राजस्थानी साहित्य

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राजस्थानी भाषा में पर्याप्त प्राचीन साहित्य उपलब्ध है। जैन यति रामसिंह तथा हेमचंद्राचार्य के दोहे राजस्थानी-गुजराती के अपभ्रंश कालीन रूप का परिचय देते हैं। इसके बाद भी पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में जैन कवियों के फागु, रास तथा चर्चरी काव्यों के अतिरिक्त अनेक गद्य कृतियाँ उपलब्ध हैं। पद्मनाभ कृत प्रसिद्ध गुजराती काव्य "कान्हडदे प्रबन्ध" वस्तुतः पुरानी पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी की ही कृति है। इसी तरह "प्राकृतपैंगलम्" के अधिकांश छंदों की भाषा पूर्वी राजस्थानी की भाषा-प्रकृति का संकेत करती है। यदि राजस्थानी की इन साहित्यिक कृतियों को अलग रख दिया जाए तो हिंदी और गुजराती के साहित्यिक इतिहास को मध्ययुग से ही शुरु करना पड़ेगा। पुरानी राजस्थानी की पश्चिमी विभाषा का वैज्ञानिक अध्ययन डॉ॰ एल. पी. तेस्सितोरी ने "इंडियन एंटिववेरी" (1914-16) में प्रस्तुत किया था, जो आज भी राजस्थानी भाषाशास्त्र का अकेला प्रामाणिक ग्रंथ है। हिंदी में सुनीति कुमार चटर्जी की ""राजस्थानी भाषा"" (सूर्यमल्ल के भाषण) के अतिरिक्त राजस्थानी भाषा के विशय में कोई प्रामाणिक भाषाशास्त्रीय कृति उपलब्ध नहीं है। वैसे दो तीन पुस्तकें और भी हैं, पर उनका दृष्टिकोण परिचयात्मक या साहित्यिक है, शुद्ध भाषाशास्त्रीय नहीं। ग्रियर्सन की लिंग्विस्टिक सर्वे में राजस्थानी बोलियों का विस्तृत परिचय अवश्य मिलता है।

पश्चिमी राजस्थानी का मध्ययुगीन साहित्य समृद्ध है। प्राचीन राजस्थानी की साहित्यिक भाषा डिंगल है, जिसमें पर्याप्त चारण-साहित्य उपलब्ध है।[1] "ढोला मारू रा दूहा" जैसे लोक-काव्यों ने और "बेलि क्रिसन रुकमणी री" जैसी अलंकृत काव्य कृतियों ने राजस्थानी की श्रीवृद्धि में योगदान दिया है। भाषागत विकेंद्रीकरण की नीति ने राजस्थानी भाषाभाषी जनता में भी भाषा संबंधी चेतना पैदा कर दी है और इधर राजस्थानी में आधुनिक साहित्यिक रचनाएँ होने लगी है।

राजस्थानी साहित्य ई॰ सन् १००० से विभिन्न विधाओं में लिखी गई है। लेकिन सर्वसम्मत रूप से माना जाता है कि राजस्थानी साहित्य पर कार्य सूरजमल मिश्रण की रचनाओं के बाद आरम्भ हुआ।[2] उनका मुख्य कार्य वंश भास्कर और वीर सतसई में है। वंश भास्कर [[राजपूत राजकुमारों का उल्लेख आता है जिन्होंने राजपूताना (वर्तमान राजस्थान) का नेतृत्व किया।

मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य में मुख्यतः काव्यात्मक है और यह सामान्यतः राजस्थान के वीरों की गाथाओं से भरपूर है।

पूर्व राजस्थानी साहित्य प्रमुखतः जैन संतो द्वारा रचित है। पूर्व राजस्थानी को मारू गुर्जर (या डिंगल) के रूप में जाना जाता है जो गुजराती के बहुत निकट है।

वर्गीकरण[संपादित करें]

सम्पूर्ण राजस्थानी साहित्य को पाँच मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है-

चारण साहित्य[संपादित करें]

