & Agra," Michael Benanav, Abigail Blasi, Lindsay Brown, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012332
  5. "Berlitz Pocket Guide Rajasthan," Insight Guides, Apa Publications (UK) Limited, 2019, ISBN 9781785731990
  6. "करौली जिला का आधिकारिक फेसबुक पेज". आधिकारिक फेसबुक पेज.
  7. "करौली जिला का आधिकारिक यू टयूब चेनल". करौली जिला का आधिकारिक यू टयूब चेनल. मूल से 23 जून 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 3 जुलाई 2017.

26°18′N 26°29′E / 26.3°N 26.49°E / 26.3; 26.4976°21′N 77°16′E / 76.35°N 77.26°E / 76.35; 77.26