चारण जाति ने विभिन्न क्षेत्रों में कई उत्कृष्ट कवि, इतिहासकार, योद्धा, निष्ठावान राजदरबारी और विद्वान प्रदान किए हैं। चारण काव्य सदृढ़ रूप से 8-10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उपलब्ध हैं। अनगिनत संख्या में गीत, दोहे, समग्र रचनाएँ, ऐतिहासिक लेखन, और कई अन्य छंद और गद्य रचनाएँ चारण साहित्य का भाग हैं। पिछली छह शताब्दियों के दौरान उनके लेखन का निरंतर प्रवाह रहा है। इतिहासकारों में सूर्यमल्ल मिश्रण, कविराजा बाँकीदास, कविराजा दयालदास और कविराजा श्यामलदास इस क्षेत्र के दिग्गज हैं। चारण शैली के लेखकों ने केवल एक रस में ही नहीं, बल्कि एक ही समय में वीर काव्य, श्रृंगार काव्य और भक्ति काव्य में लिखकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।[3] चारण साहित्य का वीर काव्य योद्धाओं को अपनी भूमि, धर्म, नारी और उत्पीड़ितों के सम्मान के लिए मरते दम तक संघर्ष करने को प्रेरित करता है।[4]

चारण कवियों ने अपने साहित्य में डिंगल (प्राचीन राजस्थानी), संस्कृत, पिंगल (डिंगल से प्रभावित ब्रजभाषा), अपभ्रंश, राजस्थानी (मारवाड़ी, मेवाड़ी, आदि) व गुजराती के साथ-साथ उर्दू-फारसी आदि भाषाओं का प्रयोग किया है। चारणों के अलावा, इनके हठधर्मी दृष्टिकोण का पालन अन्य समकालीन कवियों, जैसे भाट, ब्राह्मण, ढाढ़ी, सेवग (मग-ब्राह्मण), राजपूत, मोतीसर, रावल, पंचोली (कायस्थ) और अन्य लोगों ने भी किया, जिनमें जैन धर्म के लोग भी शामिल थे, और चारण साहित्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह एक बहुत ही जीवंत और सशक्त साहित्य था, और इसीलिए इसने पश्चिमी-भारत की रेगिस्तानी भूमि और इसके नायकों के भाग्य को आकार देने और ढालने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।[4]

चारण-साहित्य का वर्गिकरण
काव्य-विषय अनुसार (झवेरचन्द मेघाणी)

स्रोत: [5][6]

ग्रंथ-शैली अनुसार

स्रोत: [7]

1 स्तवन देवी-देवताओं की स्तुतियाँ 1 ख्यात राजस्थानी साहित्य के इतिहासपरक ग्रन्थ जिनमें मध्यकालीन भारत के युद्धों, बलिदानों, वीरता और शौर्य के कृत्यों का इतिहास शामिल है। उदाहरण - मुहणोत नैणसी री ख्यात, बांकीदास री ख्यात, दयालदास री ख्यात, मूँदियाड़ री ख्यात आदि।
2 वीरदवालो युद्धनायकों, सन्तों और संरक्षकों की प्रसंशा 2 वंशावली इस श्रेणी की रचनाओं में राजवंशों की वंशावलियाँ विस्तृत विवरण सहित लिखी गई हैं, जैसे राठौड़ा री वंशावली, राजपूतों री वंशावली आदि।
3 वरन्नो युद्ध का वर्णन 3 दवावैत यह उर्दू-फारसी की शब्दावली से युक्त राजस्थानी कलात्मक लेखन शैली है, किसी की प्रशंसा दोहों के रूप में की जाती है।
4 उपलम्भो उन राजाओं की आलोचना/निन्दा जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके कोई गलत कार्य करते हैं। 4 वार्ता या वात वात का अर्थ कथा या कहानी से है । राजस्थान एंव गुजरात में ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रेमपरक एवं काल्पनिक कथानकों पर अपार वात साहित्य है।
5 थेकड़ी किसी महनायक के साथ किए गए विश्वासघात की निंदा करना 5 रासो (सैन्य महाकाव्य) काव्य ग्रन्थ जिनमें शासकों के युद्ध अभियानों व वीरतापूर्ण कृत्यों के विवरण के साथ उनके राजवंश का विवरण भी मिलता है। बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो आदि मुख्य रासो ग्रन्थ हैं।
6 मरस्या (विलाप-काव्य) योद्धाओं, संरक्षको, मित्रों या राजा के मृत्योपरान्त शोक व्यक्त करने के लिए रचित काव्य, जिसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का वर्णन किया जाता है। 6 वेलि वीरता, इतिहास, विद्वता, उदरता, प्रेम-भावना, स्वामिभक्ति आदि घटनाओं का उल्लेख होता है। पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा रचित 'वेलि किसन रुकमणी री' प्रसिद्ध वेलि ग्रन्थ है।
7 प्रेमकथाएँ 7 विगत यह भी इतिहासपरक ग्रन्थ लेखन की शैली है। 'मारवाड़ रा परगना री विगत' इस शैली की प्रमुख रचना है।
8 प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन, ऋतु वर्णन, उत्सव वर्णन 8 प्रकास किसी वंश अथवा व्यक्ति विषेष की उपलब्धियाँ या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियाॅं ‘प्रकास‘ कहलाती है। राजप्रकास, पाबू प्रकास, उदय प्रकास आदि इनके मुख्य उदाहरण है।
9 अस्त्र-शस्त्र का वर्णन 9 वचनिका यह एक गद्य-पद्य तुकान्त रचना होती है, जिससे अन्त्यानुप्रास मिलता है। राजस्थानी साहित्य में "अचलदास खींची री वचनिका" एवं "राठौड़ रतनसिंह महेसदासोत री वचनिका" प्रमुख हैं। वचनिका मुख्यतः अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी में लिखी हुई हैं।
10 सिंह (शेर), घोड़े, ऊँट और भैंसों की प्रसंसा 10 हक़ीक़त
11 शिक्षाप्रद एवं व्यावहारिक चतुराई से सम्बन्धित कहावतें 11 ख़त
12 प्राचीन महाकाव्य 12 पट्टा
13 अकाल और दुर्दिन के समय प्रजा की पीड़ा का वर्णन 13 परवाना

जैन साहित्य[संपादित करें]

जैन धर्मावलम्बियों यथा- जैन आचार्यों, मुनियों, यतियों एवं श्रावकों तथा जैन धर्म से प्रभावित साहित्यकारों द्वारा वृहद् मात्रा में रचा गया साहित्य जैन साहित्य कहलाता है। यह साहित्य विभिन्न प्राचीन मंदिरों के ग्रन्थागारों में विपुल मात्रा में संग्रहित है। यह साहित्य धार्मिक साहित्य है जो गद्य एवं पद्य दोनों में उपलब्ध होता है।

ब्राह्मण साहित्य[संपादित करें]

राजस्थानी साहित्य में ब्राह्मण साहित्य अपेक्षाकृत कम मात्रा में उपलब्ध होता है। कान्हड़दे प्रबन्ध, हम्मीरायण, बीसलदेव रासौ, रणमल छंद आदि प्रमुख ग्रन्थ इस श्रेणी के ग्रन्थ हैं।

संत साहित्य[संपादित करें]

मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन की धारा में राजस्थान की शांत एवं सौम्य जलवायु में इस भू-भाग पर अनेक निर्गुणी एवं सगुणी संत-महात्माओं का आविर्भाव हुआ। इन उदारमना संतों ने ईश्वर भक्ति में एवं जन-सामान्य के कल्याणार्थ विपुल साहित्य की रचना यहाँ की लोक भाषा में की है। संत साहित्य अधिकांशतः पद्यमय ही है।

लोक साहित्य[संपादित करें]

राजस्थानी साहित्य में सामान्यजन द्वारा प्रचलित लोक शैली में रचे गये साहित्य की भी अपार थाती विद्यमान है। यह साहित्य लोक गाथाओं, लोकनाट्यों, प्रेमाख्यानों, कहावतों, पहेलियों एवं लोक गीतों के रूप में विद्यमान है।

प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय[संपादित करें]

1. पृथ्वीराज रासौ (चन्दबरदाई) : इसमें अजमेर के अन्तिम चौहान सम्राट- पृथ्वीराज चौहान तृतीय के जीवन चरित्र एवं युद्धों का वर्णन है। यह पिंगल में रचित वीर रस का महाकाव्य है। माना जाता है कि चन्द बरदाई पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि एवं मित्र थे।

2. खुमाण रासौ ( दलपत विजय ) : पिंगल भाषा के इस ग्रन्थ में मेवाड़ के बप्पा रावल से लेकर महाराजा राजसिंह तक के मेवाड़ शासकों का वर्णन है।

3. विरूद छतहरी, किरतार बावनौ (कवि दुरसा आढ़ा) : विरूद् छतहरी महाराणा प्रताप को शौर्य गाथा है और किरतार बावनौ में उस समय की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को बतलाया गया है। दुरसा आढ़ा अकबर के दरबारी कवि थे। इनकी पीतल की बनी मूर्ति अचलगढ़ के अचलेश्वर मंदिर में विद्यमान है।

4. बीकानेर रां राठौड़ा री ख्यात (दयालदास सिंढायच) : दो खंडोे के ग्रन्थ में जोधपुर एवं बीकानेर के राठौड़ों के प्रारंम्भ से लेकर बीकानेर के महाराजा सरदार सिंह के राज्यभिषेक तक की घटनाओं का वर्णन है।

5. सगत रासौ (गिरधर आसिया) : इस डिंगल ग्रन्थ में महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह का वर्णन है। यह 943 छंदों का प्रबंध काव्य है। कुछ पुस्तकों में इसका नाम सगतसिंह रासौ भी मिलता है।

6. हम्मीर रासौ (जोधराज) : इस काव्य ग्रन्थ में रणथम्भौर शासक राणा चौहान की वंशावली व अलाउद्दीन खिलजी से युद्ध एवं उनकी वीरता आदि का विस्तृत वर्णन है।

7. पृथ्वीराज विजय (जयानक) : संस्कृत भाषा के इस काव्य ग्रन्थ में पृथ्वीराज चैहान के वंशक्रम एवं उनकी उपलब्धियाँ का वर्णन किया गया है। इसमें अजमेर के विकास एवं परिवेश की प्रामाणिक जानकारी है।

8. अजीतोदय (जगजीवन भट्ट) : मुगल संबंधों का विस्तृत वर्णन है। यह संस्कृत भाषा में है।

9. ढोला मारू रा दूहा (कवि कल्लोल) : डिंगलभाषा के शृंगार रस से परिपूर्ण इस ग्रन्थ में ढोला एवं मारवणी का प्रेमाख्यान है।

10. गजगुणरूपक (कविया करणीदान) : इसमें जोधपुर के महाराजा गजराज सिंह के राज्य वैभव तीर्थयात्रा एवं युद्धों का वर्णन है। गाडण जोधपुर महाराजा गजराज सिंह के प्रिय कवि थे।

11. सूरज प्रकास (कविया करणीदान) : इसमें जोधपुर के राठौड़ वंश के प्रारंभ से लेकर महाराजा अभयसिंह के समय तक की घटनाओं का वर्णन है। साथ ही अभयसिंह एवं गुजरात के सूबेदार सरबुलंद खाँ के मध्य युद्ध एवं अभयसिंह की विजय का वर्णन है।

12. एकलिंग महात्म्य (कान्हा व्यास) : यह गुहिल शासकों की वंशावाली एवं मेवाड़ के राजनैतिक व सामाजिक संगठन की जानकारी प्रदान करता है।

13. मूता नैणसी री ख्यात तथा मारवाड़ रा परगना री विगत (मुहणौत नैणसी) : जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह प्रथम के दीवान नैणसी की इस कृति में राजस्थान के विभिन्न राज्यों के इतिहास के साथ-साथ समीपवर्ती रियासतों (गुजरात, काठियावाड़, बघेलखंड आदि) के इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है। नैणसी को राजपूताने का ‘अबुल फ़जल‘ भी कहा गया है। 'मारवाड़ रा परगना री विगत' को 'राजस्थान का गजेटियर' कह सकते हैं।

14. पद्मावत (मलिक मोहम्मद जायसी) : 1543 ई, लगभग रचित इस महाकाव्य में अलाउद्दीन खिलजी एवं मेवाड़ के शासक रावल रतनसिंह की रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की इच्छा का वर्णन है।

15. विजयपाल रासौ (नल्ल सिंह) : पिंगल भाषा के इस वीर-रसात्मक ग्रन्थ में विजयगढ़ (करौली) के यदुवंशी राजा विजयपाल की दिग्विजय एवं पंग लड़ाई का वर्णन है। नल्लसिंह सिरोहिया शाखा का भाट था और वह विजयगढ़ के ययुवंशी नरेश विजयपाल का आश्रित कवि था।

16. नागर समुच्चय (भक्त नागरीदास) : यह ग्रन्थ किशनगढ़ के राजा सावंतसिंह (नागरीदास) की विभित्र रचनाओं का संग्रह है सावंतसिंह ने राधाकृष्ण की प्रेमलीला विषयक श्रृंगार रसात्मक रचनाएँ की थी।

17. हम्मीर महाकाव्य (नयनचन्द्र सूरि) : संस्कृत भाषा के इस ग्रन्थ में जैन मुनि नयनचन्द्र सूरि ने रणथम्भौर के चौहान शासकों का वर्णन किया है।

18. वेलि किसन रुक्मणी री (पृथ्वीराज राठौड़) : अकबर के नवरत्नों में से कवि पृथ्वीराज बीकानेर शासक रायसिंह के छोटे भाई तथा ‘पीथल‘ नाम से साहित्य रचना करते थे। इन्होंने इस ग्रन्थ में श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी के विवाह की कथा का वर्णन किया है। दुरसा आढ़ा ने इस ग्रन्थ को 'पाँचवा वेद' व '१९वाँ पुराण' कहा है।

19. कान्हड़दे प्रबन्ध (पद्मनाभ) : पद्मनाभ जालौर शासक अखैराज के दरबारी कवि थे। इस ग्रन्थ में इन्होंने जालौर के वीर शासक कान्हड़दे एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य हुए यु़द्ध एवं कान्हड़दे के पुत्र वीरमदे अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा के प्रेम प्रसंग का वर्णन किया हे।

20. राजरूपक (वीरभाण) : इस डिंगल ग्रन्थ में जोधपुर महाराजा अभयसिंह एवं गुजरात के सूबेदार सरबुलंद खाँ के मध्य युद्ध (1787 ई,) का वर्णन है।

21. बिहारी सतसई (महाकवि बिहारी) : मध्यप्रदेश में जन्में कविवर बिहारी जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। ब्रजभाषा में रचित इनका यह प्रसिद्ध ग्रन्थ शृंगार रस की उत्कृष्ट रचना है।

22. बाँकीदास री ख्यात (बाँकीदास) (1838-90 ई,) : जोधपुर के राजा मानसिंह के काव्य गुरू बाँकीदास द्वारा रचित यह ख्यात राजस्थान का इतिहास जानने का स्त्रोत है। इनके ग्रन्थों का संग्रह ‘बाँकीदास ग्रन्थवली‘ के नाम से प्रकाशित है। इनकें अन्य ग्रन्थ मानजसोमण्डल व दातार बावनी भी है।

23. कुवलमयाला (उद्योतन सूरी) : इस प्राकृत ग्रन्थ की रचना उद्योतन सूरी ने जालौर में रहकर 778 ई, के आसपास की थी जो तत्कालीन राजस्थान के सांस्कृतिक जीवन की अच्छी झाकी प्रस्तुत करता है।

24. ब्रजनिधि ग्रन्थावली : यह जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह द्वारा रचित काव्य ग्रन्थों का संकलन है।

25. हम्मीद हठ : बूंदी शासन राव सुर्जन के आश्रित कवि चन्द्रशेखर द्वारा रचित।

26. प्राचीन लिपिमाला, राजपुताने का इतिहास (पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा) : पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा भारतीय इतिहास साहित्य के पुरीधा थे, जिन्होंने हिन्दी में सर्वप्रथम भारतीय लिपि का शास्त्र लेखन कर अपना नाम गिनीज बुक मे लिखवाया। इन्होंने राजस्थान के देशी राज्यों का इतिहास भी लिखा है। इनका जन्म सिरोही रियासत में 1863 ई. में हुआ था।

27. वचनिया राठौड़ रतन सिंह महे सदासोत री (जग्गा खिड़िया) : इस डिंगल ग्रंथ में जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना एवं शाहजहाँ के विद्रोही पुत्र औरंगजेब व मुराद की संयुक्त सेना के बीच धरमत (उज्जैन, मध्यप्रदेश) के युद्ध में राठौड़ रतनसिंह के वीरतापूर्ण युद्ध एवं बलिदान का वर्णन हे।

28. बीसलदेव रासौ (नरपति नाल्ह) : इसमें अजमेर के चौहान शासक बीसलदेव (विग्रहरा चतुर्थ) एवं उनकी रानी राजमती की प्रेमगाथा का वर्णन है।

29. रणमल छंद (श्रीधर व्यास) : इनमें पाटन के सूबेदार जफर खाँ एवं इडर के राठौड़ राजा रणमल के मध्य युद्ध (संवर्त 1454) का वर्णन है। दुर्गा सप्तशती इनकी अन्य रचना है। श्रीधर व्यास राजा रणमल का समकालीन था।

30. अचलदास खींची री वचनीका (शिवदास गाडण) : सन् 1430-35 के मध्य रचित इस डिंगल ग्रन्थ में मांडू के सुल्तान हौशंगशाह एवं गागरौन के शासक अचलदास खींची के मध्य हुए युद्ध (1423 ई.) का वर्णन है एवं खींची शासकों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है।

31. राव जैतसी रो छंद (बीठू सूजाजी) : डिंगल भाषा के इस ग्रन्थ में बाधर के पुत्र कामरान एवं बीकानेर नरेश राव जैतसी के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है।

32. रूक्मणी हरण, नागदमण (सायांजी झूला) : ईडन नेरश राव कल्याणमल के आश्रित कवि सायाजी द्वारा इन डिंगल ग्रन्थों की रचना की गई।

33. वंश भास्कर (सूर्यमल्ल मिश्रण) (1815-1868 ई.) - वंश भास्कर को पूर्ण करने का कार्य इनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने किया था। इनके अन्य ग्रन्थ है -बलवंत विलास, वीर सतसई व छंद-मयूख उम्मेदसिंह चरित्र, बुद्धसिंह चरित्र।

34. वीरविनोद (कविराज श्यामलदास) : मेवाड़ (वर्तमाान भीलवाड़ा) में 1836 ई. में जन्में एवं महाराण सज्जन के आश्रित कविराज श्यामलदास द्वारा पाँच खंडों में रचित इास ग्रन्थ पर कविराज की ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘केसर-ए-हिन्द‘ की उपाधि प्रदान की गई। इस ग्रन्थ में मेंवाड़ के विस्तृत इतिहास वृृत्त सहित अन्य संबंधित रियासतों का भी इतिहास वर्णन है। मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह ने श्यामलदास को ‘कविराज‘ एवं सन् 1888 में ‘महामहोपाध्याय‘ की उपाधि से विभूषित किया था।

35. चेतावणी रा चुँगट्या (केसरी सिंह बारहट) : इन दोहों के माध्यम से कवि केसरीसिंह बारहठ ने मेवाड के स्वाभिमानी महाराजा फतेहसिंह को 1903 ई, के दिल्ली में जाने से रोका था। ये मेवाड़ के राज्य कवि थे।

36. केसर-विलास (शिवचंद्र भरतिया) : आधुनिक राजस्थान का प्रथम नाटक (1900ई.)है। आधुनिक राजस्थान का प्रथम उपन्यास कनक-सुन्दरी(1903ई,) की रचना भी शिवचंद्र भरतिया ने ही की थी। प्रथम राजस्थानी कहानी माने जाने वाली विश्रांत प्रवास (1904ई.) इनके द्वारा रचित है।[1] Archived 2023-03-02 at the वेबैक मशीन

राजस्थानी के साहित्य-सम्बन्धी शब्द[संपादित करें]

  • ख्यात : राजस्थानी साहित्य के इतिहासपरक ग्रंथ जिनकी रचना तत्कालीन शासकों ने अपनी मान मर्यादा एवं वंशावली के चित्रण हेतु करवाई हो, ख्यात कहलाती है।
  • वंशावली : राजवंशों की वंशावलियां विस्तृत विवरण सहित।
  • वात : वात का अर्थ ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रेमपरक व काल्पनिक कथा या कहानी से है।
  • प्रकास : किसी वंश या व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों पर प्रकाश डालने वाली कृतियां।
  • वचनिका : यह गद्य-पद्य तुकांत रचना होती है।
  • मरस्या : राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्यु के बाद शोक व्यक्त करने के लिए रचित काव्य।
  • दवावैत : यह उर्दू फारसी की शब्दावली से युक्त राजस्थानी कलात्मक लेखन शैली है।
  • रासौ : राजाओं की प्रशंसा में लिखे गये विशाल काव्य ग्रंथ।
  • वेलि : राजस्थानी वेलि साहित्य में शासकों व सामंतों की वीरता, इतिहास, उदारता व वंशावली का उल्लेख होता है।
  • विगत : इतिहास परक रचनाएं।
  • निसाणी : किसी व्यक्ति या घटना का स्मरण दिलाने वाली रचना।

इनमें से ख्यात, वात, वित, वंशावलि - गद्य रूप में होतीं हैं जबकि निसाणी, गीत, रासौ, वेलि पद्य रूप में होते हैं।

ये भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Mayaram, Shail (2006). Against History, Against State (अंग्रेज़ी में). Permanent Black. पृ॰ 43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7824-152-4. The lok gathā (literally, folk narrative) was a highly developed tradition in the Indian subcontinent, especially after the twelfth century, and was simultaneous with the growth of apabhransa, the literary languages of India that derived from Sanskrit and the Prakrits. This developed into the desa bhāṣā, or popular languages, such as Old Western Rajasthani (OWR) or Marubhasa, Bengali, Gujarati, and so on. The traditional language of Rajasthani bards is Dingal (from ding, or arrogance), a literary and archaic form of old Marwari. It was replaced by the more popular Rajasthani (which Grierson calls old Gujarati) that detached itself from western apabhransa about the thirteenth century. This language was the first of all the bhasas of northern India to possess a literature. The Dingal of the Rajasthani bards is the literary form of that language and the ancestor of the contemporary Marvari and Gujarati.
  2. South Asian arts. (2008). In Encyclopædia Britannica. अभिगमन तिथि: २९ जून २०१३, from Encyclopædia Britannica Online: http://www.britannica.com/eb/article-65211 Archived 2007-11-13 at the वेबैक मशीन
  3. Paniker, K. Ayyappa (1997). Medieval Indian Literature: Surveys and selections (Assamese-Dogri) (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-0365-5. The writers in the Charan style did not write in one rasa only but showed the miracle of their genius by writing at the same time in all, i.e. the vir kavya, shringar kavya and bhakti kavya.
  4. Datta, Amaresh (1987). Encyclopaedia of Indian Literature: A-Devo (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1803-1. The literature of the Charanas mainly consists of Dingala Gitas, Duhas and other metrical writings. They have been well versed historians as well. Suryamall, Bamkidasa, Dayaladasa and Syamaladasa are the giants in the field. As poets they mainly composed heroic poems, and secondly those of devotion to gods, and rarely of erotic nature and other kinds. This literature has proved very inspiring to the Rajaputs who fought until death for the honour of their land, religion, women-folk and the oppressed ones. They were honoured by the ruling chiefs by the gift of fiefs, valuable presents and above all by a show of personal respect which heightened their position in the society.
  5. Meghani Zaverchand Kalidas (1943). Charano Ane Charani Sahitya.
  6. Gujarāta kā madhyakālīna Hindī sāhitya. Hindī Sāhitya Akādamī. 1997. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85469-98-0.
  7. Maru-Bhāratī. Biṛlā Ejyūkeśana Ṭrasṭa. 1972.